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ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) एवं विकासशील देशों, दोनों में ही नीति निर्माताओं को इस अवसर का उपयोग ऋण पुनर्गठन और ऋण संकट प्रबंधन के लिए वर्तमान फ्रेमवर्क में सुधार करने के लिए करना चाहिए.
ये लेख हमारी श्रृंखला रायसीना एडिट 2023 का हिस्सा है.
वर्ष 2023 में दुनिया की कई अर्थव्यवस्थाएं तरह-तरह के संकटों से घिरी हुई हैं. कोविड-19 महामारी के बाद उपजे हालातों, यूक्रेन में युद्ध और चीन एवं अमेरिका के बीच भू-राजनीतिक टकराव का तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और फाइनेंस पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. इस सबके बीच हालांकि, आज के दौर का सबसे गंभीर मुद्दा मुद्रास्फीति की वापसी और ब्याज की बढ़ती दरें हैं. अत्यधिक कर्ज को बोझ तले दबे देशों और व्यक्तियों दोनों के लिए ब्याज दरों में तेज़ी से हुई बढ़ोतरी ने दिक़्क़तें पैदा की हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सब गंभीर चिंता का मुद्दा है या इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जा रहा है?
देखा जाए, तो एक दशक से भी अधिक समय से ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) देशों में ब्याज दरें बहुत कम रही हैं और कभी-कभी तो ब्याज दरें नकारात्मक भी रही हैं. मुद्रास्फ़ीति भी इनकी चिंता की कोई वजह नहीं थी, लेकिन वर्ष 2022 में परिस्थितियां बदल गईं. मुद्रास्फ़ीति का दौर वापस आ गया है और सेंट्रल बैंकों ने अपनी मौद्रिक नीति को आक्रामक रूप से सख़्त कर दिया है. इसका विकासशील देशों पर भी असर पड़ा है. ज़ाहिर है कि कम आय वाले 15 प्रतिशत देश पहले से ही ऋण संकट से जूझ रहे हैं, जबकि कम इनकम वाले दूसरे 45 प्रतिशत देश ऐसे हैं, जहां ऋण संकट उच्च ज़ोख़िम की श्रेणी का है. उभरते बाज़ारों के पैसे वाले समृद्ध समूह में 25 प्रतिशत राष्ट्र ऐसे हैं, जो असामान्य रूप से ऊंची ब्याज दरों का सामना कर रहे हैं. घाना, श्रीलंका और जाम्बिया जैसे देश तो पहले ही ऋण भुगतान करने में विफल हो चुके हैं. उदाहरण के तौर पर ईरानी-अमेरिकी अर्थशास्त्री नूरील रौबिनी जैसे कुछ पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी है कि वैश्विक स्तर पर ऋण संकट अनिवार्य है, यानी इसे रोका नहीं जा सकता है. फाइनेंशियल टाइम्स के मार्टिन वोल्फ ने चेताया है कि इस मुद्दे को काफ़ी पहले संबोधित किया जाना चाहिए था, अब "बहुत देर हो चुकी है". लेकिन सवाल यह है कि बढ़ता हुआ ऋण क्या वास्तव में इतनी व्यापक समस्या है?
घाना, श्रीलंका और जाम्बिया जैसे देश तो पहले ही ऋण भुगतान करने में विफल हो चुके हैं. उदाहरण के तौर पर ईरानी-अमेरिकी अर्थशास्त्री नूरील रौबिनी जैसे कुछ पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी है कि वैश्विक स्तर पर ऋण संकट अनिवार्य है, यानी इसे रोका नहीं जा सकता है.
पिछले दो दशकों में देखा जाए तो सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत की तुलना में सरकारी और निजी सेक्टर का कुल ऋण 200 प्रतिशत से बढ़कर 350 प्रतिशत हो गया है. अमेरिका में तो यह आंकड़ा 420 प्रतिशत है, जो महामंदी के दौरान और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के समय की तुलना में कहीं ज़्यादा है. अर्थशास्त्री नूरील रूबिनी इन सारी सच्चाइयों से इतने निराश हैं कि उन्होंने जो सबसे अच्छे परिदृश्य की कल्पना की है, वो भी उन्हें धराशायी होता नज़र आ रहा है. लेकिन यह हो सकता है कि नूरील रूबिनी, जिनका उपनाम डॉ. डूम भी है, परिस्थितियों को लेकर कुछ ज़्यादा ही संदेह प्रकट कर रहे हों. ऐसे में कम से कम चार बिंदु ऐसे हैं, जिन पर गंभीरता से विचार-मंथन किए जाने की ज़रूरत है.
