Author : Samir Saran

Published on Jul 13, 2021 Updated 0 Hours ago

बिग टेक की प्रवृति क्षेत्रीय विस्तार की इकलौती भावना से प्रेरित है. इसके साथ ही इन कंपनियों के क्रियाकलापों से एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति सामूहिक बेसब्री और उतावलनापन दिखाई देता है.

बिग टेक और देशों की राजसत्ता: लोकतांत्रिक व्यवस्था बरक़रार रखने के लिए बड़ी तकनीकी कंपनियों को रेगुलेट करना ज़रूरी

इंटरनेट पर झंडा बुलंद करने की होड़ में साइबर-स्पेस के विस्तृत संसार पर एक छोटे और चुनिंदा समूह का दबदबा कायम हो गया है. ये समूह है- बिग टेक. इसने ‘सोशल मीडिया से जुड़े अहम बिचौलिया किरदारों’ के बेहद मुनाफ़े वाले विज्ञापन व्यवसाय को रफ़्तार दे दी है. प्राइवेसी से जुड़े नियम-क़ायदों की ग़ैर-मौजूदगी और बिचौलिया संस्थाओं से जुड़े कमज़ोर उत्तरदायित्व कानूनों के बीच इनका कारोबार फल-फूल रहा है. ये कंपनियां बाज़ार का निर्माण करती हैं, उसका विस्तार करती हैं और ख़ुद ही उस बाज़ार के नियम-कायदे बनाती हैं. कारोबारी इतिहास में विज्ञापन या फिर अन्य क्षेत्रों से जुड़े किसी भी व्यवसाय- चाहे वो बड़ी तेल कंपनियां हों या विशाल तंबाकू कंपनी- का उपभोक्ताओं और अर्थव्यवस्था पर इस तरह का दबदबा नहीं रहा है. इन कंपनियों की ये सर्वशक्तिमान सत्ता ही राष्ट्रों और वहां की जनता के लिए आने वाले समय में शायद इकलौती सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाली है. भारत 2023 में जी-20 की अध्यक्षता करने वाला है. ऐसे मौके पर इन टेक कंपनियों को जवाबदेह बनाना ही भारत का प्रमुख विचार होना चाहिए. इतना ही नहीं 2022 में स्वतंत्र भारत के 75 साल पूरे हो रहे हैं. ऐसे में एक मज़बूत डिजिटल गणतंत्र की ओर आगे बढ़ना होना भारत का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए. इसके लिए समझदारी भरी राजनीति, बौद्धिक रूप से प्रभावशाली नीतियों और मूल सिद्धांतों की ओर लौटने की आवश्यकता है. 

धन का केंद्रीकरण प्रतिस्पर्धा का मसला है. ये आर्थिक नीतियों से जुड़ा सवाल है. अगर इसे नियम-कायदों के बंधन से मुक्त छोड़ दिया जाए तो इससे आय और अवसर की असमानता पैदा होती है. बहरहाल जब विमर्श का मुद्दा सत्ता का केंद्रीकरण (किसी को बढ़ावा दिया जाए, साझा किया जाए या फिर दबाया कुचला जाए) हो तो उसे और भी ज़्यादा चिंताजनक समझा जाना चाहिए. अमेरिका में सेफ़-हार्बर से जुड़े प्रावधानों और स्व-नियमन के सिद्धांतों ने प्रभावी रूप से इन बड़ी तकनीकी कंपनियों को अभिव्यक्ति की जायज़ हद तय करने वाला झंडा-बरदार बना दिया है. वो अपनी मनमर्ज़ी से ये तय करने लगे हैं कि, किन-किन मुद्दों पर कार्रवाई करनी है और किन मसलों को नज़रअंदाज़ करना है. मिसाल के तौर पर महामारी के दौरान वैक्सीन-विरोधी विचार रखने वाले ट्विटर यूज़र्स को काफ़ी बढ़ावा मिला. वहीं कुछ मौकों पर कई कम ख़तरनाक किरदारों के ट्विटर पोस्ट पर ग़ैर-मुनासिब होने का ठप्पा लगा दिया गया. इसी साल जनवरी में जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने ट्विटर द्वारा तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अपने प्लेटफ़ॉर्म से बाहर किए जाने की निंदा की थी. मर्केल के मुख्य प्रवक्ता स्टीफ़न सेइबेर्ट ने कहा था, “अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़ा अधिकार बुनियादी महत्व का है.” उन्होंने आगे कहा था कि “इस प्रकार चांसलर को ये लगता है कि राष्ट्रपति के ट्विटर खातों को स्थायी रूप से बंद किया जाने से कई तरह की शंकाएं पैदा होती हैं.”

