ये लेख रायसीना एडिट 2024 सीरीज़ का एक भाग है
हिंद प्रशांत के विचार के उभार के साथ एक तरफ़ तो ताक़त की होड़ तेज़ होने और दूसरी तरफ़ बढ़ती आर्थिक कनेक्टिविटी के मसले भी जुड़े हुए हैं. इन उथल-पुथल भरे हालात ने इस इलाक़े की मध्यम और ताक़तों को मजबूर कर दिया है कि वो अपने लिए अधिक अधिकार और सियासी स्वायत्तता हासिल करने के प्रयास और तेज़ करें. इस इलाक़े के क्षेत्रीय खिलाड़ियों में आसियान (ASEAN) इस सामरिक दुविधा का केंद्र बिंदु बन गया है.
1967 में जब आसियान की स्थापना हुई थी, तब इसके पीछे का मुख्य कारण एकीकरण नहीं था. बल्कि, दक्षिणी पूर्वी एशिया में साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव और शीत युद्ध की वजह से बिगड़ते सत्ता समीकरणों के बीच इसके सदस्य देशों का अस्तित्व और लचीलापन सुनिश्चित करना था. हालांकि, पूर्व सोवियत संघ के विघटन और आसियान के सदस्यों की संख्या में विस्तार के कारण, नई सदी के आग़ाज़ के वक़्त हमने देखा कि आसियान ने सामुदायिक निर्माण के अपने अनुभव का लाभ उठाने का प्रयास किया. इसका मक़सद, आसियान की आम सहमति से फ़ैसले लेने, अनौपचारिक कूटनीति, दूसरों के मामलों में दख़लंदाज़ी न करने, संप्रभुता का सम्मान और इस संगठन की केंद्रीय भूमिका जैसे आसियान केंद्रित नियमों को बढ़ावा देना था, ताकि आसियान ख़ुद को पूरे एशिया में एक संस्थागत बुनियाद के तौर पर पेश कर सके. इसीलिए, आसियान के नेतृत्व वाली व्यवस्थाओं के विस्तार और बड़ी ताक़तों द्वारा आसियान की दोस्ती और सहयोग की संधि (TAC) का पालन करना बढ़ने से आपसी विविधता वाले देशों को ऐसा ढांचा मिला जिसकी उन्हें सख़्त आवश्यकता थी और जिसकी मदद से से वो ऐसे वक़्त में सहयोग कर सकते थे, जब उभरती हुई ताक़तों के बीच एक दूसरे पर बहुत अधिक अविश्वास फैला हुआ था.
चीन की बढ़ती आक्रामकता: भू-राजनीतिक चुनौतियों से निपटने की कोशिशें
हाल के दिनों में आसियान की अगुवाई वाली व्यवस्थाओं की बुनियाद पर दबाव काफ़ी बढ़ गया है. क्योंकि हिंद प्रशांत की मौजूदा भू-राजनीति में होड़ वाला मिज़ाज हावी हो गया है. हिंद प्रशांत की सुरक्षा से वैसे तो कई संरचनात्मक कारण जुड़े हुए हैं. लेकिन, आसियान के सदस्य देशों पर सबसे गहरा असर अमेरिका और चीन के बीच सत्ता की बढ़ती प्रतिद्वंदिता ने ही डाला है. दक्षिणी पूर्वी एशिया भौगोलिक रूप से अमेरिका के पारंपरिक प्रभाव वाले क्षेत्र और चीन की ताक़त के उभरते ठिकाने के बीच में बसा हुआ है. 