आख़िरकार रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर ही दिया है, जिसकी आशंका अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश काफ़ी दिनों से जता रहे थे. रूस ने यूक्रेन पर तीन तरफ़ से हमला बोला है. ये हमला हाल के वर्षों में सबसे बड़ा सैन्य संघर्ष बनने की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है और इसने पश्चिमी देशों और रूस के बीच तनाव को कई गुना बढ़ा दिया है. रूस और पश्चिमी देशों के बीच तनाव की मुख्य वजह, उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का पूरब की ओर विस्तार और यूक्रेन का नेटो का सदस्य बनने की कोशिश है. रूस इन दोनों ही बातों का कड़ा विरोध करता आया है. जबकि अमेरिका और नेटो, रूस के इस ऐतराज़ को लगातार ख़ारिज करते आए हैं. उनका तर्क है कि वो यूक्रेन की संप्रभुता और उसके किसी भी सुरक्षा गठबंधन का सदस्य बनने का चुनाव करने के अधिकार का समर्थन करते हैं. यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस ने दिसंबर महीने से ही यूक्रेन की सीमाओं पर डेढ़ लाख से ज़्यादा सैनिक तैनात किए हुए थे. रूसी सैनिकों ने उत्तर में यूक्रेन के एक और पड़ोसी बेलारूस की सेना के साथ युद्धाभ्यास किया था. इसके बाद, रूस की सेना ने यूक्रेन के दक्षिण में काला सागर में भी नौसैनिक अभ्यास किया जिसमें परमाणु हथियार भी शामिल थे. अभी तीन दिन पहले रूस ने पूर्वी यूक्रेन के दो बाग़ी राज्यों डोनेत्स्क और लुहांस्क को एक अलग देश के तौर पर मान्यता दे दी थी. इसके बाद रूस की संसद ने राष्ट्रपति पुतिन को अन्य देशों में सेनाएं तैनात करने की इजाज़त दे दी. जिसके बाद, पुतिन ने रूसी सेना को यूक्रेन के बाग़ी सूबों में दाख़िल होने का आदेश दे दिया था. इसे अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने यूक्रेन पर रूस के हमले की शुरुआत बताया था.
गुरुवार तड़के रूस की सेनाओं ने यूक्रेन पर तीन तरफ़ से हमला बोल दिया. हालांकि, इससे पहले रूस के विदेश और रक्षा मंत्रालय लगातार इस बात से इंकार कर रहे थे कि रूस, यूक्रेन पर सैन्य आक्रमण करने वाला है.
गुरुवार तड़के रूस की सेनाओं ने यूक्रेन पर तीन तरफ़ से हमला बोल दिया. हालांकि, इससे पहले रूस के विदेश और रक्षा मंत्रालय लगातार इस बात से इंकार कर रहे थे कि रूस, यूक्रेन पर सैन्य आक्रमण करने वाला है. 15 फ़रवरी को रूस के रक्षा मंत्रालय ने तो ये ऐलान भी कर दिया था कि रूसी सेना की कुछ टुकड़ियां यूक्रेन के मोर्चे से अपनी बैरकों की तरफ़ लौट रही हैं. रूस के रक्षा मंत्रालय ने लौटते रूसी सैनिकों की तस्वीरें भी जारी की थीं. उस वक़्त रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने ज़ोर देकर कहा था कि, ‘रूस युद्ध नहीं चाहता है और वो सिर्फ़ बातचीत से मसले का हल करने पर यक़ीन रखता है’. पूरी दुनिया ये उम्मीद लगा रही थी कि ये मसला कूटनीतिक ज़रिए से हल हो जाएगा. हालांकि, आख़िरकार ये सभी उम्मीदें ग़लत साबित हुईं और रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया.
