Author : Preeti Kapuria

Published on Aug 06, 2022 Updated 0 Hours ago

पूरे भारत में आमतौर पर हर घर में चावल यानी धान खाया जाता है. धान के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में बंगाल का हिस्सा 15 प्रतिशत है. पश्चिम बंगाल ही 25 प्रतिशत आलू उत्पादन के साथ देश में दूसरे नंबर का आलू उत्पादक राज्य है.

#WestBengal के निचले Indo-Gangetic Plain में भू-जल संसाधनों की वर्तमान स्थिति की जांच!

West Bengal: खाद्य सुरक्षा एवं पोषण (food security and nutrition in India) के लिए शुद्ध और पर्याप्त जल (Clean and Drinking Water in India) तक पहुंच होना बेहद आवश्यक है. हाल के वर्षों में प्राकृतिक वास अर्थात लोगों की बस्तियों में कमी और उसकी दुर्दशा की वजह से दुनियाभर के जल स्त्रोतों (Water Resources In India) पर काफी गंभीर खतरा मंडरा रहा है. इसमें से कुछ खतरा तो भोजन करने के स्वरूप में आ रहे बदलाव की वजह से बढ़ती अनाज की मांग के कारण है.[1]

यह आलेख पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में भू-जल संसाधनों की वर्तमान स्थिति की जांच करता है. इसके साथ ही सीमित संसाधनों की कमी को रोकने के लिए फसल परिवर्तन की वजह से होने वाले संभावित प्रभाव की जांच करता है.

वैश्विक स्तर पर लगभग 70 प्रतिशत मीठे पानी को कृषि क्षेत्र के लिए निकाला जाता है,[2] मीठे पानी की अधिकांश निकासी सिंचाई के लिए ही होती है. इसमें भी सिंचाई के लिए निकाले गए मीठे जल का 40 प्रतिशत हिस्सा भू-जल का होता है.[3] भू-जल मीठे पानी का एक ऐसा स्त्रोत है, जिसकी निकासी हम सूखे मौसम में भी कर सकते हैं, जबकि भूतल पर सूखे के मौसम में मीठा पानी उपलब्ध नहीं रहता.

यह आलेख पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में भू-जल संसाधनों की वर्तमान स्थिति की जांच करता है. इसके साथ ही सीमित संसाधनों की कमी को रोकने के लिए फसल परिवर्तन की वजह से होने वाले संभावित प्रभाव की जांच करता है.

भारत दुनिया में भू-जल का सबसे बड़ा उपयोग करने वाला देश है है. यहां देश की सिंचाई की ज़रूरतों का 60 प्रतिशत मीठा पानी भू-जल से निकाला जाता है, जबकि 85 प्रतिशत भू-जल की निकासी से ही पेयजल की आवश्यकता को पूरा किया जाता है.[4] आज देश के अनेक महत्वपूर्ण कृषि क्षेत्रों में भू-जल का स्तर काफी तेजी से कम होता जा रहा है. हालांकि, फसल की संख्या में बढ़ोतरी से खाद्य उत्पादकता में वृद्धि हुई है लेकिन इसके चलते भू-जल की निकासी में हो रही बेतहाशा वृद्धि के कारण भू-जल का स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है. अनुमान है कि सन् 2025 तक फसल क्षेत्र में देखी जा रही गहनता राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 20 प्रतिशत कम हो जाएगी और जिन इलाकों में भू-जल स्तर की उपलब्धता तेज़ी से कम होगी, वहां इसकी गिरावट लगभग 68 प्रतिशत के आसपास होगी.[5] जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रभावित हो रहा बारिश का स्वरूप कृषि उत्पादकता के समक्ष उपलब्ध चुनौती को और भी गंभीर चिंता का विषय बनाता जा रहा है.

बोरो धान की फसल और उच्च उपज देने वाली सब्जियों, विशेषकर आलू की फसल के लिए आवश्यक सिंचाई के लिए भू-जल की आवश्यकता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल में भू-जल स्तर ठंड के दिनों में तीन से 12 मीटर या उससे ज्यादा कम हो जाता है.

यह आलेख पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में भू-जल संसाधनों की वर्तमान स्थिति की जांच करता है. इसके साथ ही सीमित संसाधनों की कमी को रोकने के लिए फसल परिवर्तन की वजह से होने वाले संभावित प्रभाव की जांच करता है. पश्चिम बंगाल राज्य में ही फसल की सर्वाधिक गहनता देखी जाती है. वहां का एक औसत किसान कुल जोतने योग्य भूमि का एक कृषि वर्ष में 1.85 गुना या फिर 2.5 गुना उपयोग करता है. बंगाल में सबसे ज्यादा धान की फसल उगाई जाती है. पूरे भारत में आमतौर पर हर घर में चावल यानी धान खाया जाता है. धान के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में बंगाल का हिस्सा 15 प्रतिशत है. पश्चिम बंगाल ही 25 प्रतिशत आलू उत्पादन के साथ देश में दूसरे नंबर का आलू उत्पादक राज्य है.[6] धान उत्पादन में वृद्धि खरीफ सत्र के दौरान उगाए जाने वाले धान की वजह से हुई है, जिसमें उच्च उपज देने वाली किस्म के धान के लिए बड़ी मात्रा में सिंचाई, खाद और कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है.[7]