भारत 2023 में जी-20 की अध्यक्षता करने वाला है. ऐसे मौके पर इन टेक कंपनियों को जवाबदेह बनाना ही भारत का प्रमुख विचार होना चाहिए. इतना ही नहीं 2022 में स्वतंत्र भारत के 75 साल पूरे हो रहे हैं. ऐसे में एक मज़बूत डिजिटल गणतंत्र की ओर आगे बढ़ना होना भारत का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए

यहां मुद्दा ये नहीं है कि मर्केल राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट्स से सहमत थीं या असहमत. सवाल ये है कि ट्रंप के ट्वीट को सेंसर कौन कर रहा है, कैसे कर रहा है और किस प्रक्रिया या पारदर्शिता के किस स्तर के साथ कर रहा है? चांसलर समेत तमाम लोगों के लिए ट्विटर ये बातें अपने-आप तय नहीं कर सकता. हक़ीक़त ये है कि ट्विटर ख़ुद को सार्वजनिक वस्तु या सेवा के प्रदाता या आपूर्तिकर्ता के तौर पर देखता है. ये एक निजी मेसेंजर सेवा है जिसे उसी तरह की प्रतिरक्षा हासिल है जो एक बिचौलिए सेवा प्रदाता को प्राप्त होती हैं. दुनिया भर की तमाम सरकारें डिजिटल कनेक्टिविटी को एक ‘जन उपयोगी सेवा’ के तौर पर देखती हैं. ऐसे में सूचनाओं के प्रवाह में धार्मिक, सांस्कृतिक या विचारधारा के हिसाब से कांटछांट नहीं की जा सकती. पानी, बिजली और सड़क जैसी सार्वजनिक सेवाओं की ही तरह सोशल मीडिया से जुड़ी अहम सेवाओं के संदर्भ में भी सबके लिए समान रूप से उपयोग की पूरी छूट होनी चाहिए. इस तरह की निर्बाध सेवा उन लोगों को भी हासिल होनी चाहिए जिनके विचारों को इन सोशल मीडिया कंपनियों का प्रबंधन या मालिकान ख़ारिज करते हैं.

जन उपयोगी सेवाओं (मसलन बिजली और पानी) से लोगों को महरूम किए जाने की घटनाएं दुर्लभ हैं. ऐसा केवल कुछ ख़ास मौकों पर ही होता है. तब भी इस तरह की कार्रवाइयों को पूरी तरह नियम-कायदों के साथ अमल में लाया जाता है. सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में भी राज्य सत्ता और उसके तीन स्तंभों के पास ही इस तरह के अधिकार हैं. वैश्विक मंच पर सक्रिय बड़ी तकनीकी कंपनियां इस संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं. इस संदर्भ में संतुलन साधने और लगाम लगाने से जुड़े नियम-कायदे मौजूद हैं. राज्य के भीतर और बाहर के तमाम किरदारों के लिए अपनी शिकायतें दर्ज कराने और उनका समाधान पाने के लिए तमाम क़ानूनी उपाय मौजूद हैं. इस संवैधानिक व्यवस्था का कोई भी विकल्प घरेलू मामलों में विदेशी प्रभावों को दखल देने को वैधानिकता दिए जाने के समान होगा. अगर इस बात को और आगे बढ़ाकर देखें तो हम देखेंगे कि एक ऐसे देश के लिए जो लगभग हमेशा ही चुनावी रंग में रहता है, किसी भी बाहरी तत्व का ऐसा रवैया चुनावों में दखल देने के बराबर होगा. ये बातें थोड़ी बढ़ी-चढ़ी लग रही होंगी लेकिन सबको प्रबल आशंका है कि हक़ीक़त में यही सच्चाई के नज़दीक है. मिसाल के तौर पर कोई चुनावी उम्मीदवार प्रचार के दौरान मंच पर खड़ा होकर भड़कीला भाषण देता है तो चुनाव आयोग, कानून से जुड़ी संस्थाएं और न्यायपालिका उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करेंगी- न कि वो निजी कंपनी जिसने वो प्रचार मंच खड़ा किया और न ही सेवा प्रदान करने वाली वो कंपनी जिसने माइक तक बिजली कनेक्शन की सेवा पहुंचाई. बिग टेक कंपनियां इसी तरह की सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों का ऑनलाइन अवतार है, तो क्या वो सचमुच संबंधित नियम-क़ायदों का सम्मान कर रही हैं?

