Author : Jhanvi Tripathi

Published on Jul 02, 2022 Updated 29 Days ago

मंत्रिस्तरीय सम्मेलन का कोई ठोस एलान करने में नाकाम रहने से विश्व व्यापार संगठन के कामकाज को असरदार बनाने को और नुक़सान पहुंचा है.

विश्व व्यापार संगठन का 12वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन: अधूरा काम ज़्यादा रह गया

हाल ही में संपन्न हुए विश्व व्यापार संगठन (WTO) की बारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के बाद उन लोगों ने राहत की सांस ली है, जो उदारवादी व्यापार व्यवस्था के मौजूदा ढांचे के समर्थक हैं. क़रीब हफ़्ते भर तक चला ये सम्मेलन विश्व व्यापार संगठन की फ़ैसले लेने वाली सबसे बड़ी व्यवस्था है. क्योंकि विश्व व्यापार संगठन को ताक़त उसके सदस्यों से ही मिलती है. वैसे तो WTO का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन हर दो साल में होता है. लेकिन, इस बार महामारी के चलते ये आयोजन चार साल देर से हुआ.

विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था असल में इसके विवादों के निपटारे की व्यवस्था है. WTO के विवादों के निपटारे के समझौते की धारा 17 के मुताबिक़, इसमें कम से कम सात सदस्य हमेशा रहने चाहिए और दो देशों के बीच किसी भी व्यापारिक विवाद के निपटारे की सुनवाई तीन सदस्यों द्वारा की जानी चाहिए.

ऐसा क्यों हुआ, इसे समझने के लिए हमारे लिए ग्यारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के बाद विश्व व्यापार संगठन की स्थिति को समझना ज़रूरी होगा, जो दिसंबर 2017 में हुआ था. अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनेस आयर्स में हुआ ये मंत्रिस्तरीय सम्मेलन पूरी तरह से नाकाम रहा था क्योंकि इसके निष्कर्ष के तौर पर कोई दस्तावेज़ सामने नहीं आया था. न ही मंत्रिस्तरीय घोषणाएं की गईं और न ही सम्मेलन के आख़िर में किसी समझौते को स्वीकार किया गया. उस सम्मेलन के अंत में केवल भविष्य की वार्ताओं के लिए वादे किए गए थे.

11वें और 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के बीच के समय में अमेरिका और चीन के बीच, जो व्यापार युद्ध  नवंबर 2017 से शुरू हुआ था, वो और भी बढ़ता चला गया. उस वक़्त विश्व व्यापार संगठन के सामने जो एक और संकट खड़ा था, वो था उसकी अपीलीय संस्था (AB) की धीरे-धीरे होती मौत था. अगर हम इस अपीलीय संस्था को WTO का सबसे शानदार नगीना कहें तो ग़लत नहीं होगा. विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था असल में इसके विवादों के निपटारे की व्यवस्था है. WTO के विवादों के निपटारे के समझौते की धारा 17 के मुताबिक़, इसमें कम से कम सात सदस्य हमेशा रहने चाहिए और दो देशों के बीच किसी भी व्यापारिक विवाद के निपटारे की सुनवाई तीन सदस्यों द्वारा की जानी चाहिए. ट्रंप प्रशासन द्वारा इस संस्था का खुला विरोध करने से काफ़ी पहले बराक ओबामा प्रशासन ही, अपीलीय संस्था में किसी सदस्य की नियुक्ति में अड़ंगा लगा रहा था. इसका नतीजा ये हुआ कि अक्टूबर 2016 तक इस संस्था के केवल चार सदस्य बच रहे थे. ये संकट तब अपने उरूज पर पहुंच गया, जब इसमें एक भी सदस्य नहीं बचे. इससे विश्व व्यापार संगठन की एक शाखा का काम पूरी तरह से ठप हो गया.

