Author : Kabir Taneja

Published on Apr 14, 2023 Updated 0 Hours ago

कूटनीतिक संबंध सामान्य होने के बावजूद, सऊदी अरब और ईरान में टकराव के बुनियादी मसले बने रहेंगे. ऐसे में क्या चीन पश्चिमी एशिया में शांतिदूत की भूमिका में सफल रहेगा? 

क्या चीन पश्चिमी एशिया में शांति स्थापित कर पाएगा?

चीन की राजधानी बीजिंग में सऊदी अरब और ईरान के विदेश मंत्रियों की मुलाक़ात करा कर, चीन ने ख़ुद को एक ऐसीवैकल्पिकशक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जो सहयोग, सलाह मशविरे और दूसरों के मामलों में दख़लंदाज़ी नहीं करने की नीति को आगे रखकर चलता है. अब जबकि यमन में संघर्ष को लेकर गंभीर बातचीत चल रही है, तो सवाल ये है कि क्या चीन, पश्चिमी एशिया में मध्यस्थ और शांतिदूत की भूमिका में सफल हो पाएगा?

आज जब पूरी दुनिया में चीन को यथास्थिति बदलने वाली ताक़त के तौर पर देखा जा रहा है, वैसे में सऊदी अरब और ईरान के बीच मध्यस्थ की भूमिका ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को एक ऐसे इलाक़े में दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के तौर पर प्रस्तुत करने का मौक़ा दिया, जहां पारपंरिक रूप से पश्चिमी जगत ही प्रमुख बाहरी ताक़त रहा है.

आज जब चीन, सऊदी अरब और ईरान के साथ तेज़ी से आगे बढ़ते रिश्तों का लाभ उठाते हुए अपने आपको एक ऐसी ताक़त के तौर पर पेश कर रहा है, जो शांति और स्थिरता के हक़ में है, तो निश्चित रूप से चीन ने इस पहल की कामयाबी पर बहुत बड़ा दांव लगाया है. जब पिछले महीने अपने निचले दर्जे के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में ईरान और सऊदी अरब ने आपसी कूटनीतिक संबंध दोबारा बहाल करने का ऐलान किया था, तो चीन के पूर्व विदेश मंत्री और अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के विदेशी मामलों के आयोग के अध्यक्ष वांग यी भी उस मौक़े पर मौजूद थे. ये इस बात का प्रतीक है कि चीन, दोनों देशों के रिश्ते सामान्य करने को कितनी अहमियत दे रहा है. आज जब पूरी दुनिया में चीन को यथास्थिति बदलने वाली ताक़त के तौर पर देखा जा रहा है, वैसे में सऊदी अरब और ईरान के बीच मध्यस्थ की भूमिका ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को एक ऐसे इलाक़े में दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के तौर पर प्रस्तुत करने का मौक़ा दिया, जहां पारपंरिक रूप से पश्चिमी जगत ही प्रमुख बाहरी ताक़त रहा है.

सऊदी अरब और ईरान के बीच फिर टकराव होता भी है, तो दोनों देशों को थोड़ा नीचा देखना पड़ सकता है. इसके अलावा उन्हें कोई ख़ास नुक़सान नहीं होगा. वहीं, ऐसा होने की सूरत में चीन को बहुत नुक़सान हो जाएगा.

