Digital Democracy: बेहद अस्थिर ज़मीन पर चल रहा है डिजिटल प्रजातंत्र
एक दशक पहले अरब क्रांति ने- भले ही थोड़े वक़्त के लिए- मगर राजतंत्र और आम लोगों के बीच का फ़ासला मिटा दिया था. सोशल मीडिया से ताक़त हासिल करने वाले डिजिटल प्रजातंत्र (Digital Democracy) का दौर हमारे सामने आ चुका था. उसके बाद से, तकनीक आम लोगों की आवाज़ उठाने का प्रमुख माध्यम बन चुकी है. आज न केवल ज़्यादा से ज़्यादा अवाम की आवाज़ सुनी जा रही है, बल्कि चुनी हुई सरकारें भी आज उन पर अधिक ध्यान दे रही हैं और निश्चित रूप से, बहुत से देशों में आज पहले से कहीं ज़्यादा लोग राजनीति में भागीदारी कर रहे हैं. लेकिन, आज तकनीकी मंचों के नज़रिए और रवैये के साथ, सरकारों द्वारा आम लोगों की निजता में घुसपैठ करने वाली तकनीकों के इस्तेमाल के चलते, पिछले एक दशक के दौरान हासिल की गई उपलब्धियों को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है. पिछले एक साल या उससे भी थोड़े ज़्यादा वक़्त ने हमें डिजिटल प्रजातंत्रों की कमज़ोरियों और उसके सामने खड़े ख़तरों का अच्छे से एहसास कराया है. इनमें से कुछ का सामना करने के लिए पूरी दुनिया को आपस में तालमेल के साथ क़दम उठाने की ज़रूरत है.
पिछले एक साल या उससे भी थोड़े ज़्यादा वक़्त ने हमें डिजिटल प्रजातंत्रों की कमज़ोरियों और उसके सामने खड़े ख़तरों का अच्छे से एहसास कराया है. इनमें से कुछ का सामना करने के लिए पूरी दुनिया को आपस में तालमेल के साथ क़दम उठाने की ज़रूरत है.
पहला तो ये कि जिन डिजिटल मंच जवाबदेही की मांग करने वाली आवाज़ें बुलंद कर रहे हैं, वो ख़ुद को किसी समीक्षा से परे समझने लगे हैं. उन्हें ऐसा लगने लगा है कि वो लोकतांत्रिक नियमों से नहीं, बल्कि सिर्फ़ नफ़ा-नुक़सान की ज़िम्मेदारी से बंधे हुए हैं. सच तो ये है कि लोकतंत्र, कंपनियों के अधिग्रहण के दांव और बाज़ार के मूल्यांकन के आधार पर नहीं चलता है. किसी निवेश से फ़ौरी तौर पर होने वाले मुनाफ़े और किसी डिजिटल समाज की दूरगामी सेहत के बीच का विरोधाभास बिल्कुल स्पष्ट है. अगर नफ़रत, हिंसा और फ़रेब ही संवाद को बढ़ावा देते हैं, और फिर इनसे कंपनियों और डिजिटल मंचों को मुनाफ़ा होता है, तो यक़ीन जानिए कि हमारे समाज बेहद अस्थिर ज़मीन पर खड़े हैं.
तकनीक, प्रजातंत्र की सेवा के काम आए, इसके लिए तकनीक से जुड़े नियम क़ायदों पर दोबारा से विचार करने की ज़रूरत है. बड़ी तकनीकी कंपनियां लोगों को प्रभावित करने या फ़ुसला पाने की जितनी ताक़त रखती हैं, उसी अनुपात में उन कंपनियों को ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव के पैमाने पर भी कसा जाना चाहिए. इससे भी अहम बात ये है कि जवाबदेही का ये ढांचा किसी एक देश या क्षेत्र तक सीमित नहीं होना चाहिए. ये पूरी दुनिया के लिए एक जैसा होना चाहिए. दुनिया के विकासशील या कम विकसित देश वैसी तकनीक के साथ जीते हैं, और उन पर निर्भर हैं, जिन्हें अमीर देशों में तैयार किया गया है. जिन देशों में तकनीकी मंचों को तैयार किया गया है, वहां की संस्थाएं और क़ानून के निर्माताओं ने निश्चित रूप से इनसे जवाब तलब कर रहे हैं. सवाल ये है कि क्या विकासशील देशों और उभरते हुए लोकतांत्रिक विश्व के व्यापक जनमानस को भी ऐसे क़दम उठाने का अधिकार है? और क्या इससे इनकार कर पाना संभव और निष्पक्ष है?
