Author : Oommen C. Kurian

Published on Jul 28, 2023 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन अब एक बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है और ये लोगों की सेहत के लिए ख़तरा बन गई है. इसीलिए, जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों को ज़बानी जमाख़र्च से आगे क़दम बढ़ाना होगा.

Climate Change: ‘वातावरण और इंसान की सेहत के लिये वादों को हक़ीक़त में बदलने की ज़रूरत’
Climate Change: ‘वातावरण और इंसान की सेहत के लिये वादों को हक़ीक़त में बदलने की ज़रूरत’

ये लेख ‘समान’ लेकिन ‘विभिन्न’ उत्तरदायित्व निभाने का लक्ष्य: COP27 ने दिखाई दिशा! श्रृंखला का हिस्सा है.


मानव इतिहास में ये पहला मौक़ा है जब दुनिया के सामने अंतरराष्ट्रीय चिंता वाली स्वास्थ्य की तीन आपात चुनौतियां (PHEIC) एक साथ उठ खड़ी हुई हैं: मंकीपॉक्स, कोविड-19 और पोलियो. पोलियो को तो 2014 में अंतरराष्ट्रीय चिंता वाली आपातकालीन स्वास्थ्य समस्या (PHEIC) घोषित किया गया था. संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने अपनी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (2022) में कहा था कि जलवायु परिवर्तन के चलते एशिया में संक्रामक बीमारियों, कम पोषण, दिमाग़ी बीमारियों और एलर्जी की समस्या बढ़ती जा रही है. इसकी वजह, भयंकर गर्मी, बाढ़, सूखा और वायु प्रदूषण के लगातार बढ़ रहे जोखिम हैं (Figure 1). स्वास्थ्य संबंधी इन चुनौतियों से मृत्यु दर पर सीधे असर के अलावा, अन्य कई कारणों से भी मौत होने का जोखिम काफ़ी बढ़ गया है. ख़ास तौर से अधिक तापमान के कारण बच्चों के बीच मौत की दर बढ़ गई है.

Insert Figure 1 here: जलवायु परिवर्तन से किस तरह बढ़ रहा है सेहत को ख़तरा

Source: I Agache et al (2022) DOI: 10.1111/all.15229

जानकार कहते हैं कि वर्ष 1900 से हर संक्रामक वायरल महामारी- जिसमें HIV, इन्फ्लुएंज़ा और कोविड-19 शामिल हैं- की वजह यही थी कि इनके वायरस जानवरों से इंसानों में पहुंच गए. इससे ये संभावना बढ़ गई है कि दुनिया में आने वाली अगली महामारी का स्रोत भी दूसरे जानवर हो सकते हैं. महामारी की आशंका अपने आप में पर्यावरण में होने वाले बदलावों से जुड़ी होती है. सबूत ये संकेत देते हैं कि कई उभरती संक्रामक बीमारियों के जानवरों से इंसानों में पहुंचने का संबंध इंसानों और जानवरों के बीच बढ़ता संपर्क, जैसे कि ज़िंदा जानवरों वाले बाज़ारों में इंसानों की आवाजाही, पालतू जानवरों का बड़े पैमाने पर उत्पादन और जलवायु परिवर्तन के चलते इंसानों और जानवरों का एक साथ नए नए इलाक़ों की तरफ़ प्रवाह है.

जानकार कहते हैं कि वर्ष 1900 से हर संक्रामक वायरल महामारी- जिसमें HIV, इन्फ्लुएंज़ा और कोविड-19 शामिल हैं- की वजह यही थी कि इनके वायरस जानवरों से इंसानों में पहुंच गए. इससे ये संभावना बढ़ गई है कि दुनिया में आने वाली अगली महामारी का स्रोत भी दूसरे जानवर हो सकते हैं.

जलवायु संकट कई मामलों में सीधे और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में स्वास्थ्य का भी एक संकट है. आब-ओ-हवा बदलने का स्वास्थ्य पर सीधा असर तो होता ही है. इसके अलावा, ये परिवर्तन सेहत से जुड़े कई अन्य पहलुओं पर भी असर डालता है, जिससे बीमारी और मौत की दर में इज़ाफ़ा होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर असर डालने वाले सामाजिक और पर्यावरण संबंधी कारणों, जैसे कि हवा, पीने का पानी, खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित आवास पर भी असर होता है. जलवायु परिवर्तन के चलते वर्ष 2030 से 2050 के बीच 250,000 अतिरिक्त मौतें होने की आशंका जताई जा रही है. इसके कारण, कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और गर्मी से होने वाले तनाव बनेंगे. जलवायु परिवर्तन से सेहत पर पड़ने वाले इन बुरे प्रभावों के चलते, वर्ष 2030 तक हर साल लगभग 4 अरब डॉलर का आर्थिक नुक़सान (सामाजिक मानकों के क्षेत्र से अलग) होने का अनुमान है.

