Author : Sohini Bose

Published on Oct 04, 2023 Updated 19 Days ago

बंगाल की खाड़ी के इलाके में चीन की बढ़ती गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए भारत को  जल के भीतर की अपनी नौसैनिक क्षमताओं को विकसित करने, सुरक्षा सहयोग को बेहतर करने, और जलक्षेत्र के भीतर जागरूकता के प्रसार को बढ़ाने की ज़रूरत है.  

बंगाल की खाड़ी में चीन की पनडुब्बी (सबमरीन) गतिविधियां: भारत के लिए चिंता का विषय

ये इस सीरीज़ का 149वीं लेख है – द चाइना क्रॉनिकल


पिछले कुछ वर्षों के दौरान, चीन ने बंगाल की खाड़ी को रेखांकित करते हुए कई तटीय देशों की पानी  के नीचे की नौसैनिक क्षमताओं को विकसित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. मार्च 2023 में बीएनएस शेख हसीना द्वारा 1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की कीमत वाली पहले पनडुब्बी अड्डे का उद्घाटन किया गया, जो बांग्लादेश स्थित चटगांव के कॉक्स बाज़ार ज़िले के पेकुआ में बनाया गया था, चीन ने इसके निर्माण में भी सहायता प्रदान की है. इसे देश की रक्षा विस्तार और आधुनिकीकरण करने के लिए बांग्लादेश के ‘फोर्सेस गोल 2030’ के अंग के रूप में एक साथ छह पनडुब्बियों और आठ युद्धपोतों को डॉक करने की क्षमता के साथ बनाया गया है. वर्तमान में, इसमें छह साल पहले 2017 में, बीजिंग से प्राप्त किए गए, ढाका की दो पनडुब्बियाँ, बी.एन.एस.नवजात्रा और बी.एन.एस.जॉयजत्रा की तैनाती होगी. 2021 में चीन ने म्यांमार को एक टाइप 035, या मिग क्लास डीजल-इलेक्ट्रिक अटैक युक्त पनडुब्बी दी थी, जिसका उपयोग पहले पीपल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (पीएलएएन) द्वारा किया जाता था.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, चीन ने बंगाल की खाड़ी को रेखांकित करते हुए कई तटीय देशों की पानी  के नीचे की नौसैनिक क्षमताओं को विकसित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.

2017 में थाईलैंड ने बीजिंग से दो पनडुब्बियों की कीमत पर तीन पनडुब्बियां खरीदने के साथ-साथ थाई कर्मियों के लिए एक विस्तारित गुणवत्ता गारंटी, संचार, युद्ध प्रणाली और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए भी सहमति कायम की थी. हालाँकि, बाद में थाई सरकार को थाई अर्थव्यवस्था पर महामारी के नुकसानदायक प्रभाव के कारण अपने ज़रूरत से ज़्यादा रक्षा खर्चों के लिए विपक्ष और उसकी जनता की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था, इस वजह से उन्हें अपने ऑर्डर को घटाकर एक पनडुब्बी करना पड़ा था. विशेष रूप से श्रीलंका में हम्बनटोटा मामले को देखने के बाद, थाई समाज में बढ़ती बेचैनी, चीन पर उसकी बढ़ती रणनीतिक निर्भरता के प्रभाव के कारण भी इस सौदे में कमी आने की आशंका है. इस समय तो थाईलैंड द्वारा दिए गए एक पनडुब्बी के ऑर्डर भी खतरे में नज़र आते हैं, क्योंकि पनडुब्बी के लिए आवश्यक प्रोपलशन सिस्टम देने के लिए नियुक्त जर्मन कंपनी ने यूरोपीय संघ (ईयू) द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बाद, चीन को जर्मनी द्वारा किए जा रहे सीमित रक्षा निर्यात का हवाला देते हुए इस संदर्भ में अपनी असमर्थता जताई है. इसके उपरांत, ऐसी संभावना है कि देश हित में विपक्ष द्वारा सौदे के रद्द किए जाने को लेकर की गई अनुशंसा को स्वीकार कर लिया जाये. वास्तव में, खाड़ी के तटीय क्षेत्रों के साथ इन पंडुब्बियों के सौदों ने इस जल क्षेत्र में बीजिंग के इरादों को लेकर काफी सोच विचार को जन्म देने का काम किया है. विशेषकर तब जबकि भारत, खाड़ी क्षेत्र को बेहतर तरीके से सुरक्षित करने के लिए अपनी पूर्वी नौसेना कमान की पनडुब्बी क्षमता को और भी विकसित करने के लिए लगातार कोशिश में है, क्योंकि इसे वो अपने फायदे के प्राथमिक क्षेत्रों’ में मानता आया है.

