भारत में सौर ऊर्जा: लैंड राइट्स (भूमि अधिकारों) को लेकर संघर्ष!
यह आर्टिकल ‘कॉम्प्रीहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड’ श्रृंखला का हिस्सा है.
भारत सरकार के 2015-16 के बजट में रिन्यूएबल एनर्जी (आरई) पॉवर जनरेशन कैपेसिटी (ऊर्जा उत्पादन क्षमता) के लक्ष्य को संशोधित करते हुए 2022 तक 175 जीडब्ल्यूपी (गिगावाट पीक) कर दिया गया है. इसमें100 जीडब्ल्यूपी सोलर पॉवर, 40 जीडब्ल्यूपी रूफ टॉप, 60 जीडब्ल्यूपी विंड, 10 जीडब्ल्यूपी बायोमास और 5 जीडब्ल्यूपी स्मॉल हायड्रोपॉवर का समावेश है. ग्लासगो में 2021 में हुए सीओपी26 (26 कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) में भारत में नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) आधारित ऊर्जा उत्पादन क्षमता को 2030 तक 500 जीडब्ल्यूपी तक बढ़ाने का लक्ष्य तय हुआ था. RE पॉवर जनरेशन कैपेसिटी के लक्ष्य में वृद्धि की वजह से आरई प्रोजेक्ट्स के विस्तार के लिए ज़रूरी भूमि और उससे जुड़े मामलों को लेकर चिंताएँ बढ़ने लगी हैं. प्रोजेक्ट डेवलपर्स की मुख्य चिंता यह है कि आख़िर इतनी बड़ी मात्रा में उपयुक्त भूमि का अधिग्रहण गरीब भूमि मालिकों से कैसे किया जाएगा. इसी प्रकार नीति निर्माताओं के सामने यह चुनौती है कि कार्बन को हटाने या कम करने के लक्ष्य को पूरा करने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और RE विकास के लिए ज़रूरी भूमि से विस्थापित लोगों के लिए viable alternatives यानी (व्यवहार्य विकल्प) के बीच किस तरह संतुलन खोजा जाए. गरीब भूमि मालिकों के सामने यह चुनौती है कि उन्हें RE परियोजनाओं के लिए विनियोजित भूमि का उचित मुआवज़ा प्राप्त करने के साथ उन क्षेत्रों में स्थानांतरित होना है, जहाँ वे वैक्लपिक रोज़गार पा सकते हैं.
भारत सरकार के 2015-16 के बजट में रिन्यूएबल एनर्जी (आरई) पॉवर जनरेशन कैपेसिटी (ऊर्जा उत्पादन क्षमता) के लक्ष्य को संशोधित करते हुए 2022 तक 175 जीडब्ल्यूपी (गिगावाट पीक) कर दिया गया है. इसमें100 जीडब्ल्यूपी सोलर पॉवर, 40 जीडब्ल्यूपी रूफ टॉप, 60 जीडब्ल्यूपी विंड, 10 जीडब्ल्यूपी बायोमास और 5 जीडब्ल्यूपी स्मॉल हायड्रोपॉवर का समावेश है.
