Author : Sameer Patil

Published on Dec 21, 2023 Updated 0 Hours ago

अगले साल होने वाला संयुक्त राष्ट्र काभविष्य का शिखर सम्मेलनउसको एक दुर्लभ अवसर मुहैया करा रहा है. जिसके ज़रिए वो अपनी विश्वसनीयता को उबारने और अंतरराष्ट्रीय शांति एवं स्थिरता के ख़तरों से निपटने की अपनी ज़िम्मेदारी के लिए ख़ुद को नए सिरे से तैयार कर सके.

2024 में संयुक्त राष्ट्र के पास अपने उद्धार का मौक़ा?

प्रस्तावना

आज दुनिया भर में एक दर्जन से ज़्यादा युद्ध छिड़े हुए हैं. ये म्यांमार के गृह युद्ध और ग़ज़ा पट्टी में इज़राइल और हमास के संघर्ष से लेकर यूरोप में रूस और यूक्रेन की जंग और दक्षिणी सूडान में हिंसा तक फैले हुए हैं. गुज़रे बरसों की तरह 2023 में जहां इन संघर्षों के दायरे और गंभीरता का ज्वार बदलता रहा, वहीं एक बात इस साल भी पिछले कुछ वर्षों जैसी ही रही- संयुक्त राष्ट्र का फुर्तीले और प्रभावी ढंग से इन परिस्थितियों से निपटने में अक्षम साबित होना. दूसरे विश्व युद्ध के अंत के समय, जिस संयुक्त राष्ट्र की एक महान परियोजना के तौर पर बड़ी उम्मीदों और तारीफ़ों के साथ शुरुआत हुई थी, वो आज पूरी तरह से असहाय नज़र रहा है. आज संयुक्त राष्ट्र अपने चार्टर द्वारा तय अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी- अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने- यानी अपने अस्तित्व की बुनियाद को ही पूरा करने में नाकाम साबित हो रहा है. और, इसका भविष्य भी कोई उज्जवल नहीं दिख रहा है. UN के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस  ने चेतावनी दी है कि आने वाले समय मेंतनाव, विभाजनकारी गतिविधियां और उससे भी बुरी स्थितियां बढ़ने वाली हैं.’

संयुक्त राष्ट्र अपने चार्टर द्वारा तय अपनी मुख्य ज़िम्मेदारी- अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने- यानी अपने अस्तित्व की बुनियाद को ही पूरा करने में नाकाम साबित हो रहा है.

आख़िर क्या कारण है कि 75 साल से भी अधिक पुराना संयुक्त राष्ट्र अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है? आलोचकों ने इसके पीछे कई वजहों की तरफ़ इशारा किया है. पांच स्थायी सदस्यों (P-5) के बीच आम सहमति बन पाने की वजह से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का लाचार हो जाना, मौजूदा शक्ति संतुलन का अक्स दिखना और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व होना, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर राष्ट्रीय हितों को तरज़ीह देने जैसे तमाम कारणों ने संयुक्त राष्ट्र के ऊपर भरोसे, इसकी वैधानिकता और विश्वसनीयता के छीजते जाने में योगदान दिया है. अगर इसके सदस्य देश इन मसलों को हल करने के लिए त्वरित रूप से क़दम नहीं उठाते हैं, तो आने वाले समय में संयुक्त राष्ट्र अपने पूरी तरह बेकार हो जाने की दिशा में आगे बढ़ता रहेगा.

