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पूरी दुनिया में डॉलर के दबदबे को कम करने का मसला यानी डी-डॉलराइज़ेशन का मुद्दा लगभग एक दशक से चर्चा के केंद्र में है. वर्ष 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सबसे पहले डॉलर के भविष्य को लेकर चेताया था. उन्होंने कहा था कि अगर अमेरिका ज्वाइंट कंप्रहेंशिव प्लान ऑफ एक्शन यानी संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) से अपने क़दम वापस खींचता है तो इसका डॉलर पर विपरीत असर पड़ेगा. बराक ओबामा ने वॉशिंगटन डी.सी. में एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी में अपने भाषण के दौरान चेतावनी दी थी कि अगर प्रतिबंधों का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है, तो इससे उन देशों के भी छिटकने का ख़तरा बढ़ जाता है, जो कि अमेरिकी ऋण के सबसे प्रमुख ख़रीदार है, जैसे कि चीन. वक़्त गुजरने के साथ-साथ ओबामा द्वारा दी गई यह चेतावनी सच साबित हुई है, क्योंकि अमेरिका द्वारा अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए डॉलर को हथियार की तरह इस्तेमाल करने से विभिन्न देशों में हताशा और बेचैनी गहराती जा रही है.
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जब अपने पहले कार्यकाल के दौरान वर्ष 2018 में JCPOA से हाथ खींचे थे, तब यूरोप में इसको लेकर तीख़ी प्रतिक्रिया हुई थी और डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के साथ ही इसके स्थान पर यूरो के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कहीं न कहीं एक आंदोलन की शुरुआत हुई थी.
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जब अपने पहले कार्यकाल के दौरान वर्ष 2018 में JCPOA से हाथ खींचे थे, तब यूरोप में इसको लेकर तीख़ी प्रतिक्रिया हुई थी और डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के साथ ही इसके स्थान पर यूरो के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कहीं न कहीं एक आंदोलन की शुरुआत हुई थी. इतना ही नहीं, वर्ष 2022 में जब रूस-यूक्रेन युद्ध के विरोध में क़दम उठाने के दौरान रूसी बैंकों को सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन (SWIFT) सिस्टम से हटा दिया गया, तब भी वैश्विक स्तर पर असंतोष का महौल पनपा था. ज़ाहिर है कि आम तौर पर स्विफ्ट प्रणाली को वैश्विक स्तर पर लेन-देन को आसान करने और सभी को समान रूप से समाहित करने वाली प्रणाली के रूप में माना जाता था. लेकिन तब स्विफ्ट को रूसी अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंचाने के लिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया था. अभी हाल ही में ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भी अमेरिका द्वारा अपने प्रतिबंध के हथियार का ‘अत्यधिक उपयोग’ करने का वाकया तब सामने आया था, जब ट्रंप प्रशासन ने कोलंबिया पर तमाम पाबंदियां थोप दी थीं. दरअसल, कोलंबिया ने अमेरिका से निर्वासित कोलंबियाई प्रवासियों को ला रहे के साथ विमानों को अपनी ज़मीन पर उतारने से मना कर दिया था, इसके जवाब में ट्रंप प्रशासन ने कोलंबिया पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया था. यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि कोलंबिया भी ब्रिक्स समूह का सदस्य बनना चाहता है.
जानकारों की राय
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और आर्थिक विशेषज्ञ माइकल विगेल ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम यानी विश्व आर्थिक मंच में कहा था कि विदेश नीति के अंतर्गत रणनीतिक वजहों से SWIFT प्रणाली का उपयोग अर्थव्यवस्था को हथियार बनाने के लिए किया जाता है. ऐसे में वो देश जिन पर प्रतिबंध थोपे गए हैं और इन प्रतिबंधित देशों पर ज़रूरी कच्चे माल के लिए निर्भर राष्ट्रों की तरफ से अगर कोई प्रतिरोध जताया जाता है, तो इसमें हैरानी वाली बात नहीं है.
