Published on Dec 29, 2022 Updated 0 Hours ago

बढ़ते जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले लोगों के विस्थापन को कम करने के लिए उपयुक्त नीतियों को अपनाने की ज़रूरत है.

जलवायु विस्थापन को बढ़ावा दे रहा है जलवायु परिवर्तन!

वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो जलवायु की वजह से होने वाले विस्थापनों की संख्या और उसके प्रभाव दोनों में बढ़ोतरी हुई है. इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (IDMC) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में चक्रवात और बाढ़ के कारण 23.7 मिलियन लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ा. जलवायु परिवर्तन ने ना केवल हीट वेट यानी लू, सूखा, तूफान, भूकंप, बाढ़ और जंगल में आग जैसे ख़तरों की तीव्रता को बढ़ा दिया है, बल्कि समुद्र के स्तर में वृद्धि समेत ऐसे तमाम तरह के बदलाव धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं. यूएन इंटरनेशनल स्ट्रेटजी फॉर डिजास्टर रिडक्शन यानी आपदा को कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय रणनीति (UNISDR) के मुताबिक़ जलवायु संकट का मतलब एक ऐसी ख़तरनाक घटना, मानव गतिविधि या स्थिति है, जिससे शारीरिक नुक़सान, जीवन की हानि या संपत्ति की क्षति आदि हो सकती है. इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन ऑन माइग्रेशन (IOM) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर 25 मिलियन से 1 बिलियन के बीच लोग जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय बदलावों की वजह से अपने घरों से पलायन करने के लिए मज़बूर होंगे. दक्षिण एशिया इसका अपवाद नहीं है. हर साल आपदाएं दक्षिण एशिया में होने वाले ज़्यादातर आंतरिक विस्थापनों का कारण बनती हैं. दक्षिण एशिया में वर्ष 2021 में आपदाओं की वजह से क़रीब 5.3 मिलियन लोगों का विस्थापन दर्ज़ किया गया था. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया (CANSA) की रिपोर्ट के अनुसार अकेले भारत में वर्ष 2050 तक लगभग 45 मिलियन लोग जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाओं के चलते पलायन करने के लिए मजबूर होंगे, जो कि वर्तमान आंकड़ों की तुलना में तीन गुना अधिक है.

हर साल आपदाएं दक्षिण एशिया में होने वाले ज़्यादातर आंतरिक विस्थापनों का कारण बनती हैं. दक्षिण एशिया में वर्ष 2021 में आपदाओं की वजह से क़रीब 5.3 मिलियन लोगों का विस्थापन दर्ज़ किया गया था.

ऐसे तमाम आंकड़ों के बावज़ूद, इसको लेकर आम सहमति बहुत कम है कि जलवायु से प्रेरित होने वाले विस्थापनों से किस प्रकार निपटा जाए. जब लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होते हैं, तो उनके लिए अक्सर "पर्यावरणीय शरणार्थी", "जलवायु शरणार्थी", "जलवायु विस्थापित" और "पर्यावरण विस्थापित" जैसे शब्दों का उपयोग किया जाता है. सभी तरह के हालातों और पृष्ठभूमि के विरुद्ध, इस लेख का मकसद a) जलवायु परिवर्तन/पर्यावरणीय गिरावट और मानव विस्थापन के बीच के संबंधों का विश्लेषण करना है और b) अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारों द्वारा जलवायु की वजह से होने वाले विस्थापन और सुरक्षा तंत्र की व्याख्या कैसे की जाती है, उसके बारे में विस्तृत चर्चा करना है.

 क्लाइमेट माइग्रेंट्स यानी जलवायु प्रवासी कौन हैं?