IPCC की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि बारिश और तापमान में बढ़ोत्तरी के चलते एशिया के गर्मी वाले इलाक़ों में कई संक्रामक बीमारियों का प्रकोप बढ़ने की आशंका है. मौसम में गर्मी बढ़ने से एशिया में अधिक तापमान के चलते लोगों की मौत की तादाद भी बढ़ जाएगी. इसके साथ साथ, इन कारणों का दक्षिणी और दक्षिणी पूर्वी एशिया में खाद्य सुरक्षा पर भी विपरीत असर पड़ेगा. हालांकि, एक साथ उठ खड़ी हुई सेहत संबंधी चुनौतियों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किए जा रहे साझा उपायों पर भी बुरा असर डाला है. 

शर्म अल-शेख़ जलवायु सम्मेलन (COP27) और लांसेट की काउंडटाउन रिपोर्ट 

ऊपर हमने जिन बातों का ज़िक्र किया है, वो मोटे तौर पर एशिया की क्षेत्रीय चुनौतियां हैं, जिनसे निपटने के उपायों पर विचार करने के लिए मिस्र के शर्म अल-शेख़ में संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) की कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज़ 27 (COP27) की बैठक हुई. COP27 की शुरुआत से पहले लांसेट की स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर काउंटडाउन रिपोर्ट, अक्टूबर 2022 में प्रकाशित हुई थी. इसमें रहन-सहन के बढ़ते संकट और ऊर्जा संकटों के बीच जलवायु परिवर्तन के सेहत पर असर की पड़ताल की गई थी.

लांसेट की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि साल 2000-04 से 2017-21 के बीच, गर्मी के चलते बुज़ुर्ग आबादी की वार्षिक मृत्यु दर बढ़ गई है. इसके समानांतर, भयंकर गर्मी का बहुत से देशों पर तबाही लाने वाला असर पड़ा है, क्योंकि इससे इन अर्थव्यवस्थाओं की उत्पादकता में गिरावट आई है.

इस रिपोर्ट में ये पाया गया है कि पिछले दो वर्षों के दौरान भयंकर मौसम की घटनाओं ने पूरी दुनिया में तबाही मचाई है, जिससे महामारी से जूझ रही स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव और भी बढ़ गया है. रिपोर्ट में पाया गया कि 2021-22 के दौरान भारत समेत कई देशों में अभूतपूर्व रूप से अधिक तापमान दर्ज किए गए, जो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. इस रिपोर्ट में ये भी अंदाज़ा लगाया गया था कि ग्लोबल वार्मिंग को अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस के तय लक्ष्य तक सीमित रखना है, जो जैसे अभी चल रहा है, उसी रास्ते पर चलते रहने से काम नहीं बनने वाला है.

लांसेट की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि साल 2000-04 से 2017-21 के बीच, गर्मी के चलते बुज़ुर्ग आबादी (65 साल से ज़्यादा उम्र वालों) की वार्षिक मृत्यु दर बढ़ गई है. इसके समानांतर, भयंकर गर्मी का बहुत से देशों पर तबाही लाने वाला असर पड़ा है, क्योंकि इससे इन अर्थव्यवस्थाओं की उत्पादकता में गिरावट आई है. रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में भयंकर गर्म मौसम के चलते 470 अरब संभावित श्रमिक घंटों में कमी आई है, जिसका मतलब आमदनी के नुक़सान के पैमाने पर दुनिया की 0.72 प्रतिशत आर्थिक उत्पादकता की कमी है. अगर हम मानव विकास के सूचकांक (HDI) में निचले पैमाने पर खड़े देशों की बात करें, तो उनकी आमदनी को तुलनात्मक रूप से अधिक नुक़सान हुआ है और इसमें 5.6 फ़ीसद की गिरावट देखी गई है.