लोकतांत्रिक ताने-बाने में बिग टेक के नियमन का सवाल

ऑस्ट्रेलिया ने ये समझ लिया है. फ़रवरी में यहां न्यूज़ मीडिया बारगेनिंग कोड पारित किया गया. ये कोड बिचौलिए टेक फ़र्मों को मीडिया कंपनियों के साथ सौदे तय करने को प्रेरित करते हैं. इसका प्रभावी तौर पर मतलब ये है कि गूगल और फ़ेसबुक जैसी कंपनियों को न्यूज़ से जुड़े प्रतिष्ठानों को उनके कंटेंट के लिए भुगतान करना होगा. ऑस्ट्रेलियाई सरकार और सोशल मीडिया कंपनियों के बीच लंबे समय तक चले विवाद के बाद ये कानून पारित किया गया. ये विवाद तब और भड़क गया जब फ़ेसबुक ने कुछ ऑस्ट्रेलियाई न्यूज़ एजेंसियों, सरकारी हैंडलों, इमरजेंसी सेवाओं और सिविल सोसाइटी से जुड़े संगठनों के कंटेंट को अपने प्लेटफ़ॉर्म से हटा दिया. इस मसले पर ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन डटकर खड़े रहे. उनका कहना था, “इन कार्रवाईयों से चिंताओं की पुष्टि होती है…..बिग टेक कंपनियों के बर्ताव को लेकर होने वाली चिंता…ये कंपनियां समझती हैं कि वो सरकारों से बड़ी हो गई हैं और उनपर कोई क़ायदे-क़ानून लागू नहीं होते.”

दुनिया भर की तमाम सरकारें डिजिटल कनेक्टिविटी को एक ‘जन उपयोगी सेवा’ के तौर पर देखती हैं. ऐसे में सूचनाओं के प्रवाह में धार्मिक, सांस्कृतिक या विचारधारा के हिसाब से कांटछांट नहीं की जा सकती.

कनाडा भी अब दौलत और विमर्श के मोर्चे पर बिग टेक कंपनियों के मौजूदा एकाधिकार की काट निकालने के रास्ते तलाश रहा है.  हाल ही में कनाडा के सांसदों ने बिल सी-10 पारित किया है. इसके तहत मीडिया स्ट्रीमिंग सेवाओं द्वारा अपने प्लेटफ़ॉर्म पर पोस्ट की जाने वाली सामग्रियों को वरीयता दिए जाने की प्रक्रिया के नियमन का प्रावधान है. ये बिल अभी सीनेट से पास होना बाक़ी है. इसमें डिजिटल स्ट्रीमिंग प्लैटफ़ॉर्मों को प्रसारण की पारंपरिक सेवाओं के समकक्ष लाने का लक्ष्य रखा गया है. प्रसारण से जुड़ी पारंपरिक सेवाओं को कनाडा से जुड़ी सामग्रियों की विज़िबिलिटी बढ़ाने और उनको “आसानी से ढूंढ पाने योग्य” बनाने का दायित्व होता है. इतना ही नहीं इन कंपनियों को अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा एक फ़ंड के नाम करना होता है, जो कनाडा के मौलिक प्रोडक्शंस को बढ़ावा देता है. 

