यहां तक कि सबसे बेहतर वक़्त में भी एक तरह का अदृश्य तनाव भारत और इसके सबसे निकटतम महासागर पड़ोसी मुल्क़ श्रीलंका के रिश्तों के बीच मौज़ूद रहा. आज, वे सभी समुद्र में हैं, एक बार में, और फिर से हैं, ख़ास कर दो मुद्दों को लेकर. जिसमें पहला ईसीटी विवाद का जारी रहना है और दूसरा अब तक जो पारंपरिक मछुआरों का विवाद बन चुका है.
इतना ही नहीं चीन फैक्टर, श्रीलंका में नस्लीय मुद्दा और यूएनएचआरसी प्रस्तावों को लेकर चले आ रहे विवाद ने भी दोनों मुल्क़ों के संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पैदा किया है. हालांकि, इन्हें लेकर अलग अलग संकेत पैदा होते हैं. इसके विपरीत मछुआरों का मुद्दा और आर्थिक संबंध हालांकि, ज़्यादा स्पष्ट है और समय के साथ बहुत ज्यादा पेचीदा भी हो चुका है. इसके विस्तार में अगर इसे देखें तो कोलंबो बंदरगाह पर ईस्ट कंटेनर टर्मिनल (ईसीटी) में एक भारतीय कंपनी के चलते मौज़ूदा विवाद को दोनों मुल्क़ों के बीच विवादित क़ारोबारी मुद्दों के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए. इसमें श्रीलंका की निरंतर सरकारों ने दो दशक पुराने फ्री ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) को एक अलग शीर्षक वाले सीईपीए (कॉम्प्रेहेन्सिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट) या ईटीसीए (इकोनॉमिक एंड टेक्नोलॉजी कोऑपरेशन एग्रीमेंट) के तहत अपग्रेड करने का साहस नहीं दिखाया जिससे कोलंबो की सत्ता पर क़ाबिज़ होने वाली निरंतर सरकारें आख़िरकार किसी नतीज़े पर नहीं पहुंच सकीं.
चीन फैक्टर, श्रीलंका में नस्लीय मुद्दा और यूएनएचआरसी प्रस्तावों को लेकर चले आ रहे विवाद ने भी दोनों मुल्क़ों के संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पैदा किया है. हालांकि, इन्हें लेकर अलग अलग संकेत पैदा होते हैं.
कोलंबो बंदरगाह पर होने वाले ट्रांसशिपमेंट क़ारोबार का 70 फ़ीसदी भारत से होता है. लेकिन नई दिल्ली की चिंता तब बढ़ी जब रणनीतिक रूप से भारत के प्रतिद्वन्द्वी चीन को कुछ वर्ष पहले कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के आधुनिकीकरण और प्रबंधन के लिए चुना गया. भारतीय चिंताओं का सम्मान करते हुए पूर्व की श्रीलंका सरकार ने तब भारत और जापान के साथ ईसीटी को विकसित करने के लिए त्रिस्तरीय मेमोरेंडेम ऑफ कोऑपरेशन पर हस्ताक्षर किए. जिसके पास तटों पर विशाल महासागर लाइनर के लिए समान महासागर का मसौदा/गहराई मौज़ूद थी, लेकिन एमओसी के पूर्ण समझौते का नेतृत्व करने से पहले श्रीलंका में वह सरकार सत्ता से बाहर हो गई.
ईसीटी के लिए समस्याओं की शुरुआत तब हुई जब नवंबर 2019 के राष्ट्रपति चुनाव में मौज़ूदा राजपक्षे शासन की एक बार फिर सत्ता में वापसी हुई. अगस्त 2020 में संसद चुनाव से पहले परंपरागत रूप से मज़बूत सरकारी नेतृत्व वाली श्रीलंका पोर्ट्स अथॉरिटी (एसएलपीए) में लेफ्ट विचारों के तरफ झुकी हुई मज़दूर यूनियन ने ईसीटी के ख़िलाफ़ विरोध का बिगुल फूंक दिया. एमओसी पर हस्ताक्षर करने के दौरान पहले की सरकार ने ऐसे विरोधों को नज़रअंदाज़ कर दिया था. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे की सरकार ने भी दक्षिण में हंबनटोटा बंदरगाह के कर्ज़ के बदले हिस्सेदारी की डील के ख़िलाफ उठे हिंसक ट्रेड यूनियन के आंदोलन को नज़रअंदाज़ किया था. हंबनटोटा बंदरगाह को चीन ने 99 साल के लिए लीज़ पर ले लिया जो पिछले कुछ सालों से आराम से चल रहा है.