हालांकि, एक बुनियादी सवाल अभी भी बना हुआ है: क्या चीन वाक़ई अपना वादा पूरा कर सकेगा? जब बात मध्य पूर्व में संवाद की आती है, तो पश्चिमी देशों और क्षेत्रीय ताक़तों द्वारा किए गए काम का सामरिक लाभ उठाना एक अलग बात है और ख़ुद को राजनीतिक और उसके साथ साथ सैन्य रूप में सत्ता के नाज़ुक केंद्र के तौर पर प्रस्तुत करना बिल्कुल अलग बात है. चीन ने लंबे समय से पश्चिमी एशिया के प्रति वही नीति अपनाई है, जिस पर भारत चलता रहा है. मतलब, क्षेत्र की अंदरूनी राजनीति से दूरी बनाना. सच तो ये है कि चीन, इस क्षेत्र में अमेरिकी दख़ंलदाज़ी का आलोचक रहा है. वो भी केवल इराक़ में युद्ध जैसे जंगी नज़रिए से नहीं, बल्कि सामरिक रूप से भी चीन इस इलाक़े में क्षेत्रीय नेताओं की सरपरस्ती करने या उन्हें अमेरिका की नीति पर रज़ामंद होने को मजबूर किए जाने की अमेरिकी नीतियों का विरोध करता रहा है. आज, चीन इस क्षेत्र में अपनी मदद को बिना शर्त सहयोग के रूप में पेश कर रहा है, और इलाक़े के देशों से वादा कर रहा है कि वो कोई नैतिक या मूल्य आधारित मांग पूरी किए बग़ैर व्यापक आर्थिक सहयोग देगा, जिसका मतलब आर्थिक या सैन्य सहयोग होता था. क्षेत्र के बहुत से देशों के लिए ये एक आकर्षक प्रस्ताव है.

सऊदी अरब एवं ईरान 

सऊदी अरब तो उसी वक़्त से अमेरिका से दूर होने लगा था, जब सऊदी शाही घराने के भीतर युवराज प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (जिन्हें MbS के नाम से भी जाना जाता है) ने अपना दबदबा क़ायम करना शुरू किया था. प्रिंस सलमान अभी अपनी उम्र के चौथे दशक में ही है, मगर उनके ज़हन में बहुत व्यापक एजेंडा है. वो सऊदी अरब को एक ऐसे वैश्विक आर्थिक केंद्र के तौर पर विकसित करना चाहते है, जो सिर्फ़ तेल पर निर्भर हो. इसके लिए मुहम्मद बिन सलमान के लिए वैश्विक बाज़ारों और ख़ास तौर से एशियाई बाज़ारों तक पहुंच बनानी ज़रूरी है और उसमें भी 18 ख़रब डॉलर वाली चीन की अर्थव्यवस्था की अहमियत बहुत ज़्यादा है. सऊदी अरब की सरकारी तेल कंपनी अरामको ने 2022 में 161.1 अरब डॉलर के मुनाफ़े का ऐलान किया था. कुछ आकलन ये सुझाते हैं कि आधुनिक इतिहास में किसी कंपनी द्वारा अर्जित किया गया ये सबसे बड़ा मुनाफ़ा है. ये ख़बर, यूक्रेन युद्ध में फंसे रूस के साथ सऊदी अरब की ओपेक प्लस के ज़रिए नज़दीकी सहयोग के बाद आई, जिससे अमेरिका बहुत नाख़ुश भी हुआ था.

प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने ये सहयोग, अमेरिका के साथ सऊदी अरब के ख़राब रिश्तों और अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी से अपने संबंधों में तनाव और यूक्रेन संकट का फ़ायदा उठाते हुए बढ़ाया था, जिसने बड़ी ताक़तों के संघर्ष को तेज़ कर दिया है. अगर सऊदी अरब और ईरान के बीच फिर टकराव होता भी है, तो दोनों देशों को थोड़ा नीचा देखना पड़ सकता है. इसके अलावा उन्हें कोई ख़ास नुक़सान नहीं होगा. वहीं, ऐसा होने की सूरत में चीन को बहुत नुक़सान हो जाएगा. पहला तो पारंपरिक रूप से संघर्षरत क्षेत्र में शांति स्थापना करने वाली शक्ति की उसकी भूमिका पर कलंक लगेगा और चीन द्वारा अपनी ताक़त की नुमाइश करने की कोशिशों को भी झटका लगेगा. कुल मिलाकर चीन ने सऊदी अरब और ईरान को एक दूसरे के यहां अपने दूतावास खोलने के लिए राज़ी कर लिया है. 2016 में दोनों देशों ने अपने अपने दूतावास उस वक़्त बंद कर दिए थे, जब सऊदी अरब ने एक प्रमुख शिया मौलवी को मौत की सज़ा देने का फ़ैसला किया था. वैसे भी दूतावास खोलने की दिशा में काम पहले से ही चल रहा था, क्योंकि इराक़ और ओमान जैसे देश दोनों पक्षों के बीच बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका अदा कर रहे थे.