अमेरिका से इतर यूरोपीय संघ भी बिग टेक द्वारा पेश किए जा रहे एकाधिकार से जुड़े ख़तरों से निपटने में सक्रियता से लगा है. यूरोपियन कमीशन फॉर ए यूरोप फ़िट फ़ॉर द डिजिटल एज की वाइस प्रेसिंडेट मारग्रेट वेस्टागेर ने कहा है कि बड़ी तकनीकी कंपनियां, “हमारी राजनीतिक बहसों की दिशा तय करने की ताक़त रखती हैं. इतना ही नहीं उनके पास हमारे लोकतंत्र की रक्षा करने या फिर उसको नीचा दिखाने की भी  क्षमता मौजूद है.” दिसंबर 2020 में वेस्टागेर और उनके दफ़्तर ने डिजिटल सर्विसेज़ एक्ट (डीएसए) प्रस्तुत किया. इसके तहत बिग टेक द्वारा प्रदान की जा रही सेवाओं से सामाजिक, आर्थिक और संवैधानिक मोर्चों पर भिन्न-भिन्न तरीकों से उत्पन्न जोख़िमों के नियमित रूप से आकलन की बात कही गई है. इस संदर्भ में अब-तक का सबसे निर्णायक कदम पोलैंड ने उठाया है. पोलैंड में एक ऐसे क़ानून का प्रस्ताव किया गया है जो बिग टेक की सेंसरशिप से जुड़ी प्रवृत्तियों को ‘सीमित’ करने का लक्ष्य रखता है. डोनाल्ड ट्रंप को ट्विटर द्वारा अपने प्लैटफ़ॉर्म से हटाए जाने के तत्काल बाद पोलेंड के प्रधानमंत्री मातेयूस्ज़ मोरावेकी ने फ़ेसबुक पर लिखा: “विशाल कॉरपोरेट कंपनियों या एल्गोरिथम को ये तय नहीं करना चाहिए कि कौन से विचार सही हैं और कौन से नहीं. सेंसरशिप की कतई मंज़ूरी नहीं दी जा सकती.” नया प्रस्तावित क़ानून उन सामग्रियों या प्रोफ़ाइल्स के लिए एक ख़ास तंत्र मुहैया कराता है जिन्हें सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्मों ने ब्लॉक या डिलीट कर दिया है. इस व्यवस्था के तहत असंतुष्ट पक्ष उस प्लैटफ़ॉर्म पर सीधे अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है. सोशल मीडिया कंपनियों को 24 घंटे के भीतर इन शिकायतों पर अपना जवाब दाखिल करना होगा. इस संदर्भ में ख़ासतौर से “फ़्रीडम ऑफ़ स्पीच काउंसिल” के गठन का प्रावधान है. ये काउंसिल मामलों की समीक्षा करने के बाद अगर आदेश दे तो डिलीट की गई सामग्री को दोबारा पोस्ट किया जा सकेगा. अगर सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म इस आदेश का पालन नहीं करते तो उनपर 5 करोड़ ज़्लॉटी (1.34 करोड़ अमेरिकी डॉलर) का भारी-भरकम जुर्माना लगाया जा सकता है.

भारत में नियामक ढांचा

अब भारत के लिए भी चंद कड़े फ़ैसले लेने का वक़्त आ गया है. डिजिटल इंडिया का विचार अब काफ़ी आगे बढ़ चुका है. 2014 में देश में सिर्फ़ चार यूनिकॉर्न कंपनियां थीं जबकि अकेले 2020 में भारत में 12 नई कंपनियां खड़ी हो गईं. भारत में नियमन से जुड़े तंत्र की रफ़्तार देश के आर्थिक और सामाजिक हक़ीक़त से मेल खाते हुए होने चाहिए. इन परिस्थितियों में प्राइवेसी और डेटा संरक्षण (पीडीपी) बिल को तत्काल सामने लाकर क़ानून में तब्दील किया जाना बेहद अहम हो जाता है. फ़िलहाल संयुक्त संसदीय समिति इस विधेयक की जांच-पड़ताल कर रही है. पीडीपी बिल के सर्व-समावेशी ढांचे के बगैर भारत में बिग टेक के नियमन की कोशिशें आधी-अधूरी रहेंगी. ऐसे में नियमन की इन कोशिशों को महज राजनीतिक हथकंडा समझे जाने का ख़तरा भी रहेगा.