लैंड यूज़ पैटर्न (भूमि उपयोग ढांचा)
भारत में भूमि उपयोग की सबसे बड़ी श्रेणी कृषि है. 2015-16 तक लैंड (भूमि) का जो डेटा (जानकारी) उपलब्ध है उसके अनुसार इसमें शुद्ध बोया गया क्षेत्र (नेट सोन एरिया) अर्थात फसल क्षेत्र माइनस एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र (क्रॉप्ड एरिया माइनस एरिया सोन मोर दैन वन्स) 45 प्रतिशत (139.42 मिलियन हेक्टेयर [मि. हेक्टेयर]) से अधिक है. यह उपलब्ध जानकारी के अनुसार कुल भौगोलिक क्षेत्र का 93 फीसदी होता है. इसमें वन भूमि 23 फीसदी (72.02 मि. हेक्टेयर) और गैर कृषि (नॉन एग्रीकल्चरल) भूमि नौ फीसदी (27.84 मि. हेक्टेयर) शामिल है. फैलो लैंड (अजोत भूमि/ऐसी भूमि जिसकी जुताई नहीं हुई है) आठ फ़ीसदी से ज्य़ादा (26.36 मि.हेक्टेयर) और बैरन लैंड (बंजर भूमि) पाँच फ़ीसदी से ज्य़ादा (16.99 मि. हेक्टेयर) शामिल है. चारे और चराई के लिए उपयोग में लाई जाने वाली भूमि तथा वेस्ट लैंड (खराब भूमि) तीन-तीन फ़ीसदी से अधिक (कुल 22.58 मि. हेक्टेयर) है. शेष एक फ़ीसदी भूमि (3.12 मि. हेक्टेयर) ट्री क्रॉप्स (पेड़ों) से कवर (आच्छादित) के तहत है. इंपीरिकल स्ट्डीज़ के अनुसार भारत में सोलर रेडिएशन के लिए वर्षभर उपयुक्त अधिकांश क्षेत्र वेस्टलैंड में ही आता है. हालाँकि, अधिकांश प्रोजेक्शन्स के अनुसार रेगिस्तान और ड्राय-स्क्रबलैंड्स (गुल्मभूमि) में ही 11 से 12 फीसदी सोलर प्रोजेक्टस स्थापित हैं. प्रोजेक्ट डेवलपर्स, वेस्टलैंड को पसंद नहीं करते. वेस्टलैंड में प्रोजेक्ट खड़े करने में वहाँ का परेशान करने वाला क्षेत्र और कुछ मामलों में प्रोजेक्ट के लिए उपयोगी अन्य संसाधनों का अभाव एक चुनौती होता है. ऐसे इलाकों में पैदा होने वाली बिजली को उपभोगकर्ता तक पहुंचाने के लिए ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में भी लागत बढ़ती है. हालाँकि, कृषि भूमि को RE प्रोजेक्टस के लिए कृषि भूमि उपलब्ध करवाने के चलते छोटे भूमि मालिकों पर पड़ने वाले सामाजिक-आर्थिक असर और पर्यावरणीय प्रभाव की कीमत काफी कम होती है. सन् 2015-16 में भारत में 68 फीसदी भूमि का स्वामित्व (लैंड होल्डिंग) ऐसे अल्प भू-धारक (मार्जिनल) किसानों के पास थी, जिनके पास एक हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है. अल्प भू-धारकों से भूमि अधिगृहीत करने में टेम्पोरल एंड फाइनांशियल (लौकिक और वित्तीय) लागत मूल्य बढ़ जाता है. लेकिन भूमि अधिग्रहण कानून तथा डेवलपमेंट और डी-कार्बनाइजेशन को लेकर चलने वाली चर्चा दोनों ही निवेशकों को ही फेवर (पक्ष में) करते हैं. ऐसे में सैकड़ों गरीब भूमि-धारक और उनके अधिकार साफ़ और बेहतर दुनिया बनाने के मिशन की बलि (कोलैटरल डैमेज) चढ़ जाते हैं.
एक अन्य स्टडी का निष्कर्ष है कि अगर भारत में होने वाली 78 फीसदी ऊर्जा का उत्पादन सोलर पीवी से आए और इसमें से तीन फ़ीसदी सन् 2050 रूफ टॉप सोलर पीवी से मिले तो भी इसके लिए जो ज़रूरी भूमि होगी वह 2010 में उपलब्ध शहरी भूमि क्षेत्र (अर्बन लैंड एरिया) का 137 से 182 फीसदी और 2050 तक उपलब्ध होने वाली क्रॉप एरिया (कृषि क्षेत्र) का अधिकतम दो फीसदी होगी.