दुनिया के तापमान में बढ़ोत्तरी का असर तीसरे जीव के माध्यम से होने वाली बीमारियों पर भी पड़ा है. लांसेट की काउंटडाउन रिपोर्ट में पाया गया है कि अमेरिका और अफ्रीका के ऊंचे इलाक़ों में मलेरिया के संक्रमण के लिए उपयुक्त समय सीमा 1951-60 से 2012-22 के बीच 31.3 और 13.8 प्रतिशत बढ़ गई है. इसके साथ साथ, डेंगू के संक्रमण का जोखिम भी 12 प्रतिशत बढ़ गया है. रिपोर्ट में पाया गया है कि बेहद ख़राब मौसम का असर फ़सलों की उपज पर भी पड़ा है. जिसके चलते आपूर्ति श्रृंखलाओं पर दबाव बढ़ा है, जिससे दुनिया में खाद्य असुरक्षा में इज़ाफ़ा हो गया है.

जलवायु परिवर्तन से जुड़े बदलाव लाने तौर-तरीक़ों और विकासशील देशों में ऊर्जा तक पहुंच जैसे मसलों पर हो रही बहस बहुत पेचीदा है और इसके तमाम पहलू एक दूसरे से जुड़े हैं. ये नहीं कहा जा सकता कि जवाब हां में या न में. विशेषज्ञों का कहना है कि विकासशील देशों ने ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन में बहुत कम योगदान दिया है.

इस रिपोर्ट में ये माना गया है कि अधिक उम्र वाले वयस्क, दिल की बीमारियों वाले लोग, ग़रीब तबक़े और कम क़ीमत वाले मकानों में अलग-थलग रहने वालों को भयंकर गर्मी से ज़्यादा ख़तरा है. रिपोर्ट में इन लोगों के लिए टिकाऊ और सस्ते दाम पर ख़ुद को ठंडा रख पाने के विकल्प मुहैया कराने का सुझाव दिया गया है. पूरी दुनिया में ‘पर्यावरण ख़राब करने वाले ईंधन’ से ज़्यादा वायु प्रदूषण होता है. वहीं दूसरी तरफ़ दुनिया में लगभग 77 करोड़ लोग ऐसे भी हैं, जो बिना बिजली के रहते हैं और उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं होता. लांसेट का अनुमान है कि 2020 में धूल और धुएं के महीन कण यानी पार्टिकुलेट मैटर (PM 2.5) से होने वाले प्रदूषण से 33 लाख लोगों की जान गई. इनमें से एक तिहाई से भी ज़्यादा लोगों की मौत का सीधा संबंध जीवाश्म ईंधन थे. लांसेट की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि कार्बन उत्सर्जन वाले ईंधन से छुटकारा पाना फौरी प्राथमिकता है, जिसके सीधे और अप्रत्यक्ष लाभ हैं.

दिलचस्प बात ये है कि इस रिपोर्ट में ये पाया गया कि 2019 में दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में ख़ुद स्वास्थ्य क्षेत्र का योगदान 5.2 फ़ीसद रहा था. जो 2018 की तुलना में 5 प्रतिशत से भी अधिक है. ज़ाहिर है कि उसके बाद के वर्षों में ये अनुपात और बढ़ा ही होगा. क्योंकि एक के बाद एक आए स्वास्थ्य के संकट ने दुनिया की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर अभूतपूर्व बोझ डाला है. लांसेट के अध्ययन में फ्रांस की स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर इशारा करते हुए कहा गया कि अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था और कम कार्बन उत्सर्जन एक दूसरे के विपरीत ध्रुव नहीं, बल्कि एक दूसरे से जुड़ी हुई बातें हैं. रिपोर्ट में अधिक शाकाहारी भोजन की ओर बढ़ने का भी सुझाव दिया गया है. क्योंकि शाकाहारी भोजन, कार्बन उत्सर्जन को 55 फ़ीसद तक कम कर सकता है. क्योंकि मांसाहारी खाने को तरज़ीह देने से कृषि क्षेत्र से होने वाला कार्बन उत्सर्जन बढ़ जाता है, जो लाल मांस और दूध का उत्पादन बढ़ाने के चलते होता है. शाकाहारी भोजन को बढ़ावा देने से दूसरे जानवरों से इंसानों में आने वाली बीमारियों का डर भी कम होगा. हालांकि, जानवर से मिलने वाली प्रोटीन का सस्ता विकल्प अभी भी बहुत से विकसित देशों में खाद्य सुरक्षा के लिए बेहद अहम है.