ख़ाली ढोल

पिछले कई वर्षों से, वैसे तो विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता बढ़ती जा रही है, लेकिन इसके सदस्यों के बीच आम सहमति न बन पाने से इसके काम-काज पर सवाल उठते रहे हैं. इसके 164 सदस्य होने से संगठन में विविधता आती है और दुनिया के हर तबक़े के लोगों की नुमाइंदगी भी होती है. मगर, इसके साथ ही साथ बढ़ती सदस्यता, विश्व व्यापार संगठन के फ़ैसले लेने की व्यवस्था में नए नए अड़ंगे भी खड़े करती है. क़रीब दस साल पहले अमृता नार्लिकर ने लिखा था कि- विश्व व्यापार संगठन अपनी निष्पक्षता की कमी को तो कुछ हद तक दूर कर पाया है, मगर अपनी कुशलता की कमी से निपटने में नाकाम रहा है. आज भी विश्व व्यापार संगठन के मामले में अमृता की वो बात बहुत प्रासंगिक हो गई है. 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन से दो सबक़ लिए जा सकते हैं, (i) एक तो ये कि व्यवस्था अभी भी कारगर है, और (ii) दूसरी ये कि हमें अभी भी पता है कि इसका इस्तेमाल कैसे करना है. हमने आम सहमति बनाने और ठोस नतीजे हासिल कर पाने के मोर्चे पर जो कुछ गंवाया है, उसकी भरपाई इसके संस्थानों और प्रक्रिया से कर ली है.

तीसरा समझौता मछली मारने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को लेकर था, जो शायद इस दौर की बातचीत की सबसे बड़ी उपलब्धि था. 2013 के व्यापार संवर्धन समझौते के बाद ये पहला समझौता है, जिसे विश्व व्यापार संगठन ने कामयाबी से पूरा किया है.

हालांकि, 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के बारे में इस बात की काफ़ी चर्चा हो रही है कि ये क्या बातें हासिल करने में नाकाम रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य इस सम्मेलन के बारे में ये कह रहे हैं कि वार्ताओं के मामले में ये अभूतपूर्व दौर था. मगर सच्चाई ये है कि ये मंत्रिस्तरीय सम्मेलन नतीजे न निकाल पाने के मामले में ही अभूतपूर्व रहा है. वैसे तो खाद्य सुरक्षा, ई-कॉमर्स, मछली मारने में सब्सिडी और व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा के अधिकारों (TRIPS) और सैनिटरी ऐंड फाइटोसैनिटरी मेज़र्स (SPS) के मामले में फ़ैसले लिए गए. मगर इनमें से तीन मुद्दे एकदम अलग ज़ाहिर होते हैं.

पहला मुद्दा तो ई-कॉमर्स के बारे में वो पाबंदी है, जिसे हर मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में आगे बढ़ाया ही जाता है, जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि हमारी इंटरनेट कॉल और ई-मेल (इलेक्ट्रॉनिक संचार) कम से कम 13वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (MC13) तक कर से मुक्त रहे.

दूसरा, बौद्धिक संपदा के व्यापार संबंधी अधिकारों (TRIPS) में रियायत का मुद्दा है जिस पर कोविड-19 महामारी के चलते सहमति बन पायी. हालांकि ये फ़ैसला न केवल दो साल की देर से लिया जा सका, बल्कि इससे हासिल भी बहुत कम ही हो सका. इस रियायत के दायरे में केवल कोविड-19 के टीके रखे गए हैं और छह महीने का समय इस बात के लिए दिया गया है कि इस रियायत में कोविड-19 की जांच और इलाज (फ़ैसले का 8वां बिंदु) को शामिल करने पर भी सहमति बनाई जा सके.

अगर इस सम्मेलन में लिए गए किसी फ़ैसले को वास्तविक उपलब्धि कहा जा सकता है, तो वो जनता के स्वास्थ्य के मोर्चे पर हासिल की गई. ये कोविड-19 और भविष्य में फैलने वाली महामारियों के बारे में विश्व व्यापार संगठन की प्रतिक्रिया को लेकर मंत्रिस्तरीय घोषणा थी. इसकी भाषा में विकसित देशों को ख़ास तौर से लताड़ लगाई गई है और उन्हें उस वादे की याद दिलायी गयी है जो उन्होंने ट्रिप्स समझौते की धारा 66.2 के तहत किए थे. इस धारा में विकसित देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया गया था कि वो सबसे कम विकसित देशों को अपने यहां उपलब्ध तकनीकें मुहैया कराएंगे. इसमें ऐसी कई बातों का भी ज़िक्र भी है, जिन पर सदस्य देश भविष्य में होने वाली किसी भी महामारी से निपटने के दौरान विचार करेंगे. जैसे कि निर्यात संबंधी पाबंदियां, व्यापार की सुविधा, नियामक सहयोग और पारदर्शिता जैसी बातें शामिल हैं.

