Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या हाल ही में तुर्की-सऊदी अरब के बीच मेल-मिलाप ने इस्लामी दुनिया की बहुध्रुवीयता को ख़त्म कर दिया है - कम से कम अभी के लिए?

सऊदी अरब: इस्लामी देशों के बीच नेता के रूप में फिर से उभरता देश?
सऊदी अरब: इस्लामी देशों के बीच नेता के रूप में फिर से उभरता देश?

तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तैयब एर्दोगन ने हाल ही में सऊदी अरब का दौरा ख़त्म किया, जहां उन्होंने कुछ वर्षों तक सार्वजनिक रूप से सऊदी अरब से रिश्तों में तल्ख़ी के बाद, क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के साथ संबंधों में सुधार लाने की कोशिश की. एर्दोगन का यह दौरा पाकिस्तान के नए प्रधान मंत्री शाहबाज़ शरीफ़ की सऊदी अरब की यात्रा के साथ हुई और बिन सलमान के साथ दोनों बैठकों का फोकस इस बात पर केंद्रित रहा कि प्रत्येक देश की संबंधित अर्थव्यवस्थाओं में नए निवेश को कैसे बढ़ाया जाए. तथ्य तो यह है कि सऊदी अरब ने कतर, इंडोनेशिया और मलेशिया के साथ अपने संबंधों को भी धीरे-धीरे सुधार लिया है और यहां तक कि अपने कट्टर-प्रतिद्वंद्वी ईरान के साथ भी वह बातचीत की प्रक्रिया में शामिल है. यह दुनिया में वैश्विक इस्लामिक प्रभाव के एक वैकल्पिक केंद्र बनाने के तौर पर असफल प्रयोग के (अस्थायी) अंत की ओर इशारा करता है.

तथ्य तो यह है कि सऊदी अरब ने कतर, इंडोनेशिया और मलेशिया के साथ अपने संबंधों को भी धीरे-धीरे सुधार लिया है और यहां तक कि अपने कट्टर-प्रतिद्वंद्वी ईरान के साथ भी वह बातचीत की प्रक्रिया में शामिल है. यह दुनिया में वैश्विक इस्लामिक प्रभाव के एक वैकल्पिक केंद्र बनाने के तौर पर असफल प्रयोग के अंत की ओर इशारा करता है.

कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन: सऊदी अरब के इस्लामिक वर्चस्व को चुनौती

पिछले एक दशक से मुस्लिम देशों में अलग-अलग तरह के विचारों की चर्चा है जिसमें कई देश सऊदी अरब को इस्लामिक दुनिया के नेता जैसे महत्वपूर्ण पदवी देने से कतरा रहे हैं और अपनी स्थिति साफ करने में लगे हैं. इस कड़ी में हाल में हुई घटना साल 2019 के आख़िर में आयोजित कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन थी, जिसमें मलेशिया की राजधानी में कतर, ईरान, तुर्की और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. यह शिखर सम्मेलन कई मायनों में वैश्विक इस्लामिक राजनीति में एक नया मोड़ साबित हुआ क्योंकि इसमें शिरकत करने वाले ज़्यादातर देश ख़ुद को इस्लामिक दुनिया के नए नेता के रूप में स्थापित करने और सऊदी अरब को चुनौती देने की कोशिश कर रहे थे. यह साल 2010 के बाद से विभिन्न घरेलू और द्विपक्षीय (सऊदी के साथ) राजनीतिक प्रवृत्तियों की वज़ह से निरंतर बढ़ रहा था.