कोलंबो बंदरगाह पर होने वालेट्रांसशिपमेंट क़ारोबार का 70 फ़ीसदीभारत से होता है. लेकिन नई दिल्ली की चिंता तब बढ़ी जब रणनीतिक रूप से भारत के प्रतिद्वन्द्वी चीन को कुछ वर्ष पहलेकोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनलके आधुनिकीकरण और प्रबंधन के लिए चुना गया.
राजपक्षे के चीन के प्रति कथित झुकाव को लेकर जारी असहजता के अलावा भी इस गठबंधन में भारत विरोधी पार्टियों के मौज़ूद रहने से दोनों मुल्क़ों के संबंधों में तल्खी देखी गई. क्योंकि इन पार्टियों का अपना दिमाग इसे संचालित करता था जिसे भारतीय अक्सर नज़रअंदाज़ करते रहे वो भी सिर्फ अपना नुक़सान कर. राजपक्षे की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी (एसएलपीपी) जब सत्ता से बाहर थी तब भी उसे 40 फ़ीसदी वोट शेयर मिले, लेकिन उनके कैडरों के लिए छोटी-छोटी पार्टियों का भरोसा जीतना ज़्यादा महत्वपूर्ण था जो थोड़े वाम दलों और दक्षिणपंथी विचारों से प्रभावित थे.
राजपक्षे गठबंधन में ज़्यादातर छोटी पार्टियों का झुकाव वामदलों के प्रति था. उनमें विमल वीरावसना, उद्योग मंत्री और गठबंधन से अलग हुए धड़े नेशनल फ्रीडम फ्रंट (एनएफएफ) के संस्थापक, कई मुद्दों पर अपनी मुख्य पार्टी जनथा विमुक्ति पेरामुना से प्रतिस्पर्द्धा करने में जुटे रहे. तमा्म बदलावों के ज़रिए देश के पहले मुख्य उग्रवादी संगठन जो बाद में एलटीटीई के नाम से जाना गया, उसमें वाम राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करने वाली पार्टी जेवीपी अभी तक भारत विरोधी रूख़ पर क़ायम है. भारत विरोधी रूख़ पार्टी आदर्शों पर ‘फ़ाइव क्लासेस’ के संस्थापक रोहाना विजेवीरा के मन के बेहद क़रीब था. और ईसीटी का एक ऐसा ही मुद्दा था जिसमें एनएफएफ और जेवीपी के बीच प्रतिद्वंद्विता बेहद ज़्यादा थी.
इसके बाद मूल पार्टी, जातीय हेला उरुमाया से अलग हुए धड़े ‘सेंटर राइट नेशनलिस्ट’ पिविथ्रू हेला उरूमाया (पीएचयू) का भी नाम आता है, जो विपक्षी दल एसजेबी के साथ है. पीएचयू का नेतृत्व मंत्री उदया गम्मानपिला के हाथ में है जो परंपरागत तौर से भारत के साथ दोस्ताना संबंध का विरोध करने वाली जेएचयू की नीतियों का फायदा उठाना चाहती है. इसके साथ ही अपने लगातार कम होते वोट बैंक को बचाने के लिेए इस पार्टी के लिए सरकार के अंदर और बाहर लेफ्ट नेशनलिस्ट का सामना करना भी एक एजेंडा है.
भारतीयों को इस बात के लिए ज़्यादा हैरानी होती है कि सरकार के अंदर भी एंटी ईसीटी कैंप लगातार काम कर रही है जो राज्य मंत्री सेंथिल थोंडामन के नेतृत्व वाली सीलोन वर्कर्स कांग्रेस के अपकंट्री तमिलनाडु एस्टेट लेबर से जुड़ी है.