इस सम्मेलन (MC12) के समापन पर WTO की महानिदेशक द्वारा एक के बाद एक किए गए ट्वीट थे. सदस्यों को एक सफल सम्मेलन के समापन पर मुबारकबाद देते हुए, महानिदेशक ने तीन सदस्यों- यूरोपीय संघ, अमेरिका और चीन का ख़ास तौर से ज़िक्र किया. ये तो ग्रीन रूम में होने वाली उन बातों पर सार्वजनिक रूप से मुहर लगाने जैसा है, जो इस बार के सम्मेलन के दौरान सुनी गई थीं और अलग से हुई इन वार्ताओं से नुमाइंदगी की जो समस्याएं उभरकर सामने आईं.

तीसरा समझौता मछली मारने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को लेकर था, जो शायद इस दौर की बातचीत की सबसे बड़ी उपलब्धि था. 2013 के व्यापार संवर्धन समझौते के बाद ये पहला समझौता है, जिसे विश्व व्यापार संगठन ने कामयाबी से पूरा किया है. हालांकि, इस समझौते में ख़ुद ही समाप्त होने वाली व्यवस्था भी है. इसकी धारा 12 कहती है कि ये समझौता तब ख़ुद ब ख़ुद समाप्त हो जाएगा अगर, इसके तहत ‘अनुशासन की व्यापक सहमति’ नहीं बनती है. ये दो तरह से हैरान करने वाली बात है, जो इस घोषणा में है. पहला तो ये कि किसी बहुपक्षीय समझौते में ऐसी बात कही गई है. दूसरी ये कि विकासशील देशों द्वारा किए जा रहे विरोध के चलते ऐसी व्यवस्था की गई. अगर हम उम्मीद भरे नज़रिए से कहें, तो इसे फ़ैसले लेने वाली बहुपक्षीय व्यवस्था का एक आविष्कार कर सकते हैं, क्योंकि इसमें विरोध की गुंजाइश सबसे कम रहेगी. इस समझौते का असल इम्तिहान तो इसकी चार साल की मियाद पूरी होने के बाद शुरू होगा. 

तीन ट्वीट में छुपी समस्या

वैसे आख़िर में विश्व व्यापार संगठन की समस्या असल में ये है कि इसके सदस्यों के लक्ष्य अलग अलग हैं और ख़ुद संगठन अपने प्रभावशाली सदस्यों को तरज़ीह देता है. वैसे तो इस बात की कई मिसालें दी जा सकती हैं. लेकिन, मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के इस दौर के दो उदाहरण बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं. 

पहला तो, इस सम्मेलन (MC12) के समापन पर WTO की महानिदेशक द्वारा एक के बाद एक किए गए ट्वीट थे. सदस्यों को एक सफल सम्मेलन के समापन पर मुबारकबाद देते हुए, महानिदेशक ने तीन सदस्यों- यूरोपीय संघ, अमेरिका और चीन का ख़ास तौर से ज़िक्र किया. ये तो ग्रीन रूम में होने वाली उन बातों पर सार्वजनिक रूप से मुहर लगाने जैसा है, जो इस बार के सम्मेलन के दौरान सुनी गई थीं और अलग से हुई इन वार्ताओं से नुमाइंदगी की जो समस्याएं उभरकर सामने आईं. दूसरा उदाहरण वो है जो विश्व व्यापार संगठन के ज़्यादा दबदबे वाले सदस्यों का वो नज़रिया है, जो वो नाख़ुशी या विरोध जताने वाले देशों के प्रति रखते हैं. ये बात जेनेवा में मौजूद एक तथाकथित राजनयिक के बयान से उजागर हुई. इस राजनयिक ने भारत की तुलना उस ‘शोर मचाने वाले बच्चे’ से की, जिसे अपनी बात मनवाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. राजनयिक का भारत के बारे में दिया गया ये बयान विश्व व्यापार संगठन में दबदबा रखने वाले देशों की उस राय की ही नुमाइंदगी करता है, जो वो भारत जैसी विरोध जताने वाली आवाज़ों के प्रति रखते हैं. विश्व व्यापार संगठन के इन सदस्यों की ये आदत रही है कि वो विरोध में आवाज़ उठाने वालों के मुद्दों की या तो अनदेखी करते हैं, या फिर उन पर अपनी ज़बरदस्ती थोपते हैं, जो राजनयिक नख़रों को लेकर एक गंभीर स्थिति को बयान करता है.