सऊदी अरब (जैसे यमन में हूथी विद्रोही या सीरिया में असद) के विरोध में ईरान के समर्थन के उदाहरण से परे, तुर्की भी इस्लामिक विश्व में ख़ुद की छवि इसके नेता के रूप में बहाल करने और तुर्की के ओटोमन साम्राज्य की गरिमा को वापस लाने के प्रयासों में जुटा था. इसने सऊदी अरब को तुर्की द्वारा झटका दिए जाने को लेकर भी मदद की ख़ास तौर पर जब उसने संवेदनशील डेटा और वीडियो फुटेज जारी किया और इसने तुर्की में सऊदी दूतावास (अक्टूबर 2018) में सऊदी से असंतुष्ट पत्रकार जमाल ख़ाशोगी की हत्या की जांच को आगे बढ़ाने का दबाव बनाया. इन खुलासों के बाद पश्चिमी देशों ने सउदी अरब की घनघोर आलोचना की जिसके परिणामस्वरूप सऊदी अरब नाराज़ हो गया और तुर्की के सामानों का बहिष्कार किया जाने लगा.

इस बीच, जून 2017 से कतर ईरान के साथ अपने संबंधों की वजह से सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और बहरीन द्वारा लगाए गए आर्थिक और राजनीतिक पाबंदियों का सामना करने पर मज़बूर था. इस चौकड़ी की कतर से यह शिकायत थी कि वह अरब देशों के बीच इस्लामिक नेतृत्व का समर्थन करने के लिए अपनी स्वतंत्र नीति पर आगे बढ़ रहा था, इस बात के बावज़ूद कि यह समूह ख़ासतौर पर कतर के हितों के ख़िलाफ़ था.

सऊदी अरब द्वारा कड़ी आलोचना किए जाने के बाद कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान की मौज़ूदगी रोक दी गई थी लेकिन इस समूह में शामिल होने की उसकी इच्छा ने सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान की नाराज़गी को जगज़ाहिर कर दिया.

इसके साथ ही, इंडोनेशिया और मलेशिया भारी घरेलू उथल-पुथल से गुजर रहे थे जिससे दो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के कई नागरिक सऊदी अरब के देशों में वहाबी संस्कृति को बढ़ावा देने पर सवाल पैदा कर रहे थे. मलेशिया विशेष रूप से मई 2018 के चुनाव से पहले इस मामले में सऊदी अरब की भूमिका के साथ-साथ घरेलू मोर्चे पर भ्रष्टाचार के एक बड़े घोटाले से निपट रहा था. हालांकि साल 2018 के चुनावों में महाथिर मोहम्मद की जीत हुई जो अपनी क्रूरता और सऊदी विरोधी प्रवृतियों के लिए मशहूर थे.

कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के शासन के दौरान पाकिस्तान के साथ भी इसी तरह की घेरेबंदी हो रही थी, जिन्होंने तुर्की और मलेशिया के साथ इस्लामोफ़ोबिया पर एक नया चैनल शुरू करने का फ़ैसला किया था – एक ऐसा प्रयास जो कभी भी अमल में नहीं आया. पाकिस्तान, जो लंबे समय से सऊदी अरब का एक मज़बूत सैन्य और आर्थिक सहयोगी रहा है, रियाद की भारत के साथ बढ़ती नजदीकियों से परेशान था, जो उसका मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. क्योंकि वक़्त बदलने के साथ अब संयुक्त अरब अमीरात के साथ-साथ भारत खाड़ी देशों के लिए एक मज़बूत भागीदार बन कर उभर रहा है. इस गठजोड़ के साथ ही कश्मीर विवाद पर पाकिस्तान के लिए सऊदी-प्रभुत्व वाले इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) से समर्थन की उम्मीदें भी कम होने लगीं. हालांकि सऊदी अरब द्वारा कड़ी आलोचना किए जाने के बाद कुआलालंपुर शिखर सम्मेलन में पाकिस्तान की मौज़ूदगी रोक दी गई थी लेकिन इस समूह में शामिल होने की उसकी इच्छा ने सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान की नाराज़गी को जगज़ाहिर कर दिया.

