इतिहास उठा लीजिये हर महामारी की मार सर्वाधिक आम और गरीब तबक़े पर ही पडी है. अफसोस आधुनिकतम टेक्नालजी की ढींग मारने वाली 21वीं सदी की ये दुनिया और अपने को बाहुबली समझ बैठे तमाम देश और उनके नेता — बिरले ही इस कड़वे सत्य को झुठलाने में सफल नहीं दिखा.
अमेरिकी और चीनी राष्ट्रपति की कुश्ती का अखाड़ा बना WHO
कोरोना संकट के चलते इधर 18-19 मई को विश्व स्वस्थ्य संगठन की संगोष्ठी निर्धारित थी, उधर अमेरिकी राष्ट्रपति ने WHO के निदेशक को चिट्ठी लिख ट्विटर पर चेतावनी दे डाली कि अमेरिका वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन से अपने हाथ खींच सकता है. पहले भी ट्रम्प एकतरफ़ा फैसला लेकर कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और करारों से अमेरिका को अलग कर ही चुके हैं. इन करारों में जल वायु परिवर्तन करार प्रमुख़ रहा है. इस ट्वीटर युद्ध के माध्यम से विश्व स्वास्थ संगठन पर हमला बोल उसको चीन का पिट्ठू घोषित करने का सिलसिला जारी रहा. कोरोना कि मार से एक लाख से अधिक मौतें अब तक अमेरिका में हो चुकी हैं. कोरोना संकट के प्रारंभ में अनदेखी कर उसे मामूली फ्लू करार करने का इल्ज़ाम उनपर लगातार लगाया जा रहा है. निरंतर आलोचनाओं के घेरे में रहने के कारण अमेरिका में हुई इतनी बेवजह मौतों का ठीकरा किसी ना किसी के सिर फोड़ना ही है. नवंबर में उन्हें चुनावी दंगल लड़ना है – ज़ाहिर है इस वक्त ट्रंप का लक्ष्य — दुनिया कम, अपने वोटर ज्य़ादा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति के चीन और WHO के विरुद्ध आरोप ट्वीटर पर झींगुर की तरह लाखों बार भले ही झुनझनाएँ हों, वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने कान बंद कर चीन का नाम लेने से इंकार ही किया.
एक तरफ विश्व महामारी कि चपेट में है दूसरी ओर दुनिया कि सबसे बड़ी शक्ति अमेरिकी वैश्विक जिम्मेदारियां निभाने से मुकर अपनी अंदरूनी उठा-पटक में ज्य़ादा मशगूल नज़र आ रही है. कोरोना कि मार से बदहाल अन्य सभी देश पशो-पेश में हैं. इसी माहौल में वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने अपनी बैठक की. 130 देशों ने आम राय बना एक घोषणा-पत्र पारित किया ताकि कोविड-19 वायरस के जानवरों से मानव में प्रसार के माध्यम और कारणों की WHO द्वारा सघन जांच हो सके जिससे भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके. अमेरिकी राष्ट्रपति के चीन और WHO के विरुद्ध आरोप ट्वीटर पर झींगुर की तरह लाखों बार भले ही झुनझनाएँ हों, वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने कान बंद कर चीन का नाम लेने से इंकार ही किया. विश्व स्वस्थ्य संगठन के नेतृत्व में देशों द्वारा उठाए गए कदमों की समीक्षा के बारे में आम राय सामने आई जिसका उद्देश्य था कि भविष्य में इस प्रकार की दूसरी किसी महामारी से निपटने के लिए सीख मिले.
इधर अमेरिकी राष्ट्रपति WHO से अलग होने की तैयारी में जुटे उधर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसी संस्था को दो बिलियन डॉलर का तोहफा देने का ऐलान कर डाला. इतना ही नहीं, चीन द्वारा अन्य देशों, ख़ासकर अफ्रीकी देशों को सहायता देने की भी पेशकश की गयी गया जिससे वे अपने-अपने देशों की स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत कर कोरोना से युद्ध करने की क्षमता बढ़ा सकें. इन देशों के आधारभूत ढांचे को भी सुदृढ़ करने का भी प्रस्ताव है जो कि वैसे भी BRI परियोजना के चलते चीन की प्रमुख चाल रहा है. लगता है इस संकट की घड़ी में राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी जनता को संदेश देना चाह रहे हैं की उनके नेतृत्व में जैसे-जैसे अमेरिका पीछे हटेगा वैसे-वैसे चीन अपना हाथ और मज़बूत करेगा. कठिनाई के इस दौर में जनता आश्वस्त रहे की उनके नेतृत्व में चीन वर्ल्ड लीडरशिप कि ओर निरंतर अग्रसर है और उसका परचम पूरी दुनिया पर लहराने को मानो तैयार है.