IOM जलवायु प्रवासियों या विस्थापितों को "...ऐसे व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों के रूप में परिभाषित करता है, मुख्य रूप से पर्यावरण में अचानक या प्रगतिशील बदलावों की वजह से जिनके जीवन पर या जिनके रहने की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और मज़बूरन जिन्हें अपने निवास स्थानों को छोड़ना पड़ता है, या जो अपने घरों को अस्थायी या स्थायी तौर पर छोड़ने को बाध्य होते हैं, या फिर जिन्हें इन परिस्थितियों के कारण अपने देश में ही या दूसरे देश में सुरक्षित जगह पर रहने के लिए पलायन करना पड़ता है.” बड़े पैमाने पर होने वाले क्रॉस-बॉर्डर यानी सीमा-पार (अंतर-देश) माइग्रेशन के उलट, जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले विस्थापन आमतौर पर ज़्यादा व्यापक नहीं होते हैं और आंतरिक यानी देश की सीमाओं के भीतर ही होते हैं.

जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल (IPCC) ने उल्लेख किया है कि जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े प्रभावों में से एक'मानव विस्थापन' किस प्रकार से हो सकता है. माइग्रेशन के ज़्यादातर मामलों में आर्थिक, राजनीतिक कारणों में से पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की स्थितियों को अलग करना बेहद चुनौतीपूर्ण है. इन जटिल हालातों में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के फैक्टर यह सुनिश्चित करने में अधिक महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं कि लोग कैसे पलायन करते हैं.

महिलाओं और बच्चों पर दुष्प्रभाव

इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है कि जलवायु परिवर्तन और इससे पैदा होने वाली परेशानियों का असर हमारे समाज के सबसे हाशिए पर पड़े वर्गों, जैसे कि महिलाओं और बच्चों पर असमान रूप से सबसे ज़्यादा होता है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से विस्थापित होने वालों में लगभग 80 प्रतिशत संख्या महिलाओं की है. ग्लोबल इंटरनेशनल माइग्रेंट स्टॉक में महिला विस्थापितों की वर्तमान हिस्सेदारी 48 प्रतिशत और 52 प्रतिशत के बीच है, क्योंकि वे अक्सर महिला होने के साथ-साथ असुरक्षित कामगार और विस्थापितों के रूप में एक तरह से 'तिहरे भेदभाव' का अनुभव करती हैं. भारत, बांग्लादेश, म्यांमार जैसे विकासशील देशों और प्रशांत महासागर के कई छोटे द्वीपीय देशों में तो हालात और भी विकट हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से जिन महिलाओं को अपने घरों को छोड़ना पड़ता है, उनके हिंसा, मानव तस्करी और सशस्त्र संघर्षों की चपेट आने की संभावना काफ़ी बढ़ जाती है, क्यों ये इसके लिए वे आसान शिकार होती हैं. उदाहरण के लिए सिएरा क्लब (2018) के एक अध्ययन से स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि म्यांमार में चक्रवात नरगिस से महिलाएं किस प्रकार प्रभावित हुईं और उन्हें किस प्रकार से "यौन और घरेलू उत्पीड़न, जबरन वेश्यावृत्ति और यौन एवं श्रम तस्करी की घटनाओं" का सामना करना पड़ा.