यूक्रेन की संप्रभुता
इतिहासकार कहते रहे हैं कि रूस द्वारा राष्ट्र निर्माण से पहले से यूक्रेन की एक अलग पहचान रही है. हालांकि, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में यूक्रेन का अस्तित्व रहा है. इस अस्तित्व के चलते यूक्रेन को ये अधिकार है कि वो अपने भविष्य के बारे में फ़ैसला ख़ुद करे. संप्रभु राष्ट्र के तौर पर यूक्रेन जो फ़ैसले करने का हक़दार है उनमें किसी संगठन में शामिल होने या किसी गठबंधन का सदस्य बनने का चुनाव करना शामिल है. यूक्रेन अपनी तरफ़ से काफ़ी लंबे समय से नेटो का सदस्य बनने की कोशिश करता आ रहा है. 1992 से ही नेटो के साथ यूक्रेन की साझेदारी है और 1997 में सुरक्षा संबंधी चिंताओं पर चर्चा के लिए यूक्रेन और नेटो के साझा आयोग का गठन किया गया था. नेटो का सदस्य बनना यूक्रेन के नीतिगत लक्ष्यों में से एक रहा है. 2021 में यूक्रेन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के दस्तावेज़ में ये कहा गया था कि यूक्रेन, नेटो के साथ अपनी साझेदारी को और विकसित करे. ऐसे हालात में देखें, तो इस मामले में रूस का रवैया, एक संप्रभु और स्वतंत्र देश के तौर पर यूक्रेन की हैसियत के ख़िलाफ़ जाता है. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की धारा 2 (4) और 1994 में हुए बुडापेस्ट समझौते के तहत ये रूस की ज़िम्मेदारी है कि, वो सैन्य बल के इस्तेमाल की धमकी देने से बाज़ आए. 1994 के बुडापेस्ट समझौते में रूस ने वादा किया था कि ‘सोवियत संघ के विघटन के दौरान यूक्रेन को विरासत में जो परमाणु हथियार मिले थे, उन्हें नष्ट करने के बदले में रूस, यूक्रेन को न तो हमले की धमकी देगा और न ही उसके ख़िलाफ़ बल प्रयोग करेगा’.
नेटो का सदस्य बनना यूक्रेन के नीतिगत लक्ष्यों में से एक रहा है. 2021 में यूक्रेन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के दस्तावेज़ में ये कहा गया था कि यूक्रेन, नेटो के साथ अपनी साझेदारी को और विकसित करे.
किसी देश की संप्रभुता, अखंडता और उसके अंदरूनी मामलों में दख़ल न देने के सिद्धांत, पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था में बुनियादी उसूल माने जाते हैं. हालांकि, किसी देश की संप्रभुता क्या है और इसका दायरा क्या है, इस पर बरसों से सवाल उठते रहे हैं. पश्चिमी देश हमेशा से ‘प्रासंगिक संप्रभुता’ के सिद्धांत की वकालत करते आए हैं, जिसके तहत मानव अधिकारों का उल्लंघन और किसी देश द्वारा प्रायोजित आतंकवाद को किसी देश के अधिकार को कमज़ोर करने वाला माना जाता है. ये बात तब और स्पष्ट हो गई, जब कुछ नए सिद्धांतों- जैसे कि हिफ़ाज़त करने की ज़िम्मेदारी (R2P) का विकास हुआ- इन सिद्धांतों के तहत मानव अधिकारों के भयंकर उल्लंघन की स्थिति में किसी देश की संप्रभुता में दख़लंदाज़ी को वैध ठहराने की कोशिश की गई है.
हालांकि, 2011 में जब नेटों देशों ने लीबिया पर आक्रमण किया और उसके अंदरूनी मामलों में दख़ल दिया, जिससे वहां सत्ता परिवर्तन हुआ और भारी तबाही मची, तो उसके बाद से ही हिफ़ाज़त के उत्तरदायित्व (R2P) के सिद्धांत की आलोचना बढ़ती जा रही है. लीबिया में सत्ता परिवर्तन के अस्थिर करने वाले प्रभाव और मानव अधिकारों के नाम पर किए गए दख़ल से हिफ़ाज़त के उत्तरदायित्व (R2P) के सिद्धांत को परे धकेला जाने लगा. क्योंकि, किसी देश की संप्रभुता और मानव अधिकारों की रक्षा के नाम पर उसमें दख़लंदाज़ी के बीच आदर्श संतुलन को लेकर देशों के बीच गहरे मतभेद थे. इसके फ़ौरन बाद से रूस और उसके साथ चीन और भारत जैसे देश, हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी के सिद्धांत की कड़ी आलोचना करने लगे, और उन्होंने ख़ुद को संप्रभुता की सख़्त व्याख्या की मांग के मोर्चे के रूप में तब्दील कर लिया. इस मामले में भारत और कुछ हद तक चीन की सोच, उपनिवेशवाद के उनके तजुर्बे और संप्रभुता के सिद्धांत व किसी देश के अंदरूनी मामलों में दख़ल न देने के प्रति उनके झुकाव से प्रेरित है. जहां तक बात रूस की है, तो वो राष्ट्र की संप्रभुता की व्याख्या संपूर्ण अधिकार के तौर पर करता आया है. रूस, पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा अन्य देशों में दख़लंदाज़ी को भी ख़ारिज करता आया है, और जैसा कि हम आगे देखंगे कि रूस ‘प्रासंगिक संप्रभुता’ के सिद्धांत वाले नज़रिए को भी सीधे सीधे ख़ारिज करता रहा है.