पहला मुद्दा वास्तविक ब्याज दरें हैं. पिछले महीनों में बढ़ती मुद्रास्फ़ीति, ऋण लेने वालों के लिए काफ़ी लाभदायक रही है. चाहे निजी ऋण लेने वाले हों, या सरकारी, दोनों के लिए अप्रत्याशित मुद्रास्फ़ीति सबसे अच्छी होती है. ऋण देने वालों, जिनमें से कई ने कुछ समय के लिए ब्याज दरों के कम होने की उम्मीद की थी, उन्होंने अपनी रकम गंवा दी. जबकि ऋण लेने वालों ने अप्रत्याशित रूप से लाभ का अनुभव किया, क्योंकि मुद्रास्फ़ीति के मौज़ूदा माहौल में उनके ऋण का वास्तविक मूल्य घट रहा है. इसके अतिरिक्त, वास्तविक ब्याज दरें नकारात्मक बनी हुई हैं. यहां तक कि अगर वर्तमान मौद्रिक सख़्ती इसी तरह जारी रहती है, तो (उच्च) वास्तविक ब्याज दरों के दौर के लौटने की कल्पना करना भी मुश्किल है. ऐसे में लगता है कि कम से कम OECD देशों में सस्ते ऋण का सिलसिला चलता रहेगा.
दूसरा बिंदु यह है कि अब मौद्रिक नीति स्थिर है और बेहतर स्थिति में है. विशेष रूप से OECD देशों में फिर से जो ब्याज मुक्त वातावरण बना है, वो ज़ोख़िम से भरे विकास की वजह से बना है. ऋण लेने की नकारात्मक लागत के फलस्वरूप परिसंपत्ति-मूल्य की अभूतपूर्व मुद्रास्फीति हुई है. शेयरों, रियल स्टेट और अन्य संपत्तियों, जहां आपूर्ति सीमित है, वहां क़ीमतें तेज़ी से बढ़ी हैं, उदाहरण के लिए, जैसे कि पुरानी कारों की क़ीमतों में बढ़ोतरी देखने को मिली है. प्रमुख सेंट्रल बैंकों की मौद्रिक नीतियों द्वारा संचालित होने वाले इस ट्रेंड की वजह से सामाजिक स्तर पर तनाव भी पैदा हुआ है. जिन लोगों के पास संपत्ति नहीं थी, उन्हें नकारात्मक नतीज़ों का सामना करना पड़ा. विशेष रूप से मकानों की क़ीमत बढ़ने के मामले में, क्योंकि महंगे मकानों के कारण कम ब्याज दरों का भी लोगों को कोई लाभ नहीं हुआ. इस प्रकार से देखा जाए, तो कम ब्याज दरों के रूप में मौद्रिक नीति का जो मौज़ूदा फायदा है और जो वास्तविक रूप में भले ही अभी नकारात्मक है, लेकिन यह एक स्वागत योग्य गतिविधि है. परिमाणात्मक सुगमता एक ऐसी नीति रही है, जिसे ग़लत तरीके से तैयार किया गया था और यह नीति एक प्रकार से आबादी के उन लोगों के लिए बहुत अच्छी थी, जिनके पास संपत्ति है, या फिर कहा जाए कि जो समृद्ध हैं.
