Author : Manoj Joshi

Published on Nov 03, 2023 Updated 27 Days ago

यूक्रेन में संघर्ष से निपटने के साथ-साथ गाज़ा युद्ध में नियंत्रण पाने के लिए पश्चिमी जगत जद्दोजहद कर रहा है; क्या चीन इस मौक़े का भरपूर लाभ उठाकर भू-राजनीतिक तौर पर और बड़ी भूमिका निभाने में कामयाब हो सकेगा?.

पश्चिम एशिया में लंबी पारी खेलने की तैयारी में चीन

पश्चिम एशिया में ताज़ा संकट के परिणामों से निपटने में चीन भारी जद्दोजहद कर रहा है. उसने ज़ाहिर तौर पर इस मसले में तटस्थ रुख़ अपनाया है, वहां हिंसा की निंदा करने में हमास का नाम लेने से इनकार किया है, साथ ही फिलिस्तीन मसले पर दो-राज्य समाधान या टू स्टेट सॉल्यूशन पर अपने ज्ञात दृष्टिकोणों को दोहराया है. चीन का लक्ष्य ये सुनिश्चित करने का है कि वो अरब राज्यसत्ताओं के बीच अपना प्रभाव बरक़रार रखे. ये तमाम देश एक बार फिर फिलिस्तीन मसले पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. चीन ने संघर्ष विराम  के साथ-साथ दोनों पक्षों के बीच वार्ताएं फिर से शुरू करने का आह्वान किया है और इस क्षेत्र में अपने विशेष दूत को भी भेजा है. ऐसा लगता है कि चीन की रणनीति इस क्षेत्र में अपने आर्थिक रसूख़ को मध्यम कालखंड में भू-राजनीतिक रुतबे में तब्दील करने का है.

हमास के ख़ौफ़नाक हमले के दो दिन बाद 9 अक्टूबर को चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि चीन नागरिकों के हताहत होने से “काफ़ी दुखी” है और असैनिकों को नुक़सान पहुंचाने वाली गतिविधियों का विरोध और निंदा करता है. चीनी प्रवक्ता ने हमास का नाम नहीं लिया और आगे कहा कि “शांति वार्ताओं को फिर से शुरू करना, दो-राज्य समाधान पर अमल करना और राजनीतिक माध्यमों से फिलिस्तीन के सवाल का पूरी तरह से और उचित रूप से निपटारा करना अनिवार्य है.”

इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव की एक मिसाल इस साल के शुरुआत में मची वो हलचल थी जो उसने सऊदी अरब और ईरान के बीच शांति समझौते के ज़रिए पैदा की थी.

चीन कि रणनीति

हाल के वर्षों में अमेरिका की दिलचस्पी हिंद-प्रशांत की ओर मुड़ जाने की वजह से चीन पश्चिम एशिया में एक बढ़ती ताक़त के तौर पर उभरा है. ये इलाक़ा चीन की ज़रूरत के ज़्यादातर तेल का स्रोत है. इस क्षेत्र के अधिकतर देशों का वो मुख्य व्यापार साझीदार है, भले ही अमेरिका वहां अगुवा सैन्य और कूटनीतिक शक्ति के रूप में बरक़रार है. इस इलाक़े की सभी प्रमुख राज्यसत्ताओं (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), इज़रायल और ईरान) के साथ चीन के अच्छे रिश्ते हैं, और वो इस क्षेत्र को एक अहम आर्थिक सहयोगी और एक महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक उद्देश्य, दोनों के रूप में देखता है. इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव की एक मिसाल इस साल के शुरुआत में मची वो हलचल थी जो उसने सऊदी अरब और ईरान के बीच शांति समझौते के ज़रिए पैदा की थी. व्यापार और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इज़रायल के साथ चीन के अच्छे संबंध हैं, लेकिन उसे पता है कि इस यहूदी राष्ट्र के (जिसे कभी अमेरिका का 51वां राज्य कहा जाता था) अमेरिका के साथ गहरे और अटूट रिश्ते हैं. इसमें ताज्जुब की बात नहीं है कि मौजूदा गाज़ा युद्ध में तीसरे पक्ष की दख़लंदाज़ी रोकने के लिए अमेरिका ने तत्काल दो विमानवाहक युद्धपोतों को वहां भेजा है.

2000 के दशक में अमेरिका द्वारा इज़रायल-चीन के बीच फलते-फूलते रक्षा संबंधों में पूर्ण विराम  लगाए जाने के बाद चीन ने अपने सबक़ सीख लिए. इस क़वायद से फ़ायदे में रहने वाले देशों में भारत एक था. भारत को वो फाल्कन  एयरबोर्न अर्ली वॉर्निंग सिस्टम हासिल हुआ जिसे इज़रायलियों ने चीन के लिए विकसित किया था. इसके बाद चीन और इज़रायल का रिश्ता असैनिक टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आगे बढ़ा और आज की तारीख़ में भी इसमें ज़बरदस्त गहराई देखने को मिल रही है.

