Author : Nivedita Kapoor

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या रूस-यूक्रेन युद्ध के नतीजे और हालात मॉस्को के प्रति नई दिल्ली की विदेश नीति को बदल देंगे? 

रूस-यूक्रेन युद्ध: मध्यस्थता के लिए भारत को और आगे आने की ज़रूरत है
रूस-यूक्रेन युद्ध: मध्यस्थता के लिए भारत को और आगे आने की ज़रूरत है

24 फरवरी को यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से ज़्यादातर भारतीय चर्चा इस विषय पर केंद्रित होने लगी कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की वोटिंग का बहिष्कार किया, क्षेत्रीय संप्रभुता के मुद्दे क्या हैं, रक्षा आयात के विविधीकरण की ज़रूरत क्या है और इस निर्भरता के कारण रणनीतिक स्वायत्तता का क्या नतीजा होगा.

जैसे-जैसे जंग तेज हो रही है एक अन्य सवाल जल्द ही और महत्वपूर्ण हो जाएगा- कि इस युद्ध से उभरने वाले रूस की स्थितियां क्या होंगी जो द्विपक्षीय रणनीतिक साझेदारी के भविष्य को निर्धारित करने में भूमिका निभाएगा. रूस पर लगाए गए सख़्त प्रतिबंधों का मतलब है कि दुनिया एक ऐसे क्षेत्र में है जिसके बारे में सभी अनभिज्ञ हैं, क्योंकि एक पूर्व परमाणु शक्ति संपन्न महाशक्ति मौजूदा समय में इस तरह से आर्थिक रूप से अलग-थलग पड़ा हुआ है जिसकी मिसाल वैश्वीकृत दुनिया के इतिहास में नहीं मिलती है. मौजूदा प्रतिबंधों के संदर्भ में रूस के लिए सबसे ख़राब स्थिति यह होगी कि उसे बेहद गहरे आर्थिक घाव झेलने पर मज़बूर होना पड़ेगा जो साल 1990 के दशक के संकट जैसा होगा जहां जीवन स्तर में तेज़ गिरावट के साथ ग़रीबी और बेरोज़गारी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई.

रूस पर लगाए गए सख़्त प्रतिबंधों का मतलब है कि दुनिया एक ऐसे क्षेत्र में है जिसके बारे में सभी अनभिज्ञ हैं, क्योंकि एक पूर्व परमाणु शक्ति संपन्न महाशक्ति मौजूदा समय में इस तरह से आर्थिक रूप से अलग-थलग पड़ा हुआ है जिसकी मिसाल वैश्वीकृत दुनिया के इतिहास में नहीं मिलती है.

एशिया के लिए रूस का महत्व

इससे कम बुरी परिस्थितियों में अगर प्रतिबंधों की सीमाओं को और नहीं बढ़ाया जाता है और कुछ ‘तटस्थ देश’ रूस के साथ अपने संबंधों को जारी रखने का निर्णय लेते हैं तो इससे आर्थिक पतन की आशंका तो कम हो सकती है लेकिन इसके बाद भी रूस एक बहुत कमज़ोर देश के रूप में दुनिया के सामने होगा. और अगर रूस पश्चिम से अलग होने के लिए चीन की ओर रुख़ करता है, और अगर दुनिया की उभरती शक्तियां प्रतिबंधों को दरकिनार करने के लिए एक व्यवस्था तैयार करती हैं, तो यह मौजूदा प्रतिबंधों के तहत रूस के आर्थिक अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हो जाएगा. अगर यह रास्ता अपनाया जाता है तो जिस गति से बदलाव हो रहे हैं उसके हिसाब से लघु से मध्यम समय के दौरान मॉस्को चीन के साथ अपने संबंधों में ज़्यादा क़रीब आने की कोशिश नहीं करेगा, जो एक विकसित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के दौरान ख़ास तौर पर हानिकारक हो सकता है. यह परिणाम निश्चित रूप से इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन रूस की पूर्ण रूप से सहायता के लिए तैयार है या नहीं.

