Author : Harsh V. Pant

Published on Jul 01, 2021 Updated 0 Hours ago

इससे पहले 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी प्रकाशित कार्यों के मामले में सेवानिवृत गुप्तचर अधिकारियों पर गोपनीयता की लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश की थी

केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम में संशोधन; रामायण अफ़सोर के सामने नई लक्ष्मण रेखा

केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियमावली, 1972 में किए गए नए संशोधन से सेवानिवृत सुरक्षा और गुप्तचर अधिकारियों के लेखन पर कई तरह की पाबंदियां लग गई हैं. सरकार के राजपत्र में जारी अधिसूचना के मुताबिक, “किसी गुप्तचर विभाग या सूचना के अधिकार कानून, 2005 की दूसरी अनुसूची में शामिल सुरक्षा-संबंधित संगठन में काम कर चुका कोई भी सरकारी सेवक अपनी सेवानिवृति के बाद संगठन के मुखिया की पूर्व मंज़ूरी के बिना अपना कोई लेख प्रकाशित नहीं करवा सकता.” सरकार के इस ताज़ा आदेश से सुरक्षा से संबंधित विभागों में काम करने के दौरान हासिल की गई जानकारियों, तथ्यों या उद्धरणों के प्रकाशन पर रोक लग जाएगी. कार्य-आधारित सूचनाओं के प्रकाशन पर तो पहले से ही पाबंदी लगी हुई है. अब इस ताज़ा आदेश से किसी भी मंच पर लेखन या वार्ता पर रोक लगने की संभावना है. 

कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय ने 1972 के कानून की 8वीं नियमावली का पुनरीक्षण किया है. इसके ज़रिए सेवानिवृत गुप्तचर अधिकारियों द्वारा “अच्छे बर्ताव” की आड़ में सरकारी नीतियों पर टीका-टिप्पणी करने की संभावनाओं को झटका लगा है. बदली हुई नियमावली के दायरे में 26 संगठनों के सेवानिवृत अधिकारी आएंगे. इनमें गुप्तचर ब्यूरो, रॉ, राजस्व ख़ुफ़िया निदेशालय (डीआरआई), सीबीआई, एनसीबी, बीएसएफ़, सीआरपीएफ़, आईटीबीपी और सीआईएसएफ़ शामिल हैं. दुनिया के कई देशों में गुप्तचर-आधारित वैधानिक ढांचे में संवेदनशील सूचनाओं के खुलासे को अवैध समझा जाता है. इसमें कोई शक़ नहीं है कि ये न्यायोचित है. बहरहाल, लगता है कि नए नियमन से सेवानिवृत अधिकारियों पर एक तरह से अनंतकाल तक चुप्पी साधे रहने की ज़िम्मेदारी आ गई है. 

ये पाबंदियां उन संवेदनशील सूचनाओं के खुलासों पर लागू हैं जिनसे राज्य की सुरक्षा और संप्रभुता को ख़तरा पहुंचने की आशंका होती है. इस नियम को किसी भी प्रकार से भंग किए जाने पर पेंशन संबंधी अधिकार में कटौती का परिणाम भुगतना होता है.

इस आदेश के पीछे के विचार पूरी तरह से नए नहीं हैं. इससे पहले 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी प्रकाशित कार्यों के मामले में सेवानिवृत गुप्तचर अधिकारियों पर गोपनीयता की लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश की थी. 2008 के आदेश में शासकीय गोपनीयता अधिनियमम (ओएसए) के तत पहले से तय पाबंदियों पर ज़ोर दिया गया था. ये पाबंदियां उन संवेदनशील सूचनाओं के खुलासों पर लागू हैं जिनसे राज्य की सुरक्षा और संप्रभुता को ख़तरा पहुंचने की आशंका होती है. इस नियम को किसी भी प्रकार से भंग किए जाने पर पेंशन संबंधी अधिकार में कटौती का परिणाम भुगतना होता है. हालांकि, सूचनाओं के खुलासे पर उस समय लगाई गई पाबंदी किसी ख़ास संगठन द्वारा संवेदनशील समझी जाने वाली सूचनाओं तक ही सीमित रही है. इस संदर्भ में यूनाइटेड किगडम और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से तुलना की जा सकती है. इन दोनों देशों में क्रमश: शासकीय गोपनीयता कानून, 1989 और गुप्तचर सेवा अधिनियम 2001 लागू हैं. इनके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा को चोट पहुंचाने वाले या विदेश नीति और विदेशी राष्ट्रों से संबंधों को ख़तरे में डालने वाली संवेदनशील सूचनाओं के ग़ैर-क़ानूनी खुलासे पर रोक है. मनमोहन सिंह के शासन काल में 2008 का फ़ैसला इन सेवाओं से जुड़े पेशेवरों के लिए सीमाएं तय करने के मक़सद से किया गया था. इसके ज़रिए पारंपरिक गुप्तचर ढांचे में उनके कार्यगत और संवेदनशील सूचनाओं को संरक्षित करने पर ज़ोर दिया गया था. 