हाल-फिलहाल में डी-डॉलराइज़ेशन और वित्तीय जोख़िम कम करने को लेकर काफ़ी चर्चाएं की गई हैं. अगर कोई राष्ट्र डॉलर की जगह पर किसी दूसरी मुद्रा में व्यापार करने की संभावनाएं तलाशता है और बात करता है, तब या तो उसे संदेह की नज़र से देखा जाता है, या फिर उसे कुछ अलग हटकर और अच्छा करने की सोच माना जाता है. हालांकि, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वो किस ओर खड़ा है, यानी डॉलर का समर्थन करने वालों के पाले में है, या फिर डॉलर का विरोध करने वालों के पाले में हैं. कुछ इसी तरह की भावना तब भी दिखाई देती है, जब कोई राष्ट्र कॉमन ब्रिक्स करेंसी की चर्चा में हिस्सा लेता है.
SWIFT की ओर से जारी आंकड़ों पर नज़र डालें, तो नवंबर 2024 में चीनी करेंसी रेनमिनबी (RMB) वैश्विक व्यापार में लेनदेन की चौथी सबसे बड़ी करेंसी बन गई है. वैश्विक भुगतान के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मुद्रा में मूल्य के हिसाब से चीनी रेनमिनबी की हिस्सेदारी 3.89 प्रतिशत थी. हालांकि, वैश्विक भुगतान में अमेरिकी डॉलर का वर्चस्व क़ायम है और कुल लेनदेन में इसकी हिस्सेदारी 48.68 प्रतिशत है. चीनी करेंसी रेनमिनबी का उपयोग बढ़ा है और वैश्विक व्यापार में इसकी हिस्सेदारी भी अभूतपूर्व तरीक़े से बढ़ रही है, फिर भी निकट भविष्य में इसके डॉलर के बराबर पहुंचने की संभावना न के बराबर है. संभावित रूप से इसकी एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि वर्तमान में तमाम देश व्यापार के लिए डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता के नकारात्मक प्रभावों से घिरे हुए हैं और ऐसे में वे कुएं से निकलकर खाई में नहीं गिरना चाहते हैं.
ट्रंप ने साफ कहा है कि अगर ब्रिक्स के सदस्य देश डॉलर से अलग किसी अन्य मुद्रा में व्यापार पर विचार करते हैं या ऐसी कोई कोशिश करते हैं, तो उन्हें अमेरिका की तरफ से टैरिफ में 100 प्रतिशत की बढ़ोतरी का सामना करना पड़ेगा और अमेरिका जैसे देश को अपना माल बेचने का सपना छोड़ना पड़ेगा.
वैश्विक व्यापार और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में डॉलर का प्रभुत्व है, ऐसे में जब भी डॉलर के विकल्प पर चर्चा होने लगती है, तो इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं भी आने लगती हैं और अक्सर इसमें राजनेता भी कूद पड़ते हैं और बयानबाजी करने लगते हैं. जैसे कि हाल में अमेरिकी राष्ट्रपत्रि डॉनल्ड ट्रंप के ऐलान को ही लें. ट्रंप ने साफ कहा है कि अगर ब्रिक्स के सदस्य देश डॉलर से अलग किसी अन्य मुद्रा में व्यापार पर विचार करते हैं या ऐसी कोई कोशिश करते हैं, तो उन्हें अमेरिका की तरफ से टैरिफ में 100 प्रतिशत की बढ़ोतरी का सामना करना पड़ेगा और अमेरिका जैसे देश को अपना माल बेचने का सपना छोड़ना पड़ेगा. वैश्विक बाज़ारों में डॉलर के प्रभुत्व के कारण अमेरिकी सरकार के लिए उधार लेने और ऋण सेवाओं की लागत बहुत कम हो जाती है. हालांकि, अगर देश डॉलर पर बहुत ज़्यादा निर्भर होंगे, तो इसका एक दुष्प्रभाव यह भी है कि उन पर अमेरिकी मौद्रिक नीति का नकारात्मक असर पड़ सकता है.