खाड़ी क्षेत्र में चीन की दिलचस्पी

चूंकि, भारत इस क्षेत्र में चीन की गहरी उपस्थिति के सामने एक स्थानीय स्थायी शक्ति के रूप में अपनी प्रमुखता बनाए रखने के लिये लगातार कोशिश में है, ऐसी स्थिति में, चीन-भारत प्रतिस्पर्धा, हालिया दिनों में बंगाल की खाड़ी का रणनीतिक तौर पर दोबारा उत्थान किये जाने की दिशा में परिभाषित विशेषताओं में से एक रहा है. भविष्य में, ऊर्जा की अनिश्चितता से परिपूर्ण स्थिति में, खाड़ी का आकर्षण, बीजिंग के लिए निर्विवाद है, क्योंकि समुद्री क्षेत्र न केवल हाइड्रोकार्बन के विशाल भंडार से परिपूर्ण है, बल्कि यह मध्य पूर्व से महत्वपूर्ण ऊर्जा आयात को पूर्वी एशिया के देशों मे ले जाने के लिए, संचार के लिये महत्वपूर्ण माने जाने वाले समुद्री मार्ग के माध्यम से भी होकर गुज़रता है. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण पूर्वी-पश्चिमी नौवाहन मार्ग है, जो यूरोप और अफ्रीका को एशिया से जोड़ने वाले मलक्का जलसंधि के चोकपॉइंट में प्रवेश करने से पहले खाड़ी के रास्ते भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से आठ समुद्री मील नीचे से होकर गुज़रता है. खाड़ी की मलक्का के जलसंधि से निकटता भी चीन की इस इलाके में दिलचस्पी की मुख्य वजह है, क्योंकि वह ‘मलक्का दुविधा’ पीड़ित है. इस संकीर्ण चोकपॉइंट में किसी भी प्रकार की रुकावट, बीजिंग की आशंकाओं को दर्शाता है, जो इसके होने वाले लगभग 80 प्रतिशत आयात के मार्ग में बाधा पैदा कर सकती है और इस वजह से उनके देश पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. इसी के फलस्वरूप चीन, खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके विकास में प्रतिभागी, उसकी ऊर्जा आपूर्ति निर्विघ्न और निर्विरोध रहे. उसके बाद, इसी वजह से वह खाड़ी के तटीय देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाए रखने को लेकर तैयार है, जिसकी अभिव्यक्ति स्वरूप ये पनडुब्बी सौदे हुए हैं.

बे-लिट्टोरल्स के अंडर-सी लेग का विकास-बीजिंग के लिए क्या बायलाइन है ?

वास्तव में, इस क्षेत्र से संबंधित अधिकांश देश, तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के रूप में, अपनी रक्षा क्षमताओं का विस्तार करने के इच्छुक हैं और इसलिए प्रतिस्पर्धी मूल्य या कीमत होने की वजह से चीनी नौसैनिक शिल्प खरीदने के लिए आकर्षित हैं. पनडुब्बियों के अधिग्रहण ने विशेष करके बांग्लादेश नौसेना को पहले से वहां मौजूद ‘सतह-स्तरीय संचालन’ और ‘नौसेना विमानन विंग’ में समुद्र के नीचे एक अतिरिक्त पाँव के तौर पर एक ‘त्रि-आयामी बल’ बनने की अनुमति दी है. ढाका की प्राथमिकता न केवल अपनी संप्रभुता के साथ-साथ अपने बड़े समुद्री संसाधनों की रक्षा में आत्मनिर्भर बनने को वरीयता देना है, बल्कि क्षेत्रीय सुरक्षा को आगे बढ़ाने में भी अग्रणी भूमिका निभाना है. एक तरीके से, यह बंगाल की खाड़ी में सुरक्षा और स्थिरता बनाए रखने के भारत के प्रयासों का इनाम ही होगा; क्योंकि भारत, बांग्लादेश के साथ एकल रूप से मिलजुलकर गश्त करता है और साथ ही बांग्लादेश, भारत के बहुपक्षीय नौसैनिक अभ्यास- , ‘MILAN’ में भी भाग लेता रहा है, जो इस समुद्री क्षेत्र में आयोजित किया जाता है. चूंकि, ये संभावना है कि चीनी नाविक बांग्लादेश की पनडुब्बियों का  संचालन करेंगे, इसलिये उन्हें खाड़ी में भारत के एक्सक्लूसिल इकोनॉमिक ज़ोन यानी (ईईज़ेड) के पास लाता है, जिससे बीजिंग को इस क्षेत्र में चीनी पनडुब्बी संचालन में सहायता के लिए अधिक जानकारी इकट्ठा करने कार मिलता है, जो कि भारत के लिए भी चिंता का एक संवेदनशील कारण है, मौका मिलता है.

