Published on Jun 28, 2023 Updated 0 Hours ago
जलवायु परिवर्तन: जलवायु कार्रवाई और वित्तीय स्थिरता

पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से जूझ रही है, ऐसे में वित्तीय स्थिरता के साथ जलवायु परिवर्तन के लचीलेपन की ज़रूरत को पहचानना बेहद महत्त्वपूर्ण है. इसके बारे में चर्चा की शुरुआत भारत से करते हैं, जहां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पहले से ही दिखाई देने लगे हैं और भारत उन प्रभावों को कम करने एवं अनुकूल बनाने के लिए क़दम उठा रहा है. लगातार बढ़ते तापमान, बारिश एवं बर्फ़बारी के बदलते पैटर्न और चरम मौसमी घटनाओं के साथ भारत जलवायु परिवर्तन के सबसे पीड़ित देशों में से एक है. ये प्रभाव अस्थिर कृषि उत्पादकता, पानी के संकट में बढ़ोतरी के साथ-साथ देश के कुछ हिस्सों में बाढ़ एवं चक्रवात और बेमौसम बारिश जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति व तीव्रता में इज़ाफ़ा कर रहे हैं. 

भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करने के लिए कई क़दम उठाए हैं, जिनमें नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश, वन क्षेत्र में बढ़ोतरी और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना शामिल है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह की घटनाएं वित्तीय स्थिरता के लिए एक बड़ा ख़तरा पैदा करती हैं. उदाहरण के तौर पर बेमौसम बारिश एक पूरे बुवाई सीजन को व्यापक रूप से नुक़सान पहुंचा सकती है, जिससे आर्थिक परेशानी, वित्तीय नुक़सान और वित्तीय सेक्टर के लिए ज़ोख़िम बढ़ सकता है. कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था में संक्रमण भी वित्तीय ज़ोख़िमों की वजह बन सकता है, ज़ाहिर है कि इससे जीवाश्म ईंधन पर आधारित उद्योगों में निवेश एक डेड इन्वेस्टमेंट यानी मृत निवेश बन सकता है, क्योंकि अधिक टिकाऊ भविष्य हासिल करने के लिए दुनिया का रुख तेज़ी से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर है. उदाहरण के लिए वर्ष 2022 में 653 मिलियन टन कोयला यातायात की आवाजाही के लिए भारतीय रेलवे द्वारा किए गए व्यापक निवेश पर संगठन के नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ परिवर्तन की वजह से विपरीत असर पड़ सकता है.

भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करने के लिए कई क़दम उठाए हैं, जिनमें नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश, वन क्षेत्र में बढ़ोतरी और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना शामिल है. भारत सरकार ने नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (NAPCC) और नेशनल एडेप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज (NAFCC) जैसी पहलों की भी शुरूआत की है. जहां तक वित्तीय सेक्टर की बात है, तो आसन्न ज़ोख़िमों को दूर करने के लिए भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए क़दम उठा रही है. उदाहरण के तौर पर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने जलवायु परिवर्तन को वित्तीय स्थिरता के लिए एक प्रमुख ज़ोख़िम के रूप में पहचाना है और जलवायु ज़ोख़िम को अपने पर्यवेक्षी फ्रेमवर्क में शामिल करने के लिए क़दम उठाए हैं. RBI ने ग्रीन फाइनेंस को बढ़ावा देने के लिए एक ग्रीन स्ट्रैटेजिक पॉलिसी यूनिट भी शुरू की है, इतना ही नहीं नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए बैंकों को दिशानिर्देश जारी किए हैं.

और उपाय ज़रूरी

हालांकि, इतना ही काफ़ी नहीं है, अभी और भी ऐसा बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है, जिसे देश के समक्ष आने वाली अनिवार्यता के लचीलेपन को सुनिश्चित करने के लिए किया जाना चाहिए. संक्षेप में कहा जाए तो इस बात की पहचान करना अहम है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए किए जाने वाले उपायों की क़ीमत चुकानी पड़ती है. भारत ने वित्तीय स्थिरता की ज़रूरत के साथ जलवायु परिवर्तन के लचीलेपन की आवश्यकता को संतुलित करने के लिए विभिन्न चुनौतियों का सामना किया है. ऐसा माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन के जुड़े उपायों में और अधिक निवेश देश के राजकोषीय घाटे को बढ़ाने का काम कर सकता है. भारत को इस चुनौती से निपटने के लिए आर्थिक विकास और वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा देने वाली नीतियों का पालन करते हुए जलवायु कार्रवाई को प्राथमिकता देना जारी रखना चाहिए. इसमें कैपैक्स यानी पूंजीगत व्यय से जुड़े उपाय शामिल हो सकते हैं, जैसे कि स्वच्छ ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता में निवेश बढ़ाना, एग्रीकल्चर सेक्टर की दक्षता में सुधार करना और लक्ष्य निर्धारित करते हुए टिकाऊ पर्यटन को बढ़ावा देना. सरकार ने टिकाऊ फाइनेंस को बढ़ावा देने के लिए नेशनल क्लीन एनर्जी फंड और नेशनल एडेप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज समेत कई पहलें भी शुरू की हैं.