बदलते भू-राजनीतिक मंज़र की गुत्थी सुलझाने की कोशिश

आज जो कुछ हम देख रहे हैं वोशांति खत्म करने का युगहै, जो शीत युद्ध के बाद के दौर में आने वाला बहुआयामी परिवर्तन है. आज टुकड़ों में बंटी विश्व व्यवस्था केवल पूरब और पश्चिम के बीच ध्रुवीकृत है, बल्कि ये विकसित (ग्लोबल नॉर्थ) और विकासशील (ग्लोबल साउथ) के बीच भी बंटी हुई है. ये एक ऐसी दरार है, जिसने प्रमुख शक्तियों के बीच भरोसे की खाई को और गहरा करती जा रही है. संस्थागत कारणों से प्रमुख ताक़तों के बीच सुरक्षा की प्रतिद्वंदिता बढ़ती जा रही है. देशों के बीच युद्ध, जो कुछ दशकों पहले एक पुरानी पड़ चुकी बात लगने लगी थी, वो आज की तल्ख़ सच्चाई बन चुकी है; परमाणु ताक़त से लैस देश अभी भी आपस में सीधे सीधे सैन्य टकराव से बचने की कोशिश कर रहे हैं, और इसकी जगह अपने मोहरों के ज़रिए मुक़ाबला कर रहे हैं. लेकिन, वो क्षेत्रीय ताक़तें जिनके पास एटमी शक्ति नहीं है, उनको सीधी लड़ाई लड़ने में कोई संकोच नहीं है. तेज़ी से इस्तेमाल में रही नई नई तकनीकें अब ऐसे औज़ार मुहैया करा रही हैं, जो युद्ध लड़ने के तौर-तरीक़ों में ऐसी जटिलताएं और तबाही ला रहे हैं, जो पहले कभी देखी-सुनी नहीं गईं. यही नहीं, संघर्ष के समय को सीमित करने के बजाय ये तकनीकी क्षमताएं, उनका वक़्त और बढ़ा रही हैं. फिर भी, संयुक्त राष्ट्र के पास ऐसी कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है कि वो इन नई उभरती तकनीकों को हथियार बनाकर इस्तेमाल करने और इनके विस्तार पर कोई नियंत्रण स्थापित कर सके.

आने वाले साल में ये चलन और मज़बूत होगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने की ज़िम्मेदारी निभाना संयुक्त राष्ट्र के लिए और भी मुश्किल होता जाएगा.

जंग और संघर्ष के प्रति इस रुझान को देशों की बदलती  मानसिकता से भी बल मिल रहा है. आज बहुत से देश अपने विवादों को वार्ता की मेज़ पर सुलझाने के बजाय, युद्ध के मोर्चे पर निपटाने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. इथियोपिया के टिगरे में छिड़ी जंग और नागोर्नो -काराबाख़  में अज़रबैजान का सैन्य अभियान, देशों के नज़रिए में आए इस बदलाव का प्रतीक है. आज देशों को शांति के लिए बहुपक्षीय माध्यमों को इस्तेमाल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसका नतीजा ये हुआ है कि कूटनीति और शांति स्थापित करने के प्रयास नेपथ्य में चले गए हैं. आने वाले साल में ये चलन और मज़बूत होगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा स्थापित करने की ज़िम्मेदारी निभाना संयुक्त राष्ट्र के लिए और भी मुश्किल होता जाएगा.

एक और प्रमुख चलन जो देखने को मिल रहा है, वो ताक़त के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ दबाव बनाने वाले असैन्य तौर तरीक़ों जैसे कि प्रतिबंधों और व्यापारिक पाबंदियों की धार का कुंद होना भी है. पांच स्थायी सदस्यों के बीच असहमति के कारण, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाबंदियों वाली व्यवस्था के कारगर साबित नहीं होने की वजह से, पश्चिमी देश अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ इकतरफ़ा ढंग से प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था लागू कर रहे हैं. फिर भी, कुछ गिने चुने मामलों को छोड़ दें तो, ये प्रतिबंध उनके बर्ताव में कोई बदलाव ला पाने में नाकाम रहे हैं, और आने वाले समय में हम देखेंगे कि अपने दुश्मनों से सीधी लड़ाई लड़ने से बचने के लिए नीतिगत क़दमों के तहत प्रतिबंधों का इस्तेमाल और बढ़ेगा.

संयुक्त राष्ट्र को एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के हिसाब से ढालना

ये साफ़ है कि संयुक्त राष्ट्र को अपनी विश्वसनीयता को बचाने और बहुपक्षवाद  के सामने खड़े संकट से निपटने के लिए अपने आपको नए सिरे से ढालने की ज़रूरत है. कई मामलों में, आने वाला साल संयुक्त राष्ट्र को संभावित रूप से एक ऐसा दुर्लभ अवसर मुहैया कराने वाला है, जब वो अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और शांति के लिए ख़तरों से निपटने की अपनी ज़िम्मेदारी को मज़बूती दे सके.

सितंबर 2024 में संयुक्त राष्ट्र अपनी महत्वाकांक्षी, ‘समिट ऑफ दि फ्यूचरको आयोज़ित करने जा रहा है. इस सम्मेलन के दौरान तय कार्यक्रमों मेंशांति के लिए नया एजेंडाभी शामिल है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने पहले ही शांति स्थापना और एक प्रभावी सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को आकार देने के लिए अपना विज़न सामने रख दिया है.