एक सच्चाई यह भी है कि ब्रिक्स देश अपनी अलग मुद्रा को लेकर एकजुट होकर चाहे कितनी ही बातें करें और तैयारी करें, लेकिन निकट भविष्य में वे अपनी कॉमन करेंसी के विचार को अमली जामा नहीं पहना सकते हैं. इसके कई कारण हैं. सबसे पहली बात तो यह है कि ब्रिक्स देशों को अपनी आर्थिक सच्चाई पर ध्यान देना चाहिए. चाहे ब्रिक्स के सदस्य देश हों या फिर ब्रिक्स में नए-नए शामिल हुए राष्ट्र, उनके पास अपने यहां विकास से जुड़ी परियोजनाओं के लिए कर्ज़ लेने की अलग-अलग क्षमता है. हालांकि, ब्रिक्स देशों के सामने यूरोप का उदाहरण भी मौज़ूद है, जो कहीं न कहीं उनके लिए एक चेतावनी की तरह है. यूरोप में वर्ष 2008 का वित्तीय संकट याद होगा, जिसमें पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली, ग्रीस और स्पेन को भारी आर्थिक परेशानियों से गुजरना पड़ा था. इस वजह से इन देशों को अपमानजनक तरीक़े से PIIGS देश भी कहा जाता है.
देखा जाए तो आर्थिक रूप से सशक्त यूरोपीय देश यूरो की हिमायत करते हैं और उन्हीं के इशारे पर सब कुछ होता है, लेकिन यूरोज़ोन में कई ऐसे देश भी हैं, जो आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं हैं और पूरी प्रणाली में वे कहीं न कहीं खुद को ठगा सा महसूस करते हैं और समृद्ध देशों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते हैं.
देखा जाए तो आर्थिक रूप से सशक्त यूरोपीय देश यूरो की हिमायत करते हैं और उन्हीं के इशारे पर सब कुछ होता है, लेकिन यूरोज़ोन में कई ऐसे देश भी हैं, जो आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं हैं और पूरी प्रणाली में वे कहीं न कहीं खुद को ठगा सा महसूस करते हैं और समृद्ध देशों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते हैं. हक़ीक़त में ये यूरोपीय देश आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं थे कि वित्तीय रूप से ज़्यादा कर्ज़ और ब्याज दरों का दबाव झेल पाएं, लेकिन मज़बूरी बस उन्हें यह सब करना पड़ा और वे आर्थिक संकट के दुष्चक्र में फंस गए. 2008 का वित्तीय संकट देखा जाए तो एक सबक की तरह था और इसने साफ तौर पर बताया कि कथित समृद्ध यूरोपीय देशों और वित्तीय रूप से कमज़ोर यूरोपीय देशों या हाशिए पर पड़े देशों में एक कॉमन करेंसी की अवधारणा कितनी ख़तरनाक नतीज़े ला सकती है और इसके प्रबंधन में किन मुश्किलात से जूझना पड़ सकता है. इन देशों ने इस दंश को कई वर्षों तक झेला है और अपने ख़र्चों पर लगाम लगाकर आर्थिक हालातों को काबू किया है. अब ये देश जर्मनी या फ्रांस की तुलना में तेज़ गति से आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन अभी भी इनकी आर्थिक परिस्थितियां इतनी सशक्त नहीं हैं और वे वित्तीय मज़बूती के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं. उदाहरण के तौर पर जर्मनी की जीडीपी (4.43 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) आज भी इटली की जीडीपी (2.19 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) से क़रीब दोगुना है.
ब्रिक्स के सामने एक कॉमन करेंसी की धारणा को ज़मीन पर उतारने में एक दूसरी बड़ी और बेहद महत्वपूर्ण रुकावट है, वर्तमान भू-राजनीति. ब्रिक्स के पुराने और नए सदस्य देशों के बीच लंबे अर्से से पारस्परिक रणनीतिक विरोध हैं, यानी उनके बीच कई मसलों पर मतभेद हैं, जो कि कॉमन करेंसी के विचार को आगे बढ़ाने में बाधा पैदा करते हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण चीन और भारत एवं संयुक्त अरब अमीरात और ईरान के बीच द्विपक्षीय संबंध हैं, जो कि बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं. देखा जाए तो BRICS यानी ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका की इस समूह में फिलहाल बराबर की भागीदारी है, ऐसे में एक समान मुद्रा का विचार कहीं न कहीं इस सामूहिकता को झटका देने वाला साबित हो सकता है. ज़ाहिर है कि IBSA यानी इंडिया, ब्राज़ील और साउथ अफ्रीका एक ऐसे ग्रुप में जूनियर पार्टरन बनने पर कतई राज़ी नहीं होंगे, जिसके वे संस्थापक सदस्य ही नहीं है, बल्कि इसे संचालित करने वाले देशों में शामिल हैं.