एक सूचीबद्ध मार्केट रेगुलेटर के तौर पर भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े ज़ोख़िमों को दूर करने की आवश्यकता को मान्यता दी है और शीर्ष-सूचीबद्ध कंपनियों को प्रति वर्ष अपनी स्थिरता रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया है.

ज़ाहिर है कि वित्तीय संस्थानों के लिए अनिवार्य जलवायु-संबंधी विशेष तथ्यों व जानकारियों की विश्वसनीयता को बढ़ाना, बहस का मुद्दा हो सकता है. इन तथ्यों में न सिर्फ़ उन ज़ोख़िमों को शामिल किया जाना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा होते हैं, बल्कि उन अवसरों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो कम कार्बन वाली इकोनॉमी में संक्रमण प्रस्तुत करते हैं. इसके लिए संस्थानों को अपने कार्बन फुटप्रिंट, कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों और इन लक्ष्यों को प्राप्त कूरने की दिशा में होने वाली प्रगति को सार्वजनकि करने की भी आवश्यकता होगी. ऐसा नहीं होने पर ग्रीन टैगिंग केवल अपने आप में एक ज़ोख़िम होगा जिसका ज़मीनी स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. इसके अतिरिक्त, वित्तीय नियामकों को अपने तनाव-परीक्षण परिदृश्यों यानी विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने क़दमों के असर का आकलन करने की आवृत्ति बढ़ाने की ज़रूरत है, जिसमें जलवायु से जुड़े ज़ोख़िम शामिल हैं. ऐसा करके, वित्तीय नियामक जलवायु परिवर्तन के विभिन्न परिदृश्यों के लिए वित्तीय संस्थानों के लचीलेपन का न केवल आकलन कर पाएंगे, बल्कि संभावित कमज़ोरियों को भी पहचान पाएंगे. इसके अतिरिक्त, वित्तीय नियामक वित्तीय संस्थानों को टिकाऊ वित्त सिद्धांतों को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित कर सकते हैं और ऐसे संस्थानों को प्रोत्साहन प्रदान कर सकते हैं, जो स्थिरता को लेकर अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर करते हैं. एक सूचीबद्ध मार्केट रेगुलेटर के तौर पर भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े ज़ोख़िमों को दूर करने की आवश्यकता को मान्यता दी है और शीर्ष-सूचीबद्ध कंपनियों को प्रति वर्ष अपनी स्थिरता रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया है.

इस सबके बावज़ूद जलवायु परिवर्तन की परिस्थिति में वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए अभी भी बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है. जलवायु ज़ोख़िम प्रबंधन की दिशा में अपनी प्राथमिकता का विस्तार करने के लिए भारत के वित्तीय क्षेत्र के दोहरे दृषिकोण, जिसमें क्रेडिट ज़ोख़िम आकलन और निवेश से जुड़े फैसलों में जलवायु ज़ोख़िम को सम्मिलित करना शामिल है, को लेकर सरकार ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर, नवीकरणीय ऊर्जा और अन्य टिकाऊ उद्योगों में निवेश के लिए प्रोत्साहन प्रदान करके स्थाई फाइनेंस को बढ़ावा दे रही है और फिलहाल इस दिशा में सबसे अच्छा काम कर रही है.

हरित चुनौतियां

ग्रीन फाइनेंस यानी पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए टिकाऊ परियोजनाओं और गतिविधियों का वित्तपोषण, पूरी दुनिया के वित्तीय नियामकों के लिए एक तीव्र गति से बढ़ता हुआ क्षेत्र है. जहां हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के कई संभावित और विशिष्ट लाभ हैं, वहीं इसको लेकर कई अहम चुनौतियां एवं चिंताएं भी हैं, जिन पर सावधानी पूर्वक मंथन किया जाना चाहिए. वित्तीय नियामकों के नज़रिए से ग्रीन फाइनेंस को लेकर प्राथमिक चिंताओं में से एक ग्रीनवाशिंग (Greenwashing) की संभावना है. ग्रीनवॉशिंग का अर्थ होता है कि वित्तीय उत्पादों या सेवाओं के पर्यावरणीय लाभों के बारे में झूठे या भ्रामक दावे करना. नियामकों को यह अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए कि वित्तीय संस्थान अपने निवेशों के पर्यावरणीय प्रभाव के बारे में सटीक और पारदर्शी जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं और वे अपने पोर्टफोलियो की स्थिरता के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बखान नहीं कर रहे हैं. ज़ाहिर है कि इसके लिए न केवल मज़बूत रिपोर्टिंग और असलियत सामने लाने की ज़रूरत है, बल्कि इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए शक्तिशाली प्रवर्तन तंत्र की भी आवश्यकता होती है.