यदि रूस किसी तरह से एक समझौते पर पहुंचने में असमर्थ होता है जिससे उस पर लगे सख़्त प्रतिबंध हट सकें तो यह रूस के लिए घातक होगा ख़ास कर सोवियत संघ के बाद की स्थिति में ऐसा रूस जो बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक स्वतंत्र धुरी की तरह हुआ करता था. लंबे समय से चले आ रहे प्रतिबंधों के परिदृश्य में यह साफ नहीं है कि अगर उनके राष्ट्रीय हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तो भी क्या सभी प्रमुख गैर-पश्चिमी राज्य रूस के साथ खड़े होने के लिए तैयार होंगे. इसके अलावा, जैसा कि रूस (कम से कम कुछ समय तक) अपनी शक्ति में गिरावट देखेगा और जब दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में रूस अपने हितों पर हमला होते देख उससे ख़ुद का बचाव करने में असमर्थ होगा.

इस जंग ने पहले से ही रूस की आर्थिक कमजोरी की सीमाओं को उजागर कर दिया है, जिसे रूस की अक्सर सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जाता है, जिसे केवल यूरोपीय संघ के बजाय चीन को अपने मुख्य कारोबारी साझेदार के रूप में शामिल कर कभी भी दूर नहीं किया जा सकता है.

इस जंग ने पहले से ही रूस की आर्थिक कमजोरी की सीमाओं को उजागर कर दिया है, जिसे रूस की अक्सर सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर देखा जाता है, जिसे केवल यूरोपीय संघ के बजाय चीन को अपने मुख्य कारोबारी साझेदार के रूप में शामिल कर कभी भी दूर नहीं किया जा सकता है. मिसाल के तौर पर, तेजी से विकसित हो रहे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रूस की नीतिगत स्थितियां कई चुनौतियों का सामना कर रही थी, न केवल एक तेजी से आक्रामक होते चीन के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय राष्ट्रों के विरोध की वजह से बल्कि ज़मीन पर रूस की अपनी कमज़ोर क्षमता की वजह से भी. पूर्व के केंद्र में मुख्य आधार होने के एक दशक बाद भी मॉस्को एशिया-प्रशांत में एक मामूली आर्थिक ताक़त ही है जिसकी वजह है क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनने में असमर्थता और क्षेत्रीय परिवर्तनों की गति पर सीमित प्रभाव.

अब तक इन कमज़ोरियों को भारत और वियतनाम जैसी क्षेत्रीय शक्तियों के साथ स्वतंत्र संबंधों के निर्माण के माध्यम से कम किया गया था; और आसियान, जापान और दक्षिण कोरिया सहित अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ संबंधों में सुधार के लिए कदम उठाया गया. जब इसकी घरेलू स्थिरता और उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करने की क्षमता के साथ मध्य एशिया, काकेशस, पश्चिम एशिया और यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान में बगैर ज़्यादा जोर दिेए प्रभाव का विस्तार करने की क्षमता के साथ शामिल किया जाता है: इसने रूस को एक ‘काफी बेहतर’ शक्ति बना दिया जिसने विभिन्न क्षेत्रीय भौगोलिक इलाक़ों और ख़ास कर यूरेशिया में अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया. इसने यह भी सुनिश्चित किया है कि बीजिंग के साथ विषम शक्ति के बावजूद, मॉस्को अभी भी भारत सहित अन्य एशियाई देशों से जुड़े चीन के क्षेत्रीय विवादों में तटस्थता के अपने संस्करण का इस्तेमाल करने में क़ामयाब रहा है.