2008 से चीन, दक्षिणी चीन सागर में अपने विस्तारवादी हितों के ज़रिए दक्षिणी पूर्वी एशिया के सुरक्षा ढांचे के ख़िलाफ़ अपनी उकसावे वाली हरकतें बढ़ाता जा रहा है. चीन लगातार आक्रामक तरीक़े से इस विवादित समुद्री इलाक़े में सत्ता के संतुलन और भूगोल को अपने हक़ में तब्दील करने में जुटा हुआ है, और चीन ये काम अपने से कहीं कम ताक़तवर पड़ोसियों की संप्रभुता और संप्रभु अधिकारों की क़ीमत पर कर रहा है, और इस तरह वो हिंद प्रशांत क्षेत्र में नियमों पर आधारित व्यवस्था की स्थिरता को सीधे तौर पर चुनौती दे रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि चीन के बढ़ते आक्रामक रवैये और इस क्षेत्र में विस्तारवादी हितों पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका को भी प्रतिक्रिया स्वरूप क़दम उठाने पड़े हैं. अमेरिका की सीधी प्रतिक्रिया के साथ साथ, इस क्षेत्र में समान विचारधारा वाले लोकतांत्रिक देशों के बीच सुरक्षा के साझा ढांचे का भी विस्तार हुआ है. जैसे कि क्वाड और ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन के बीच त्रिपक्षीय संगठन AUKUS. ये समूह इस क्षेत्र की स्थापित व्यवस्था को सुरक्षित बनाए रखने के लिए गठित किए। गए हैं. हालांकि, इस वजह से दक्षिणी पूर्वी एशिया पर दुनिया को बहुत ज़्यादा ध्यान केंद्रित करना पड़ा है. इसके चलते आज व्यापक हिंद प्रशांत का ये हिस्सा गोलीबारी वाले युद्ध की आशंका का सबसे बड़ा इलाक़ा बन गया है.
आसियान के नेतृत्व वाली व्यवस्थाओं के विस्तार और बड़ी ताक़तों द्वारा आसियान की दोस्ती और सहयोग की संधि (TAC) का पालन करना बढ़ने से आपसी विविधता वाले देशों को ऐसा ढांचा मिला जिसकी उन्हें सख़्त आवश्यकता थी और जिसकी मदद से से वो ऐसे वक़्त में सहयोग कर सकते थे,
आसियान के लिए इस वजह से दो समस्याएं पैदा होती हैं. पहला आसियान के बाहरी नज़रिये के केंद्र में बाहरी ताक़तों के समीकरण में आते बदलाव के बीच अपनी स्वायत्तता और संप्रभुता की रक्षा करना है. अमेरिका और चीन के बीच ताक़त की तेज़ होती होड़ की वजह से दक्षिणी पूर्वी एशिया का सामरिक माहौल बेहद प्रतिद्वंदिता वाला हो गया है. ऐसे में जब बात अपने आर्थिक और सुरक्षा संबंधी हितों को साधने और साथ ही साथ अपने अस्तित्व और राजनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखने की आती है, तो आसियान देशों के सामने ये चुनौती बढ़ती जा रही है. यहां इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि आसियान के सदस्यों में ऐसे देश शामिल हैं, जिनकी सोच सामने खड़े ख़तरों को लेकर अलग है. उनके हित और संवेदनाएं भी अलग हैं. इसकी वजह से ताक़त की बढ़ती होड़ को लेकर आसियान देशों की तरफ़ से प्रतिक्रियाएं भी अलग अलग तरह की ही देखने को मिल रही हैं. आसियान देशों द्वारा इस क्षेत्र में चीन के दबदबे से संतुलन बनाने के लिए अमेरिका की मौजूदगी का तो स्वागत किया जाता है. लेकिन, दक्षिणी पूर्वी एशिया के ज़्यादातर देश अमेरिका के साथ बहुत अधिक नज़दीकी बढ़ाने को लेकर भी सतर्कता बरत रहे हैं. इसकी वजह अमेरिका की ‘मूल्यों पर आधारित’ विदेश नीति को लेकर उनकी आशंकाएं, सुरक्षा देने वाली ताक़त के तौर पर अमेरिका का अविश्वसनीय व्यवहार और भौगोलिक रूप से अमेरिका का इस इलाक़े से दूर होने का जोखिम भी शामिल है.