उम्मीद की किरण या चुनिंदा आंकड़ों से घबराहट बढ़ाने की कोशिश?

लांसेट की रिपोर्ट में बहुत भयावाह तस्वीर बनाने वाले आंकड़े पेश किए गए हैं. फिर भी काउंटडाउन रिपोर्ट ये कहती है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के स्वास्थ्य पर केंद्रित विकल्प पूरी दुनिया में उभर रहे हैं. इसे सही साबित करने वाले सुबूत बताते हैं कि 2021 में स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी बातों का मीडिया कवरेज पूरी दुनिया में रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया. ये 2020 की तुलना में 21 प्रतिशत अधिक है. इसी से जुड़ी बात शायद ये भी है कि 2020 की तुलना में 2021 में जलवायु परिवर्तन के सेहत से जुड़े मसलों में नागरिकों की दिलचस्पी में भी इज़ाफ़ा हुआ है. आम नागरिकों के दिलचस्पी लेने का नतीजा ये हुआ है कि राष्ट्रीय सियासी नेतृत्व पर भी इसका असर पड़ा है, और 194 में से रिकॉर्ड 60 फ़ीसद देशों ने 2021 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की परिचर्चाओं में स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के संबंधों पर चर्चा की. वहीं, देशों द्वारा ख़ुद से तय किए गए कार्बन उत्सर्जन संबंधी लक्ष्यों (NDCs) में से 86 प्रतिशत का संबंध स्वास्थ्य से पाया गया है.

लांसेट की काउंटडाउन रिपोर्ट में जो सुबूत पेश किए गए हैं, वो बातें निश्चित रूप से गंभीर हैं और ज़ाहिर है कि रिपोर्ट के हवाले से हालात सुधारने के लिए सही क़दम उठाने की मांग भी वाजिब है. इस रिपोर्ट के आंकड़े ही आने वाले वर्ष में परिचर्चा की दशा दिशा देने में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं, जिसकी शुरुआत शर्म अल-शेख़ जलवायु सम्मेलन (COP27) से हो चुकी है. फिर भी इन लक्ष्यों को हासिल करने के तौर-तरीक़ों को लेकर चिंताएं भी जताई जा रही हैं. जलवायु परिवर्तन से जुड़े बदलाव लाने तौर-तरीक़ों और विकासशील देशों में ऊर्जा तक पहुंच जैसे मसलों पर हो रही बहस बहुत पेचीदा है और इसके तमाम पहलू एक दूसरे से जुड़े हैं. ये नहीं कहा जा सकता कि जवाब हां में या न में. विशेषज्ञों का कहना है कि विकासशील देशों ने ऐतिहासिक रूप से कार्बन उत्सर्जन में बहुत कम योगदान दिया है. लेकिन, उनके चलते जो हालात बने हैं, उनसे निपटने के लिए विकासशील देशों को ख़ुद ही इंतज़ाम करने को कह दिया जाता है. जबकि जलवायु परिवर्तन को विश्व का साझा बोझ माना जाता है. विकासशील देशों द्वारा इस चुनौती से निपटने के लिए दी जा रही क़ुर्बानियों की अनदेखी कर दी जाती है.

भारत ने अभी ATACH का सदस्य बनने का फ़ैसला नहीं किया है. क्योंकि, ये तय है कि अभी की अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार से इस सेक्टर से कार्बन उत्सर्जन बढ़ जाएगा. चूंकि काउंटडाउन रिपोर्ट में अमेरिका की तुलना में भारत की उपलब्धियों को सराहा गया है, क्योंकि अमेरिका की स्वास्थ्य सेवा द्वारा, प्रति नागरिक औसत कार्बन उत्सर्जन, भारत की तुलना में 50 गुना अधिक है.

स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के विषयों की मीडिया कवरेज शानदार है; हालांकि, मीडिया के शोर के साथ जिन मुद्दों को ख़ूब उछाला जाता है. लोगों के बीच प्रचारित किया जाता है, उनकी हक़ीक़तों पर भी एक नज़र डालनी ज़रूरी है. मिसाल के तौर पर लांसेट की काउंडाउन रिपोर्ट को ही लें. भारत में इस रिपोर्ट की मीडिया कवरेज में सबसे ज़्यादा तवज्जो इस बात को दी गई कि दुनिया में गर्मी से होने वाली बुज़ुर्गों की मौत में साल 2000-04 से 2017-21 के बीच 68 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया. इस रिपोर्ट में ख़ास भारत से जुड़े आंकड़ों में दावा किया गया है कि भारत में इस दौरान गर्मी से बुज़ुर्गों की मौत की तादाद में 55 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गई, जिसका मतलब है गर्मी से 11,020 बुज़ुर्गों की मौत अधिक हुई. 