देश का नाम                         सूचनाओं के खुलासे से जुड़ा नियम/क़ानून
1. संयुक्त राज्य अमेरिका

आधिकारिक सीआईए नियमावली के मुताबिक, “सीआईए के सभी अधिकारी अपनी ड्यूटी संभालते ही रोज़गार की शर्त के तौर पर मानक या आदर्श गोपनीयता करार पर हस्ताक्षर करते हैं.” इसके तहत संवेदनशील और ग़ैर-संवेदनशील सूचनाओं के ख़ुलासे पर चुप्पी बरतने को लेकर भेद किया गया है. जैसे “गोपनीयता क़रार अधिकारियों और ठेकेदारों को संपूर्ण रूप से मौन बरतने के लिए बाध्य नहीं करता. हालांकि, उनपर अमेरिकी सरकार द्वारा गोपनीय क़रार दी गई जानकारियों को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी खुफ़िया सूचनाओं के तौर पर गुप्त रखने की ज़िम्मेदारी ज़रूर डाली जाती है. उनपर ये दायित्व आजीवन रहता है.”

सेवानिवृत अधिकारियों को अपनी पुस्तकों, जीवन-स्मरणों आदि के प्रकाशन की छूट होती है. हालांकि, प्रकाशन से पहले उन्हें प्रीपब्लिकेशन क्लासिफ़िकेशन रिव्यू बोर्ड (पीसीआरबी) के सामने पेश करना होता है जहां पर इन लेखनों को समीक्षा के दौर से गुज़रना होता है. सीआईए के अधिकारियों द्वारा ग़ैर-आधिकारिक सूचनाओं के प्रकाशन से संवेदनशील सूचनाओं के संभावित खुलासों से जुड़ी चेतावनी जारी करने की ज़िम्मेदारी बोर्ड पर है. जैसे कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है इनका काम “सीआईए के गोपनीयता करार और अधिकारों से जुड़े कानून के बीच संतुलन कायम करना है.”

2. यूनाइटेड किंगडम

शासकीय गोपनीयता कानून (1911, 1920, 1939, 1989) में कई बार संशोधन किए गए हैं. 1989 के संशोधन के ज़रिए सूचनाओं के ग़ैर-क़ानूनी खुलासों से जुड़े अपराध को 6 विशिष्ट श्रेणियों में वर्णित किया गया है. ये नियम सुरक्षा और गुप्तचर सेवाओं से जुड़े मौजूदा और पूर्व कर्मचारियों पर लागू होते हैं. इनके साथ-साथ क्राउन सर्वेंट्स और सरकारी ठेकेदारों पर भी ये क़ायदे समान रूप से अमल में रहते हैं. संशोधन के हिसाब से नियम तोड़ने पर अधिकतम दो वर्ष के कारावास या असीमित जुर्माने या फिर दोनों का प्रावधान किया गया है.

शासकीय गोपनीयता कानून 1911 के खंड 2 को संशोधित किया गया था. ये संशोधन इसके विवादित “सबको दंडित करो” स्वभाव के चलते किया गया. संशोधन से पहले हर तरह के सरकारी सेवकों के लिए “बिना किसी कानूनी प्राधिकार के किसी भी तरह की आधिकारिक सूचना को प्रकट किए जाने को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया था.” बहरहाल, 1989 के संशोधन ने विभिन्न प्रकार के कर्मियों के बीच एक भेद का निर्माण किया है. सुरक्षा और गुप्तचर विभागों से जुड़े मौजूदा और भूतपूर्व कर्मचारियों पर किसी भी प्रकार की अनधिकृत सूचना के खुलासे पर रोक लगाई गई है. जबकि क्राउन सर्वेंट्स और सरकारी ठेकेदारों के लिए जुर्माने का प्रावधान तभी किया गया है जब वो ऊपर बताई गई छह श्रेणियों का उल्लंघन करते पाए जाएंगे.

