Author : Samir Ahmad

Published on Apr 23, 2022 Updated 1 Days ago

भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर अटकलबाज़ी उस वक़्त तेज़ हो गई जब पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया के ज़रिए शांति, सहयोग और स्थायित्व के संदेश का आदान-प्रदान किया.

पाकिस्तान के हुक़ूमत में बदलाव: क्या इससे भारत-पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक रिश्तों की बहाली हो पायेगी?

शहबाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान का नया प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही घंटों के भीतर राजनीतिक विश्लेषक भारत-पाकिस्तान कूटनीतिक संबधों में बहाली को लेकर अटकलें लगाने लगे. इन अटकलों के मुताबिक़ दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की बहाली की शुरुआत एक-दूसरे के देश में उच्चायुक्तों की तैनाती से होगी. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अगस्त 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार के द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के फ़ौरन बाद दोनों पड़ोसी देशों के बीच कूटनीतिक संबंध टूट गए थे. इसकी वजह ये थी कि पाकिस्तान ने भारत के साथ राजनयिक संबंधों का दर्जा घटाने का फ़ैसला लिया था. इसके परिणामस्वरूप दोनों पड़ोसी देशों के बीच संबंध ऐतिहासिक रूप से सबसे ख़राब स्तर पर है. 

सोशल मीडिया पर संदेशों के बाद दोनों नेताओं के बीच चिट्ठियों का भी आदान-प्रदान हुआ जिसमें दोनों देशों के बीच शांति और सामंजस्यपूर्ण संबंधों की इच्छा जताई गई. इससे पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में शहबाज़ शरीफ़ ने भारत के साथ अच्छे संबंध बनाने की ओर इशारा किया.

भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर अटकलबाज़ी उस वक़्त तेज़ हो गई जब पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया के ज़रिए शांति, सहयोग और स्थायित्व के संदेश का आदान-प्रदान किया. सोशल मीडिया पर संदेशों के बाद दोनों नेताओं के बीच चिट्ठियों का भी आदान-प्रदान हुआ जिसमें दोनों देशों के बीच शांति और सामंजस्यपूर्ण संबंधों की इच्छा जताई गई. इससे पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में शहबाज़ शरीफ़ ने भारत के साथ अच्छे संबंध बनाने की ओर इशारा किया. इस क्षेत्र के कई विशेषज्ञों ने सरहद के दोनों तरफ़ दिए गए बयानों की पृष्ठभूमि में आने वाले समय के दौरान कश्मीर मुद्दे के समाधान में सफलता की भविष्यवाणी भी की. 

नवाज़ शरीफ़ की नीतियों का विस्तार

वास्तव में भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर कुछ महत्वपूर्ण नतीजे उस वक़्त आए जब पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) सत्ता में थी- 1997 में कंपोज़िट डायलॉग का ऐलान, 1998 में लाहौर बस यात्रा, और प्रधानमंत्री मोदी एवं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ़ के बीच बैठक, जब मोदी ने अचानक लाहौर की यात्रा की. ये 10 वर्षों से ज़्यादा समय में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली पाकिस्तान यात्रा थी. प्रधानमंत्री मोदी ने तो 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ़ को भारत आने का न्योता भी दिया. इस तरह मियां नवाज़ शरीफ़ के भाई और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) का वरिष्ठ सदस्य और मौजूदा अध्यक्ष होने के नाते शहबाज़ शरीफ़ और उनके प्रमुख नीतिगत फ़ैसलों को नवाज़ शरीफ़ और पार्टी की राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता. इसे देखते हुए शहबाज़ शरीफ़ के फ़ैसले को नवाज़ शरीफ़ की नीतियों के विस्तार के तौर पर देखा जाना चाहिए जो निर्वासित जीवन जीने के बावजूद अहमियत रखते हैं और अपनी पार्टी के एक असरदार सदस्य हैं. 