सवाल ये है कि क्या विकासशील देशों और उभरते हुए लोकतांत्रिक विश्व के व्यापक जनमानस को भी ऐसे क़दम उठाने का अधिकार है? और क्या इससे इनकार कर पाना संभव और निष्पक्ष है?
तक़नीकी कंपनियों का गढ़ है अमेरिका
दूसरी बात, ज़्यादातर बड़ी तकनीकी कंपनियां अमेरिका में बनाई गईं और वहीं से संचालित होती हैं. ज़ाहिर है कि इसी वजह से ये कंपनियां, अमेरिकी या यूं कहें कि कैलिफ़ोर्निया वाली अभिव्यक्ति की निरंकुश आज़ादी को बढ़ावा देती हैं. ये बात ज़्यादातर लोकतांत्रिक देशों के क़ानूनों से टकराव पैदा करती है- 6 जनवरी के बाद अमेरिका भी इन देशों में शामिल हो गया है. दुनिया के ज़्यादातर लोकतांत्रिक देशों के संविधान, अभिव्यक्ति की आज़ादी की हिफ़ाज़त करने के साथ साथ, इसकी इजाज़त, कुछ ऐसी शर्तों के साथ देते हैं, जिनका मक़सद ऐसे समाजों में शांति और सह-अस्तित्व बनाए रखना होता है, जिनका इतिहास अमेरिका से पुराना और उससे ज़्यादा विविधता भरे क़िस्सों वाला है.
अभिव्यक्ति की आज़ादी का ये अमेरिकी तरीक़ा, जो तकनीक की ताक़त से अन्य लोकतांत्रिक समाजों पर थोपा जाता है, वो भयंकर अव्यवस्था पैदा करने का नुस्खा है. अगर अमेरिका की बड़ी तकनीकी कंपनियां, वैश्विक तकनीक की अगुवा बनने ख़्वाहिश रखती हैं, तो उन्हें दुनिया भर में लोकतांत्रिक नियमों का पालन करना ही होगा. इन कंपनियों के नियमों की संस्कृति को अन्य देशों को सुझाव या आदेश देने के बजाय, ख़ुद को उन देशों के नियम क़ायदों के हिसाब से ढालना होगा. अगर ये कंपनियां ऐसी समझ नहीं विकसित करतीं, तो फिर नियमों को लेकर टकराव तय है. यहां इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि टकराव की इन दरारों की वजह सामाजिक नियम हैं, न कि तकनीक से होने वाले फ़ायदे.
अगर वैश्विक प्रजातंत्र और वैश्विक स्तर पर मौजूद तकनीक को एक साथ अपना अस्तित्व बनाए रखना है, तो विकासशील और उभरते हुए लोकतांत्रिक देशों को भी उस व्यवस्था का हिस्सा बनना ही होगा, जो तकनीक के नियम बनाती है और जहां पर नैतिकता, एल्गोरिद्म में समाहित है.
अगर वैश्विक प्रजातंत्र और वैश्विक स्तर पर मौजूद तकनीक को एक साथ अपना अस्तित्व बनाए रखना है, तो विकासशील और उभरते हुए लोकतांत्रिक देशों को भी उस व्यवस्था का हिस्सा बनना ही होगा, जो तकनीक के नियम बनाती है और जहां पर नैतिकता, एल्गोरिद्म में समाहित है. आज हमारे तकनीकी भविष्य को तय करने वाली नीतियों और डिज़ाइन से जुड़े फ़ैसलों में विकासशील देशों की साझेदारी की तस्वीर ठीक वैसी ही है, जैसा नक़्शा इस वक़्त महामारी की शिकार हमारी दुनिया में टीकाकरण अभियान का है- प्रजातांत्रिक अफ्रीकी और एशियाई देश टीकाकरण में विकसित देशों से बहुत पीछे हैं.
चीन और उसके जैसे अन्य तानाशाही देश हमारी डिजिटल ज़िंदगियों में ऐसे ही हर जगह मौजूद हैं. उनके हैंडल हम पर बमबारी करते हैं; उनके द्वारा चुने गए नज़रिए हमें अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, और हक़ीक़त को धुंधला बना देते हैं.