यही नहीं, इस क्षेत्र में अमेरिका के बड़ी सैन्य ताक़त के तौर मौजूद होने की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता. पर चीन भी दक्षिणी पूर्वी एशिया में अपनी बढ़ती आर्थिक गतिविधियों से अपना प्रभाव और गहराई से बढ़ाने में सफल रहा है. 2009 के बाद से चीन ने आसियान के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार के तौर पर अपनी भूमिका को और मज़बूत ही किया है. यही नहीं, चीन इस इलाक़े में कंबोडिया और लाओस को विकास में सबसे अधिक सहायता देता है. वहीं इंडोनेशिया, उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का इस इलाक़े में सबसे अधिक लाभ उठाने वाला देश है. यही नहीं, 2021 में म्यांमार में तख़्तापलट के बाद से चीन, वहां की अंदरूनी उथल-पुथल का भी लाभ उठा रहा है, ताकि वो अपने हितों को आगे बढ़ा सके और इस इलाक़े में म्यांमार की भू-सामरिक अहमियत को देखते हुए, उसके ऊपर अपना प्रभाव भी मज़बूत कर सके.
अमेरिका की सीधी प्रतिक्रिया के साथ साथ, इस क्षेत्र में समान विचारधारा वाले लोकतांत्रिक देशों के बीच सुरक्षा के साझा ढांचे का भी विस्तार हुआ है.
इसलिए, वैसे तो चीन दक्षिणी पूर्वी एशिया की स्थिरता के लिए चुनौती पेश करता है. पर, आसियान के देश खुलकर किसी एक ताक़त का पक्ष लेने से बचते रहे हैं. क्योंकि वो नहीं चाहते कि उनकी हरकतों को किसी एक ताक़त के पाले से जुड़ने वाली सियासत के तौर पर देखा जाए. भौगोलिक रूप से इस क्षेत्र के क़रीब होने और अपनी आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल दादागिरी करने और दक्षिणी चीन सागर के विवादित इलाक़ों में अपनी ताक़त दिखाने की चीन की बदनाम आदतों को देखते हुए, आसियान देशों के लिए किसी एक ताक़त का पक्ष लेने के गंभीर नतीजे भी हो सकते हैं. वियतनाम और अभी हाल ही में फिलीपींस जैसे देश, विवादित समुद्री इलाक़े में चीन के इकतरफ़ा क़दम उठाने की खुलकर आलोचना करते रहे हैं. लेकिन, अमेरिका और चीन के बीच दबदबे की होड़ के बीच दोनों ही देश रक्षात्मक रुख़ ही अपनाते रहे हैं.
आसियान की घटती विश्वसनीयता: क्षेत्रीय नेतृत्व और एकजुटता के सामने खड़ी चुनौतियां
आज जब चीन और अमेरिका के बीच दबदबे की बढ़ती होड़ के बीच आसियान देश अपना अस्तित्व और राजनीतिक स्वायत्तता को बचाए रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं, तब उनके लिए दोनों देशों को इनकार करने की रणनीति को और प्रभावी ढंग से अपनाना बेहद ज़रूरी है. इसमें अन्य बड़ी शक्तियों के साथ नज़दीकी संबंध बनाकर और ख़ुद को सामरिक रूप से बफ़र ज़ोन बनाते हुए अपने नज़दीक की बड़ी ताक़तों को इस क्षेत्र के मामलों में एकाधिकार स्थापित करने से रोकना भी शामिल है. इसके लिए दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों को अपनी विदेश नीति में गंभीर रूप से बदलाव करके इसकी दशा-दिशा बदलनी होगी. इसके लिए आसियान देशों को साझीदारों में विविधता लानी होगी और उन उभरती ताक़तों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाना होगा, जो हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और चीन के सामरिक मुक़ाबले के बीच अपनी पहचान एक स्वतंत्र देश वाली रखते हैं. इस हिसाब से देखें तो इस मामले में कुछ सकारात्मक बातें देखने को मिल रहा हैं. जैसे कि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों और हिंद प्रशांत क्षेत्र की अन्य शक्तियों जैसे कि भारत, फ्रांस और जापान के बीच आर्थिक और रक्षा सहयोग के क्षेत्र में रिश्तों को मज़बूत बनाया जा रहा है.
