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दुर्लभ खनिज तत्वों (REE) को ‘सामरिक क्षेत्र’ स्वीकार करने की ज़रूरत है. इससे संबंधित ऐसी नीतिगत कोशिशें की जानी चाहिए जो उद्यमियो को पर्याप्त प्रोत्साहन दें और उनके लिए लाभ की उम्मीद जगाएं.
भारत के प्रधानमंत्री की हालिया अमेरिका यात्रा, दुर्लभ पृथ्वी तत्वों के एक ऐसे मामले में भी मील का पत्थर साबित हुई है, जिसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है. भारत बहुत जल्द मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप (MSP) का हिस्सा बनने वाला है. ये अमेरिका की अगुवाई वाली बहुराष्ट्रीय साझेदारी है, जिसका मक़सद ऊर्जा और खनिजों की आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण करना है. अमेरिका ने ये महत्वाकांक्षी पहल जून 2022 में शुरू की थी, ताकि अहम खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत किया जा सके. इस साझेदारी के घोषित मक़सद ये हैं कि अहम पृथ्वी तत्वों का, ‘उत्पादन, प्रॉसेसिंग और रिसाइकिलिंग इस तरह से की जानी चाहिए जिससे हर देश को अपने आर्थिक विकास की संपूर्ण संभावना का लाभ उठाने में मदद मिले और वो अपने भूगर्भीय संसाधनों का फ़ायदा उठा सकें.’ MSP में शामिल होकर भारत 12 अन्य साझीदार देशों और यूरोपीय संघ (EU) के समूह का हिस्सा बन सकेगा.
भारत के प्रधानमंत्री की हालिया अमेरिका यात्रा, दुर्लभ पृथ्वी तत्वों के एक ऐसे मामले में भी मील का पत्थर साबित हुई है, जिसके बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है.
इस लेख में इलेक्ट्रॉनिक्स और सेमीकंडक्टर उद्योग के भविष्य के लिहाज़ से दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की अहमियत की पड़ताल की गई है. लेख में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि दुर्लभ खनिजों की तलाश से लेकर खनन, प्रसंस्करण और उत्पादन तक इस क्षेत्र को सामरिक सेक्टर का दर्जा दिए जाने की ज़रूरत है.
रिसर्च, संसाधनों, कौशल और उत्पादन की मात्रा के मामले में तक़नीक एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. जैसे जैसे उच्च तक़नीकें आकार ले रही हैं, जिनसे लीक पर चलती दुनिया में खलल पैदा हो रहा है, वैसे वैसे 17 धात्विक तत्वों वाले ये बेहद दुर्लभ पृथ्वी (REE) इस बदलाव की धुरी बदलते जा रहे हैं. इनमें पीरियॉडिक टेबल में दर्ज 15 लैंथेनाइड्स के साथ स्कैंडियम और यिट्रियम शामिल हैं. ये दुर्लभ पृथ्वी तत्व आज के उच्च तक़नीक वाले बहुत से उपकरणों का महत्वपूर्ण भाग हैं और बहुत से उच्च तकनीकी उपकरणों का बुनियादी हिस्सा हैं. फिर चाहे मोबाइल फोन, कंप्यूटर या हार्ड ड्राइव हों. या फिर इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड गाड़ियां, स्क्रीन मॉनिटर, इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले, गाइडेंस सिस्टम, लेज़र, रडार और सोनार सिस्टम वग़ैरह. ये तत्व चिप के इकोसिस्टम का भी अहम हिस्सा हैं. कुल मिलाकर, उनकी बढ़ती क़ीमतें और आसानी से उपलब्धता, सेमीकंडक्टर की आपूर्ति श्रृंखला को हर स्तर पर प्रभावित करती है.
चीन के नेता देंग शाओपिंग ने 1987 में कहा था कि, ‘मध्य पूर्व के पास अगर तेल है, तो चीन के पास दुर्लभ पृथ्वी हैं.’ 2008 में दुनिया के कुल REE उत्पादन में चीन की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत थी, और 2011 तक चीन का हिस्सा बढ़कर 97 फ़ीसद हो गया था.