3. मलेशिया शासकीय गोपनीयता क़ानून 1972- जिसे मलय भाषा में एकटा रहसिया रसमी के नाम से जाना जाता है- की चौतरफ़ा गहरी आलोचना होती रही है. इसकी वजह ये है कि इसमें हर तरह की सूचनाओं को “आधिकारिक गोपनीय जानकारी” के दायरे में रखा गया है. इस तरह प्रभावी रूप से हर तरह की सूचना सर्व-समावेशी गोपनीयता के अंतर्गत आ जाती हैं. संवेदनशील और ग़ैर-संवेदनशील सूचनाओं में फ़र्क़ करने को लेकर अक्सर मांग उठाई जाती रही है. बहरहाल, 1986 में इस क़ानून में किए गए संशोधन के बावजूद कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिला है. इतना ही नहीं, गोपनीयता क़ानून के उल्लंघन और उसके नतीजतन दिए जाने वाले जुर्माने को लेकर कोई स्पष्ट तंत्र स्थापित नहीं हो सका है. इसे मोटे तौर पर एक “व्यापक-शब्दावली वाले कानून के तौर पर देखा जाता है जिसके चलते सार्वजनिक प्रशासन से जुड़े तकरीबन हर मामले में गोपनीयता की संस्कृति का संचार होता है. इसके तहत पाबंदियों की एक व्यापक या वृहत अनुसूची दी गई है जो प्रभावी रूप से आधिकारिक स्रोतों से सूचनाओं के निर्बाध प्रवाह को बाधित करती है.”
4. ऑस्ट्रेलिया आपराधिक अधिनियम 1914 के तहत गोपनीयता से जुड़े दायित्वों के उल्लंघन पर आपराधिक मुक़दमे चलाए जाने को मंज़ूरी दी गई है. राष्ट्रमंडल के अधिकारियों पर तो पहले से ही ये क़ानून लागू है. सेक्शन 79 के तहत आधिकारिक गोपनीय जानकारियों के ख़ुलासे पर पाबंदी है. जबकि सेक्शन 70 का दायरा और अधिक व्यापक और ज़्यादा विवादास्पद है. इस खंड के तहत किसी राष्ट्रमंडल अधिकारी द्वारा किसी संगठन में अपने पद या भूमिका की बदौलत हासिल की गई किसी भी जानकारी या तथ्य को उजागर किए जाने को आपराधिक कृत्य ठहराया गया है. वैसे तो सेक्शन 70 सिर्फ़ आधिकारिक तथ्यों या दस्तावेज़ों पर ही लागू होता है. नए संशोधनों के तहत इसके दायरे को व्यापक कर दिया गया है. अब इसमें उन “विचारों और सलाहों को भी शामिल किया गया है जो लिखित रूप में दस्तावेज़ के तौर पर नहीं हैं.” इतना ही नहीं “इस तरह के नए अपराध न सिर्फ़ राष्ट्रमंडल के अधिकारियों पर बल्कि सबपर समान रूप से लागू होते हैं.” इनमें पत्रकार, पनाह चाहने वाले, एडवोकेसी ग्रुप्स आदि शामिल हैं.
5. दक्षिण कोरिया राष्ट्रीय सूचना क़ानून के खंड 17 के तहत निर्देशित है कि कोई मौजूदा या भूतपूर्व कर्मचारी किसी संगठन में कार्यरत रहते हुए हासिल की गई जानकारियों को अपने नियोक्ता से पूर्व मंज़ूरी हासिल किए बिना किसी सूरत में उजागर नहीं करेगा.