शब्दों की परिभाषा पर बहस

1951 के रिफ़्यूजी कन्वेंशन के आर्टिकल 1A (2)में तीन उन पूर्व शर्तों का उल्लेख है जो एक शरणार्थी के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए ज़रूरी हैं, जैसे यदि किसी को धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, आदि जैसे आधारों पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वो इससे बुरी तरह से भयभीत है; यदि कोई वर्तमान में अपने देश के बाहर मौज़ूद है; और वह अपने मूल देश में सुरक्षा का लाभ उठाने का इच्छुक नहीं हैं. इस संबंध में, एक "क्लाइमेट रिफ़्यूजी" यानी "जलवायु शरणार्थी" को यह अनिवार्य रूप से साबित करना होगा कि अगर उन्हें अपने मूल देश में वापस जाना है, तो उन्हें अपने उत्पीड़न का ख़तरा होगा और वो भी कन्वेंशन द्वारा निर्धारित किए गए आधारों पर. ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ODI) द्वारा दी गई एक जानकारी से यह पता चलता है कि जिन लोगों को विस्थापित किया गया है, उन्हें अक्सर "जलवायु परिवर्तन शरणार्थी" के रूप में ग़लत तरीके से चिन्हित किया जाता है. ज़ाहिर है कि यदि ऐसा होता तो सैद्धांतिक रूप से "जलवायु शरणार्थी" दूसरे देश में संरक्षण प्राप्त करने के लिए सीमा पार यात्रा करने में सक्षम होते. लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है और ज़मीनी हक़ीक़त तो बेहद पेचीदा और अनिश्चित सी होती है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि यूनाइटेड नेशन्स हाई कमिश्नर फॉर रिफ़्यूजी (UNHCR) ऐसे व्यक्तियों को 'पर्यावरण माइग्रेंट्स' के रूप में मान्यता देता है और उन्हें एक शरणार्थी के तौर पर दर्ज़ा देने से इनकार करता है. इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का मानना है कि अगर सरकारें पेरिस समझौते, सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) और सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (SFDRR) को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं के बारे में गंभीर होना चाहती हैं, तो "जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विस्थापन" के संबंध में सामने आने वाले अवसरों को अनुभव करना बेहद ज़रूरी है. UNDP-ODI की एक रिपोर्ट के माध्यम से मानव विस्थापन और जलवायु परिवर्तन के बीच जटिल संबंधों को लेकर विस्तार से चर्चा की गई है.

ज़ाहिर है कि इस प्रकार के विस्तृत विश्लेषण जलवायु विस्थापन की अवधारणा को लेकर ना केवल एक व्यापक समझ के बारे में बताते हैं, बल्कि यह भी दर्शातें हैं कि इस तरह का विस्थापन किस प्रकार से स्थायी या अस्थायी, व्यक्तिगत या सामूहिक प्रकृति का हो सकता है. इतना ही नहीं इससे यह भी पता चलता है कि विस्थापन के पीछे धीरे-धीरे होने वाली घटनाएं ज़िम्मेदार हैं, या अचानक सामने आने वाली घटनाएं ज़िम्मेदार है, या फिर इसके पीछे कोई और बड़ा कारण है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह बताती है कि किस प्रकार पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली आपदाएं अब आंतरिक विस्थापन की सबसे बड़ी वजह के रूप में उभरी हैं. IDMC के आंकड़ों के अनुसार रिपोर्ट की गईं बड़ी और गंभीर मौसमी आपदाओं की संख्या में पांच गुना वृद्धि हुई है, जिनके कारण पिछले दशक में बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित होना पड़ा.

जानकारी से यह पता चलता है कि जिन लोगों को विस्थापित किया गया है, उन्हें अक्सर "जलवायु परिवर्तन शरणार्थी" के रूप में ग़लत तरीके से चिन्हित किया जाता है. ज़ाहिर है कि यदि ऐसा होता तो सैद्धांतिक रूप से "जलवायु शरणार्थी" दूसरे देश में संरक्षण प्राप्त करने के लिए सीमा पार यात्रा करने में सक्षम होते.

Figure 1: हर साल आंतरिक विस्थापन का कारण बनने वाली जलवायु से जुड़ी आपदाओं की संख्या

स्रोत:ऑक्सफैम मीडिया ब्रीफिंग

 न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन और इसके वैश्विक समझौते

न्यूयॉर्क घोषणा (2016) ने दुनिया के तमाम देशों को अंतर्राष्ट्रीय विस्थापन के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत शुरू करने के लिए प्रारंभिक मुद्दे उपलब्ध कराए हैं. इसने वर्ष 2018 में ग्लोबल कॉम्पैक्ट फॉर सेफ, ऑर्डर्ली एंड रेगुलर माइग्रेशन (GCM) यानी सुरक्षित, व्यवस्थित और नियमित विस्थापन के लिए वैश्विक समझौता अपनाने को अनिवार्य कर दिया. इसके साथ ही न्यूयॉर्क घोषणा ने पहली बार अंतर्राष्ट्रीय माइग्रेशन की व्यापक अवधारणा के अंतर्गत जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले विस्थापन की परिकल्पना की पहचान करने वाले एक व्यापक फ्रेमवर्क को भी विकसित किया था. न्यूयॉर्क घोषणा ने उसी वर्ष यानी 2016 में ही शरणार्थियों पर वैश्विक समझौते (GCR) को अपनाने का मार्ग भी प्रशस्त किया. लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से विस्थापित होने को मज़बूर हुए लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शरणार्थी क़ानून का विस्तार, हक़ीक़त में इस मानवीय चिंता का समाधान नहीं करता है.

