सीरिया और उत्तर कोरिया से जुड़े मुद्दों को लेकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में रूस-चीन का सामंजस्य मिल कर काम करने वाले बहुपक्षवाद के लिए एक खराब उदाहरण पेश करता है.
11 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में रूस के द्वारा वीटो और चीन के वोटिंग से अनुपस्थित रहने के बाद एक प्रस्ताव का मसौदा गिर गया. ये प्रस्ताव सीरिया में मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए सीमा के पार व्यवस्था को फिर से कानूनी अधिकार देने के बारे में था. सीमा के पार व्यवस्था ने संयुक्त राष्ट्र (UN) की निगरानी में सहायता की सप्लाई के ज़रिये बागियों के कब्ज़े वाले इलाकों में हर महीने सीरिया के 27 लाख लोगों की मदद की. रूस और चीन को छोड़कर सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में से 13 ने प्रस्ताव का समर्थन किया था. सुरक्षा परिषद के द्वारा अधिकार मुहैया कराये बिना UN सहायता पहुंचाना जारी नहीं रख सकता है और सीरिया की सरकार ने सीरिया के भीतर मानवीय सहायता के वितरण पर नियंत्रण हासिल कर लिया है. चीन ने इस प्रस्ताव पर वोटिंग के दौरान अपनी गैर-हाज़िरी को ये कहकर सही ठहराया कि सीरिया में सहायता पहुंचाने में किसी देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांतों का हर हाल में पालन किया जाना चाहिए.
मानवाधिकार जैसे दूसरे सिद्धांतों के ऊपर देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांतों को पेश करने में चीन के द्वारा वीटो के उपयोग को UNSC में अपनी स्थायी सदस्यता का इस्तेमाल मल्टीलेटरलिज़्म (बहुपक्षवाद) को फिर से परिभाषित करने के काम के तौर पर देखा जा सकता है.
किसी देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांतों पर ज़ोर देते हुए चीन दूसरे अंतर्राष्ट्रीय तौर पर सहमत सिद्धांतों जैसे कि मानवाधिकार और मानवीय सहायता के अधिकार को नज़रअंदाज़ करने के एक पैटर्न का पालन करता है. ऐसा ही एक मामला 2019 में था आया जब रूस और चीन ने एक साथ वीटो करके वेनेज़ुएला में नये चुनाव और बिना किसी रुकावट के मानवीय सहायता के वितरण के लिए सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को रोक दिया था. चीन ने इसी तरह देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांत के लिए सम्मान की दलील को आधार बनाकर 2022 में उत्तर कोरिया को आर्थिक प्रतिबंधों से बचाने के लिए वीटो पावर का इस्तेमाल किया था. ये UNSC में चीन के द्वारा वीटो के इस्तेमाल के बढ़ते पैटर्न के बारे में इशारा करता है. चीन संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांत को लेकर अपनी सोच के बारे में बताकर अपने वीटो के इस्तेमाल को सही बताता है.
मानवाधिकार जैसे दूसरे सिद्धांतों के ऊपर देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांतों को पेश करने में चीन के द्वारा वीटो के उपयोग को UNSC में अपनी स्थायी सदस्यता का इस्तेमाल मल्टीलेटरलिज़्म (बहुपक्षवाद) को फिर से परिभाषित करने के काम के तौर पर देखा जा सकता है. बहुपक्षीय सहयोग के बारे में चीन की समझ का स्वरूप काफी हद तक राज्यवाद (स्टैटिज़्म ) को लेकर है क्योंकि वो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को देशों के अधीन महज़ एक औजार के तौर पर मानता है. ये संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने के सिद्धांत को लेकर चीन की अपनी धारणा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाकर शिनजियांग, तिब्बत और हॉन्ग कॉन्ग में बाहरी असर से आंतरिक अशांति को अलग-थलग करने में चीन की वैश्विक रणनीति को फायदा पहुंचाता है. बहुपक्षवाद को फिर से परिभाषित करने की ये रणनीति उस समय और भी साफ हो जाती है जब इस बात पर विचार किया जाता है कि रूस के विपरीत सीरिया में चीन का कोई सीधा हित नहीं है. फिर भी चीन ने सुरक्षा परिषद में सीरिया के मुद्दे पर रूस के साथ वोटिंग की मज़बूत साझेदारी स्थापित की है.