हालांकि, बाद में जानकारों ने लांसेट की रिपोर्ट के इस दावे को चुनौती दी और सवाल उठाया क आख़िर मृत्यु दर के बजाय मौत की संख्या को आंकड़ों का आधार क्यों बनाया गया है. भारत में 200-04 से 2017-21 के बीच बुज़ुर्गों की आबादी 5.1 करोड़ से बढ़कर लगभग 9 करोड़ पहुंच गई, जो 76 प्रतिशत अधिक है. जानकारों का तर्क है कि अगर हम बुज़ुर्गों की बढ़ी हुई आबादी के हिसाब से लांसेट की रिपोर्ट के आंकड़ों को संतुलित करें, तो भारत में गर्मी से मौत की संख्या 39.5 प्रति लाख से घटकर 34.5 प्रति लाख हो गई होती. ये गर्मी से बुज़ुर्गों की मौत में 55 फ़ीसद इज़ाफ़े का दावा करने वाली रिपोर्ट के ठीक उलट, इसमें 12 प्रतिशत की कमी का इशारा करता है. दिलचस्प बात ये है कि ये बड़ी कमी पिछले साल की रिपोर्ट में भी पायी गई थी और लांसेट का ध्यान भी इस ओर खींचा गया था. अगर आंकड़े जुटाने की व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए, तो जलवायु परिवर्तन से जुड़े सुबूतों के आधार पर संबंधित देशों में संतुलित बहस छिड़ेगी. लांसेट की इस रिपोर्ट का भारत में मीडिया कवरेज उस वक़्त हो रहा था, जब जलवायु परिवर्तन के चलते मलेरिया जैसी बीमारियों के संक्रमण के तौर-तरीक़ों में बदलाव का अंदाज़ा लगाने वाली बहस छिड़ी हुई है. हालांकि रिपोर्ट में उन्हीं क्षेत्रों का ज़िक्र है, जहां मलेरिया के संक्रमण के लिए उचित माहौल वाले महीनों की संख्या नाटकीय तरीक़े से बढ़ गई है. इस बात को स्थायी हक़ीक़त मानकर ही मीडिया कवरेज दिया गया. हालांकि, जब आप संयुक्त राष्ट्र की IPCC रिपोर्ट जैसे दूसरे स्रोतों पर बारीक़ी से नज़र डालते हैं, तो पता ये चलता है कि– भारत और दक्षिणी पूर्वी एशिया में- निश्चित रूप से ऐसे क्षेत्र हैं, जहां मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के वितरण से उनकी तादाद में इसी कारण से कमी आने का अनुमान है.

हो सकता है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के कारणों से मलेरिया जैसी बीमारियों में नाटकीय इज़ाफ़ा या कमी न हो. बल्कि बीमारी के अलग अलग इलाक़े में प्रभाव पर असर पड़े. संयुक्त राष्ट्र की IPCC रिपोर्ट में 2030 के दशक के लिए कुछ संभावनाओं की तस्वीरें पेश की गई हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ हिमालय वाला इलाक़ा, दक्षिणी और पूर्वी तटीय भारत में मलेरिया होने का जोखिम बढ़ने की आशंका जताई गई है. इन क्षेत्रों में मलेरिया फैलने की आशंका वाला समय बढ़ने का अनुमान है. वहीं, मलेरिया के मौजूदा सबसे बड़े हॉट स्पॉट में कमी आने का अनुमान है.

