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'चाइना क्रॉनिकल्स' सीरीज़ में ये 167वां लेख है.
अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एवं रणनीति केंद्र (CISS)- सिंघुआ यूनिवर्सिटी के साथ जुड़ा सुरक्षा पर केंद्रित एक थिंक टैंक - ने दुनिया को लेकर चीन के नागरिकों के दृष्टिकोण का सर्वे किया है. CISS जानना चाहता है कि दुनिया को लेकर चीन के लोगों का दृष्टिकोण क्या है; सुरक्षा के मुद्दे पर वो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) को कैसे निपटते देखना चाहते हैं; चीन के लोगों की योजना में दूसरे देशों का स्थान कहां है; और सबसे महत्वपूर्ण ये कि अमेरिका के साथ चीन के संबंधों को वो कैसे देखते हैं, वो भी उस समय जब अमेरिका ने अपने नए राष्ट्रपति को चुना है.
वास्तव में सर्वे में भाग लेने वाले लगभग 60 प्रतिशत लोग अगले पांच वर्षों को लेकर निराशा भरा दृष्टिकोण रखते हैं. संयोग की बात है कि ये स्थिति उस समय है जब अमेरिका में नए राष्ट्रपति का कार्यकाल शुरू होने जा रहा है.
वास्तव में सर्वे में भाग लेने वाले लगभग 60 प्रतिशत लोग अगले पांच वर्षों को लेकर निराशा भरा दृष्टिकोण रखते हैं. संयोग की बात है कि ये स्थिति उस समय है जब अमेरिका में नए राष्ट्रपति का कार्यकाल शुरू होने जा रहा है.
सर्वे से पता चलता है कि इसमें शामिल 18-44 उम्र समूह के लगभग 50 प्रतिशत लोगों को दुनिया भर में सुरक्षा की स्थिति को लेकर संदेह है. ये 2023 की रिपोर्ट की तुलना में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी है जब उसी उम्र समूह के केवल 20 प्रतिशत जवाब देने वालों ने कहा था कि दुनिया "कम सुरक्षित" और "असुरक्षित" है. वास्तव में सर्वे में भाग लेने वाले लगभग 60 प्रतिशत लोग अगले पांच वर्षों को लेकर निराशा भरा दृष्टिकोण रखते हैं. संयोग की बात है कि ये स्थिति उस समय है जब अमेरिका में नए राष्ट्रपति का कार्यकाल शुरू होने जा रहा है. 2024 के सर्वे के नतीजे इस साल CPC के पूर्ण अधिवेशन के दौरान व्यक्त किए गए आधिकारिक रवैये को दर्शाते हैं जहां CPC के अभिजात वर्ग ने नियमित अंतराल पर उभर रहे क्षेत्रीय संघर्षों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के अधिक गंभीर होने के बीच चीन के भविष्य की राह को लेकर चर्चा की थी.
वैश्विक सुरक्षा की स्थिति को लेकर इस निराशा से भरे दृष्टिकोण के उलट सर्वे में शामिल लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने ज़ोर देकर कहा कि जिस समय दुनिया में उथल-पुथल मची हुई है, उस समय चीन "सुरक्षित" है. लगभग इतनी ही संख्या में जवाब देने वालों का मानना है कि पांच साल पहले की तुलना में देश की स्थिति में सुधार हुआ है. चीन के आगे बढ़ने की भावना भी है क्योंकि सर्वे में शामिल 90 प्रतिशत लोगों को भरोसा है कि पिछले पांच साल के दौरान दुनिया में चीन का महत्व बढ़ा है. तुलनात्मक रूप से 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि इन पांच वर्षों के दौरान अमेरिका के असर में गिरावट आई है.
दुनिया को लेकर चीन के नजरिया
दुनिया को लेकर चीन के नज़रिए में सकारात्मक भावना के बीच देश की प्रगति में बाधाएं छिपी हुई हैं. बाहरी पक्ष ताइवान के विवाद में दखल देना चाह रहे हैं और चीन के लोगों के लिए चीन-अमेरिका संबंध चुनौतियों की सूची में सबसे ऊपर है. "अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय या आर्थिक संकट," "औद्योगिक अलगाव," दक्षिण चीन सागर में "गैर-क्षेत्रीय देशों" की भागीदारी और सैन्य एवं नागरिक- दोनों क्षेत्रों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग की आशंका भी चीन के लोगों को चिंतित करती है. पिछले साल चीन के लोगों ने "महामारी" और "क्षेत्र को लेकर विवादों" को अपनी सबसे बड़ी चिंता बताया था.