जहां तक बात रूस की है, तो वो राष्ट्र की संप्रभुता की व्याख्या संपूर्ण अधिकार के तौर पर करता आया है. रूस, पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा अन्य देशों में दख़लंदाज़ी को भी ख़ारिज करता आया है, और जैसा कि हम आगे देखंगे कि रूस ‘प्रासंगिक संप्रभुता’ के सिद्धांत वाले नज़रिए को भी सीधे सीधे ख़ारिज करता रहा है.
तो क्या ये संशोधनवाद है?
ऐतिहासिक रूप से देखें, तो रूस संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और किसी देश के घरेलू मामलों में बाहरी दख़ल न देने का कट्टर समर्थक रहा है. इन सिद्धांतों को समझने के लिए रूस ने मोटे तौर पर ‘यथास्थिति’ वाला नज़रिया अपनाया है, जहां पर किसी देश की संप्रभुता अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की बुनियादी शर्त है. हालांकि, ऐसे तर्क तानाशाही व्यवस्था वाले देशों में पश्चिमी दख़लंदाज़ी का विरोध करने और उन्हें बाहरी समीक्षा से बचाने के लिए दिए जाते रहे हैं. इन बातों से इतर, रूस का ये रुख़ पड़ोसी देशों के साथ उसके बर्ताव के ठीक उलट दिखाई देता है. स्वतंत्र देशों के राष्ट्रमंडल (CIS) से जुड़ी रूस की विदेश नीति में हमेशा एक वर्ग भेद दिखता रहा है, जहां रूस के हितों को उसके पड़ोसी देशों के हितों पर तरज़ीह दी जाती रही है. रूस द्वारा पूर्व सोवियत संघ वाले इलाक़ों में अपना विस्तार करना जैसे कि 2008 में जॉर्जिया पर हमला और 2014 में रूस द्वारा क्राइमिया पर क़ब्ज़ा करने की घटनाएं इस तर्क की गवाही देती हैं.
क्राइमिया पर अपने क़ब्ज़े को रूस ने आत्म निर्णय के अधिकार, मानव अधिकारों की आपात स्थिति और आत्मरक्षा के तर्कों से ये कहकर जायज़ ठहराने की कोशिश की कि उसने ये क़दम यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाली आबादी की रक्षा के लिए उठाया था.
रूस के इस रवैये से सवाल ये उठता है कि क्या वो बड़ी सक्रियता से अपने आस-पास के इलाक़ों में ‘अपना प्रभाव क्षेत्र’ बना रहा है? ‘प्रभाव क्षेत्र’ का मतलब एक ऐसा तय इलाक़ा होता है, जहां कोई एक बाहरी ताक़त अपना ऐसा प्रभुत्व बनाकर रखती है, जिससे उस क्षेत्र के दायरे में आने वाले देशों द्वारा कोई क़दम उठाने की आज़ादी सीमित हो जाए. दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में पूर्वी यूरोप के सोवियत संघ के साथ, और मध्य अमेरिकी देशों के साथ अमेरिका के रिश्ते ऐसे ही थे. ऐसे मामलों में प्रभावशाली या ताक़तवर देश अपनी दादागीरी चलाने के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल करने या इसकी धमकी देने और ऐसे ही अन्य उपाय आज़मा सकता है. मिसाल के तौर पर रूस ने सीधे तौर पर अन्य देशों के घरेलू संघर्ष में दख़ल दिया है, सरहदों की रखवाली की है और मानव अधिकारों के नाम पर युद्ध लड़े हैं. इसके अलावा उसने कम दख़लंदाज़ी जैसे कि क्षेत्रों को अपने साथ जोड़ने, सुरक्षा के उपाय करने और विकास में मदद जैसे क़दम भी उठाए हैं.