भारत की स्थिति:

हालांकि, पश्चिमी प्रतिबंधों की मौजूदा गति को देखते हुए और रूस की ओर से बेल-आउट के लिए चीन की ओर देखते हुए, यह संभावना है कि इससे यूरेशिया में एक प्रभावशाली पक्ष बनने की रूसी क्षमता में कमी होगी जबकि इसके पहले से ही पूर्व में लड़खड़ाती धुरी को यह और कमज़ोर कर सकता है. यह एक ऐसा नतीजा है जो भारत को परेशानी में डालेगा, जिसकी विदेश नीति में रूस महाद्वीपीय यूरेशियन क्षेत्र एक महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में शामिल है. चाहे मध्य एशिया हो या अफ़ग़ानिस्तान या पश्चिम एशिया, मॉस्को का प्रभाव सकारात्मक रूप से देखा जाता रहा है. भारत के व्यापक संबंध पूर्व महाशक्तियों के साथ भी रहे हैं.

यूक्रेन पर हमले से पहले, भारत रूस के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा था, जिसमें वैश्विक और क्षेत्रीय राजनीतिक-सुरक्षा विकास पर विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए 2+2 विदेश और रक्षा मंत्रियों की बातचीत शामिल थी. एक रणनीतिक साझेदार के रूप में उपरोक्त सभी क्षेत्रों में रूस की भूमिका को आवश्यक और मूल्यवान माना जा सकता है लेकिन यूक्रेन पर आक्रमण अब नई दिल्ली के लिए इन परिस्थितियों को जटिल बना रहा है और उभरती विश्व व्यवस्था में रूस के भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है.

यह साफ है कि भारत रूसी आक्रमण से खुश नहीं हो सकता है और इसका मोहभंग उन कारणों से पैदा हुआ है जो न केवल भारत-रूस संबंधों को सीधे प्रभावित करेंगे, बल्कि व्यापक भू-राजनीतिक वातावरण भी ऐसे हो जाएंगे जहां यूक्रेन पर हमला करने के लिए भारत के पास रूस के निर्णय से पहले की तुलना में कम विकल्प बचे होंगे. हालांकि, अगर वर्तमान परिस्थितियों को उलट नहीं दिया जाता है, तो क्या भारत यूरेशिया में अपनी विदेश नीति को एक संक्षिप्त समय सीमा में पुनर्विचार करने के लिए तैयार होगा, वो भी तब जबकि क्षेत्रीय व्यवस्था खुद तनाव की स्थिति से गुजर रही हो?

हालांकि, पश्चिमी प्रतिबंधों की मौजूदा गति को देखते हुए और रूस की ओर से बेल-आउट के लिए चीन की ओर देखते हुए, यह संभावना है कि इससे यूरेशिया में एक प्रभावशाली पक्ष बनने की रूसी क्षमता में कमी होगी जबकि इसके पहले से ही पूर्व में लड़खड़ाती धुरी को यह और कमज़ोर कर सकता है.

एक परिणाम जहां भारत के विकल्प बिल्कुल सीमित नहीं हैं, वह तब है अगर रूस और यूक्रेन एक समझौते पर पहुंचते हैं जो यूक्रेन में शांति लाता है, हर पक्षों की चिंताओं को दूर करता है, और कम से कम सबसे सख़्त प्रतिबंधों को धीरे-धीरे ख़त्म करने के लिए परिस्थितियों का निर्माण करता है. इससे यूरेशिया में क्षेत्रीय व्यवस्था के लिए जो झटका लग सकता है उसे रोकने में मदद मिलेगी और भारत को रूस के लिए भविष्य की नीतियों को तय करने के लिए समय मिल जाएगा जिससे उसके हितों को तत्काल नुक़सान न हो.