पिछले 10 वर्षों के डेटा पर नज़र डालें तो चीन ने नौ मामलों में औपचारिक तौर पर अपने वीटो का इस्तेमाल किया है (तालिका 1 देखें). ये सभी नौ मामले वो हैं जहां चीन ने रूस के साथ मिलकर विचार के तहत लाये गये प्रस्तावों पर वीटो किया था. इन नौ प्रस्तावों में से सात सीरिया को लेकर थे जहां स्पष्ट रूप से चीन का कोई प्रत्यक्ष हित नहीं है. बाकी दो प्रस्ताव वेनेज़ुएला और उत्तर कोरिया को लेकर थे. वीटो का उपयोग करने के मामले में एक और साझा पैटर्न ये देखा गया कि चीन ने रूस के वीटो पार्टनर के रूप में अपना लगाव लगातार बनाये रखा. अगर कभी रूस किसी प्रस्ताव पर वीटो के अधिकार का इस्तेमाल करता है जबकि चीन नहीं करता है तो वहां भी चीन आम तौर पर वोटिंग से गैर-हाज़िर रहकर भरपाई कर देता है. सीरिया में मानवीय सहायता के मुद्दे पर पिछले दिनों चीन के द्वारा अनुपस्थित रहना भी इस पैटर्न के अनुसार है.
तालिका 1: पिछले 10 वर्षों के दौरान चीन के द्वारा इस्तेमाल किया गया वीटो पावर
ऊपर जो मामले बताये गये हैं, उनमें सामान्य नतीजा ये रहा कि पश्चिमी देशों के तीन स्थायी सदस्य यानी अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम (UK) और फ्रांस सुरक्षा परिषद में बेबस होकर रह गये. रूस और चीन ने UNSC में तीनों पश्चिमी ताकतों के कूटनीतिक दबदबे के ख़िलाफ़ एक असरदार राजनयिक बराबरी स्थापित करने के लिए एक सफल रणनीति बनाई. इसकी वजह से सुरक्षा परिषद वैश्विक राजनीति के कॉकपिट में तब्दील हो गई है जहां मल्टीलेटरलिज़्म को लेकर पश्चिमी देशों की सोच को अब चीन के राज्यवादी (स्टैटिज़्म ) बहुपक्षवाद से खुली चुनौती मिल रही है जिसका रूस समर्थन करता है. रूस और चीन के बीच नज़दीकी तालमेल ने इन गैर-पश्चिमी स्थायी सदस्यों की मंज़ूरी के बिना पश्चिमी देशों के लिए किसी देश के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने या सैन्य हस्तक्षेप को काफी मुश्किल बना दिया है. लीबिया में UNSC के द्वारा मंज़ूर की गई सैन्य कार्रवाई की कूटनीतिक याद ने भी किसी देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने को लेकर रूस-चीन के रुख को कठोर बनाने में योगदान दिया है और इस तरह पश्चिमी देशों को और ज़्यादा चुनौती दी है.
रूस और चीन के बीच नज़दीकी तालमेल ने इन गैर-पश्चिमी स्थायी सदस्यों की मंज़ूरी के बिना पश्चिमी देशों के लिए किसी देश के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाने या सैन्य हस्तक्षेप को काफी मुश्किल बना दिया है.
सुरक्षा परिषद के पश्चिमी स्थायी सदस्यों ने 2011 में नागरिकों की रक्षा के लिए लीबिया में सैन्य कार्रवाई पर ज़ोर दिया था और उसके बाद उन्हें सुरक्षा परिषद की मंज़ूरी मिल गई थी. रूस और चीन को आपत्ति थी लेकिन वीटो करने की जगह वो वोटिंग से अनुपस्थित रहे. इसके बाद लीबिया की सरकार को बदलने के लिए UNSC के द्वारा स्वीकृत की गई सेना की कार्रवाई ने गहराई से रूस और चीन के लिए मानवीय उद्देश्य की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई थी. स्पष्ट रूप से 2011 के बाद रूस और चीन के द्वारा गैर-हाज़िर रहने की जगह वीटो के इस्तेमाल में भारी बढ़ोतरी के लिए ये एक बड़ा कारण है (ग्राफ 1 देखें). मानवीय मुद्दे को कम महत्व देकर देश की संप्रभुता और हस्तक्षेप नहीं करने को लेकर चीन के रवैये में सख्ती के पीछे आंशिक रूप से सुरक्षा परिषद के द्वारा लीबिया के हालात से निपटने के लिए अपनाया गया रुख है.
ग्राफ 1: 1951 से सुरक्षा परिषद के प्रत्येक स्थायी सदस्य के द्वारा हर दशक में इस्तेमाल किये गये वीटों की संख्या.