नियामकों के समक्ष एक और चुनौती, भविष्य में हरित निवेशों के तमाम तरह की दिक़्क़तों में फंसी हुई संपत्ति बनने की संभावना है. फंसी हुई संपत्तियां इस प्रकार के निवेश होते हैं, जो अप्रासंगिक हो जाते हैं या फिर टेक्नोलॉजी बदलने और बाज़ार की स्थितियों में बदलाव की वजह से अपना मूल्य खो देते हैं. नियामकों को इस तरह के ज़ोख़िम को संभालने के तौर-तरीक़ों पर विचार करना चाहिए. इसके लिए वित्तीय संस्थानों के पोर्टफोलियो की स्ट्रैस-टेस्टिंग और परिवर्तन के उपयुक्त रास्तों का विकास करना शामिल है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन बिजनेस बनने के लक्ष्य के साथ वार्षिक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कंपनी और बोर्ड द्वारा संचालित योजनाओं को स्वीकृत करने का यह सबसे अच्छा रास्ता है.

पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती का सामना कर रही है, ऐसे में वित्तीय स्थिरता और लचीलापन सुनिश्चित करने में वित्तीय नियामकों की भूमिका बेहद अहम हो जाती है.

नियामकों को अस्थिरता एवं क़ीमत में उतार-चढ़ाव के लिहाज़ से भी हरित निवेश की सफलता और क्षमता के बारे में मंथन करना चाहिए. यह अस्थिरता और क़ीमत में उतार-चढ़ाव कई कारकों की वजह से हो सकता है, जिसमें सरकार की पॉलिसी में परिवर्तन, तकनीक़ी नवाचार और जनता की राय या उपभोक्ता के व्यवहार में बदलाव शामिल हैं. नियामकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वित्तीय संस्थान उचित बचाव की रणनीतियों एवं ज़ोख़िम प्रबंधन साधनों के उपयोग समेत इन ज़ोख़िमों का बेहतर तरीक़े से प्रबंधन कर रहे हैं. आख़िर में, नियामकों को फाइनेंशियल सिस्टम के प्रणालीगत ज़ोख़िमों को कम करने के लिए हरित निवेश की संभावना पर भी विचार करना चाहिए. उदाहरण के तौर पर अगर किसी विशेष प्रकार की ग्रीन टेक्नोलॉजी या इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने की ज़ल्दबाज़ी है, तो हो सकता है कि यह उस सेक्टर में एक बुलबुले की भांति बन सकता है और आगे चलकर अगर यह बुलबुला फूट जाता है, तो यह संभावित पतन की वजह भी बन सकता है. नियामकों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि वित्तीय संस्थान हरित निवेश की तलाश में कहीं बहुत ज़्यादा ज़ोख़िम तो नहीं उठा रहे हैं. इसके साथ ही नियामकों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि यह निवेश विभिन्न सेक्टरों और संपत्ति श्रेणी में पर्याप्त रूप से अलग-अलग प्रकार के हों.

वित्तीय सेक्टर कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था में संक्रमण को लेकर एक प्रमुख हिस्सेदार है और वित्तीय नियामकों को टिकाऊ वित्त प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए उद्योग से जुड़े हितधारकों के साथ नज़दीकी के साथ मिलकर काम करना चाहिए. इसमें विकसित होने वाले फ्रेमवर्क्स और दिशानिर्देश शामिल हैं, जो वित्तीय संस्थानों को निर्णय लेने की अपनी प्रक्रियाओं में जलवायु संबंधी ज़ोख़िमों को शामिल करने और इन ज़ोख़िमों के प्रति उनके प्रदर्शन में पारदर्शिता प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.

पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती का सामना कर रही है, ऐसे में वित्तीय स्थिरता और लचीलापन सुनिश्चित करने में वित्तीय नियामकों की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. जलवायु परिवर्तन से जुड़े ज़ोख़िम बहुत पेचीदा हैं और पारस्परिक तौर पर जुड़े हुए हैं. ज़ाहिर है कि ये ज़ोख़िम वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा ख़तरा हैं. इसलिए, वित्तीय प्रणाली की स्थिरता को सुरक्षित रखने हेतु नियामकों के लिए इन ज़ोख़िमों का सक्रिय रूप से प्रबंधन किया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है.


श्रीनाथ श्रीधरन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विज़िटिंग फेलो हैं.

दक्षिता दास इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंसिंग, पब्लिक फाइनेंस और फाइनेंशियल सेक्टर की विशेषज्ञ हैं और वर्तमान में जेंडर बजटिंग पर सरकार की कमेटी का नेतृत्व कर रही हैं. 

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