चीन के रंग में रंगा हुआ समाजवाद
याद रहे यही वह समय है जब चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी अपनी सालाना राष्ट्रीय कांग्रेस करती है – वह मंच जिसपर अब तक चीन की सरकार और कम्यूनिस्ट पार्टी (जो चीन में एक ही है) अपनी नीतियों और योजनाओं का खुलासा जनता ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के समक्ष रखती है. इस बार प्रधानमंत्री ली केकियांग का कोरोना के चलते भाषण में सुनहरे भविष्य की लंबी चौड़ी महत्वाकांक्षी घोषणाएँ कुछ कम थीं. उन्होने माना कि इस वर्ष राष्ट्रीय सकल उत्पाद थमा रहेगा, हो सकता है बढ़ने के बजाय घट ही जाए.
ऐसे समय में जब चीन के अंदर कोरोना संकट से उभरने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों कि आलोचना भी हो रही है; साफ है कोरोना ने शी जिनपिंग के बढ़ते वर्चस्व को चुनौती दी. उनके नेतृत्व में कोरोना संकट को नियंत्रित करने के ढंग का आंतरिक विरोध हुआ है. समय पर कार्यवाही न करने और फिर लॉकडाउन कर अर्थव्यवस्था को रोक देने के दुष्परिणाम स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं. ऐसे में नेशनल कांग्रेस के भाषण में चीनी जनता के लिए दिये गए भाषण में प्रधानमंत्री ने एक बार पुनः डेंग जियाओपींग के 1980 के दशक के मंत्र को याद किया. ज़ोर दिया विशिष्ट चीनी समाजवाद पर जिस के चलते चीन कि जनता की जान की सुरक्षा चीनी सरकार के लिए सर्वोपरि है. यह अपने ढंग का अकेला समाजवाद है जो लोगों को प्रमुख मानता है, एक ऐसा समाजवाद जो चीन के रंग में रंगा है — सोशलिज्म विद चाइनीज़ करैक्टरस्टिक्स.
वास्तव में चीन के व्यावहारिकवाद की दाद तो देनी ही पड़ेगी. डेंग जियाओपींग के ज़माने से चीन ने कभी विचारधारा को अपनी महत्वाकांक्षाओं के रास्ते में आड़े नहीं आने दिया. डेंग जियाओपींग की सीख कि बिल्ली का रंग चाहे काला हो या सफेद, चूहे मारने लायक होनी चाहिए — चीनी सोच का अभिन्न अंग बन गया. समाजवाद हो या पूंजीवाद, ये अनावश्यक द्वंद पश्चिमी विचारधारा से उपजी भ्रांतियों का परिणाम है.
ध्यान रहे की 1980 के दशक में चीनी समाजवाद की दुहाई देकर चीन को एक बंद अर्थव्यवस्था से बाहर निकाल उसे सीमित पूंजीवाद की ओर अग्रसर करने की भूमिका बनाई जा रही थी. आज वही मंत्र — पीपल फॉर मोस्ट — चीन में आम जनता को प्राथमिकता — की राह दिखा जनता को ढाढ़स देने के काम आ रहा है. लोगों को विश्वास दिलाना है कि चीन अकेला कोविड-19 की दहशत से सबसे पहले सशक्त रूप से उभर कर बाहर आया है.
लेकिन फिलहाल वुहान से निकला संक्रमण भले ही नियंत्रण में आ गया हो, पर दूसरी लहर का भय अभी भी लगातार बना हुआ है. साथ ही बिगड़ती अर्थव्यवस्था को उभार उसको पुनर्जीवित करने के अलावा दूसरा कोई चारा भी नज़र नहीं आता है.
अभी सबसे ज्य़ादा जरूरत स्वस्थ्य व्यवस्था और इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की है. जैसे जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी अर्थव्यवस्था में मांग का किसी भी तरह फिर से संचार हो ताकि खोये हुए रोज़गार फिर से स्थापित हो सकें. इसी कारण आने वाले वर्ष में 90 लाख नए रोज़गार उपलब्ध करने का आश्वासन दिया गया. यह वही चीन है जिसने दो वर्ष पूर्व सामान्य परिस्थितियों में 120 लाख़ नए रोज़गार उपलब्ध कराने की क्षमता दिखाई थी. यही बौखलाहट और हड़बड़ाहट ताला-बंद दुनिया के कई देशों में देखी जा रही है. ऐसे देशों में भी जहां कोरोना के केसों की संख्या में गिरावट की बजाय उछाल ही दिख रहा है. कोरोना से युद्ध में तालाबंदी का ब्रह्मास्त्र चला तो दिया पर उसके दुष्परिणामों से निपटने के साधन किसी के पास नहीं हैं. कैसे अब आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू हो, सब कुछ सामान्य किया जाए.