तीसरा पहलू, यह है कि वर्ष 2007 से 2009 के दौर की तुलना में मौज़ूदा दौर में बैंक किसी भी तरह के विपरीत हालात का मुक़ाबला करने के लिए बेहतर तरीक़े से तैयार हैं. बैंकों के पास कोर कैपिटल यानी मूल पूंजी काफ़ी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है, ज़ाहिर है कि इससे बैड लोन को बट्टे खाते में डालने की उनकी क्षमता में वृद्धि होनी चाहिए. ज़्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बैंकिंग रेगुलेटर्स ने "लाइट-टच रेगुलेशन" को त्याग दिया है. यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसकी तारीफ़ एक्सचेकर के पूर्व ब्रिटिश चांसलर गोर्डन ब्राउन द्वारा वर्ष 2007 के क्रैश से पहले की गई थी.
वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए, यह एक ऐसा झटका होगा, जो मुद्रास्फ़ीति को अस्थाई तौर पर धीमा करने वाला साबित होगा. इससे ऊर्जा की मौज़ूदा क़ीमतें संभावित तौर पर कम होंगी और इससे कम से कम ग़रीब देशों के लिए उनकी ऊर्जा ज़रूरतों के ख़र्च को लेकर जो भी परेशानियां हैं, वो शायद कम हो जाएंगी.
चौथी बात यह है कि एक बार जब यूक्रेन में ज़ारी युद्ध समाप्त हो जाएगा, तो संभावित रूप से रूस के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे. हालांकि, फिलहाल यह कोई भी नहीं जानता है कि यह लड़ाई कब समाप्त होगी, लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए, यह एक ऐसा झटका होगा, जो मुद्रास्फ़ीति को अस्थाई तौर पर धीमा करने वाला साबित होगा. इससे ऊर्जा की मौज़ूदा क़ीमतें संभावित तौर पर कम होंगी और इससे कम से कम ग़रीब देशों के लिए उनकी ऊर्जा ज़रूरतों के ख़र्च को लेकर जो भी परेशानियां हैं, वो शायद कम हो जाएंगी.
एक तरफ़ जहां मौद्रिक नीति में किए गए वर्तमान बदलावों के कुछ सकारात्मक पहलू हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ इसकी कुछ कमियां भी हैं. ब्याज दरों की वापसी का अर्थ है पूंजी का प्रवाह OECD देशों की ओर हो रहा है, जबकि विकासशील देशों की ओर होने वाला पूंजी प्रवाह कम होता जा रहा है. यह OECD देशों में मौद्रिक नीति के सामान्यीकरण का यह एक मुश्किल भरा नतीज़ा है, लेकिन जो क़दम उठाए गए हैं, उनसे ऐसे ही परिणाम की उम्मीद थी. एक दशक तक बिना किसी लाभ के ज़ोख़िम उठाने के बाद निवेशक विकसित अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय बाज़ारों में फिर से प्रवेश कर रहे हैं. ऐसे में खासतौर पर वो विकासशील देश, जिनके पास मुख्य रूप से ऐसे ऋण हैं, जिनकी परिपक्वता अवधि कम है, मुसीबत में घिरे हैं. उनकी इस परेशानी की वजह आंशिक तौर पर ऋण लौटाने की उनकी अनिच्छा है, या फिर लंबी अवधि के लिए ऋण लेने की उनकी असमर्थता है.
इसके अतिरिक्त, कई राष्ट्र ऐसे भी हैं, जो उच्च ब्याज दरों और ऊर्जा संकट दोनों से एक ही समय पर प्रभावित हो रहे हैं. ऐसी उम्मीद है कि कम ब्याज दर का यह माहौल आगे भी बना रहेगा, ज़ाहिर है कि हमेशा से ही इसके बारे में सोचा और चाहा जाता था. लेकिन वर्ष 2022 का जो ऊर्जा संकट था, वास्तविकता में उसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की थी. इस संकट की वजह से तेल और गैस की आपूर्ति सीमित कर दी गई है और कई विकासशील देश इससे नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं. लेकिन यह ऊर्जा संकट कोई संयोग नहीं था, बल्कि यह रूस के ऊपर OECD देशों के ग्रुप द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों का नतीज़ा था.
OECD देशों एवं विकासशील देशों, दोनों में ही नीति निर्माताओं को इस अवसर का उपयोग ऋण पुनर्गठन और ऋण संकट प्रबंधन के लिए वर्तमान फ्रेमवर्क में सुधार के लिए करना चाहिए.