धान की फसल को अन्य फसलों के मुकाबले पांच से छह बार सिंचाई का पानी देना पड़ता है. इतना पानी देकर ही भूमि को धान फसल के लिए तैयार किया जा सकता है और बाद में भूमि पर जमा पर्याप्त पानी में ही धान का पौधा बोया जा सकता है. बोरो धान की फसल और उच्च उपज देने वाली सब्जियों, विशेषकर आलू की फसल के लिए आवश्यक सिंचाई के लिए भू-जल की आवश्यकता में वृद्धि हुई है. परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल में भू-जल स्तर ठंड के दिनों में तीन से 12 मीटर या उससे ज्यादा कम हो जाता है. यही स्थिति मानसून पूर्व के दिनों में देखी जाती है. पिछले एक दशक में ही बोरो धान किस्म की  रोपाई के तहत आने वाली कृषि भूमि में पांच से दस प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष हुई है. इस वजह से निजी सतही टयूबवेल से भू-जल की अबाधित निकासी में भी तेजी आई है. ऐसे में अनेक टयूबवेल या तो सूख गए हैं या फिर उसमें से गर्मी के महीनों, खासकर मानसून पूर्व महीनों में बेहद कम पानी निकल पाता है.[8]

मुर्शिदाबाद और बर्धमान जिलों के अनेक ब्लॉक्स में 1995 से 2004 के बीच भू-जल स्तर में 16 से 70 सेंटीमीटर तक की गिरावट देखी गई. टयूबवेल का सूखना अथवा भू-जल स्तर में गिरावट की वजह से इन जिलों में पेयजल का संकट भी उत्पन्न हुआ है. इसके अलावा यहां के जल स्त्रोतों में आर्सेनिक कन्टैमनेशन भी देखी गई है.[9] (पिछले दशक में पश्चिम बंगाल के जिलों में भू-जल स्तर में आए परिवर्तन की विस्तृत जानकारी अनुबंध 1 में दी गई है.)

इसी वजह से पश्चिम बंगाल खुद को एक महत्वपूर्ण केस स्टडी के रूप में पेश करता है. ताकि यह पता लगाया जा सके कि कृषि उपज में परिवर्तन का उपयोग, जल के उपयोग को कैसे लाभ पहुंचा सकता है. महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की उपज में धान ही ऐसा अनाज है  जो जल का बेहद कम कुशलता के साथ इस्तेमाल करता है.[10] धान को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी और उपयोगकर्ताओं को इस पर दी जाने वाली सब्सिडी की वजह से ही फसल और कम जल का उपयोग करने वाले आहार के अन्य पोषक तत्वों से भरपूर विकल्पों की अनदेखी हो रही है. इसी वजह से व्यापक तौर पर पोषक तत्वों की कमी देखी जा रही है.[11] सीमित जल संसाधनों और बदलती आहार संबंधी वरीयताओं को देखते हुए स्थायी खाद्य उत्पादन के लिए यह आवश्यक है कि जल उपयोग दक्षता को बढ़ाने के साथ जल उत्पादकता में भी सुधार किया जाए. इसके साथ ही लोगों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जाए. कृषि उपज, जल के उपयोग और पोषक तत्वों को जोड़ने से ही हम ऐसी फसल को अपनाने के बारे में विचार कर सकते हैं जो कि फसल, कम पानी का उपयोग करे और पोषक तत्वों से भरपूर भी हो.

इस आलेख में निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स (गंगा के तराई वाले क्षेत्र) में उगाई जाने वाली अधिक पानी का उपयोग करने वाली बोरो धान की फसल के स्थान पर कम पानी का उपयोग करने वाले मक्के और जौ की खेती से होने वाली जल की बचत की संभावनाओं की जांच की गई है. इस विश्लेषण में मुर्शिदाबाद, बीरभूम, बर्धमान, हुगली और उत्तरी 24 परगना जिलों का समावेश है

इस आलेख में निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स (गंगा के तराई वाले क्षेत्र) में उगाई जाने वाली अधिक पानी का उपयोग करने वाली बोरो धान की फसल के स्थान पर कम पानी का उपयोग करने वाले मक्के और जौ की खेती से होने वाली जल की बचत की संभावनाओं की जांच की गई है. इस विश्लेषण में मुर्शिदाबाद, बीरभूम, बर्धमान, हुगली और उत्तरी 24 परगना जिलों का समावेश है. यह आलेख इस बात की जांच करता है कि क्या मीठे जल की उपलब्धता में सुधार और पोषक तत्वों में सुधार को एक साथ हासिल किया जा सकता है. यह उस स्थिति में जल संसाधनों की उपलब्धता में संभावित सुधार की खोज भी करता है जब धान, गेहूं और आलू की जगह वैकल्पिक फसल उगाई जाए और चयनित जिलों में उगाई जाने वाली मुख्य व वैकल्पिक फसल (अनाज और आलू) की पोषण उत्पादकता (न्यूट्रियंट यूनिट/एम−3 ऑफ वॉटर) का आकलन भी करता है.

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नोट: ये लेख PREETI KAPURIA और SAON BANERJEE द्वारा लिखे गये ओआरएफ़ हिंदी के लॉन्ग फॉर्म सामयिक रिसर्च पेपर #कृषि: पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में बेहतर जल उपयोग और पोषण उत्पादकता के लिए क्रॉप शिफ्टिंग! से लिया गया एक छोटा सा हिस्सा है. इस पेपर को विस्तार से पढ़ने के लिये आगे दिये गये occasional paper के हिंदी लिंक को क्लिक करें, जिसका शीर्षक है- #कृषि: पश्चिम बंगाल के निचले इंडो-गैंजेटिक प्लेन्स में बेहतर जल उपयोग और पोषण उत्पादकता के लिए क्रॉप शिफ्टिंग! 

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Preeti Kapuria

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Preeti Kapuria was a Fellow at ORF Kolkata with research interests in the area of environment development and agriculture. The approach is to understand the ...

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Contributor

Saon Banerjee

Saon Banerjee

Saon Banerjee is Professor AICRP on Agrometeorology Directorate of Research Bidhan Chandra Krishi Viswavidyalaya (BCKV) Mohanpur Nadia West Bengal.

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