भारतीयों को इस बात के लिए ज़्यादा हैरानी होती है कि सरकार के अंदर भी एंटी ईसीटी कैंप लगातार काम कर रही है जो राज्य मंत्री सेंथिल थोंडामन के नेतृत्व वाली सीलोन वर्कर्स कांग्रेस के अपकंट्री तमिलनाडु एस्टेट लेबर से जुड़ी है. जो बेहद ज़ल्दबाजी में पिछले साल संसदीय चुनाव के दौरान अपने पिता अरुमुगन थोंडामन की मृत्यु के बाद उनके नक्शे कदम पर चलते हुए दिख रहे हैं.
फिर से वादे को साबित करना
चुनावों के बाद ईसीटी के ख़िलाफ़ मज़दूरों के संघर्ष का फिर से जोर पकड़ने के बीच राष्ट्रपति गोताबया राजपक्षे और उनके भाई महिन्दा राजपक्षे जो एक वक्त उनके पूर्ववर्ती रहे और मौज़ूदा प्रधानमंत्री हैं, दोनों ने फिर से एमओसी के प्रति देश के समझौते को लेकर अपनी सहमति जताई है, खास कर तब जबकि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दोनों से जनवरी की शुरुआत में मुलाकात की थी. इससे पहले फरवरी की शुरुआत में प्रधानमंत्री महिन्दा राजपक्षे ने इसे एकतरफ़ा रद्द करने की घोषणा की थी वो भी तब जबकि एक दिन पहले उनकी कैबिनेट की बैठक होने वाली थी. इसके बाद से ही राष्ट्रपति गोताबया राजपक्षे ने इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की है लिहाज़ा उनकी राय इसे लेकर स्पष्ट नहीं है.
इसके बाद से ही कोलंबो में श्रीलंका सरकार के सबसे उच्च स्तर पर भारत और जापान के राजदूतों ने ईसीटी मामले को उठाया है. हालांकि, यह भी अभी साफ नहीं है कि भारतीय उद्योग जगत या फिर जापान के निवेशक वेस्ट कंटेनर टर्मिनल को विकसित करने के प्रति उत्सुक हैं भी या नहीं, जिसे ईसीटी के बदले में विकसित करने के लिए आगे बढ़ाया गया है. चीन के साथ बेहद महत्वपूर्ण सीआईसीटी के साथ ही वेस्ट कंटेनर टर्मिनल में श्रीलंका ने 85 फ़ीसदी हिस्सेदारी ऑफर किए हैं. यह ईसीटी में 49 फ़ीसदी के मुक़ाबले उपयोगी दिखता तो है, लेकिन सागर के मसौदे/गंभीरता को लेकर और वेस्ट कंटेनर टर्मिनल में पसंद को लेकर कोई जानकारी नहीं है. इतना ही नहीं इंटरनेशनल ओसन लाइनर को ज़्यादा आकर्षक बनाने – जो अकेले ही कारोबार की परिमाण को निर्धारित करता है और जो प्रतियोगी प्राइसिंग पर आधारित होता है – के संबंध में कोई जानकारी नहीं है.
कोलंबो में श्रीलंका सरकार के सबसे उच्च स्तर परभारत और जापान के राजदूतोंने ईसीटी मामले को उठाया है. हालांकि, यह भी अभी साफ नहीं है कि भारतीय उद्योग जगत या फिर जापान के निवेशकवेस्ट कंटेनर टर्मिनल को विकसित करने के प्रति उत्सुक हैं भी या नहीं, जिसे ईसीटी के बदले में विकसित करने के लिए आगे बढ़ाया गया है
इसमें दो राय नहीं कि गैर अस्तित्व वाले वेस्ट कंटेनर टर्मिनल में निवेश बहुत ज़्यादा लगेगा और यह लंबा समय भी लेगा. इसमें 3 से 5 वर्ष का समय भी लग सकता है लेकिन इसे लेकर कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि श्रीलंका सरकार मौज़ूदा ऑफर को बाद में पुनर्विचार करने से आनाकानी करेगी. इस बात की पूरी संभावना है कि कोलंबो द्वारा एक बार फिर आनाकानी करने का मतलब है कि विदेशी निवेश इससे नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे. जबकि देश में अभूतपूर्व आर्थिक संकट के बीच निवेश का प्रवाह बेहद ज़रूरी है.