2024 की चौतरफ़ा चुनौती
आख़िर में, हमारे प्रजातंत्रों को आज जो आज़ादी हासिल है, उसे सबसे बड़ा ख़तरा उन तानाशाही शासनों से है, जो हमारे लोकतंत्र में हासिल अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए उसी का इस्तेमाल हमारे ख़िलाफ़ करते हैं. उनकी वर्चुअल दुनिया में पेंग शुआई आज़ाद और ख़ुश है; लेकिन हक़ीक़त में वो अपने घर में नज़रबंद है. इन शिकारियों ने ‘वर्चुअल हक़ीक़त’ को एक नया ही अर्थ दे दिया है. हाल ही में चीन में परिवहन पर हो रहे एक सम्मेलन के दौरान एक भारतीय वक्ता का माइक बंद कर दिया गया, क्योंकि उसने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव पर सवाल उठाए थे. हम इस वक़्त एक अभूतपूर्व राजनीतिक मंज़र में हैं, जहां तानाशाही शासन व्यवस्थाएं हमारी परिचर्चाओं को ही अपना हथियार बना रही हैं, जबकि हम उनकी परिचर्चाओं में ख़ामोश कर दिए जाते हैं. क्या कोई एक देश अपने यहां किसी ऐसे राष्ट्र को अपना दूतावास खोलने देगा, अगर वो देश उसे अपनी राजधानी में बराबर के अधिकार देने को तैयार न हो?
हम पहले ही ऐसी विकृत हक़ीक़त में जी रहे हैं. चीन का मीडिया और वहां की सरकार के सोशल मीडिया हैंडल हमारे डिजिटल मंचों पर आक्रामक कूटनीतिक चालें चलते हैं. जबकि हमें उनके डिजिटल मंचों पर ऐसा करने का अधिकार नहीं हासिल है. चीन और उसके जैसे अन्य तानाशाही देश हमारी डिजिटल ज़िंदगियों में ऐसे ही हर जगह मौजूद हैं. उनके हैंडल हम पर बमबारी करते हैं; उनके द्वारा चुने गए नज़रिए हमें अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, और हक़ीक़त को धुंधला बना देते हैं. आख़िर हम अपने सार्वजनिक मंचों, संस्थानों, अकादेमिक क्षेत्र, मीडिया और तकनीकी मंच को उनके लिए खेल का मैदान बनाने से कैसे रोक सकते हैं? हमारे मंचों पर उनकी उपस्थिति एक संस्थागत चुनौती और सुरक्षा का जोखिम है. इससे निपटना ही होगा.
स्वतंत्र समाजों ने हमेशा ही अपनी सरहदों की मज़बूती से हिफ़ाज़त की है, और इसी तरह उन्हें नई डिजिटल सीमाओं की भी सुरक्षा करनी चाहिए.
2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में दख़लंदाज़ी के जो आरोप लगे, वो 2024 में जो हो सकता है, उसकी तुलना में बच्चों का खेल लगेंगे. उस साल भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ की संसद के चुनाव भी होंगे. डिजिटल प्रजातंत्र के इस दौर में ये ऐसा पहला इत्तिफ़ाक़ होगा. हम ग़लत सूचनाओं और बातों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के एक भयंकर झंझावात का सामना कर रहे हैं. ऐसे डिजिटल शिकारियों के सामने हम ख़ुद को ऐसे शिकार की तरह पेश नहीं कर सकते, जिसका वध सुनिश्चित हो. स्वतंत्र समाजों ने हमेशा ही अपनी सरहदों की मज़बूती से हिफ़ाज़त की है, और इसी तरह उन्हें नई डिजिटल सीमाओं की भी सुरक्षा करनी चाहिए. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा बुलाए गए लोकतंत्र के सम्मेलन में- जिसे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई नेताओ ने संबंधित किया था- ये बात साफ़ तौर पर उभरी थी कि दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों को अपनी कमियों को दूर करने की ज़रूरत है. आज जबकि लोकतांत्रिक देश इस चुनौती से निपटने की कोशिश कर रहे हैं, तो उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि दूसरे लोग उनके घर को जलाकर राख न कर दें.
ये लेख मूल रूप से हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित हुआ था.
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