उल्लेखनीय है कि पश्चिम की तरफ़ से लगाए गए प्रतिबंधों ने ना सिर्फ़ पश्चिमी देशों और यूरोप में रूसी तेल व गैस के आयात को सीमित कर दिया है, बल्कि इसके ज़रिए रूसी एनर्जी की खपत को समाप्त करने की कोशिश भी की जा रही है. इसके साथ ही इन प्रतिबंधों ने रूसी तेल व गैस की किसी और जगह पर आपूर्ति को भी प्रभावित किया है. बांग्लादेश जैसे देश, जो कि अपने बिजली उत्पादन के लिए तरलीकृत प्राकृतिक गैस पर निर्भर हैं, उन्हें कमोडिटी के लिए अचानक प्रतिस्पर्धी ख़रीदारों के साथ मुक़ाबला करना पड़ा. अक्सर देखा जाता है कि ग़रीब देश इस तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर सकते हैं और इसके लिए उन्हें निर्धारित बजट से बहुत अधिक ख़र्च करना पड़ता है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि मौज़ूदा ऋण संकट के कम से कम एक हिस्से के लिए तो रूस पर लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंध ही ज़िम्मेदार हैं और उन्हें ही इसके नतीज़े भुगतने चाहिए.
इस अहम बात की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है कि रूस के विरुद्ध आर्थिक युद्ध को दुनिया के सबसे ग़रीब लोगों की क़ीमत पर लड़ा जा रहा है. इसके लिए दुनिया की बेहद ग़रीब अर्थव्यवस्थाओं के लिए विशेष रूप से उनकी ऊर्जा की अतिरिक्त लागत का इंतज़ाम करने के लिए एक कोष की स्थापना करना उचित क़दम होगा. ज़ाहिर है कि बांग्लादेश या पाकिस्तान जैसे देशों को ना तो यूक्रेन पर रूस के हमले के लिए दोषी ठहराया जा सकता है और ना ही रूस पर मनमाने तरीक़े से लगाए गए प्रतिबंधों के लिए.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने जनवरी 2023 में मौज़ूदा आर्थिक हालात को लेकर चेतावनी तो दी, लेकिन उन्होंने परिस्थितियों को लेकर निराशा ज़ाहिर नहीं की. इतना ही नहीं वह एक प्रणालीगत ऋण संकट की भविष्यवाणी करने से भी बचती नज़र आईं. हालांकि, उन्होंने यह ज़रूर कहा कि कम आय वाले देशों के लिए ये मुश्किल वक़्त है. मुद्रास्फ़ीति की अचानक अप्रत्याशित वापसी की वजह से फिलहाल ऋण का बोझ कम हो गया है, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होगा. ऐसे में दो नीतिगत विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए. पहला, पश्चिमी प्रतिबंध गठबंधन को कम आय वाले ऐसे देशों के लिए, जो ऊर्जा की बढ़ती क़ीमतों के साथ ही गैस एवं तेल की कम उपलब्धता से पीड़ित हैं, उनके लिए एक कोष स्थापित करना चाहिए. दूसरा, कम इनकम वाले देशों में ऋण इमरजेंसी जैसी स्थितियों का समाधान करने वाले तंत्र में सुधार किया जाना चाहिए. आज, ऋण का पुनर्गठन करना मुश्किल कार्य बना हुआ है, क्योंकि हज़ारों बॉन्ड धारक ऐसे हैं, जो ऋणदाता हैं.
वर्षों से वित्तीय बाज़ारों में शांति का माहौल बना हुआ था, लेकिन अब फाइनेंशियल मार्केट्स में हलचल लौट आई है. OECD देशों एवं विकासशील देशों, दोनों में ही नीति निर्माताओं को इस अवसर का उपयोग ऋण पुनर्गठन और ऋण संकट प्रबंधन के लिए वर्तमान फ्रेमवर्क में सुधार के लिए करना चाहिए.
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Heribert Dieter is Director of Policy Research and Visiting Professor at the Asia Global Institute The University of Hong Kong. Since 2001 he has been ...
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