इस विज़न को हक़ीक़त बनाने के लिए UN को ये मानना पड़ेगा कि ज़रूरी नहीं है कि कुछ संघर्षों की जड़, प्रतिद्वंदिता में हो, बल्कि इनके पीछे संसाधनों की क़िल्लत, जलवायु परिवर्तन, ग़रीबी और आर्थिक असमानता जैसे कारण भी हो सकते हैं. फिर उसको इसी हिसाब से संघर्ष रोकने और सदस्य देशों को संभावित संघर्षों के प्रति पहले से आगाह करने के लिए नए तरीक़े विकसित करने होंगे. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र को उभरती तकनीकों की ख़तरनाक भूमिका को ध्यान में रखते हुए उनके प्रसार को रोकने के लिए वैश्विक प्रशासन की ऐसी रूप-रेखा विकसित करनी होगी, जिससे ग्लोबल साउथ, इन तकनीकों के सकारात्मक लाभों से वंचित रहे.

UN को चाहिए कि वो इस मुश्किल मगर उम्मीदों भरे रास्ते पर चले ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की अपनी ताक़त को मज़बूती दे सके.

दूसरा, संयुक्त राष्ट्र को नई भू-राजनीतिक शक्तियों- मध्यम ताक़तों, सीमित सदस्यों वाले समूहों, बहुलतावादी संगठनों, G20 और सकारात्मक नज़रिया रखने वाले नॉन स्टेट एक्टर्स की ताक़त का इस्तेमाल, भू-राजनीतिक खाई पाटने के लिए करना ही चाहिए. UN को अलग अलग संदर्भों में आम सहमति बनाने में इन सबके योगदान को समझते हुए उनको अपने साथ जोड़ना ही होगा. इसके लिए वो अपने कुछ संस्थानों का नेतृत्व इन संगठनों और समूहों को दे सकता है, जो P-5 के बीच भरोसे की कमी को पूरा करके शांति स्थापना की पहल कर सकें.

सबसे बड़ी बात, समिट ऑफ दि फ्यूचर में संयुक्त राष्ट्र को अपनी व्यवस्था और ख़ास तौर से सुरक्षा परिषद (UNSC) को सुधारने के लिए एक ठोस और तय समयसीमा वाली रूप-रेखा तैयार करनी होगी. क्योंकि अभी वो गुज़री हुई सदी और औपनिवेशिक परियोजना के शक्ति संतुलन का ही अक्स बना हुआ है. इस कार्य योजना को ऐसा होना चाहिए जो संयुक्त राष्ट्र को केवल भविष्य में प्रासंगिक बनाए रखें  बल्कि, विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्था को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के साथ साथ, उन्हें भी वही अधिकार दे, जो पांच स्थायी सदस्यों को मिले हैं. उसे P-5 देशों पर इस बात का दबाव भी बनाना चाहिए कि वो इस हाथ ले, उस हाथ दे के खेल को बंद करें, और एक समावेशी, जवाबदेह और प्रभावी संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था बनाने के लिए ज़रूरी सुधारों के लिए सहमत हों. भारत ने पहले ही एक सुधरे हुए और प्रभावी बहुपक्षीयवाद के लिए अपना विचार सामने रख दिया है. इसी तरह अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, कैरेबियाई, एशिया और प्रशांत (छोटे द्वीपीय विकासशील देशों) के L69 समूह ने भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार का अपना नज़रिया प्रस्तुत किया है.

निष्कर्ष

गहराई से ध्रुवीकृत मौजूदा विश्व व्यवस्था और संघर्षों के उभार की वजह से संयुक्त राष्ट्र के लिए शांति की राह तलाशना अब निश्चित रूप से एक चुनौती भरा  प्रयास बन गया है. ये बात भी सच है कि जब बात सुधार करने की आएगी, तो UN को राजनीतिक और प्रक्रिया संबंधी चुनौतियों से निपटना होगा. हालांकि, ‘समिट ऑफ दि फ्यूचरसंयुक्त राष्ट्र को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक गति देगा ताकि वो ख़ुद को उपयोगी और दूरगामी संगठन बना सके. UN को चाहिए कि वो इस मुश्किल मगर उम्मीदों भरे रास्ते पर चले ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की अपनी ताक़त को मज़बूती दे सके. जैसा कि महासचिव गुटेरेस  ने ज़ोर देकर कहा कि, संयुक्त राष्ट्र कोसुधरना या टूटना होगा.’

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Dr Sameer Patil is Director, Centre for Security, Strategy and Technology at the Observer Research Foundation.  His work focuses on the intersection of technology and national ...

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