लेकिन पाकिस्तान की अजीब राजनीतिक पटकथा को देखते हुए ये सवाल बना हुआ है कि एक गठबंधन सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले शहबाज़ शरीफ़ भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बहाल करने और सुधारने के लिए कितना आगे बढ़ सकते हैं. भारत के साथ संबंधों को मज़बूत बनाने का फ़ैसला करने से पहले उन्हें कई घरेलू चुनौतियों से पार पाना होगा. यहां हम संक्षेप में उन महत्वपूर्ण बातों की चर्चा करेंगे जो भारत के साथ संबंधों में सफलता से रोकेंगे. पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पाकिस्तान में संसद (नेशनल असेंबली) का चुनाव अगले साल की शुरुआत में होने की उम्मीद है. नेशनल असेंबली की मियाद अगले साल अगस्त तक है. इसलिए भारत के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे कि कश्मीर को लेकर किसी भी समझौते को अंतिम रूप देना शहबाज़ शरीफ़ के लिए काफ़ी जोख़िम भरा होगा. गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहे पाकिस्तान में राजनीतिक कोलाहल को देखते हुए शहबाज़ और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर आम लोगों के राजनीतिक रुख़ को समझना जल्दबाज़ी होगी. पाकिस्तान के लोग इस वक़्त मुख्य रूप से देश में बढ़ती महंगाई और आर्थिक कठिनाई को लेकर चिंतित हैं. इसलिए किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए आने वाले चुनाव के हिसाब से राजनीतिक घोषणापत्र तय करना नामुमकिन होगा. ज़्यादातर राजनीतिक दल सार्वजनिक रैलियों में विदेश नीति के एजेंडे पर ज़ोर देने से संकोच करेंगे. यही बात पीएमएल (एन) और पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के साथ है. 

पाकिस्तान की अजीब राजनीतिक पटकथा को देखते हुए ये सवाल बना हुआ है कि एक गठबंधन सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले शहबाज़ शरीफ़ भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बहाल करने और सुधारने के लिए कितना आगे बढ़ सकते हैं. भारत के साथ संबंधों को मज़बूत बनाने का फ़ैसला करने से पहले उन्हें कई घरेलू चुनौतियों से पार पाना होगा. 

दूसरी बात ये है कि पाकिस्तान की विदेश नीति में सेना हमेशा से महत्वपूर्ण बनी रही है. अतीत में पाकिस्तान की सेना ने कई मौक़ों पर दोनों देशों के बीच शांति प्रक्रिया को नाकाम कर दिया था. मिसाल के तौर पर, लाहौर घोषणापत्र के फ़ौरन बाद करगिल जंग हुई; इसके बाद पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ़ को बर्खास्त कर दिया गया. इससे सेना का दख़ल स्पष्ट रूप से दिखा. ये माना जाता है कि 1999 में करगिल में घुसपैठ के पीछे पाकिस्तान की सेना थी. इसी तरह मोदी की लाहौर यात्रा के कुछ ही दिनों के भीतर पठानकोट की घटना हुई. फिर उरी में हमला हुआ जिसने दोनों देशों के बीच मधुर संबंधों को कड़वाहट में तब्दील कर दिया. 

अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियों का जमावड़ा

पाकिस्तान में हाल के दिनों में राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान पाकिस्तान के मौजूदा सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा की तटस्थता का ये मतलब नहीं है कि गठबंधन की नई सरकार का उनके लिए ख़ास महत्व है. एक बार अनिश्चितता के बादल छंटने के बाद सेना ख़ुद को पाकिस्तान के रक्षक के रूप में पेश करेगी. इसलिए सरकार को अपनी विदेश नीति को ध्यान लगाकर और सावधानी के साथ-साथ वास्तव में सेना की सलाह लेकर प्रस्तुत करना होगा. 