आरई (RE) में भारत को 175 जीडब्ल्यू क्षमता का लक्ष्य पाने के लिए भूमि की आवश्यकता को लेकर जो आंकड़ा व्यापक रूप से चर्चा में आता है वह है, 55,000 वर्ग किलोमीटर (केएम 2) से 125,000 वर्ग किलोमीटर का. यह आंकड़ा विंड प्रोजेक्टस की 2 एमडब्ल्यूपी/केएम 2 (दो मेगावॉट पीक प्रति वर्ग किलोमीटर) की डेंसिटी (घनत्व) पाने तथा सोलर फोटोवोल्टिक प्रोजेक्टस की 26 एमडब्ल्यूपी/केएम 2 पाने को आधार बनाकर सामने आया है. यहाँ अनुमानित क्षेत्र (प्रोजेक्टेड एरिया) बहुत ज्य़ादा नहीं है, क्योंकि यह देश की टोटल सरफेस एरिया (सतह क्षेत्रफल) का महज़ एक से तीन फ़ीसदी है. लेकिन यह वेस्टलैंड का 50 से 100 फ़ीसदी होता है. एक अन्य स्टडी का निष्कर्ष है कि अगर भारत में होने वाली 78 फीसदी ऊर्जा का उत्पादन सोलर पीवी से आए और इसमें से तीन फ़ीसदी सन् 2050 रूफ टॉप सोलर पीवी से मिले तो भी इसके लिए जो ज़रूरी भूमि होगी वह 2010 में उपलब्ध शहरी भूमि क्षेत्र (अर्बन लैंड एरिया) का 137 से 182 फीसदी और 2050 तक उपलब्ध होने वाली क्रॉप एरिया (कृषि क्षेत्र) का अधिकतम दो फीसदी होगी. इस स्टडी में पाया गया कि प्रत्येक 100 हेक्टेयर के सोलर पीवी पैनल्स के लिए सारी दुनिया के 31 से 43 हेक्टेयर अप्रबंधित वन क्षेत्र (अनमैनेज्ड फॉरेस्ट एरिया) को साफ़ करना (काटना) पड़ेगा. भारत में इतनी ही मात्रा में सोलर प्रोजेक्टस की भूमि के लिए 27 से 30 हेक्टेयर अप्रबंधित वन क्षेत्र की ज़रूरत होगी.
भारत में अधिक विकिरण (इररेडियंस) और कम ऊंचाई (लोवर एल्टीटटयूड) की वजह से एक यूनिट के सोलर आऊटपुट के लिए लगने वाली शुद्ध भूमि का उपयोग (एब्सोल्यूट लैंड यूज) जापान और दक्षिण कोरिया के मुकाबले आधा और यूरोप के मुकाबले में एक तिहाई होता है. इसके साथ ही भारत की वर्तमान और अनुमानित (करंट एंड प्रोजेक्टेड) फसल उत्पादकता (क्रॉप प्रॉडक्टिविटी) विश्व औसत से कम है, जिसकी वजह से सोलर एक्सपांशन (विस्तार) के लिए भूमि स्पर्धा कम महत्वपूर्ण हो जाती है. हालाँकि, 2050 तक का सोलर एक्पैंशन परिदृश्य हमें नेट लैंड यूज़ चेंज (एलयूसी) कार्बन उत्सजर्न (एमिशन्स) की ओर ले जाएगा. लेकिन अगर सोलर पार्क का प्रबंधन पाश्चर्स (चराई) के लिए किया गया तो इस वजह से नेट कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन (ज़ब्ती) भी हो सकता है. यदि पूर्व की तमाम वनस्पति (वेजिटेशन) को हमेशा के लिए क्लीयर कर दिया जाए तो सोलर एक्पैंशन से जुड़ा कुल एलयूसी उत्सजर्न भारत में ज्य़ादा रहने की संभावना है. विशेषकर, कार्बन उत्सजर्न को लेकर भूमि प्रबंधन प्रक्रियाओं के अभाव में भी भारत का एलयूसी कार्बन उत्सजर्न 12 जीसीओ2/केडब्ल्यूएच (ग्राम्स ऑफ़ कार्बन डायऑक्साइड/प्रति किलोवाट ऑवर) होगा, जो यूरोप में 13 से 53 जीसीओ2/केडब्ल्यूएच होता है.
भूमि अधिकारों का प्रतिवाद (कन्टेस्टेशन ऑफ लैंड राइट्स)
भूमि अधिकारों को लेकर प्रतिवाद भारत के लिए नई बात नहीं है. भारत की 12वीं पंचवार्षिक योजना में भूमि को लेकर छठे परिच्छेद (चैप्टर) का पहला वाक्य ही कहता है कि, ‘भारत में सामाजिक भेदभाव का इतिहास काफी पुराना है और यह सीधे भूमि पर अधिकार के इंकार (डिनायल ऑफ एक्सेस टू लैंड) से काफी नज़दीक से जुड़ा है’. ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की बड़ी मात्रा में भूमि का उद्योग और खनन (इंडस्ट्रीयल एंड माइनिंग) के लिए भूमि अधिग्रहण कानून आमतौर पर औद्योगिक विकासकों (इंडस्ट्रीयल डेवलपर्स) के पक्ष में झुका होता है. आधिकारिक आंकड़े इस बात का संकेत देते हैं कि लगभग 60 मिलियन लोग भारत में विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापित हुए और इसमें से एक तिहाई से भी कम का पुनर्वास (रिसेटलमेंट) हुआ है.