चीन के नेता देंग शाओपिंग ने 1987 में कहा था कि, ‘मध्य पूर्व के पास अगर तेल है, तो चीन के पास दुर्लभ पृथ्वी हैं.’ 2008 में दुनिया के कुल REE उत्पादन में चीन की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत थी, और 2011 तक चीन का हिस्सा बढ़कर 97 फ़ीसद हो गया था. दुनिया भर में सेमीकंडक्टर का निर्माण भी इन पृथ्वी तत्वों पर बहुत अधिक निर्भर है. ये तत्व, ज़्यादातर इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण बनाने में अहम भूमिका अदा करते हैं. चीन ने इन खनिजों के उत्पादन में लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया है. हालांकि, चीन और अमेरिका के व्यापारिक विवादों के चलते, इन खनिजों की क़ीमत बहुत बढ़ गई है. स्वतंत्र रूप से उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक़, चीन में हर साल एक लाख चार हज़ार टन दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की खपत होती है, जो पूरी दुनिया में REE की कुल खपत का लगभग 67 प्रतिशत है. उत्पादन की इतनी विशाल क्षमता के कारण, वैश्विक स्तर पर REE की क़ीमतों में हेरा-फेरी से इज़ाफ़ा करने और इन तत्वों के निर्यात को नियंत्रइत किया जा सकता है. पिछले कई वर्षों से मांग के अनुपात में आपूर्ति के संतुलन और चीन की तरफ़ से लगभग स्थिर आपूर्ति ने ज़्यादातर मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियां एक देश के इस गुपचुप दबदबे की अनदेखी करती आई हैं. महामारी के बाद के दौर में आज जब वैश्विक मूल्यवर्धक श्रृंखलाओं (GVC) पर दबाव बढ़ा है, तो दुनिया के बेहद पेचीदा मंज़र को देखते हुए, दुर्लभ पृथ्वी तत्व, व्यापार युद्ध का नया मोर्चा बन सकते हैं.
अब तक मालूम दुर्लभ खनिजों के भंडार के हिसाब से दुनिया भर के भंडारों में भारत की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत है और माना जाता है कि वो REE के मामले में पांचवां बड़ा देश है. इस लिहाज़ से इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL) की स्थापना तो 1950 में ही हो चुकी थी. टोयोटा त्सुशो 2010-11 में ही IREL के साथ साझा प्रयासों के ज़रिए इस क्षेत्र में दाख़िल हो चुकी थी. पहले के दौर में इस क्षेत्र को कई नीतिगत बाधाओं का सामना करना पड़ा है और अब इस महत्वपूर्ण सेक्टर को विशेषज्ञता, भारी पूंजी निवेश और उच्च तक़नीक की ज़रूरत है. जिससे, दुर्लभ खनिजों का खनन, उनकी प्रॉसेसिंग और लॉजिस्टिक्स को आगे बढ़ाया जा सके. आज बहुत सावधानी से तैयार की गई ऐसी नीतियों की ज़रूरत है, जो पर्यावरण का ध्यान रखें और साथ साथ अधिक मात्रा में उत्पादन को भी बढ़ावा दे सकें. इस क्षेत्र में मांग की कमी, उद्यमिता का अभाव, तक़नीक में बेहद कम निवेश और निजी क्षेत्र की बिल्कुल भी भागीदारी न होने जैसी समस्याएं हैं.
भारत में खनिजों की तलाश का काम अब तक मोटे तौर पर सरकार के ज़िम्मे ही रहा है. सरकार की तरफ़ से ये काम ब्यूरो ऑफ़ माइन्स और परमाणु ऊर्जा विभाग करता रहा है. खनन और शोधन का काम IREL के हाथ में रहा है. एक नीतिगत क़दम के तौर पर खनन मंत्रालय ने 2021 में माइन्स ऐंड मिनरल्स डेवेलपमेंट ऐंड रेग्यूलेशन अमेंडमेंट एक्ट में संशोधन किया था, ताकि खनिजों का उत्पादन बढ़ाया जा सके. लेकिन अभी और भी बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है.