महत्वपूर्ण देशों की अंतर्राष्ट्रीय अहमियत के संबंध में देखें तो ऐसा लगता है कि चीन के लोगों की कल्पना में भारत आगे बढ़ रहा है. दुनिया के परिदृश्य में सबसे प्रभावी किरदारों के सवाल पर सिंघुआ विश्वविद्यालय के 2023 के सर्वे में भारत को जगह नहीं मिली थी. इस साल सर्वे में जवाब देने वाले लगभग 16 प्रतिशत लोग भारत को "महत्वपूर्ण प्रभाव" रखने वाले एक देश के रूप में देखते हैं.
रूस-यूक्रेन और इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष को लेकर चीन के लोगों का दृष्टिकोण दिलचस्प है. रूस-यूक्रेन संघर्ष के मामले में लगभग 55 प्रतिशत लोग सोचते हैं कि या तो दोनों पक्ष दोषी हैं या बाहरी पक्षों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है. इज़रायल-फिलिस्तीन युद्ध के लिए लगभग 40 प्रतिशत लोग इज़रायल को जवाबदेह ठहराते हैं जबकि हमास को ज़िम्मेदार ठहराने वाले लोगों की संख्या महज़ पांच प्रतिशत है. लगभग 42 प्रतिशत लोग रूस को जवाबदेही से मुक्त करते हैं और “अन्य तीसरे पक्षों” को युद्ध के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं जबकि लगभग 16 प्रतिशत लोग केवल यूक्रेन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. सिर्फ 6 प्रतिशत लोग मानते हैं कि रूस की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है. इस तरह सर्वे में जवाब देने वाले लगभग 66 प्रतिशत लोगों का दृष्टिकोण रूस के पक्ष में है जबकि अमेरिका और जापान को गलत ढंग से देखा जाता है.
चीन की आर्थिक परेशानियां
चीन की आर्थिक परेशानियों को देखते हुए सर्वे में जवाब देने वाले लगभग 65 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि सरकार घरेलू एजेंडे को प्राथमिकता दे. इसके नतीजतन “सक्रिय” विदेश नीति चाहने वाले लोगों की संख्या पिछले साल के 78 प्रतिशत से कम होकर 2024 में 73 प्रतिशत हो गई. इसकी वजह से विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सैन्य शक्ति की तुलना में आर्थिक कूटनीति का लाभ उठाने पर अधिक ध्यान है. दूसरे समूहों की तुलना में युवा इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि चीन का बाहरी दृष्टिकोण कूटनीति और “सांस्कृतिक शक्ति” के माध्यम से हो. ताइवान स्ट्रेट और दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक रवैये के बावजूद छात्र चीन की विदेश नीति के लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सैन्य बल का उपयोग करने के पक्ष में नहीं हैं. हालांकि, सर्वे का जवाब देने वाले 78 प्रतिशत लोग सुरक्षा से जुड़ी अपनी चिंताओं को ध्यान में रखते हुए पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के द्वारा दुनिया भर में सैन्य अड्डा बनाने का समर्थन करते हैं. इसके साथ-साथ विदेशी इलाकों में सैन्य तैनाती के लिए समर्थन में महत्वपूर्ण गिरावट दर्ज की गई है और ये आंकड़ा पहले के 92 प्रतिशत से गिरकर 76 प्रतिशत हो गया है.
चीन की आर्थिक परेशानियों को देखते हुए सर्वे में जवाब देने वाले लगभग 65 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि सरकार घरेलू एजेंडे को प्राथमिकता दे. इसके नतीजतन “सक्रिय” विदेश नीति चाहने वाले लोगों की संख्या पिछले साल के 78 प्रतिशत से कम होकर 2024 में 73 प्रतिशत हो गई. इसकी वजह से विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सैन्य शक्ति की तुलना में आर्थिक कूटनीति का लाभ उठाने पर अधिक ध्यान है.
चीन के सामान्य नागरिकों के लिए अमेरिका के साथ चीन का संबंध भी महत्वपूर्ण है. महाशक्तियों के बीच मुकाबले को देखते हुए सर्वे में शामिल लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि चीन के विकास को अमेरिका रोक रहा है. इसके अलावा लगभग 40 प्रतिशत लोगों ने ये डर जताया कि चीन में अमेरिका शांतिपूर्ण बदलाव करने की कोशिश कर रहा है. इसके पक्ष में आर्थिक उपाय, वैचारिक तोड़फोड़ और CPC को सत्ता से बाहर करने के लिए असंतुष्ट तत्वों का फायदा उठाने की दलील दी जा रही है.