GCM के जो भी प्रमुख निष्कर्ष हैं, उनके मुताबिक़ यह धीरे-धीरे होने वाले पर्यावरणीय बदलावों के कारण सामने आने वाले प्रभावों, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और प्राकृतिक आपदाओं को उन कारकों के रूप में चिन्हित करता है, जो समकालीन विस्थापन की बढ़ाने का काम करते हैं. यह पर्यावरणीय विस्थापन की चुनौतियों से निपटने के लिए रिसर्च में अधिक निवेश करने की आवश्यकता पर भी ज़ोर देता है. साथ ही यह पेरिस जलवायु समझौते, आपदा ज़ोख़िम को कम करने के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क, और यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेज़र्टीफिकेशन  (UNCCD) जैसे जलवायु परिवर्तन को दूर करने वाले महत्त्वपूर्ण साधनों और माध्यमों पर निर्भर करता है. जहां तक GCM की बात है, तो विस्थापन केंद्रित पहला बहुपक्षीय साधन होने के बावज़ूद, इसकी सॉफ्ट क़ानूनी प्रकृति, इसके पक्षकार देशों द्वारा संभावित गैर-अनुपालन की चिंताओं को सामने लाती है.

GCM का ज़ीरो ड्राफ्ट यानी इसमें पहली बार उल्लखित किए गए मुद्दे स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह किस प्रकार से विस्थापन के कारणों से जुड़ी प्रतिबद्धता को लेकर देशों की साझा ज़िम्मेदारियों को निर्धारित करता है. यह दर्शाता है कि कैसे GCM अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नैतिक ज़िम्मेदारी की भावना रखने वाले देशों पर निर्भर करता है. इस समझौते की प्रस्तावना का आर्टिकल 7 इस बात पर भी ज़ोर देता है कि यह उन सभी देशों की संप्रभुता को किस प्रकार से बरक़रार रखता है, जो इसके पक्षकार हैं. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कैसे GCM अपने दायरे में सिर्फ़ एक दस्तावेज़ के तौर पर सीमित रहता है, जिसके प्रावधान तकनीकी रूप से से देखा जाए तो गैर-बाध्यकारी हैं और जो भी देश इसमें पक्षकार हैं, उनके द्वारा इसका आसानी से उल्लंघन किया जा सकता है.

COP27 और जयवायु विस्थापन

वर्ष 2022 की COP27 समिट को एक ऐसे मंच के रूप में देखा गया था, जो क्लाइमेट माइग्रेशन की अवधारणा पर प्रकाश डालेगा, उसे सामने लेकर आएगा. विशेष रूप से ग्लोबल गोल ऑन एडेप्टेशन (GGA) को परिभाषित करने के लिए कार्य योजना के आलोक में, जो चल रहे जलवायु संकट को लेकर, जिससे कि दुनियाभर में कई सारे देश पहले से ही प्रभावित हैं, उनकी सामूहिक ज़रूरतों और समाधानों की पहचान करने की दिशा में कार्य करने वाला है. ज़ाहिर है कि ग्लोबल गोल ऑन एडेप्टेशन (GGA) को वर्ष 2021 में COP26 समिट में स्थापित किया  गया था. अतीत में COPs ने जलवायु की वजह से होने वाले विस्थापन की बात की है और COP16 में कैनकन एडेप्टेशन फ्रेमवर्क को अपनाने एवं COP21 में विस्थापन पर एक टास्क फोर्स के गठन जैसे उदाहरणों के जरिए इसके महत्त्व को स्वीकार भी किया गया है.