तीसरी बात, पाकिस्तान की मौजूदा गठबंधन सरकार के काफ़ी ज़्यादा समय तक टिकने की उम्मीद नहीं है. पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के नाम से जाना जाने वाला क़रीब एक दर्जन राजनीतिक पार्टियों का गठबंधन अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियों का जमावड़ा है और उन्हें एकजुट रखने वाला एक ही मुद्दा था- इमरान ख़ान को सत्ता से हटाना. इसके आगे उनके बीच 12 महीने तक सरकार चलाने के लिए एक साथ चलने की कोई और वजह नहीं है. ध्यान देने की बात है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और पीएमएल (एन) एक-दूसरे की धुर विरोधी हैं और उनके बीच चुनाव में समझौता होने की उम्मीद नहीं है. 2008 में पीएमएल (एन), पीपीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने के लिए तैयार हुई थी. लेकिन अगस्त 2008 में राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ के इस्तीफ़े के साथ ही पीएमएल (एन) असहमतियों के कारण गठबंधन सरकार से अलग हो गई और फिर से विरोध की राजनीति पर उतर गई. पाकिस्तान के मामलों के जानकार सुशांत सरीन के मुताबिक़ ये मुश्किल है कि शहबाज़ शरीफ़ कुछ महीनों तक स्थायी सरकार दे पाने में सक्षम होंगे. गठबंधन के दलों के एकजुट होने के कई कारण हैं और इसका मुख्य कारण प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान ख़ान को हटाना, चुनाव सुधार और इमरान ख़ान के कार्यकाल के दौरान बनाये गए क़ानून में बदलाव है. जानकार मानते हैं कि एक दर्जन से ज़्यादा दलों के गठबंधन और पाकिस्तान की आर्थिक समस्याओं की वजह से शहबाज़ सत्ता का नियंत्रण एक कार्यकारी सरकार को दे सकते हैं और कुछ महीनों में चुनाव के मैदान में उतर सकते हैं. इस बात का ज़िक्र करना मुनासिब है कि इस तरह की अलग-अलग विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों के मेल से बनी सरकार पाकिस्तान के इतिहास में कभी सत्ता में नहीं आई है. डॉक्टर मूनिस अहमद के मुताबिक़ इमरान ख़ान के मुक़ाबले शहबाज़ शरीफ़ की स्थिति ज़्यादा नाज़ुक है. पाकिस्तान में नई सरकार के नाज़ुक स्वरूप पर विचार करते हुए पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह की सुव्यवस्थित बातचीत शुरू करने में भारत दिलचस्पी नहीं रखेगा. इसके अलावा, यूक्रेन युद्ध ने भारत को दूसरी प्राथमिकताओं में व्यस्त कर रखा है. 

इस बात का ज़िक्र करना मुनासिब है कि इस तरह की अलग-अलग विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों के मेल से बनी सरकार पाकिस्तान के इतिहास में कभी सत्ता में नहीं आई है. डॉक्टर मूनिस अहमद के मुताबिक़ इमरान ख़ान के मुक़ाबले शहबाज़ शरीफ़ की स्थिति ज़्यादा नाज़ुक है.

भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार कश्मीर मुद्दे पर आगे बढ़ चुकी है और कश्मीर संकट को अपनी सीमा के भीतर सीमित करने में सफल रही है. शरीफ़ की तरफ़ से भारत के साथ “शांतिपूर्ण और सहयोग के साथ” संबंधों की मांग के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने दोहराया कि ‘बातचीत और दहशतगर्दी एक साथ नहीं चल सकती’. इसके अलावा शहबाज़ शरीफ़ के द्वारा बार-बार कश्मीर का ज़िक्र करने से भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में बड़ी दिक़्क़त खड़ी हो सकती है. 

इन बातों पर गौर करने से लगता है कि निकट भविष्य में भारत-पाकिस्तान संबंधों में किसी तरह का सुधार होने की उम्मीद नहीं है. ट्रैक II संवाद और पर्दे के पीछे की कूटनीति की बहाली में बेहतरी देखी जा सकती है. लेकिन आधिकारिक स्तर पर सुव्यवस्थित शांति प्रक्रिया की शुरुआत की बात करना जल्दबाज़ी होगी, कम-से-कम आने वाले दिनों में तो ऐसा नहीं लगता. 

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