किसी अधिनायकवादी शासन से हर जानकारी का सावधानी से विश्लेषण करना चाहिए ताकि उसका वास्तविक मतलब समझा जा सके. अपनी किताब ‘स्ट्रॉन्ग सोसायटी, स्मार्ट स्टेट: द राइज़ ऑफ पब्लिक ऑपिनियन इन चाइनाज़ जापान पॉलिसी’ में जेम्स रीली तर्क देते हैं कि चीन लोगों की भावनाओं को शामिल करने और उसके मुताबिक कदम उठाने के लिए एक “संवेदनशील अधिनायकवादी” रूप-रेखा तैयार करने में सक्षम रहा है जो उसे नीतिगत नतीजों को आकार देने में मदद करती है. इस तरह ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि शिंघुआ यूनिवर्सिटी के सर्वे में जापान को लेकर चीन के नागरिकों का फीका दृष्टिकोण चीन में रहने वाले जापान के प्रवासियों को निशाना बनाने के बीच आया है. इसका ताज़ा उदाहरण शेंझेन में 10 साल के एक जापानी लड़के को छुरा घोंपना है. ये जापान विरोधी भावना चीन के बाहरी दृष्टिकोण के संबंध में शासकों और शासित के बीच ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की ओर संभावित जुड़ाव को स्थापित करती है.
आने वाले महीनों में अपने लोगों तक संदेश पहुंचाने की चीन की कोशिश पर कड़ी नज़र रखनी होगी क्योंकि इसका एशिया की सुरक्षा पर असर पड़ सकता है.
सूचना के मामले में CPC का पूरी तरह से दबदबा है और इस तरह के सर्वे अभिजात वर्ग और लोगों के बीच गांठ को मान्य बनाने का काम करते हैं. ‘ताइवान के साथ (गैर-) शांतिपूर्ण एकीकरण के लिए जन समर्थन की समीक्षा: चीन में एक देशव्यापी सर्वे से साक्ष्य’ शीर्षक वाले अपने अध्ययन में शिक्षाविद एडम वाई. ल्यू और शियोजून ली ने चीन के लोगों से मूल्यांकन करने के लिए कहा कि ताइवान के सवाल को हल करने में वो किस नीतिगत विकल्प को स्वीकार्य पाते हैं. विकल्प के तौर पर पूरी तरह से युद्ध, सैन्य ज़बरदस्ती, आर्थिक युद्ध एवं पाबंदियां और यथास्थिति या अलगाव दिए गए. इस विवाद के समाधान के उद्देश्य से ताकत के उपयोग के लिए बहुत ज़्यादा समर्थन की धारणा के विपरीत सर्वे में शामिल केवल 55 प्रतिशत लोगों ने सैन्य साधनों के माध्यम से ताइवान के एकीकरण का समर्थन किया. जवाब देने वाले चीन के लगभग 33 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ताइवान के फिर से एकीकरण के लिए ताकत का इस्तेमाल “अस्वीकार्य” है. मेनलैंड के लगभग 57 प्रतिशत और 58 प्रतिशत लोगों ने क्रमश: आर्थिक प्रतिबंधों और पूरी तरह से युद्ध से कम सैन्य ज़बरदस्ती का समर्थन किया. करीब 55 प्रतिशत लोग चीन और ताइवान के बीच मौजूदा यथास्थिति के साथ सहज थे. ये ठहराव चीन के उस रवैये के विपरीत है जिसके तहत ताइवान की संप्रभुता पर चीन हमला करना चाहता है और जिसका सबूत चीन के द्वारा इस साल राष्ट्रपति के संबोधन और राष्ट्रीय दिवस जैसे “राष्ट्रीयता” के प्रतीक वाले अवसरों पर सीधी सैन्य ज़बरदस्ती से मिला था. चीन का अनुमान है कि ताइवान के राष्ट्रपति लाई चिंग-ते “दो देशों” के विचार को आगे बढ़ा रहे हैं और इस तरह वो मेनलैंड से संबंध तोड़ना चाहते हैं. चीन “ताइवान की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने” में अमेरिका की भूमिका को भी रेखांकित करना चाहता है. यूक्रेन और ताइवान में दखल देने वाले बाहरी किरदारों को एक जैसा बताने के पीछे चीन का इरादा ताइवान के साथ विवाद में लोगों की राय को प्रभावी ढंग से जुटाना है. इस कोशिश में नेटो की तर्ज पर एशिया में एक संधि गठबंधन तैयार करने का जापान का प्रस्ताव और चीन में सरकार बदलने की अमेरिका की कवायद चीन के लिए उपयोगी अनुभव है. आने वाले महीनों में अपने लोगों तक संदेश पहुंचाने की चीन की कोशिश पर कड़ी नज़र रखनी होगी क्योंकि इसका एशिया की सुरक्षा पर असर पड़ सकता है.
कल्पित ए. मनकिकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
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