दूसरा, चूंकि हिंद प्रशांत क्षेत्र में शक्ति का ध्रुवीकरण गहरा होता जा रहा है. ऐसे में आसियान के नेतृत्व वाली व्यवस्थाओं के लचीलेपन और प्रभावी होने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. क्षेत्रीय राजनीति पर हाशिए पर धकेले जाने के जोखिमों को समझते हुए, आसियान ने अंतत: 2019 में हिंद प्रशांत के लिए अपने नज़रिए (AOIP) को अपनाया था, ताकि क्षेत्रीय बहुपक्षीय वाद और सहयोग को बढ़ावा देने में आसियान की अगुवाई वाले संस्थानों की अहमियत पर फिर से ज़ोर दिया जा सके. हालांकि, आसियान के सामरिक शब्दकोश में हिंद प्रशांत को शामिल करना तो इस संगठन के लिए सही दिशा में उठाया गया एक क़दम था. लेकिन, हिंद प्रशांत को लेकर आसियान के नज़रिए (AOIP) ज़मीनी स्तर पर लागू करने में आने वाली मुश्किलें कहीं ज़्यादा बड़ी बाधा है. हिंद प्रशांत क्षेत्र में आसियान के नेतृत्व वाली व्यवस्थाओं को लागू करने में दूरगामी सफलता इस संगठन में आपसी तालमेल और इसके संवाद साझीदारों द्वारा बहुपक्षीय प्रक्रियाओं के लिए मुफ़ीद माहौल को मज़बूत बनाने पर बहुत अधिक निर्भर है.
वैसे तो आसियान रीजनल फोरम (ARF) और ईस्ट एशिया समिट (EAS) जैसे मंच, हिंद प्रशांत के मौजूदा मामलों में सहयोग के प्रासंगिक संस्थान बने हुए हैं. लेकिन, इस क्षेत्र के ध्रुवीकृत होते ताक़त के संतुलन की वजह से विश्वसनीयता के उन मसलों को सिरे से ख़ारिज करना मुश्किल हो जाता है, जिनका सामना आसियान के नेतृत्व वाली व्यवस्थाएं आने वाले दूरगामी समय के दौरान कर सकती हैं. इसकी प्रमुख वजह आसियान के अंदरूनी तनाव हैं, जो उसको क्षेत्रीय सुरक्षा के अहम मसलों पर एकजुट नज़रिया अपनाने और विशेष रूप से म्यांमार और साउथ चाइना सी जैसे मसलों पर समान राय क़ायम करने में बाधक बन जाते हैं. आसियान के सदस्य देशों के अलग अलग हितों को देखते हुए, वैसे तो ये नई बात नहीं है. लेकिन, आसियान देशों को अगर इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाए रखना है, तो उसके लिए सभी बड़ी ताक़तों के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने की अहमियत काफ़ी बढ़ जाती है.
इसीलिए, भले ही आसियान हिंद प्रशांत मामलों का एक ज़रूरी खिलाड़ी है. लेकिन, इस क्षेत्र की सुरक्षा की स्थितियों में उभरते हुए बदलावों पर इसके प्रभावों पर सवाल उठ रहे हैं. ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं, क्योंकि ताक़त की होड़ के प्रति इसकी स्थिति कमज़ोर है. वहीं कई बड़े मसलों पर इसके सदस्य देशों के बीच आपसी तालमेल की कमी दिखती है. ऐसे में बड़े भू-राजीनीतिक उथल-पुथल वाले दौर में अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए आसियान को चाहिए कि वो अपनी बनावट और सांस्कृतिक रवैये में बदलाव लाए. इसके साथ ही साथ आसियान के सदस्य देशों को चाहिए कि वो अधिक सामरिक लचीलेपन के लिए विविधता पर ज़ोर देने वाली विदेश नीति पर चलें.
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