ज़ाहिर है, इन क़दमों से ऐसा लगता है कि अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी व्यवस्था में क्षेत्रीय स्तर पर हेर-फेर किया जाता रहा है, जो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की संशोधनवादी परिकल्पना है, जो रूस के प्रभाव क्षेत्र को जायज़ बताने की कोशिश करने के साथ साथ इन क्षेत्रों में उसके दख़ल देने के अधिकार को भी वाजिब ठहराती है. ऐसा इसलिए है कि रूस ने लगातार अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी तर्कों का सहारा लेकर अपनी गतिविधियों को वाजिब बताने की कोशिश की है- और इस तरह वो पश्चिमी देशों पर संशोधनवादी रवैया अपनाने और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनी नियमों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाता रहा है. क्राइमिया पर अपने क़ब्ज़े को रूस ने आत्म निर्णय के अधिकार, मानव अधिकारों की आपात स्थिति और आत्मरक्षा के तर्कों से ये कहकर जायज़ ठहराने की कोशिश की कि उसने ये क़दम यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाली आबादी की रक्षा के लिए उठाया था. हालांकि, रूस के ये तर्क उसके संशोधनवादी अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर पर्दा डाल पाने में नाकाम रहे हैं; रूस की ऐसी बातें शायद ‘क़ानूनी तर्क वितर्क’ या फिर असली सियासी मक़सद के लिए क़ानून और रणनीति के घालमेल का नतीजा हैं.
संप्रभुता की रक्षा
इस वक़्त तो रूस और पश्चिमी देशों के बीच चल रही तनातनी में यूक्रेन फंस गया है. यूक्रेन का संकट देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के हवाले से न सिर्फ़ गंभीर प्रश्न खड़े कर रहा है, बल्कि इससे किसी देश के ‘प्रभाव क्षेत्र’ के नाम पर राष्ट्र की संप्रभुता के भी प्रभावित होने का डर है. 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों से ही अपने आस-पास के क्षेत्र को लेकर रूस का नज़रिया ख़ुद से कमतर आंकने वाला रहा है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन बार बार ये कहते रहे हैं कि वो इस बात की भरोसेमंद और क़ानूनी तौर पर तयशुदा गारंटी चाहते हैं कि नेटो अपना विस्तार करके यूक्रेन को अपना सदस्य नहीं बनाएगा और वहां पर आक्रामक हथियारों की तैनाती नहीं करेगा. यूक्रेन पर रूस का हमला इस बात का साफ़ संकेत है कि पश्चिमी देशों से अपनी बात मनवाने के लिए पुतिन किसी भी हद तक जाएंगे.
यूक्रेन का संकट देश की स्वतंत्रता के पारंपरिक अर्थों को चुनौती देने वाला है. ऐसे में आने वाला समय ही बताएगा कि दुनिया की बड़ी ताक़तें इस संप्रभुता के सिद्धांत की रक्षा करने या इसका हनन करने के लिए किस हद तक जाने के लिए तैयार हैं.
यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले, मशहूर विद्वान जेफरी सैक्स ने इस मुद्दे के समाधान का एक ऐसा कूटनीतिक रास्ता सुझाया था, जिससे रूस के साथ एक ग़ैर नेटो देश के तौर पर यूक्रेन की संप्रभुता का सम्मान करने की गारंटी वाला समझौता करके, यूक्रेन के स्वतंत्र अस्तित्व को बचाया जा सकता है. मगर, शायद अब इस विवाद के ऐसे समाधानों का वक़्त बीत चुका है. यूक्रेन का संकट देश की स्वतंत्रता के पारंपरिक अर्थों को चुनौती देने वाला है. ऐसे में आने वाला समय ही बताएगा कि दुनिया की बड़ी ताक़तें इस संप्रभुता के सिद्धांत की रक्षा करने या इसका हनन करने के लिए किस हद तक जाने के लिए तैयार हैं.
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