Author : Sunjoy Joshi

Published on Sep 14, 2020 Updated 0 Hours ago

चीन बहुत सोची-समझी साज़िश के तहत यह चाहता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत को उलझा कर रखा जाए. अब भारत के लिए भी इसे काउंटर करना अति आवश्यक हो जाता है

दुनिया में बढ़ती बेचैनी के बीच, बड़ी ताक़तों के बीच एकाधिकार की लड़ाई

भारत-चीन सीमा विवाद का बातचीत के बाद भी कोई समाधान नहीं निकल पा रहा है इसलिए मामला गंभीर स्तर तक पहुंच गया है. गलवान घाटी के बाद से ही भारत और चीन के कोर कमांडरों के बीच में यह बातचीत होती रही है कि चीन अपने पहले की पोजीशन में वापस जाए, पर वो जाने को तैयार नहीं हो रहा है. वो चाहता है कि जहां-जहां उसने घुसपैठ किया है वहां-वहां पर वो अपनी पैठ बनाए. यदि दोनों पक्षों के बीच में बातचीत सफ़ल बनानी है तो दोनों पक्ष यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि बातचीत बराबरी के स्तर पर होनी चाहिए. चीन बहुत सोची-समझी साज़िश के तहत यह चाहता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) पर भारत को उलझा कर रखा जाए. अब भारत के लिए भी इसे काउंटर करना अति आवश्यक हो जाता है और भारत ने काउंटर किया भी है, और वो भी बहुत होशियारी से कार्यवाही किया है. उसने चीन के साथ हुई झड़पों में अपने स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स को शामिल किया. यह वास्तव में एक बहुत बड़ा मैसेज चीन को जाता है कि इससे हम चीन के खिलाफ़ पुराना तिब्बत का जो मुद्दा है हम उसे फिर से उखाड़ सकते हैं. यदि चीन हमारे गड़े मुर्दे उखाड़ता है तो हमारे पास चीन के ऐसे कई गड़े मुर्दे हैं जिसको हम आसानी से उखाड़ सकते हैं और इसके लिए हमें दक्षिण चीन सागर और ताइवान जाने की आवश्यकता नहीं है, यह हमारे बॉर्डर पर ही मौजूद है.

यदि चीन हमारे गड़े मुर्दे उखाड़ता है तो हमारे पास चीन के ऐसे कई गड़े मुर्दे हैं जिसको हम आसानी से उखाड़ सकते हैं और इसके लिए हमें दक्षिण चीन सागर और ताइवान जाने की आवश्यकता नहीं है, यह हमारे बॉर्डर पर ही मौजूद है.

वास्तव में तिब्बत चीन की एक दुख़ती नब्ज़ है, और उस दुख़ती नब्ज़ पर हमने स्पेशल फ्रंटियर फ़ोर्स का उपयोग करके हाथ रख दिया है. ऐसा नहीं है कि भारत ने इससे पहले कभी इस बल को प्रयोग नहीं किया था, लेकिन यह पहली बार है जब उसने लद्दाख क्षेत्र में किया है. यदि चीन हमें सीमा पर उलझाए हुए रखना चाहता है तो हमारे पास भी कुव्वत है कि हम उसको इससे अधिक मात्रा में सीमा पर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चोट पहुंचा सकते हैं.

दो कदम आगे-एक कदम पीछे, हिमालय क्षेत्र का सैन्यीकरण

वास्तव में अगर सफल बातचीत होनी है तो दोनों देशों के बीच बराबरी का स्तर होना चाहिए और दोनों पार्टी एक दूसरे को उतना ही क्षति पहुंचाने की क्षमता रखती हो जितना कि दूसरी पार्टी रखती है. और इस प्रकार की स्थिति भारत ने पैदा करने की कोशिश की है जिसकी वजह से चीन की तिलमिलाहट बढ़ती जा रही है. अगर चीन वास्तव में शांति चाहता है तो मौका अच्छा है उसे उच्च स्तर पर बातचीत करके जल्द ही समाधान निकालना चाहिए.

पिछली कुछ घटनाओं से यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि चीन का यह प्रयास रहा है कि इस इलाके का सैन्यीकरण कर एक संघर्ष का क्षेत्र (ज़ोन आफ कनफ्लिक्ट) पैदा किया जाए. ऐसे में भारत का प्रयास यह होना चाहिए कि इस क्षेत्र में शांति को बरकरार रखते हुए चीन के हर पैंतरे का ज़वाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए. अगर सीमा पर तनाव बढ़ता है तो यह सिर्फ़ हमारे लिए ही ख़र्चीला नहीं होगा बल्कि चीन के लिए भी भारी पड़ सकता है, और यह सिर्फ़ सीमा पर ही नहीं बल्कि सामरिक मामलों में उसे महंगा पड़ सकता है. जिस तरह से चीन ने तिब्बत की स्वायत्तता का हनन किया है, उससे अंतरराष्ट्रीय पटल पर कई तरह के प्रश्न उठते हैं. माइक पॉम्पियो ने तिब्बत पर चीनी कार्यवाही को गलत बताया है. जैसा कि चीन ताइवान पर अपना दावा करता है, उसके मुकाबले तिब्बत पर उसके दावे बहुत ही कमज़ोर हैं. यह एक मुद्दा है जिससे चीन अपनी हरक़तों से जानबूझकर इसका अंतरराष्ट्रीयकरण करवा लेगा. और उसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इस क्षेत्र में संभलकर पांव रखते हुए शांति कायम करें.