बंटीहुईसुरक्षापरिषद
यूक्रेन में चल रहे भू-राजनीतिक संघर्ष और चीन के ज़िद्दी रुख के साथ ये निश्चित है कि एक तरफ चीन-रूस और दूसरी तरफ पश्चिमी देशों के बीच एक-दूसरे के प्रति अविश्वास बना रहेगा. इसकी वजह से सुरक्षा परिषद के भीतर आम राय बनाना एक बेहद कठिन काम हो गया है. वैश्विक ताकत के रूप में अमेरिका की गिरती छवि के साथ रूस और चीन को सुरक्षा परिषद में वीटो प्रस्तावों की तरफ ज़्यादा झुका हुआ देखा जा रहा है. 2011 से रूस ने किसी भी दूसरे स्थायी सदस्य की तुलना में सुरक्षा परिषद में अपने वीटो पावर का अधिक उपयोग किया है जबकि चीन इस मामले में दूसरे नंबर पर है (ग्राफ 1 देखें). ये 1971 से लेकर 2010 तक के दशकीय रुझान के बिल्कुल उलट है जब वीटो का इस्तेमाल करने के मामले में अमेरिका सबसे आक्रामक सदस्य बना हुआ था. 2011 से रुझान में इस तरह के बदलाव से पता चलता है कि सुरक्षा परिषद एक तरफ अमेरिका तो दूसरी तरफ रूस-चीन के द्वारा दुनिया को लेकर बंटे हुए नज़रिये का खुलकर मुकाबला करने का एक मंच बनती जा रही है. इसकी वजह से उन महत्वपूर्ण फैसलों को लेकर परिषद के काम-काज की क्षमता कम होना तय है जहां अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को ज़िम्मेदारी से कदम उठाने की ज़रूरत है. सीरिया को मानवीय मदद या उत्तर कोरिया के द्वारा मिसाइल लॉन्च जैसे मुद्दों पर वोटिंग के मामले में रूस-चीन का तालमेल के ज़रिये पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ संतुलन बनाना सहयोगी बहुपक्षवाद के लिए एक खराब उदाहरण पेश करता है.
इस तरह के हालात के समाधान के लिए भारत ने UNSC में सुधार का प्रस्ताव दिया जिसके तहत अगर कोई स्थायी सदस्य वीटो के अपने विशेषाधिकार का दुरुपयोग करता है तो महासभा को उसे वापस बुलाने का अधिकार होगा.
रूस और चीन के बीच वोटिंग को लेकर तालमेल का ये रुझान हालिया होने के बावजूद सुरक्षा परिषद महत्वपूर्ण हालात में वीटो के ज़रिये रुकावट के ख़तरों के बारे में अनजान नहीं रही है. 3 नवंबर 1950 को पारित एक प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र के दो-तिहाई से ज़्यादा सदस्य देशों ने ऐलान किया कि जब अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को लेकर जोखिम होगा और वीटो की वजह से UNSC का काम-काज प्रभावित होगा तो संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) इस मामले पर विचार करेगी और अपनी सिफारिशें देगी. लेकिन इस सिस्टम के साथ दिक्कत ये है कि UNGA की सिफारिशों को स्वीकार करना बाध्यकारी नहीं है. इस तरह के हालात के समाधान के लिए भारत ने UNSC में सुधार का प्रस्ताव दिया जिसके तहत अगर कोई स्थायी सदस्य वीटो के अपने विशेषाधिकार का दुरुपयोग करता है तो महासभा को उसे वापस बुलाने का अधिकार होगा. वैसे तो सुरक्षा परिषद के ढांचे में इस तरह का संरचनात्मक बदलाव फिलहाल दूर की कौड़ी लग रहा है लेकिन एक ज़िम्मेदार सुरक्षा परिषद बहुपक्षवाद को लेकर एक तरफ चीन एवं रूस और दूसरी तरफ पश्चिमी देशों के विरोधी विचारों को ठीक करने में सबसे भरोसेमंद हल की पेशकश करती है.
अंगदसिंहबराड़ एक रिसर्चर हैं जो ग्लोबल गवर्नेंस, मल्टीलेटरलिज़्म, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ भारत की भागीदारी और इंस्टीट्यूशनल रिफॉर्म जैसे विषयों पर काम करते हैं.
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Angad Singh Brar was a Research Assistant at Observer Research Foundation, New Delhi. His research focuses on issues of global governance, multilateralism, India’s engagement of ...