UPI का विकल्प
कहा जाता है कि व्यापारिक लेन-देन में डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के लिए ब्रिक्स देशों के बीच एक कॉमन करेंसी लाने के अलावा दूसरे विकल्पों को अपनाने पर कहीं न कहीं आम सहमति है. ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा का कहना है कि पोस्ट गोल्ड स्टैंडर्ड वर्ल्ड में यानी वर्तमान वैश्विक आर्थिक प्रणाली में जहां देशों की मुद्राएं सोने की क़ीमत से नहीं बंधी होती हैं, हम अपनी मुद्राओं में लेनदेन क्यों नहीं कर सकते. ब्राजील इस साल ब्रिक्स की अध्यक्षता संभालेगा और ऐसे में स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा देने एवं इसके लिए ब्रिक्स के भीतर सुधारों के आगे बढ़ाने जैसे मुद्दे उसके लिए सर्वोपरि होंगे. ब्राज़ील ने ब्रिक्स की अध्यक्षता के दौरान अपनी प्राथमिकताओं में इस मुद्दे को शामिल भी किया है. ब्रिक्स समूह द्वारा भारत के यूपीआई यानी यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेज के साथ तालमेल स्थापित करने के तौर-तरीक़ों पर मंथन किए जाने की भी संभावना है. ज़ाहिर है कि भारत की यूपीआई प्रणाली पहले ही कम से कम सात दूसरे देशों में उपलब्ध है, जिसमें यूएई भी शामिल है, जो कि अब ब्रिक्स और सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसीज (CBDCs) का सदस्य है. यह अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली SWIFT के इस्तेमाल में बाधाएं पैदा नहीं करेगा, बल्कि इसका एक मज़बूत विकल्प लेकर आएगा.
ब्रिक्स समूह द्वारा भारत के यूपीआई यानी यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेज के साथ तालमेल स्थापित करने के तौर-तरीक़ों पर मंथन किए जाने की भी संभावना है. ज़ाहिर है कि भारत की यूपीआई प्रणाली पहले ही कम से कम सात दूसरे देशों में उपलब्ध है, जिसमें यूएई भी शामिल है, जो कि अब ब्रिक्स और सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसीज (CBDCs) का सदस्य है.
स्विफ्ट ने फाइनेंशियल फ्रैगमेंटेशन यानी वैश्विक स्तर पर वित्तीय एकीकरण में कमी, या कहें कि एक देश से दूसरे देश में पूंजी की मुक्त आवाजाही पर प्रतिबंध की वजह से पैदा होने वाले नकारात्मक प्रभाव का पता लगाने के लिए रिसर्च शुरू की है. ज़ाहिर है कि वित्तीय एकीकरण नहीं होने से वैश्विक स्तर पर लेन-देन की लागत बढ़ जाती है. हालांकि, स्विफ्ट लेन-देन के तौर-तरीक़ों में इनोवेशन को ध्यान में नहीं रखता है, जिसमें यूपीआई, सीबीडीसी और लोकल करेंसी ट्रेडिंग शामिल हैं.
यह वैश्विक व्यवस्था के हित में है कि वह वर्तमान में और भविष्य में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय लेन-देन और भुगतान प्रणाली की कमज़ोरियों दूर करे, या कहें कि इसे सशक्त बनाए. अमेरिका के राष्ट्रपति रहते हुए बराक ओबामा ने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली स्विफ्ट की विश्वसनीयता में कमी आई है और इसमें दोबारा से भरोसे की बहाली बेहद मुश्किल होगी. देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर डी-डॉलराइज़ेशन को लेकर जो चर्चाएं और कोशिशें चल रही हैं, वो ऐसे ही नहीं हैं, बल्कि एक प्रतिक्रिया की तरह हैं, यानी डॉलर के प्रभुत्व से होने वाले नुक़सान से बचने का विकल्प हैं. भविष्य में यह सब कितना सफल होता है, इसके बारे में फिलहाल पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता है यानी यह समय के गर्त में छिपा है.
जाह्नवी त्रिपाठी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.
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