शी जिनपिंग यानी दुनिया का बैड-ब्यॉय

चीन इन बातों को भलीभांति जानता है कि इस समय पूरी दुनिया अपनी किसी न किसी तरह की समस्या में उलझा हुआ है. इसलिए वो सोचता है कि उसे 50 साल इंतजार न करके, जो काम पांच दशक बाद करनी थी, उसे वो अभी ही चीन की शैली से पूरी दुनिया को परिचित कराने इरादा कर रहा है. और जो देश चीन से उलझने की कुव्वत रखते हैं, उन्हें कैसे दबाया जाए. इस तरह से वो अपना वैचारिक प्रभाव भी तय करना चाहता है और दुनिया को यह संदेश देना चाहता है कि यदि आप चीन के रास्ते पर चलेंगे तो शायद आपको एक बेहतर दुनिया मिलेगी.

उसे 50 साल इंतजार न करके, जो काम पांच दशक बाद करनी थी, उसे वो अभी ही चीन की शैली से पूरी दुनिया को परिचित कराने इरादा कर रहा है.

रूस के प्रति ट्रंप का नरम रुख़?

बेलारूस में लुकाशेंको के ख़िलाफ विरोध बढ़ता चला गया. लुकाशेंको ने हमेशा से ही स्वतंत्र नीति अपनाते हुए यूरोप और रूस के साथ एक संतुलन बनाए रखा है. हालांकि, रूस के साथ उर्जा को लेकर उनकी खटपट चलती रहती थी. और यहीं पर चीन ने नार्दन बीआरआई के ज़रिए बहुत भारी मात्रा में निवेश किया है, जिससे वो यूरोप तक पैठ बना सकता है. आज लुकाशेंको का समर्थन रूस और चीन कर रहे हैं. लुकाशेंको ने सबसे पहले आकर बोला कि हमारे पास इस बात का पूरा सबूत है कि नवलनी को कुछ नहीं हुआ था, यह सब जर्मनी और रूस के द्वारा एक आडंबर रचा गया था. तो बेलारूस को लेकर एक रस्साकशी वहां से चल रही है. रूस में भी इस समय विरोध प्रदर्शन हो रहा है. रूस में कलर रिवोल्युशन का एक इतिहास रहा है और पुतिन यह बिल्कुल नहीं चाहते हैं फिर से कलर रिवोल्युशन हो जो स्थापना को चुनौती दे.

अगर हम ट्रंप के नज़रिए से देखें तो ट्रंप और पुतिन एक दूसरे के पूरक हैं. अगर ट्रंप नवंबर में चुनाव जीतते हैं तो यूरोप और अमेरिका के बीच में जो नज़दीकी का रिश्ता है वो कमजोर होता है. और पुतिन का प्रयास भी रहा है कि वो कैसे पश्चिम एशिया में और यूरोप में चीन के साथ मिलकर अपना वर्चस्व कायम करे. नवंबर में अगर ट्रंप हारते हैं, तो पुतिन सबसे ज़्यादा दुखी होंगे. क्योंकि यह जो पूरी भू-राजनीति है वो उनके हाथ से निकल जाएगी. तो इस प्रकार इन देशों की ये कुछ जटिलताएं हैं, जिसको समझना बेहद आवश्यक हो जाता है.

अमेरिका और जर्मनी के बीच जो रिश्तों में दरार पैदा हुई, वो इसी पाइपलाइन को लेकर के हुई थी. क्योंकि प्रेसिडेंट ट्रंप लगातार यह कहते आ रहे हैं कि जर्मनी क्यों इतनी भारी मात्रा में रूस से गैस ख़रीद रहा है उसे तो अमेरिका से ख़रीदने चाहिए.

इस समय जर्मनी और रूस के बीच में सबसे ख़राब दौर नॉर्ड स्ट्रीम-2 पाइप लाइन को लेकर चल रहा है. रूस के ऊपर इस समय जर्मनी और यूरोपियन यूनियन का दबाव है कि वो मर्कल पाइप लाइन प्रोजेक्ट को रद्द कर सकते है. हालांकि, पाइप लाइन लगभग पूरी हो चुकी है. भारी मात्रा में उसमे निवेश भी हो चुका है. अमेरिका और जर्मनी के बीच जो रिश्तों में दरार पैदा हुई, वो इसी पाइपलाइन को लेकर के हुई थी. क्योंकि प्रेसिडेंट ट्रंप लगातार यह कहते आ रहे हैं कि जर्मनी क्यों इतनी भारी मात्रा में रूस से गैस ख़रीद रहा है उसे तो अमेरिका से ख़रीदने चाहिए. उन्होंने पोलैंड और अन्य देशों का उदाहरण देकर यह कहने की कोशिश की कि जर्मनी को यहां से गैस लेना ज्य़ादा अच्छा है न की रूस से नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन बनाकर जर्मनी गैस पहुंचाई जाए. एक तरह से ट्रंप पाइपलाइन का विरोध कर रहे थे लेकिन मर्कल मज़बूती से खड़ी थीं. आज के समय में मर्कल का यह कहना कि यह प्रोजेक्ट प्रभावित हो सकता है. यह रूस को एक तरह से सिग्नल जाता है. लेकिन वास्तव में यह प्रोजेक्ट प्रभावित होगा या नहीं होगा, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी मात्रा में निवेश हो चुका है. और कई कंपनियों के हित इससे जुड़े हुए हैं जिसमें रूसी कंपनियां और कई सारी यूरोपीय और जर्मन कंपनियां भी हैं. ऐसा होना मुश्किल लगता है. अब इस पर क्या प्रतिबंध लगेंगे, जब यह पूरी तरह से बनकर तैयार हो चुका है और कुछ ही महीनों में इसमें गैस दौड़ने लगेगा. इसलिए इसपर ज़्यादा सोचना बेवकूफ़ी होगी.

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