भारत, खाड़ी क्षेत्र को बेहतर तरीके से सुरक्षित करने के लिए अपनी पूर्वी नौसेना कमान की पनडुब्बी क्षमता को और भी विकसित करने के लिए लगातार कोशिश में है, क्योंकि इसे वो अपने फायदे के प्राथमिक क्षेत्रों’ में मानता आया है.     

यह ध्यान देने योग्य बात है कि, चीन द्वारा अपने पनडुब्बियों को श्रीलंकाई तट पर डॉक करने की अनुमति को इस द्वीप राष्ट्र श्रीलंका ने, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आधिकारिक यात्रा के दौरान स्वागत करने के लिए तैयार किए जाने की वजह से, सन 2017 में अस्वीकार कर दिया था. यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि खासकर के, सन् 2014 में श्रीलंका द्वारा कोलंबो में चीनी पनडुब्बी को पनाह देने के फैसले ने, इस इलाके में चीन की बढ़ती गतिविधियों की आशंका को देखते हुए, भारत की ओर से तेज़ विरोध दर्ज किया जिसके बाद श्रीलंका ने इससे अपने पैर पीछे खीचें. श्रीलंका का ये कदम उसका भारत के साथ एकजुटता के संकेत के रूप में उभर कर आया. हालांकि, श्रीलंकाई तटों के किनारों पर, बढ़ते पनडुब्बी निविदा जहाजों की डॉकिंग में दर्ज बढ़त, श्रीलंका के नज़दीक के समुद्री क्षेत्रों  में पीएलएएन पनडुब्बियों, खासकर के हाइड्रोलॉजीकल और बाथीमेट्रिक्स डेटा के संग्रह और पनडुब्बी चालक दल के प्रशिक्षण के लिये, इनकी बहुतायत में उपस्थिति की ओर इशारा करती है.

2019 से, जियांग यांग होंग 03 जैसे पीएलएएन सर्वेक्षण जहाज़ों ने बेहतर पनडुब्बी संचालन के लिए बंगाल की खाड़ी के गहरे पानी का सर्वेक्षण किया है. हालिया हुई प्रगति में, भारतीय मीडिया ने अपने रिपोर्ट में यह भी कहा है कि, चीन कथित रूप से खाड़ी में म्यांमार के कोको द्वीप समूह में निगरानी और निगरानी सुविधाओं का निर्माण कर रहा है, ताकि वहाँ से वह ओडिशा में बालासोर परीक्षण रेंज से भारत के मिसाइल प्रक्षेपण के साथ-साथ देश के पूर्वी समुद्र तट पर विशाखापत्तनम से 50 किमी दक्षिण में रामबिली नौसैनिक अड्डे पर तैनात भारत की पहली परमाणु पनडुब्बी की गतिविधियों पर नज़र रख सके. कोको द्वीप समूह, भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के निकट स्थित हैं, जहाँ सेना, नौसेना और वायुसेना एक साथ मौजूद हैं, और जो देश के सुदूर पूर्वी त्रयीकमान के रूप में संयुक्त रूप से कार्य करते हैं. हालाँकि, म्यांमार की जुंटा सरकार ने कोको द्वीप समूह में चीनी भागीदारी के दावों का खंडन किया है और भारत की आशंकाओं को ख़ारिज कर दिया है.

यह ध्यान देने योग्य बात है कि, चीन द्वारा अपने पनडुब्बियों को श्रीलंकाई तट पर डॉक करने की अनुमति को इस द्वीप राष्ट्र श्रीलंका ने, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आधिकारिक यात्रा के दौरान स्वागत करने के लिए तैयार किए जाने की वजह से, सन 2017 में अस्वीकार कर दिया था.

भारत के लिए चेतावनी

दक्षिण एशिया में चीन की सक्रिय उपस्थिति ने भारत के लिए स्थिति को खासकर के बेहद जटिल बना दिया है, क्योंकि जल के नीचे की नौसैनिक क्षमताओं को अभी और भी बेहतर ढंग से विकसित किया जाना बाकी है. पर्यवेक्षकों का मानना है कि समुद्र के नीचे के क्षेत्र में, भारतीय और चीनी नौसेनाओं के बीच की कमी, असाधारण रूप से स्पष्ट है, क्योंकि दोनों देशों के बजट और युद्धपोत निर्माण क्षमताओं में विषमता अब भी बनी हुई है. नौसेना की 2012-27 समुद्री क्षमता परिप्रेक्ष्य योजना के अनुसार, पांच स्कॉर्पीन (कलवरी) श्रेणी की पनडुब्बियों के शामिल होने के बावजूद, भारतीय नौसेना को 2030 तक शामिल करने के लिए निर्धारित 24 नौकाओं में से आठ नावों की कमी अब भी बनी हुई है. पुरानी किलो और एच.डी.डब्ल्यू./शिशुमार श्रेणी की नौकायें अभी भी अपने सेवामुक्त किए जाने का इंतज़ार कर रही हैं.