ऐसे में एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी का जो माहौल बना रहा है, उसे हासिल करना चीन के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था. सच तो ये है कि चीन ने पहले से चल रही एक प्रक्रिया को अपना मंच ही दिया है. वहीं, सऊदी अरब ने चीन और ईरान के बीच अच्छे संबंध का लाभ उठाकर परेशान हाल ईरान को संबंध सामान्य करने की दिशा में प्रेरित करने में मदद हासिल की है. ये ऐसा काम था, जो अमेरिका नहीं कर सकता था. ख़बरें तो ये संकेत भी देती है कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला ख़ामेनेई, पिछले दो साल से चल रही, सऊदी अरब के साथ संबंध सामान्य करने की बातचीत की धीमी रफ़्तार से काफ़ी खीझे हुए थे. इसमें चीन ने सऊदी अरब और ईरान दोनों को एक ऐसा साथी मुहैया कराया जो बातचीत को मंज़िल तक पहुंचा सके. इससे अरब देशों की उस नाख़ुशी को भी बल मिला कि ईरान से बढ़ते ख़तरे को लेकर अमेरिका लापरवाह है. वहीं दूसरी ओर दोनों देश इस क्षेत्र की एक और बड़ी ताक़त इज़राइल को भी अलग थलग करने में सफल रहे. क्योंकि इज़राइल, प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को अब्राहम समझौतों का हिस्सा बनाने की कोशिश में था.

चीन का रुख

कूटनीतिक संबंध बहाल करने की प्रक्रिया के अब तक सकारात्मक रूप से आगे बढ़ने के बावजूद, सऊदी अरब और ईरान के बीच टकराव के बुनियादी मुद्दे बने ही रहेंगे. जहां तक धार्मिक और वैचारिक तालमेल की बात है, तो उसकी उम्मीद करना तो आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा ही है. मगर दोनों देशों के बीच, यमन में युद्ध, और सीरिया और लेबनान में हथियारबंद लड़ाकों को ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स (IRGC) से मदद और होर्मुज जलसंधि में शांति और स्थिरता जैसे भू-राजनीतिक मतभेद दूर करने के विकल्प अभी भी खुले हुए है. यमन में युद्ध ख़त्म कराना एक अग्निपरीक्षा होगा. इससे पहले हुए युद्ध विराम के समझौते ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सके है, वहां पर शांति बहाली के लिए इस क्षेत्र के देशों द्वारा भी पहले प्रयास किए जा चुके है. इस खेल में एक नया खिलाड़ी बस चीन ही है.

इस मामले में चीन की कामयाबी यही है कि उसने बिना किसी शर्त के दोनों पक्षों को बातचीत का मौक़ा मुहैया कराया है. चीन, सऊदी अरब और ईरान दोनों में अपने कारोबार के लिए बड़े अवसर देख रहा है; और आज जब अमेरिका, उभरते हुए चीन के इर्द गिर्द अपना फंदा कस रहा है, तो मध्यम ताक़तें अपने दूरगामी हित सुरक्षित रखने के लिए अपने अपने हिसाब से दांव चल रही है. ये सवाल अभी भी बना हुआ है: क्या चीन इस बात के लिए तैयार और सक्षम है कि वो पारंपरिक महाशक्ति की भूमिका अदा कर सके? क्या वो एक राजनीतिक और सैन्य ज़मानतदार बनने के लिए तैयार है? इन सवालों के जवाब हमें बहुत जल्द मिलेंगे.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.