मछुआरों की हत्या
अब जबकि ईसीटी डील के रद्द होने के पीछे चीन का हाथ माना जा रहा है तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि कितने स्तर और कितनी दूर तक, अगर यह बात पूरी तरह से सही है, कि यही बात मछुआरों को लेकर जारी विवाद के बारे में नहीं कहा जा सकता है. इसमें सिर्फ दो मुल्क़ों के मछुआरे ही शामिल नहीं है बल्कि श्रीलंका नेवी – और दोनों सरकारें भी हालांकि, इससे खुद को अलग नहीं कर सकती. दक्षिण तमिलनाडु में इसके बावज़ूद कि राजनीति और लोगों का दबाव है भारत सरकार इंटरनेशनल मैरीटाइम बाउंड्री लाइन (आईएमबीएल) समझौता जो कि 1974 और 1976 में किया गया था उसके साथ खड़ी है. ये समझौते यूएनसीएलओएस (यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन फॉर द लॉ ऑफ द सी) के तहत अधिसूचना जारी कर चुके हैं.
19 जनवरी की घटना जिसमें चार तमिलनाडु के मछुआरों की तब जान चली गई थी जब श्रीलंका के समुद्री इलाक़े में उनका ट्रॉलर श्रीलंकाई नेवी के पेट्रोल वेसल से टकरा गया था, यह ऐसे वाक़यों को रोकने के लिए साल 2008 के किए गए कोलंबो समझौते के बाद पहली प्रमुख घटना थी. हालांकि, यह देखा जाना अभी बाकी है कि श्रीलंकाई नेवी इस मामले में जांच करने के बाद क्या नतीज़ा निकालती है. हालांकि, यहां इस बात को अंकित करना बेहद ज़रूरी है कि तमिलनाडु में विरोध कर रहे मछुआरे जो समुद्र में खुद की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं अभी तक अपने विरोध प्रदर्शन से नेताओं को दूर रखने में क़ामयाबी पाई है वो भी तब जबकि इस साल यहां चुनाव होने हैं.
19 जनवरी की घटना जिसमें चार तमिलनाडु के मछुआरों की तब जान चली गई थी जब श्रीलंका के समुद्री इलाक़े में उनका ट्रॉलर श्रीलंकाई नेवी के पेट्रोल वेसल से टकरा गया था, यह ऐसे वाक़यों को रोकने के लिए साल 2008 के किए गए कोलंबो समझौते के बाद पहली प्रमुख घटना थी.
जबकि युद्ध के बाद के दशकों से ही श्रीलंका में द्विपक्षीय राजनीतिक संबंधों को नियंत्रण में रखा गया, हालांकि, दूसरे स्तर पर यह आजीविका से जुड़ा मुद्दा है – जैसा कि लगातार तमिलनाडु के मछुआरों और राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान केंद्रित किया है. हालांकि, यह व्यवस्था युद्ध के बाद के दिनों से ही श्रीलंकाई तमिल मछुआरों द्वारा अवैध रूप से भारतीय ट्रॉलरों के श्रीलंकाई समुद्री इलाक़े में उनके शिकार पर कब्ज़ा पाने को लेकर जारी विरोध की वज़ह से और पेचीदा हो गया है. यही नहीं तीन दशक तक चलने वाली नस्लीय हिंसा के बाद श्रीलंकाई तमिल मछुआरों की आजीविका के साधन पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं.
भारतीय मछुआरों के आईएमबीएल सीमा को पार करने को लेकर श्रीलंका के राजनीतिक दलों के बीच एक तरह की असमान्य सहमति भी मौज़ूद है. इसमें काफी हद तक विभाजित लेकिन भारतीय हित में तमिल राजनीति भी शामिल है. मौज़ूदा सरकार में मत्स्य पालन मंत्री डगलस देवानंदा जो ख़ुद एक तमिल हैं इस दावे को ख़ारिज़ करते आए हैं कि यह भारतीय मछुआरों के सामने आजीविका का संकट है. इसके साथ ही भारतीय मछुआरे आईएमबीएल को पार नहीं कर पाएं इसके लिए सख़्त क़ानूनों को वज़ूद में लाने के लिए टीएनए के सांसद एम ए सुमनथिरन की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है.