सैन्य क्षमता निर्माण के इतर, खाड़ी क्षेत्र में में चीनी गतिविधियों के बारे में सही मायने में जागरूक होने के लिए, भारत के लिए, पानी के नीचे के क्षेत्र में जागरूकता की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है.  साल 2019 में जारी एक रिपोर्ट में, इंडिया टुडे ने बताया कि एक चीनी समुद्री अनुसंधान और सर्वेक्षण जहाज को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पास भारत के ईईजेड (EEZ) क्षेत्र में बिना भारत की पूर्व-सहमति के अनुसंधान गतिविधियों करते हुए देखा गया था. ऐसा प्रतीत हुआ कि संभवतः इस पोत का इस्तेमाल “क्षेत्र में तैनात भारतीय नौसेना के सभी पन्नडुब्बियों और पानी के नीचे, सतह के जहाजों की निगरानी के लिए” किया गया होगा. यह न केवल भारत के कानून (अधिनियम सं. 80/1976) “जिसके लिए विदेशी समुद्री वैज्ञानिक जहाजों को गतिविधियों को शुरू करने से पहले लाइसेंस लेने की आवश्यकता होती है,” का बल्कि 1982 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन द लॉज़ ऑफ द सी (यूएनसीएलओएस) के बारे में भी जो देशों के लिए तटीय राज्य के कानूनों का पालन करना आवश्यक बनाता है, (Part V, Article 58) का उल्लंघन था. यू.एन.सी.एल.ओ.एस, विदेशी समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान और हाइड्रोग्राफिक सर्वेक्षण जहाज़ों को जलसंधि जिनका उपयोग ई.ई.जेड के एक हिस्से से दूसरे हिस्से के बीच अंतर्राष्ट्रीय नौवहन के लिए किया जाता है, और उसके लिए ज़रूरी आवश्यक तटीय राज्य के पूर्व प्राधिकरण के बिना किसी भी शोध या सर्वेक्षण करने (section 2, Article 40) के तहत, ट्राज़िट मार्ग का उपक्रम करने से भी रोकता है, यह उस समय भारतीय नौसेना के बयान के अनुरूप था कि; “यदि आपको हमारे ईईजेड में कुछ भी करना है, तो आपको हमें सूचित करना होगा और अनुमति लेनी होगी.” अपने बचाव में, चीन ने कहा कि वह केवल भारतीय ई.ई.जेड के माध्यम से अज्ञात मार्ग ले रहा था, जिसे यू.एन.सी.एल.ओ.एस की अनुमति मिली हुई है.

साल 2019 में जारी एक रिपोर्ट में, इंडिया टुडे ने बताया कि एक चीनी समुद्री अनुसंधान और सर्वेक्षण जहाज को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के पास भारत के ईईजेड (EEZ) क्षेत्र में बिना भारत की पूर्व-सहमति के अनुसंधान गतिविधियों करते हुए देखा गया था.

एक तरफ जबकि, बीजिंग ऐसा दावा करता है कि उसके सर्वेक्षण वैश्विक वैज्ञानिक अनुसंधान की सेवा करते हैं, पनडुब्बी गतिविधि के लिए परिचालन स्थितियों का आकलन करना या पनडुब्बी रोधी युद्धक विमान का पता लगाना इसका उद्देश्य है. इसलिए भारत के लिए समय की मांग तीन स्तर पर बनी हुई है ; पहला, अपनी पानी के नीचे की नौसैनिक क्षमताओं के विकास में तेज़ी लाना; दूसरा, अन्य खाड़ी तटों के साथ रक्षा सहयोग में वृद्धि, ये सुनिश्चित करना कि उनके संसाधनों और क्षेत्रों का उपयोग उन उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाता है जो भारत की सुरक्षा के लिए हानिकारक हैं; और अंत में, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में निगरानी क्षमता विकसित करने जैसे उपायों को तैयार करना. क्योंकि चोकपॉइंट की उथली गहराई के कारण जहाजों को सुरक्षित नौवहन के लिए सतह पर उतरना होगा, इसलिए इस वजह से फिर इससे बंगाल की खाड़ी से होकर गुज़रने वाली चीनी पनडुब्बियों की पहचान करने में मदद मिलेगी. यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय रक्षा मंत्रालय ने भारतीय नौसेना के लिए डीज़ल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों की योजनाबद्ध खरीद के लिए पहले ही एक सैन्य अधिग्रहण पहल, प्रोजेक्ट 75-I तैयार कर रखा है, और “परमाणु हमले वाली पनडुब्बियों के स्वदेशी निर्माण के लिए एक योजना” पर भी काम कर रहा है. इन प्रयासों को साकार करने और तेज़ी से लागू किए जाने की आवश्यकता है.

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