1950 और 1960 के दशक से चीन ने स्वतंत्रता आंदोलन के हिस्से के रूप में फिलिस्तीनी राज्य के विचार का समर्थन किया है. हालांकि 1992 में चीन द्वारा इज़रायल को मान्यता दिए जाने के बाद से उसने इज़रायल और फिलिस्तीन, दोनों के साथ अच्छे संबंध विकसित कर लिए हैं. जून में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने राजकीय यात्रा पर बीजिंग पहुंचे फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास का स्वागत करते हुए इज़रायल-फिलिस्तीन मसले पर मध्यस्थता का प्रस्ताव किया था. यात्रा के बाद जारी साझा बयान में शी ने “ज़ोर देकर कहा कि फिलिस्तीन का सवाल पिछली आधी सदी से अनसुलझा रह गया है, जिससे फिलिस्तीनी लोगों को भारी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ रहा है, लिहाज़ा फिलिस्तीन के साथ जितनी जल्दी संभव हो न्याय होना चाहिए.” उन्होंने ये मक़सद हासिल करने के लिए “विशाल स्तर के, ज़्यादा प्राधिकारपूर्ण और अधिक प्रभावी अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन” के आयोजन का आह्वान किया.

मध्य पूर्व मामलों पर चीन के विशेष दूत झाई जून ने हाल ही में अपने बयान में कहा है कि इज़रायलियों और फिलिस्तिनीयों के बीच शांति समझौते को आकार देने के लिए चीन, मिस्र के साथ तालमेल करके आगे बढ़ना चाहेगा.

इसके बाद शी ने इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को भी चीन आने का न्योता दिया. इज़रायली प्रधानमंत्री ने भी चीन की यात्रा करने के संकेत दिए हैं. हालांकि अब तक वो चीन की यात्रा नहीं कर सके हैं. शायद गाज़ा के युद्ध ने इन योजनाओं पर पानी फेर दिया है, लेकिन वो इज़रायल-फिलिस्तीन मसले पर चीन की ओर से पहले से ज़्यादा बड़े (निर्णायक ना सही) ज़ोर का संकेत नहीं करते हैं.

यही वजह है कि चीन इस इलाक़े में ख़ुद को एक तटस्थ शक्ति और एक शांति-स्थापक के तौर पर प्रदर्शित कर रहा है. मध्य पूर्व मामलों पर चीन के विशेष दूत झाई जून ने हाल ही में अपने बयान में कहा है कि इज़रायलियों और फिलिस्तिनीयों के बीच शांति समझौते को आकार देने के लिए चीन, मिस्र के साथ तालमेल करके आगे बढ़ना चाहेगा. उन्होंने आगे कहा कि “इस मसले का बुनियादी हल दो-राज्य समाधान लागू करने में छिपा है.”

बहरहाल, बढ़ते टकराव ने चीन को अरब दुनिया के पक्ष में ज़्यादा मुखर रुख़ अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है. हाल ही में चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने अपने सऊदी समकक्ष फैसल बिन फरहान अल सौद से टेलीफोन पर हुई बातचीत में कहा कि “इज़रायल की कार्रवाइयां (गाज़ा पर क़ब्ज़ा) आत्मरक्षा  से परे निकल गई हैं और उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की अपील मानकर गाज़ा के लोगों को सामूहिक दंड देना बंद करना चाहिए.”

इसके बाद 16 अक्टूबर को मॉस्को में रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ बैठक में वांग यी ने संघर्षविराम की अपील की. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए और बड़ी ताक़तों को इसमें प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए. यी ने दो टूक लहज़े में कहा कि “संघर्ष विराम  लागू करना आवश्यक है; और दोनों पक्षों को वार्ता की मेज़ पर लाया जाना चाहिए” ताकि और बड़ी मानवीय विपदा को रोका जा सके. बीते 21 अक्टूबर को झाई जून ने फिलिस्तीन के प्रश्न पर काहिरा शांति सम्मेलन में हिस्सा लिया. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को निष्पक्षता और न्याय के साथ व्यावहारिक क़दम उठाने चाहिए. हालांकि इसके बाद 23 अक्टूबर को इज़रायली विदेश मंत्री के साथ टेलीफोन वार्ता में चीनी विदेश मंत्री ने ये साफ़ किया कि हरेक देश के पास आत्मरक्षा  का अधिकार है, साथ ही उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी क़ानून और नागरिक आबादी की सुरक्षा पर भी ज़ोर दिया.