केंद्र और तमिलनाडु सरकार द्वारा भारी सब्सिडी देने को लेकर शुरुआत से लेकर कई सालों तक भारतीय मछुआरों की प्रतिक्रिया बेहद ठंडी रही. ऐसे में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे और किस तरह भारतीय अधिकारी भारतीय मछुआरों को पाक स्ट्रेट की तरफ से अवैध रूप से आईएमबीएल पार करने से रोकते हैं. आवश्यक यह है कि मछुआरों को पहले से उपलब्ध कराए गए कर्ज़ के मुक़ाबले सुलभ ऋण मुहैया कराई जाए.
जैसा कि हाल के वर्षों में देखा गया है कि जेल की लंबी सजा, पकड़े गए ट्रॉलरों और भारी कीमत वाले गैजेट्स को ज़ब्त किया जाना, जिसमें अवैध जाल भी शामिल है, भारतीय मछुआरों को आईएमबीएल को पार करने से रोक नहीं पाया है. जबकि श्रीलंकाई सरकार को उम्मीद थी कि यह रूक जाएगा. ऐसे में इस समस्या का सामाधान इस बात पर निर्भर करता है कि भारत तमिलनाडु के मछुआरों को गहरे समंदर में जाकर मछली पकड़ने के लिए प्रेरित करे और गंभीरता से अगर इसे लागू किया गया तो यह निवेश सम्मत होगा और मछुआरों को लगातार और ज़्यादा आय देने वाली प्रक्रिया भी साबित होगी. केंद्र और तमिलनाडु सरकार द्वारा भारी सब्सिडी देने को लेकर शुरुआत से लेकर कई सालों तक भारतीय मछुआरों की प्रतिक्रिया बेहद ठंडी रही. ऐसे में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे और किस तरह भारतीय अधिकारी भारतीय मछुआरों को पाक स्ट्रेट की तरफ से अवैध रूप से आईएमबीएल पार करने से रोकते हैं. आवश्यक यह है कि मछुआरों को पहले से उपलब्ध कराए गए कर्ज़ के मुक़ाबले सुलभ ऋण मुहैया कराई जाए. उनमें सांस्कृतिक बदलाव जो पारंपरिक तौर पर समंदर में एक रात रूका करते थे, और चेन की मार्केटिंग किया करते थे, वो भी वादा किया गया लेकिन पूरा नहीं किया गया. अन्य समाधानों में जैसे कोऑपरेटिव मत्स्य पालन और शिकार की हिस्सेदारी सुनने में तो अच्छे और आकर्षक लगते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इन्हें लागू करना अव्यावहारिक है.
इन सबके बीच भारतीय रणनीतिकारों में से कुछ लोग दो मुद्दों को एक साथ जोड़ने की कोशिश करते हैं, खास कर हाई प्रोफाइल ईसीटी डील को यूएनएचसीआर में श्रीलंकाई युद्ध अपराधियों के ख़िलाफ़ जारी जांच में भारतीय वोट के परिप्रेक्ष्य में इसे जोड़ने की कोशिश करना. वो भी तब जबकि मई में तमिलनाडु में चुनाव होने हैं और हाल में नई दिल्ली ने जिस तरह कोविड डिप्लोमेसी के तहत अपने पड़ोसी मुल्क़ों, जिसमें श्रीलंका भी शामिल है, को कोरोना वैक्सीन की भेंट दी है. हालांकि, इससे कोलंबो बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं हुआ है. उनके लिए अभी भी साल 2012 की तरह ही यूएनएचआरसी में भारत एक वोट भर की ही अहमियत रखता है. और जहां तक कोविड वैक्सीन की बात है तो श्रीलंका इसे भारत की बेहद सोच समझ कर तैयार की गई विदेश नीति को आगे बढ़ाने के लिए एक पहल मानता है, क्योंकि भारत ने ब्राजील जैसे दूरदराज के मुल्क़ को भी कोरोना वैक्सीन मुहैया कराई है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.