नए भूमि अधिग्रहण कानून में भूमि मालिकों की सुरक्षा के लिए बने कुछ प्रावधानों में संशोधन कर अब उन्हें कैपिटल फ्रेंडली बनाते हुए लचीला और कमज़ोर कर दिया गया है. इसी वजह से शायद विगत कुछ वर्षो में अब सोलर पार्क के लिए बड़ी मात्रा/संख्या में भूमि लेने के बाद उसे लेकर व्यापक असंतोष की ख़बरें सामने आने लगी हैं.
भारत में औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण इस विख्यात कारण की नीति से किया जाता है कि राज्य को सार्वजनिक प्रयोजन के लिए जबरन भूमि लेने का अधिकार है, और वह भी अधिकांश मामलों में बाज़ार भाव से कम कीमत पर. सन् 2013 में एक नया भूमि अधिग्रहण विधेयक पारित किया गया, जिसमें सार्वजनिक प्रयोजन की आठ श्रेणियाँ बनाई गईं. इसमें पॉवर जनरेशन प्रोजेक्ट्स और प्राइवेट प्रोजेक्ट्स के साथ पब्लिक गुड्स प्रोडक्शन के प्रोजेक्टस के लिए आवश्यक भूमि शामिल है. RE प्रोजेक्टस, पॉवर जनरेशन प्रोजेक्टस और पब्लिक गुड्स प्रोडक्शन दोनों ही श्रेणियों के लिए पात्र (क्वॉलिफाई) होते हैं. नए भूमि अधिग्रहण कानून में भूमि मालिकों की सुरक्षा के लिए बने कुछ प्रावधानों में संशोधन कर अब उन्हें कैपिटल फ्रेंडली बनाते हुए लचीला और कमज़ोर कर दिया गया है. इसी वजह से शायद विगत कुछ वर्षो में अब सोलर पार्क के लिए बड़ी मात्रा/संख्या में भूमि लेने के बाद उसे लेकर व्यापक असंतोष की ख़बरें सामने आने लगी हैं.
इसमें ख़ासकर कर्नाटक के पावागढ़ फोटोवोल्टेइक पार्क के भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद का ज़िक्र किया जा सकता है. इस परियोजना के लिए कर्नाटक ने पांच गांवों के 1800 किसानों की 5260 हेक्टेयर भूमि, 11 कार्पोरेशन्स (उद्योगों) को 2017 से लीज पर दी है, ताकि वे इस भूमि पर 2,050 एमडब्ल्यूपी (मेगावाट पीक) क्षमता की संयुक्त सोलर पॉवर जनरेशन कैपेसिटी विकसित कर सकें. 2018 से ही मीडिया में भादला सोलर पार्क के भूमि अधिग्रहण को लेकर चल रहे विवाद की खबरें आ रही हैं. 5665 हेक्टेयर में फैले इस पार्क में 2245 एमडब्ल्यूपी (मेगावाट पीक) क्षमता का सोलर पॉवर जनरेशन होगा और इसे दुनिया का सबसे बड़ा सोलर पार्क कहा जाता है. इसी तरह की कहानियाँ आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और भारत के अन्य राज्यों में विकसित होने वाले प्रस्तावित सोलर पार्क को लेकर देखने और सुनने को मिल सकती हैं. मिनिस्ट्री ऑफ़ न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी (नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रलय/एमएनआरई) के अनुसार सरकार की फंडिंग स्कीम के तहत 40,000 एमडब्ल्यूपी क्षमता की सोलर पॉवर जनरेशन कैपेसिटी वाले सोलर पार्क और अल्ट्रा-मेगा सोलर पॉवर प्रोजेक्टस विकसित करने का लक्ष्य है.
मध्यस्थता विवाद
कृषि भूमि और वेस्टलैंड के उपयोग को लेकर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिणाम पर होने वाले विवादों को नीति निर्धारण की प्राथमिकता तय कर मध्यस्थता के साथ सुलझाया जाना चाहिए. एक सुझाव यह है कि सोलर पीवी फोटोवोल्टेइक प्रोजेक्टस को अबैन्डंड (अनुपयोगी/त्यागे गए) थर्मल पॉवर प्लांट साइट्स पर बनाया जाना चाहिए.