ऐसे में, जबकि COP27 ने GGA (COP28 में 2023 में अपनाए जाने की संभावना) की उपलब्धि की दिशा में एक फ्रेमवर्क स्थापित किया है, जलवायु विस्थापितों की सुरक्षा और उनकी मदद के मामले में इसकी प्रगति फिलहाल अधर में लटकी हुई है. जैसा कि ECDM द्वारा किए गए एक अध्ययन में साफ तौर पर बताया गया है कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि विस्थापन पर गठित टास्क फोर्स ने किस प्रकार जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले पलायन को "नुकसान और क्षति" की चिंता के रूप में प्रस्तुत किया है. देखा जाए तो उसने बदले में स्पष्टता से यह भी कहा है कि इस तरह के मानव विस्थापन की समस्या इसलिए सामने खड़ी है, क्यों एडॉप्शन रणनीति विफल है.

जलवायु विस्थापितों के मुद्दे पर की जाने वाली किसी भी ठोस कार्रवाई को लेकर यह एक बड़ी अड़चन के रूप में सामने आता है, ज़ाहिर है कि इसका तत्काल समाधान तलाशा जाना चाहिए. नीति निर्माताओं ने COP27 में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कई चिंताओं पर चर्चा की थी, लेकिन जलवायु विस्थापितों की समस्याओं का हल निकालने को लेकर के आज तक कोई पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है. देखा जाए तो इस मुद्दे पर कुछ ठोस करने के बजाए सिर्फ़ हमदर्दी दिखाने और उम्मीद बांधने की बात की जा रही है.

वर्तमान परिचर्चा में भारत की स्थिति

इस पूरी चर्चा के बीच यह ध्यान रखना भी बेहद दिलचस्प है कि G20 देशों ने किस प्रकार से जलवायु विस्थापन के मुद्दे और इसके पीछे के कारणों को अपनी चिंता का विषय नहीं बनाया है. वो भी तब, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, भारत, चीन और इंडोनेशिया जैसे G20 सदस्य देशों में लगभग 8.5 मिलियन लोग आपदाओं के कारण विस्थापित हुए हैं. G20 बाली लीडर्स घोषणा के पैराग्राफ 40 में अनियमित रूप से होने वाले विस्थापनों को रोकने और विस्थापितों की मानव तस्करी जैसे मुद्दों की बात की गई है. इसके साथ ही इसमें भविष्य में होने वाले G20 शिखर सम्मेलनों में इन सभी मसलों पर वार्ता आयोजित करने का भी जिक्र किया गया है, लेकिन इस सबके बावज़ूद "क्लाइमेट माइग्रेशन" शब्द अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराने में विफल रहा है.

G20 देशों और बहुपक्षीय संस्थानों जैसे यूनाइटेड नेशन्स नेटवर्क ऑन माइग्रेशन (UNNM) के बीच एक गठबंधन बनाना ज़रूरी है, जिसका मकसद सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन, पेरिस एग्रीमेंट, सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स और यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) के उद्देश्यों के बीच एक मज़बूत तालमेल स्थापित करना है.

क्लाइमेट एक्शन के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में अपनी एक सार्थक और अहम भूमिका निभाना चाहता है. भारत की यह प्रतिबद्धता UNFCCC और इसके कार्यान्वयन के माध्यमों, जैसे कि क्योटो प्रोटोकॉल और पेरिस एग्रीमेंट के पक्षकार होने में प्रतिबिंबित हो सकती है. भारत की अध्यक्षतामाइग्रेशन और विस्थापन दोनों रूपों में मानव पलायन की बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिए G20 देशों को एक साथ काम करने के लिए एक प्लेटफॉर्म प्रदान कर सकती है. इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय नुकसान की वजह से होने वाले मानव विस्थापन से संबंधित जानकारी की कमी को भारत की अध्यक्षता में G20 मंच पर सरकारों के बीच आयोजित होने वाली चर्चा-परिचर्चाओं के माध्यम से संबोधित किया जा सकता है.


लेखक कोलकाता चैप्टर की ओआरएफ़ इंटर्न सौमी बिस्वास के शोध इनपुट में योगदान के लिए उनका धन्यवाद करते हैं. 

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