दोहा दौर का क्या होगा?

इस मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (MC12) की सबसे निराशाजनक बात शायद ये थी कि इसमें विश्व व्यापार संगठन में सुधार लाने को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई. WTO में सुधार का सम्मेलन के निष्कर्ष दस्तावेज़ में बस नाम के लिए एक बार ज़िक्र किया गया है. इसमें सुधार से जुड़े मुद्दों पर विश्व व्यापार संगठन के उचित मंचों पर चर्चा की अस्पष्ट सी बात कही गई है, और कहा गया है कि इस बारे में सदस्य देश अपनी राय अगले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में रख सकते हैं. 

ऐसे में सवाल ये उठता है कि उस दोहा दौर की बातचीत का क्या होगा, जो इतने लंबे समय से चली आ रही है. अभी इस सवाल का जवाब मिलना बाक़ी है. विश्व व्यापार संगठन की वार्ता करने की जो व्यवस्था ‘राउंड’ के ज़रिए पूरी होती है, और जिसमें ख़ास मुद्दों पर वार्ता की जाती है, उसे इस दौर से चोट पहुंची है. अगर हम Table 1 देखें, तो पता ये चलता है कि विश्व व्यापार संगठन की स्थापना वाले उरुग्वे दौर के बाद से दोहा के रूप में जो सही दौर या राउंड की बातचीत शुरू हुई थी, उसको चलते हुए जून 2022 में 246 महीने पूरे हो चुके हैं. पिछले दो दशकों से चल रही इस वार्ता के दौरान आर्थिक संरचनाओं और उनके काम करने के तरीक़े में बहुत तेज़ी से बदलाव आए हैं. इसकी बड़ी वजह डिजिटल क्रांति रही है. ज़ाहिर है कि दोहा का एजेंडा बहुत पुराना पड़ चुका है. ये इतना पुराना हो चुका है कि बहुत से लोगों ने 2015 में ही ‘दोहा दौर की मौत’ का एलान कर दिया था. इस बात को भी सात बरस बीत चुके हैं और अब तक दोहा दौर की बातचीत के ख़ात्मे का औपचारिक एलान भी नहीं हुआ है.

इसकी आलोचना को देखते हुए ये साफ़ है कि दोहा राउंड को गंभीरता से नए स्तर पर ले जाने की ज़रूरत है या फिर कम से कम इस पर पूर्ण विराम लगाने की ज़रूरत है, ताकि इस बहुपक्षीय व्यवस्था को वाजिब बनाए रखा जा सके और ये हर दो साल में होने वाले मेले में तब्दील न हो जाए.

साझा बयानों की पहल (JSI’s) के आग़ाज़ से विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों के बीच तनाव बढ़ा है और भारत जैसे कई देशों का ये दावा है कि इससे बहुपक्षीयवाद की भावना को नुक़सान पहुंचता है. इसकी आलोचना को देखते हुए ये साफ़ है कि दोहा राउंड को गंभीरता से नए स्तर पर ले जाने की ज़रूरत है या फिर कम से कम इस पर पूर्ण विराम लगाने की ज़रूरत है, ताकि इस बहुपक्षीय व्यवस्था को वाजिब बनाए रखा जा सके और ये हर दो साल में होने वाले मेले में तब्दील न हो जाए.

Table 1: GATT/WTO की वार्ताओं की टाइमलाइन

दौर शुरुआत की तारीख़ कब हुई समाप्ति कितने महीने चली
जेनेवा दौर अप्रैलl 1947 अक्टूबर 1947 7
एनेसी दौर अप्रैल 1949 अगस्त 1949 5
टॉरक्वे दौर सितंबर 1950 जनवरी 1951 8
जेनेवा दूसरा दौर जनवरी 1956 मई 1956 5
डिलन दौर सितंबर 1960 जुलाई 1962 11
केनेडी दौर मई 1964 जून 1967 48
टोक्यो दौर सितंबर 1973 अप्रैल 1979 74
उरुग्वे दौर सितंबर 1986 अप्रैल 1994 87
दोहा दौर * नवंबर 2001 अभी जारी 246

स्रोत:विश्व व्यापार संगठन 

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