ऐसा लगता है कि 2021 के संशोधन का मक़सद गुप्तचरी के बेहद उच्च-स्तरीय कौशल वाले क्षेत्र में होने वाली बहसों को सीमित करना है. इस क्षेत्र में अब कुछ भी बिना पूर्व अनुमति के लिखा नहीं जा सकता. सुरक्षा या गुप्तचर-आधारित किसी संगठन में काम कर चुके सरकारी कर्मचारियों के लिए एक स्पष्ट दिशानिर्देश दिया गया है. आरटीआई 2005 की दूसरी अनुसूची में राष्ट्रीय और विदेशी सुरक्षा से जुड़े चुनिंदा और बेहद ख़ास विशेषज्ञों को लक्षित किया गया है. हालांकि, इनके अलावा कई और संवेदनशील मंत्रालय भी हैं. इनमें विदेश मंत्रालय, रक्षा और गृह मंत्रालय शामिल हैं. इसके अलावा रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) आदि भी इसमें शामिल हैं. ये तमाम संगठन आधिकारिक तौर पर शासकीय गोपनीय जानकारियों का संचालन करते हैं. यही नहीं हाल के समय में ग़ैर-गुप्तचर कर्मियों जैसे- सेवानिवृत सैन्य कर्मियों, डीआरआई और प्रवर्तन निदेशालय के भूतपूर्व अधिकारियों में ख़ुफ़िया तंत्र और सुरक्षा से जुड़े मामलों में होने वाली सार्वजनिक टीका-टिप्पणियों में शामिल होने का चलन और अधिक बढ़ गया है. हालांकि, नए संशोधन में ऐसे अधिकारियों के लिए किसी भी तरह के दंड का प्रावधान नहीं किया गया है. 

गुप्तचरी की दुनिया इस तरह के बदलावों से अछूती नहीं है. वो बहुत जल्दी ऐसे परिवर्तनों को आत्मसात कर लेती है. कार्य संचालन और ख़ुफ़िया जानकारियों के संग्रहण से जुड़ी सापेक्षिक गोपनीयता निश्चित तौर पर सदैव सर्वोपरि रहनी चाहिए.

बहरहाल, संशोधन के पीछे की मंशा सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाली संवेदनशील जानकारियों को उजागर होने से रोकना नहीं भर है. लगातार अस्थिर होते जा रहे अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण में राष्ट्रीय और बाह्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में कई अहम कड़ियां जुड़ी होती हैं. इनके मद्देनज़र सूचनाओं को उजागर किए जाने से संबंधित लक्ष्मण रेखा तय किए जाने की ज़रूरत पूरी तरह से न्यायोचित है. मौजूदा क्षेत्रीय और वैश्विक हालात सुरक्षा के मोर्चे पर गंभीर जोख़िमों से भरे हुए हैं. कोविड-19 महामारी ने सुरक्षा के मायने और दायरे को और अधिक विस्तृत या विविधतापूर्ण बना दिया है. तकनीकी क्रान्ति ने सूचना को साझा किए जाने या उसकी व्याख्या किए जाने के तरीकों को सिर के बल पलट दिया है. ऐसे में ग़लत सूचनाओं के प्रसार को हवा मिली है. इतना ही नहीं सरकारों के भीतर या सरकार और समाज के बीच असंतोष और राजद्रोह को भी इन परिस्थितियों में बल मिलता है. हालांकि, गुप्तचरी की दुनिया इस तरह के बदलावों से अछूती नहीं है. वो बहुत जल्दी ऐसे परिवर्तनों को आत्मसात कर लेती है. कार्य संचालन और ख़ुफ़िया जानकारियों के संग्रहण से जुड़ी सापेक्षिक गोपनीयता निश्चित तौर पर सदैव सर्वोपरि रहनी चाहिए. इसी कड़ी में सेवानिवृत कर्मचारियों द्वारा प्रस्तुत किए गए विचार और भाव दीर्घावधि से चले आ रहे अभ्यासों को प्रकट करते हैं. इसके साथ ही सदैव परिवर्तनशील जोख़िमों और अनिश्चितताओं से घिरी दुनिया के आकलन को भी ये सामने लाते हैं. बहरहाल पेंशन नियमावली में कोई भी संशोधन किसी सेवानिवृत सरकारी अधिकारी द्वारा शासकीय गोपनीयता क़ानून के उल्लंघन को न्यायोचित रूप से रोकने का लक्ष्य बनाकर किया जाना चाहिए. हालांकि, इसके साथ ही ये भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इससे उनके विश्लेषणों, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों और ग़ैर-ख़ुफ़िया जानकारियों पर आधारित राय-मशविरों पर किसी तरह की बंदिश न लगे. सेवानिवृत सरकारी अधिकारियों द्वारा शैक्षणिक या नीति-निर्माण से जुड़े दायरे में किए गए योगदान की अहमियत समझी जानी चाहिए. युवा और अनुभवी दोनों प्रकार के पेशेवर कर्मियों के लिए इन सुझावों को समान रूप से बेशकीमती समझा जाना चाहिए. 