तक़नीकी एक महंगी वस्तु है और इसको फ़ायदेमंद बनाने के स्तर तक ले जाने के लिए कई बरस लग जाते हैं. भारत को चाहिए कि वो MSP में अपनी भागीदारी का पूरा फ़ायदा उठाए. इसके लिए आपसी फ़ायदे वाले बहुत से तकनीकी सहयोगों की संभावनाओं का पता लगाकर उन्हें ठोस आकार दिया जाना चाहिए. अकादेमिक क्षेत्र और केंद्र के अनुसंधान और विकास में लगे संगठनों को एक ऐसा पाठ्यक्रम विकसित करना चाहिए, जिससे विशेषज्ञों और क़ाबिल इंजीनियरों को खनन और प्रॉसेसिंग की तकनीकों में प्रशिक्षण दिया जा सके.
हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि इस क्षेत्र में ज़रूरी नीतिगत क़दम उठाकर इसको ‘सामरिक सेक्टर’ के तौर पर मान्यता देने की आवश्यकता है, जिससे दुर्लभ पृथ्वी तत्वों का उद्योग उद्यमियों के लिए आकर्षक और फ़ायदेमंद हो.
इसके लिए धनबाद के इंडियन स्कूल ऑफ़ माइन्स या दूसरे नामांकित अकादेमिक केंद्रों को दूसरे सरकारी और निजी क्षेत्र की संस्थाओं के साथ मिलकर RRE के सेंटर ऑफ एक्सेलेंस की स्थापना करनी चाहिए, जिससे भविष्य में पर्यावरण के लिए मुफ़ीद तकनीकों का विकास किया जा सके. इस क्षेत्र में निवेश की धुरी सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश ही होगा, क्योंकि विदेशी निवेश के साथ कुछ मसले जुड़े रहते हैं, जिन पर बाद में चर्चा की जा सकती है. सरकार को डिपार्टमेंट ऑफ़ रेयर अर्थ्स के नाम से एक नई संस्था बनाई जानी चाहिए, जिसमें इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल किया जाए, जो नीतियां बनाएं और इस क्षेत्र की सामरिक महत्ता को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएं.
हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि इस क्षेत्र में ज़रूरी नीतिगत क़दम उठाकर इसको ‘सामरिक सेक्टर’ के तौर पर मान्यता देने की आवश्यकता है, जिससे दुर्लभ पृथ्वी तत्वों का उद्योग उद्यमियों के लिए आकर्षक और फ़ायदेमंद हो. इसके लिए उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन देना होगा. चिप और दूसरे अहम इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भविष्य में भारत में ही बनाने के उच्च तक़नीक में तरक़्क़ी के ख़्वाब को पूरा करने के लिए ये सबसे ज़रूरी क़दम होगा. सरकार के कुछ दस्तावेज़ और रिपोर्ट्स जो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं, वो इशारा करती हैं कि कुछ देशों में REE के बड़े भंडार हैं. इन देशों के साथ मिलकर दुर्लभ और अहम खनिजों की तलाश और उनके खनन के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. वैसे तो इस काम के लिए तकनीकी और कूटनीतिक स्तर पर बहुत प्रयास करने की ज़रूरत होगी. लेकिन अगर ये कोशिशें कामयाब होती हैं, तो इस क्षेत्र के भू-राजनीतिक दांव-पेंच में ये बड़ा क़दम साबित होगा.
प्राकृतिक संसाधनों में बड़े पैमाने पर मोल-भाव कर पाने की क्षमता निहित होती है. आने वाले समय में अमेरिका की अगुवाई वाले MSP के ज़रिए ये क्षेत्र लगभग उसी तरह का दर्जा हासिल कर लेगा, जैसा न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) है, जिसकी स्थापना 1974 में हुई थी. इस पूरे मामले में आगे चलकर ये महत्वपूर्ण बात होने वाली है. मौजूदा क़ाबिलियत के साथ साथ अच्छी नीतिगत कोशिशों, सार्वजनिक के साथ साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी के मॉडल और बहुपक्षीय सहयोग ही इस क्षेत्र का भविष्य बेहतर बनाएंगे, जिनसे भविष्य में भारत को, सामरिक, आर्थिक और तकनीकी स्तर पर बहुत लाभ हो सकता है.
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A graduate of Defence Services Staff College and Higher Command Course in the Indian Army as well as an alumnus of the Indian School of ...
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