मौजूदा युद्ध में चीन के क़दम रखने से क्षेत्र में उसकी दूरगामी रणनीति के संकेत मिलते हैं. सऊदी अरब और ईरान के बीच शत्रुता और तनाव में कमी लाने के अलावा चीन इस साल की शुरुआत में सऊदी अरब, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और ईरान को ब्रिक्स समूह में लाने में अहम भूमिका निभा चुका है. अंतरराष्ट्रीय सामरिक अध्ययन संस्थान के एक विश्लेषण के मुताबिक ऊपर बताए गए देशों को ब्रिक्स की सदस्यता दिलाने से पहले मध्य पूर्व के कई देशों को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में प्रवेश मिल चुका है और ये सारी क़वायदें चीन द्वारा “अपने आर्थिक रसूख़ को अपने वैश्विक मंसूबों के लिए क्षेत्रीय राजनीतिक समर्थन में तब्दील करने” के प्रयास का हिस्सा हैं.

हिंद-प्रशांत के मसले से ज़ाहिर है, अमेरिका की प्रतिरोधी-रणनीति में भारत एक अहम भूमिका निभाता है. इसके तहत भू-राजनीतिक मंच पर एक नए समूह I2U2 का उदय हुआ है

इसमें शायद ही किसी शक़ की गुंजाइश है कि चीन ने अपने आर्थिक संबंधों और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के सामूहिक दायरे के तहत आने वाली तमाम परियोजनाओं के ज़रिए इलाक़े में ज़बरदस्त भू-राजनीतिक रुतबा हासिल कर लिया है. ग़ौरतलब है कि उसके तीन पश्चिम एशियाई सहयोगी- मिस्र, सऊदी अरब और UAE- अमेरिका के भी सैन्य साझेदार हैं. चीन के साथ रिश्ते बढ़ाने को लेकर इनमें से हरेक के अपने तर्क हैं, जिस पर  अमेरिका बेहद सतर्कता से नज़र बनाए हुए है.

जैसा कि हिंद-प्रशांत के मसले से ज़ाहिर है, अमेरिका की प्रतिरोधी-रणनीति में भारत एक अहम भूमिका निभाता है. इसके तहत भू-राजनीतिक मंच पर एक नए समूह I2U2 का उदय हुआ है जिसमें भारत, इज़रायल, अमेरिका और UAE शामिल हैं. इसके साथ ही भू-आर्थिक परियोजना के रूप में भारत-यूरोप-मध्य पूर्व आर्थिक गलियारा (IMEEC) भी है. इन दोनों की अगुवाई अमेरिका कर रहा है.

निष्कर्ष

वर्तमान संकट में चीन द्वारा तत्काल कोई अहम भूमिका निभाए जाने की संभावना ना के बराबर है. हालांकि ऐसा लगता है कि उसका लक्ष्य बिना किसी ख़ास दिलचस्पी के आगे बढ़ने और दीर्घकाल के लिए नीतियों को अंजाम देने का है. पश्चिम एशिया के पेचीदा हालात को देखते हुए ये तरीक़ा आसानी से समझ में आता है. यहां तक कि अमेरिका भी हालात से निपटने में मुश्किलों का सामना कर रहा है. चीन के पास एक बढ़त ज़रूर है, जिसे अमेरिका ने भी स्वीकार किया है– वो इस इलाक़े में इकलौता ऐसा किरदार है जिसके पास उस ईरान को प्रभावित करने की क़ाबिलियत है, जो हमास के साथ-साथ लेबनान में हिज़्बुल्लाह का भी समर्थक है. पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन द्वारा अपने चीनी समकक्ष वांग यी को किए गए फोन कॉल से भी ये बात रेखांकित हुई है. इस दौरान ब्लिंकन ने इज़रायल के आत्मरक्षा  के अधिकार के प्रति अमेरिकी समर्थन को दोहराते हुए चीन से इस क्षेत्र में स्थिरता बरक़रार रखने के लिए मदद करने का आह्वान किया ताकि “दूसरे पक्षों [मतलब ईरान] को इस संघर्ष में प्रवेश करने” से हतोत्साहित किया जा सके. बदले में वांग ने ब्लिंकन से कहा कि “अरब राष्ट्र और इज़रायली राष्ट्र के बीच मेल-मिलाप के बिना, मध्य पूर्व में शांति नहीं होगी.”

गाज़ा युद्ध ने पश्चिम एशिया की धरती में हलचल मचा दी है और वहां सब कुछ उलट-पुलट कर दिया है. ये संकट बाक़ी दुनिया के लिए भी ख़तरा बनता जा रहा है. यूक्रेन में युद्ध से जूझते हुए भी अमेरिका और यूरोप वहां के बदलते हालात पर नियंत्रण क़ायम करने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. इस बीच, मध्य पूर्व के घटनाक्रम रूस के लिए राहत का कारक और चीन के लिए एक मौक़ा उपलब्ध कराते हैं. अब चीन इसे अपने फ़ायदे के लिए भुना सकता है या नहीं, यह  देखना अभी बाक़ी है.

————————————————————————————————————-मनोज जोशी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं

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