हालांकि, आम सोच के विपरीत वैश्विक तौर पर गुप्तचरी की दुनिया में हाल के समय में और ज़्यादा खुलेपन का रुझान बढ़ा है. गोपनीयता और सुरक्षा से जुड़े प्रकाशित कार्यों को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए बिना सेवानिवृत गुप्तचर अधिकारियों द्वारा सेमीनारों या शैक्षणिक कार्यक्रमों के आयोजन को भविष्य की नीतियों को आकार देने की दिशा में बेहद अहम माना जाता है. यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका और यहां तक कि इज़रायल ने भी यही रास्ता अपनाया है. सीआईए के रिटायर्ड प्रमुखों ने अपने संस्मरण और आत्मकथाएं लिखी हैं. हालांकि इन लेखनों को प्रकाशन से पहले सीआईए की प्रीपब्लिकेशन क्लासिफ़िकेशन रिव्यू बोर्ड (पीसीआरबी) की समीक्षात्मक पड़ताल का सामना करना होता है. ऐसे लेखनों के प्रकाशन से पूर्व अनिवार्य रूप से पुनरीक्षण की ज़रूरत अपनी जगह बरक़रार है. इसके बावजूद आमतौर पर पीसीआरबी और गुप्तचरी की दुनिया में मंझे हुए सुरक्षा विशेषज्ञों द्वारा अपने ज्ञान को साझा किए जाने के विचार को आगे बढ़ाया जाता है. इससे भी अहम बात ये है कि पीसीआरबी जैसी संस्था सीआईए के अन्तर्गत ही कार्य करती है. ये संस्था सरकार के राजनीतिक नियंत्रण से आज़ाद होकर संचालित होती है. पीसीआरबी जैसी संस्था की स्थापना से सीआईए के ख़ुफ़िया करारनामे और व्यक्तिगत अधिकारों से जुड़े अमेरिकी कानून में न्यायोचित संतुलन बिठाने में मदद मिली है.

बहरहाल लगता ऐसा ही है कि सरकार का ताज़ा कदम आलोचना और टीका-टिप्पणियों को दबाने के लिए उठाया गया है. हालांकि ये अपने आप में मतभेद के सूचक नहीं हैं.

गुप्तचरी की दुनिया में कुछ प्रकार की सूचनाओं को एक ख़ास समयावधि तक गोपनीय रखना अनिवार्य होता है. कई बार तो ये मियाद कई दशकों तक की हो जाती है. लिहाजा खुलेपन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमाना राज्य की गोपनीय जानकारियों के संचार से उत्पन्न नहीं होता बल्कि सामान्य अर्थों में अनुभवों, विचारों और सुझावों की अभिव्यक्ति की संभावनाओं से पैदा होता है. जटिल अंतरराष्ट्रीय ढांचे में राजनीति और ख़ुफ़िया तंत्र के बीच की रेखा लगातार अस्पष्ट या भ्रामक होती जा रही है. ऐसे में सेवानिवृत गुप्तचर अधिकारियों के निरपेक्ष या निष्पक्ष (ऐसी आशा जताई जाती है) विश्लेषण का समावेशन बेहद मूल्यवान हो गया है. बहरहाल लगता ऐसा ही है कि सरकार का ताज़ा कदम आलोचना और टीका-टिप्पणियों को दबाने के लिए उठाया गया है. हालांकि ये अपने आप में मतभेद के सूचक नहीं हैं. ख़ुफ़िया तंत्र जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में विशेषज्ञों का मुंह बंद करना और उनके विचारों को बाधित करने का दांव उल्टा भी पड़ सकता है. ख़ुफ़िया तंत्र में प्रभावी नीतियों के निर्माण के लिए सही सूचनाओं से लैस होकर की जाने वाली परिचर्चाएं आवश्यक हैं. भारत में तो पहले से ही गुप्तचरी से जुड़े मामलों में शैक्षणिक और ग़ैर-सरकारी सहभागिता का अभाव है. भारत जैसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए विमर्श की प्रक्रिया में खुलापन बेहद ज़रूरी है. राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सूचनाओं का आदान-प्रदान और जहां तक संभव हो उनका यथासंभव मुक्त प्रवाह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है.

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