दिसंबर 2020 में वेस्टागेर और उनके दफ़्तर ने डिजिटल सर्विसेज़ एक्ट (डीएसए) प्रस्तुत किया. इसके तहत बिग टेक द्वारा प्रदान की जा रही सेवाओं से सामाजिक, आर्थिक और संवैधानिक मोर्चों पर भिन्न-भिन्न तरीकों से उत्पन्न जोख़िमों के नियमित रूप से आकलन की बात कही गई है.

इन बिचौलिए प्लैटफ़ॉर्मों के नियमन के संदर्भ में भारत सरकार ने दिसंबर 2018 में सलाहकारी प्रक्रिया की शुरुआत की थी. इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने आम जनता से सुझाव आमंत्रित किए थे. इस प्रक्रिया में आम नागरिकों समेत उद्योग और शिक्षा जगत से जुड़े कई किरदारों ने हिस्सा लिया था. इससे जुड़ी नियमावलियों की अधिसूचना फ़रवरी 2021 में जारी की गई. इसमें तीन महीनों के भीतर अनुपालन से जुड़ी ज़रूरतों का स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया. इसके बावजूद बिग टेक प्लैटफ़ॉर्म का रवैया टालमटोल भरा, मामले को लटकाने वाला और भ्रम पैदा करना वाला रहा है. 

अब वक़्त आ गया है कि इन कंपनियों के क्रियाकलापों को संसद की सुव्यवस्थित और कड़ी निगरानी के दायरे में लाया जाए. मगर इसके लिए आवश्यक क़ानून बनाए जाने की ज़रूरत है. भारतीय क़ानून और नीतियां की जड़ में हमारे संवैधानिक सिद्धांत हैं. डिजिटल गवर्नेंस से जुड़ी भारतीय नीतियां भी इससे इतर नहीं हैं. मगर इनके वास्तव में प्रभावी होने के लिए इनपर संसद की मुहर लगनी ज़रूरी है. बहरहाल अगर ऐसे नियम-क़ानून के दायरे और संवैधानिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं तो उनपर फ़ैसला सुनाने का अंतिम अधिकार भारत की अदालतों के पास है. 

नियामक ढांचे का लक्ष्य जनता के हितों की रक्षा करना है चाहे (या शायद ख़ासतौर से) इससे शक्तिशाली निहित स्वार्थों के मुनाफ़ों पर लगाम ही क्यों न लगानी पड़े. इस संदर्भ में एक बार फिर ईयू की कमिश्नर मारग्रेट वेस्टागेर के बयान (इसी साल कुछ महीनों पहले रायसीना डायलॉग में टेक्नोलॉजी पॉलिसी पैनल के दौरान हस्तक्षेप करते हुए) पर ग़ौर करना ज़रूरी हो जाता है. तब उन्होंने कहा था कि बिग टेक का नियमन “हमारा दायित्व है न कि लोकप्रियता हासिल करने वाली कोई प्रतिस्पर्धा.”

भारतीय क़ानून और नीतियां की जड़ में हमारे संवैधानिक सिद्धांत हैं. डिजिटल गवर्नेंस से जुड़ी भारतीय नीतियां भी इससे इतर नहीं हैं. मगर इनके वास्तव में प्रभावी होने के लिए इनपर संसद की मुहर लगनी ज़रूरी है.

बिग टेक के नियमन के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा शायद हमारी कल्पनाओं की उपज है. ये बात हमारे दिमाग़ में घर कर गई है कि सिलिकॉन वैली एक सदाबहार, खुशनुमा, चकाचौंध से भरपूर स्थान है, जहां विज्ञान और कंप्यूटरों में दिलचस्पी रखने वाले, लंबे बालों और चमत्कारी व्यक्तित्व वाले लोग टी शर्ट और फ्लिप-फ्लॉप्स में रहते हैं. हालांकि, हक़ीक़त ये है कि आज बिग टेक की प्रवृति क्षेत्रीय विस्तार की इकलौती भावना से प्रेरित है. इसके साथ ही इन कंपनियों के क्रियाकलापों से एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति सामूहिक बेसब्री और उतावलनापन दिखाई देता है. बिग टेक कंपनियों के लिए उनका ‘कोड ही कानून है’ और उनकी ये समझ विश्वव्यापी है. इस पूरी समस्या की जड़ में उनकी यही सोच है. 

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