कुछ भारतीय टिप्पणीकारों ने मध्यस्थता की कोशिश की संभावना को बढ़ा दिया है जिससे मानवीय तबाही को कम करने और राष्ट्रीय हित को बनाए रखने की कोशिश को अंजाम दिया जा सके. हालांकि यह अपने आप में पर्याप्त नहीं हो सकता है लेकिन अगर रूस के प्रति मित्रता का व्यवहार रखने वाले दूसरे देशों के प्रयासों के साथ मिलकर, यूक्रेन के साथ बातचीत को बढ़ावा दिया जाए तो यह रूस के लिए बेहतर विकल्प हो सकता है. पश्चिमी देशों के साथ भी रूस के रुख़ को सुधारने के लिए उनके द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के जरिए चर्चा करना प्रासंगिक हो सकता है. सवाल तो यह है कि क्या ये प्रतिबंध रूस में सत्ता परिवर्तन की उम्मीद में रूस को और कमज़ोर करने के लिए एक लंबे समय का विकल्प हैं या उनका उपयोग एक स्थायी समझौते या फिर युद्ध को ख़त्म करने के लिए किया जा रहा है? युद्ध कैसे समाप्त होता है, इसमें पश्चिमी देशों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, क्योंकि यूरोपीय सुरक्षा के मुख्य मुद्दों को केवल भविष्य के रूस-यूक्रेन के बीच समझौते के जरिए ही नहीं सुधारा जा सकता है. हालांकि इसे लेकर मॉस्को को अपने चरमपंथी रुख़ को छोड़ना होगा. साथ ही अमेरिका और यूरोपीय संघ को भी एक भरोसेमंद संवाद प्रक्रिया स्थापित करने का इसमें मौक़ा तलाशना होगा. हालांकि यूरोपीय देशों में इस समय रूस को उसकी कार्रवाई के लिए दंडित करने की प्रवृत्ति हावी है लेकिन सभी पक्षों के लिए शीत युद्ध के बाद की गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए जिसमें समझौतों को किसी अभिशाप के रूप में देखा जाता रहा है.

सवाल तो यह है कि क्या ये प्रतिबंध रूस में सत्ता परिवर्तन की उम्मीद में रूस को और कमज़ोर करने के लिए एक लंबे समय का विकल्प हैं या उनका उपयोग एक स्थायी समझौते या फिर युद्ध को ख़त्म करने के लिए किया जा रहा है?

यह स्पष्ट है कि नाटो के विस्तार के बारे में रूसी सुरक्षा चिंताओं के बावजूद, इसका गलत अनुमान और अपनी क्षमताओं का बढ़ा-चढ़ा कर पेश किये गये आकलन ने युद्ध शुरू करने के लिए रूस को उकसाया जो अब घरेलू और विदेश नीति के क्षेत्र में दशकों की प्रगति को पहले जैसा बनाने की कोशिश में है. इसके अलावा, पश्चिमी देशों में दरार के बीच ख़ुद को एक बड़ी ताक़त मानने से लेकर रूस के प्रति यूक्रेन के विचारों तक, रूस के कई मिथक अब टूट चुके हैं. अगर रूस इन वास्तविकताओं के साथ एक अलग-थलग राष्ट्र, सुरक्षा परिषद के वीटो के साथ एक असंतुष्ट परमाणु शक्ति न होते हुए भी इन सभी चीजों के साथ तालमेल बिठाना सीखता है; तो इसका परिणाम यूरोप में दीर्घकालिक स्थिरता के लिए कहीं अधिक फायदेमंद होगा. और अगर रूस किसी समझौते पर नहीं पहुंच सकता है और प्रतिबंधों के दबाव के साथ युद्ध भी जारी रहता है तो भारत को रूस के साथ लंबे समय से चली आ रही साझेदारी की रूपरेखा का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. हालांकि अगर नई दिल्ली अपने पक्ष में परिणाम को सक्रिय रूप से प्रभावित करने और रूस को अपने विरोधियों के साथ एक व्यापक समझौते के लिए राजी करने की कोशिश के बिना इस बात का विकल्प चुनता है तो इससे केवल भारत अपनी विदेश नीति को अपने पक्ष में निर्धारित करने की ही अनुमति ले सकेगा, जो रूसी आक्रमण और पश्चिमी प्रतिक्रिया के अनियंत्रित असर से प्रभावित होगी. फिलहाल रूस-यूक्रेन के बीच बातचीत चल रही है. इस दौरान भारत को चाहिए कि वो रूस को अलग-थलग नहीं पड़ने के फायदे की बात बताए और एक ऐसे नतीजे को रोकने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे जो भारत की विदेश नीति को उसके नियंत्रण से छीन सकता हो.

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Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...

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