यही पशो-पेश में चीन भी है. और ऐसे समय में राष्ट्रवाद का नारा हर नेता को याद आ ही जाता कई. चाहे दक्षिण चीन सागर हो चाहे भारत से लगी सीमा – सभी जगह चीनी नेता हॉट-स्पॉट बनाने में मशगूल हैं जिससे कोरोना के तमाम हॉट-स्पॉट की गर्मी कम की जा सके. और रही हांगकांग की बात तो दुनिया का ध्यान जब महामारी पर केंद्रित हो तब मौका है नया सुरक्षा कानून लाकर हॉन्गकॉन्ग में उठे विरोध के स्वरों को दबाने का. इन सभी कारणों से चीन के रुख में एक नयी किस्म की आक्रामकता देखी जा रही है. अपने विश्व वर्चस्व को बढ़ाने के साथ-साथ जनता को संदेश देना भी ज़रूरी है कि बाहरी ताक़तों का ख़तरा लगातार कायम है और चीनी राष्ट्र को एक जुट होकर इन शक्तियों का सामना कर हर प्रकार कि परिस्थिति के लिए तैयार रहना है.
केरल ने मार्च माह के प्रारम्भ में ही कार्यवाही शुरू कर दी थी. केरल राज्य शासन लोगों की रोजी-रोटी को सुरक्षित करने के लिए सबसे पहले 20 हजार करोड़ का राहत पैकेज लेकर आया था और आज भी इस महामारी को रोकने में केरल की मिसाल कायम है.
बदहाल अर्थव्यवस्थाओं का पुनरुद्धार
सभी देश तालाबंदी से बाहर निकल लोगों के लिए रोजी-रोटी वापस लाने कि क़वायद में हैं. जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका सभी कि कोशिश की इस आपातकाल में जैसे भी हो डिमांड फिर से जिंदा हो. डिमांड बढ़ती है तो इकॉनमी अपने आप पुनर्जीवित हो जाएगी. भारत में भी केरल ने मार्च माह के प्रारम्भ में ही कार्यवाही शुरू कर दी थी. केरल राज्य शासन लोगों की रोजी-रोटी को सुरक्षित करने के लिए सबसे पहले 20 हजार करोड़ का राहत पैकेज लेकर आया था और आज भी इस महामारी को रोकने में केरल की मिसाल कायम है.
विपत्ति काल में तमाम देशों की सरकारें प्रयासरत हैं कि कैसे जॉब्स सृजित करके, लोगों को सहारा मिले, उन्हें भान हो कि उनकी सरकार उनके साथ बराबर खड़ी है. इतिहास उठा लीजिये हर महामारी की मार सर्वाधिक आम और गरीब तबक़े पर ही पडी है. अफ़सोस की आधुनिकतम टेक्नालजी की ढींग मारने वाली 21वीं सदी की ये दुनिया और अपने को बाहुबली समझ बैठे तमाम देश और उनके नेता — बिरले ही इस कड़वे सत्य को झुठलाने में सफल दिखे. भारत का भी पूरा ज़ोर इस वक्त मनरेगा पर रहा है. सबसे पहले भारत सरकार ने इसी योजना के लिए और पैसे की व्यवस्था की.
भारत में कोरोना की शहरों में फैलती दहशत से भारी संख्या में प्रवासी श्रमिक पलायन कर रहे हैं. इन लौटते श्रमिकों को निवास स्थान में रोजगार मिल सके इसलिए मनरेगा को बढ़ाना सबसे आवश्यक था. पर आगे ज़रूरत है की इसी तरह की योजनाएं शहरी क्षेत्रों में भी चलायी जाएँ. ऐसे संकट के वक्त पर मात्र निजी पूंजी और ऋण व्यवस्था के बूते जर्जर अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने में कठिनाई आएगी. इसलिए सरकारी तंत्र के माध्यम से जिसमें राष्ट्र की पब्लिक सेक्टर इकाइयां प्रमुख हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं प्रारम्भ कर अर्थ व्यवस्था में रोजगार के माध्यम से पुनः मांग जीवित करना बहुत जरूरी है. इन्हीं परियोजनाओं से उपजे ठेकों के बलबूते बैंक भी ऋण प्रदान करने के लिए आश्वस्त होंगे. यह एक तरीका है ठप्प पड़ी अर्थव्यवस्था के इंजन को धक्का लगाकर पुनः स्टार्ट करने का.
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Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...