एक अनुमान (क्रूड एस्टिमेट) के हिसाब से इस वजह से आरई के लिए आवश्यक भूमि कवर नहीं होगी. अर्थात एक 10 जीडब्ल्यू का कोल प्लांट 60 बिलियन केडब्ल्यूएच बिजली उत्पादन, 70 फीसदी लोड फैक्टर के साथ प्रति वर्ष करेगा. एक सब क्रिटिकल प्लांट में एक केडब्ल्यूएच (हीट रेट 2530 केसीए/केडब्ल्यूएच जनरेशन के लिए 0.63 किलोग्राम कोयला (4000केकैल/केजी) (किलो कैलरीज पर किलोग्राम) की आवश्यकता होगी. ऐसे में यूएससी (अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल) प्लांट में स्विच करने से 0.165 केजी कोयला प्रति यूनिट बिजली उत्पादन में बचेगा. 60 बिलियन केडब्ल्यूएच से 9.9 मिलियन टन कोयले की बचत होगी. इस प्लांट के लिए औसतन 57 वर्ग किलोमीटर भूमि की आवश्यकता होगी. सोलर से उत्पादित होने वाली प्रत्येक यूनिट बिजली से 0.62 केजी कोयले की ख़पत कम होगी. 9.9 बिलियन टन कोयला बचाने के लिए 15.6 बिलियन केडब्ल्यूएच सोलर बिजली का उत्पादन करना होगा. इसके लिए 100 जीडब्ल्यू कैपेसिटी की ज़रूरत होगी (मान कर चलें कि प्रत्येक केडब्ल्यू स्थापित क्षमता अर्थात इंस्टॉल्ड कैपेसिटी). यदि यह बिजली सोलर थर्मल प्लांट का उपयोग करके उत्पादित की जाती है तो इसके लिए आवश्यक भूमि कोल प्लांट के लिए ज़रूरी भूमि का पांच गुना होगी. यदि पीवी आधारित बिजली उत्पादित की गई तो नौ गुना भूमि लग जाएगी.
एग्री फोटोवॉल्टिक (एपीवी) को भूमि उपयोग से जुड़े विवादों को मध्यस्थता से हल करने के लिए सुझाए गए अनेक उपायों में से एक कोबेनिफिट पॉलिसी के रूप में अनुशंसित (रिकमेंडेड) किया गया है. इसमें भूमि का एग्रीकल्चरल क्रॉप प्रॉडक्शन (फोटोसिंथेसिस) और पीवी इलेक्ट्रिसिटी प्रॉडक्शन दोनों के लिए एक साथ उपयोग करने का प्रस्ताव है.
एग्री फोटोवॉल्टिक (एपीवी) को भूमि उपयोग से जुड़े विवादों को मध्यस्थता से हल करने के लिए सुझाए गए अनेक उपायों में से एक कोबेनिफिट पॉलिसी के रूप में अनुशंसित (रिकमेंडेड) किया गया है. इसमें भूमि का एग्रीकल्चरल क्रॉप प्रॉडक्शन (फोटोसिंथेसिस) और पीवी इलेक्ट्रिसिटी प्रॉडक्शन दोनों के लिए एक साथ उपयोग करने का प्रस्ताव है. इसका विस्तार सघन कृषि (इंटेंसिव क्रॉप) के साथ समर्पित (डेडिकेटेड) पीवी माउंटिंग सिस्टम्स से विशाल ग्रासलैंड (एक्सटेंसिव ग्रासलैंड) में पीवी साइड और हाई पोटेंशियल इकोसिस्टम सर्विसेस के साथ अल्प रूपांतर (मार्जीनल एडैप्टेशन्स) तक है.
एपीवी से संभवत: भूमि की कार्यक्षमता बढ़ेगी (लैंड एफिशियंसी) और इससे पीवी पॉवर का एक्सपैंशन करने में मदद मिलेगी. इसके साथ ही उपजाऊ भूमि को कृषि के लिए बचाकर जीवों के लिए पोषक उच्च इको-सिस्टम भी तैयार होगा. यहाँ चुनौती यह है कि टैरिफ़ में आकर्षक बढ़ावा देने का प्रस्ताव और भूमि मालिकों को लैंड लीज़िंग का रेट फूड प्रॉडक्शन को दिए जाने वाले प्रोत्साहन (इन्सेंटिव) को कम अथवा ख़त्म कर सकता है. यह स्थिति ईंधन के लिए भूमि के उपयोग और कृषि भूमि के बीच विवाद को बढ़ावा दे सकती है. एक और तक़नीकी समाधान ये है कि पीवी पैनल्स को रोड इंफ्रास्ट्रक्चर, बिल्डिंग वॉल (दीवार) और इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ एकीकृत (इंटीग्रेशन) कर दिया जाए. लेकिन ऐसा करने से उद्योगों की माँग के अनुसार आवश्यक बिजली का जनरेशन (उत्पादन) करना संभव नहीं होगा.