ब्योर्न लोमबोर्ग जैसे विशेषज्ञ ये तर्क देते हैं कि कुछ ख़ास नज़रिए से आंकड़े पेश करने के पीछे ऐसे मसलों के भागीदारों की चिंता को जानबूझकर बढ़ाने की कोशिश की जाती है, ताकि दबाव में कोई अपने लिए मुफ़ीद नीतिगत फ़ैसले कराए जा सकें. लोमबोर्ग तर्क देते हैं कि पूरी दुनिया में हर साल गर्मी के बजाय ठंड से ज़्यादा लोगों की जान जाती है (गर्मी की तुलना में सर्दी से हर साल 1 के मुक़ाबले 9 लोगों की मौत होती है) और सच तो ये है कि धरती के बढ़ते तापमान के चलते ठंड से होने वाली मौतों की संख्या में कमी आ रही है. सच है कि पिछली एक सदी में धरती का तापमान लगातार बढ़ा है. लेकिन, अमेरिका में गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या कम हुई है. लोमबोर्ग ने 2016 के एक अध्ययन का हवाला दिया है, जो ये साबित करती है कि गर्मी से मौतों की संख्या इसलिए कम हुई, क्योंकि लोगों ने घर में एयर कंडीशनिंग की व्यवस्था कर ली. गर्मी से होने वाली मौतों की पहेली सुलझाने में ऊर्जा सुरक्षा एक महत्वपूर्ण पहलू है.

क्या जलवायु परिवर्तन जैसी अस्तित्व के लिए ख़तरा साबित हो रही चुनौतियों से निपटने के लिए विकासशील देशों से ऐसी रिपोर्ट के दबाव में अपनी बात मनवाने के झांसे में लिया जा सकता है? इस सवाल का जवाब उत्सर्जन के ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ दिया जाना चाहिए. 2022 में प्रकाशित एक समीक्षा, जिसमें जलवायु परिवर्तन के सीधे और अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रभावों का आकलन किया गया था, में ये पाया गया था कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में किसी समुदाय की कमज़ोरी के साथ साथ व्यापक आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरण संबंधी कारणों का भी योगदान होता है.

जलवायु परिवर्तन से जुड़े भारत के लक्ष्य महत्वाकांक्षी भी हैं और सावधानी से चलने वाले भी. ये बात भारत द्वारा हाल ही में संशोधित किए गए कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों से साफ़ होती है. इसके समानांतर, आबादी के बड़े हिस्से को भरोसेमंद और सस्ती दरों पर बिजली मुहैया कराने पर ज़ोर देते हुए, भारत ने साफ़ कर दिया है कि वो आने वाले लंबे वक़्त तक कोयले के इस्तेमाल से दूरी नहीं बनाएगा. शर्म अल-शेख़ जलवायु सम्मेलन (COP27) में स्वास्थ्य नीति से जुड़ी ज़्यादा परिचर्चाएं एलायंस फॉर ट्रांसफॉर्मेटिव एक्शन ऑन क्लाइमेट ऐंड हेल्थ (ATACH) से जुड़ी हुई थीं. इसकी शुरुआत पिछले साल ग्लासगो में हुए सम्मेलन (COP26) से हुई थी. ATACH का मक़सद टिकाऊ और जलवायु परिवर्तन के झटके सह सकने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था का निर्माण करने की महत्वाकांक्षा पूरी करना है. इसका एक मक़सद जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के संबंध को संबंधित देशों की राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक योजनाओं का हिस्सा बनाना है. 

भारत ने अभी ATACH का सदस्य बनने का फ़ैसला नहीं किया है. क्योंकि, ये तय है कि अभी की अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार से इस सेक्टर से कार्बन उत्सर्जन बढ़ जाएगा. चूंकि काउंटडाउन रिपोर्ट में अमेरिका की तुलना में भारत की उपलब्धियों को सराहा गया है, क्योंकि अमेरिका की स्वास्थ्य सेवा द्वारा, प्रति नागरिक औसत कार्बन उत्सर्जन, भारत की तुलना में 50 गुना अधिक है. ऐसे में भारत को जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परिचर्चाओं में बहुत फूंक-फूंककर क़दम उठाना होगा, ताकि पश्चिमी देशों के हित साधने के लिए इस कमियों को न तो प्रचारित किया जाए और न ही इसकी शान में क़सीदे पढ़े जाएं. ये सच है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जंगलों में लगने वाली आग बेहद अहम हैं और इनसे निपटने की कोशिश की जानी चाहिए. लेकिन, भारत के सामने अपनी आबादी की सेहत पर असर डालने वाले कहीं ज़्यादा अहम मसले समाधान के तलबगार हैं, जैसे कि फ़सलों को लगने वाली आग. इसके लिए भारत को नीति निर्माण में नया नज़रिया पेश करना होगा

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