औद्योगिक परियोजनाओं (इंडस्ट्रीयल प्रोजेक्टस) के लिए भूमि अधिग्रहण को आज भी विकास से जोड़कर देखा जाता है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण अथवा उसके उपयोग को लेकर कोई भी सवाल उठाया जाए तो उसे विकास विरोधी करार दे दिया जाता है.
जट्रोफा (रतनज्योत) से बायोडीजल बनाने के लिए भारत सरकार की बहुचर्चित योजना के नाम पर निजी निवेशकों द्वारा हड़पी गई भूमि (लैंड ग्रैबिंग) के मामले पर बने एक पेपर में भूमि विवादों को मध्यस्थता से हल करने की सूचनात्मक जानकारी (इंफरेमेटिव) दी गई है. 2003 का द नेशनल मिशन ऑन बायोडीज़ल तथा 2009 की बायोफ्यूएल पॉलिसी मुख्यत: रतनज्योत संवर्धन (कल्टीवेशन) को लेकर चल रही सकारात्मक चर्चा पर आधारित थी. इसके चलते निजी निवेशकों में असिंचित और वेस्टलैंड के बड़े हिस्सों को हथियाने की होड़ लग गई. लेकिन रतनज्योत के बीज से होने वाली पैदावार (यील्ड) उम्मीदों से बेहद कम थी, अत: इसमें खाद और पानी के संमिश्रण के बगैर बायोडीजल का उत्पादन करना लगभग असंभव (अनवायेबल) था. फिर कच्चे तेल की कीमतों में आयी गिरावट की वजह से भी रतनज्योत से बायोडीज़ल बनाने को लेकर जो उत्साह था वह कम होता गया. आज भारत में रतनज्योत की कहानी एक ऐसी केस स्टडी बन गई है, जिसमें केवल प्रचार के दम पर पॉलिसी बना दी गई थी. रतनज्योत की तरह ही 1990 में भी सरकार ने हाइड्रो-पॉवर और थर्मल पॉवर जनरेशन प्रोजेक्टस के लिए जो भूमि अधिग्रहण किया वह भी भूमि उपयोग के उन सभी मापदंडों को दरकिनार करता था, जिसमें सरकार की नीतियों की रक्षा नहीं होती थी. औद्योगिक परियोजनाओं (इंडस्ट्रीयल प्रोजेक्टस) के लिए भूमि अधिग्रहण को आज भी विकास से जोड़कर देखा जाता है. ऐसे में भूमि अधिग्रहण अथवा उसके उपयोग को लेकर कोई भी सवाल उठाया जाए तो उसे विकास विरोधी करार दे दिया जाता है.
भूमि उपयोग (लैंड यूज़) के संदर्भ में डिवॉल्वड फेडरलिज़्म (अवक्रमित संघवाद), जहाँ भूमि नीति (लैंड पॉलिसी) राज्य सरकारों के अधिकार में आती है, वहाँ केंद्रीय स्तर पर तय लैंड यूज़ और एनर्जी पॉलिसी (ऊर्जा नीति) के बीच दरार स्पष्ट दिखाई देती है. एनर्जी पॉलिसी (ऊर्जा नीति) में लैंड यूज को अलग (सेपरेट) और दोयम मद्दा (सेकंडरी इश्यू) मान लिया जाता है और लैंड एक्सेस (भूमि तक पहुंच) स्थानीय मुद्दा बन जाता है न कि केंद्रीय नीति के अधीन रहता है.
इन मुद्दों के समाधान के लिए नीतिगत विकल्पों में कम से कम नुकसान पहुंचाने वाले RE ज़ोन की पहचान करना, साइट पर और स्मॉल स्केल क्षमता (पोटेंशियल) को अधिकतम करना और RE प्रोजेक्ट साइिटंग में ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश को लेकर समन्वय करना शामिल है.
स्रोत: https://www.nature.com/articles/s41598-021-82042-5
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