किस्मत और प्रवृत्तियों को पलटना

फिर भी दो साल बाद, सऊदी अरब को एक बार फिर से सम्मान दिए जाने के साथ ही एक बार फिर इस्लामिक दुनिया के ध्रुवों पर बर्फ़ पिघलने लगे हैं. साल 2020 में महाथिर के बाहर निकलने और मलेशिया में एक अलग सरकार बनने के साथ ही सऊदी अरब की सार्वजनिक आलोचना में कमी आई है. इसके अलावा इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री विडोडो ने हाल ही में अपने मूल निवेशक, सॉफ्टबैंक समूह की वापसी के बाद बोर्नियो द्वीप में अपनी नई राजधानी के लिए निवेशकों के साथ बातचीत की.

विचार करने योग्य एक अन्य पहलू यह भी है कि सऊदी अरब रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद कोरोना महामारी के दौरान हुए आर्थिक नुक़सान की भरपाई करने में सक्षम था, जिसने तेल की क़ीमत को 110 डॉलर प्रति बैरल के उच्च स्तर पर फिर से ला दिया है.

तुर्की की सऊदी अरब की यात्रा भी तुर्की में कठिन घरेलू हालात के मुक़ाबले सऊदी अरब की बढ़ती ताक़त की ओर इशारा करती है. हालांकि सऊदी अरब जाने का पाकिस्तानी पीएम शरीफ़ का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक ध्रुवीकरण से परेशान पाकिस्तान को स्थिर करने के लिए और अधिक धन हासिल करना भी था. सऊदी अरब ने भी 2021 की शुरुआत में कतर पर से नाकेबंदी हटा ली थी और अब यमन में दोनों देशों द्वारा समर्थित समूहों के बीच अधूरे संघर्ष विराम के बाद इन दोनों देशों की शीत युद्ध को कम करने के लिए ईरान के साथ बातचीत भी हो रही है.

पूरे विश्व में सारे मुस्लिम देशों की ऐसी आर्थिक हालत पैदा होने के पीछे एक बड़ा कारण है कोरोना महामारी.तुर्की में पर्यटन में भारी कमी और एर्दोगन की ख़राब आर्थिक नीतियों ने महंगाई को तेज़ी से बढ़ाया जिससे हर चीज़ महंगी हो गई. पर्यटन में कमी ने दक्षिण पूर्व एशिया के दो देशों मलेशिया और इंडोनेशिया को भी बुरी तरह प्रभावित किया जिनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा पर्यटन पर टिका है. यहां तक कि महामारी के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं की बुरी हालत ने इन दोनों देशों की कमर तोड़ दी और पूरे देश में आर्थिक संकट पैदा कर दिया. पाकिस्ताम में भी ठीक ऐसी ही स्थिति हुई जिसने आख़िरकार इमरान खान के पतन की गति को और बढ़ा दिया.

विचार करने योग्य एक अन्य पहलू यह भी है कि सऊदी अरब रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद कोरोना महामारी के दौरान हुए आर्थिक नुक़सान की भरपाई करने में सक्षम था, जिसने तेल की क़ीमत को 110 डॉलर प्रति बैरल के उच्च स्तर पर फिर से ला दिया है. इससे अर्जित राजस्व (पिछले वर्षों से दोगुने से अधिक) ने सऊदी को अरब को तेल की कम क़ीमतों के साथ-साथ पूरे मध्य पूर्व और अफ्रीका में युद्ध में होने वाले ख़र्च को लेकर नई चुनौती दी है. इसी वज़ह ने अब बाक़ी मुस्लिम देशों के लिए भी और अधिक चुनौतियां पैदा कर दी हैं, जिन्हें तेल के लिए अधिक धन का भुगतान करना पड़ा था और गेहूं, मक्का, और सूरजमुखी के तेल जैसे मुख्य आयात के वस्तुओं के नुक़सान को उठाना पड़ा. इसके साथ ही इन्हीं कारणों ने इस्लामिक दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में सऊदी अरब को आगे बढ़ने का मौक़ा दिया है.

अल्पकालिक लाभ

कोरोना महामारी के चलते घरेलू कलह, आर्थिक संकट और कुदरती भू-राजनीतिक प्रवृत्तियों में ब़ढोतरी के चलते इस्लामिक देशों में सऊदी अरब के धार्मिक नेतृत्व के दावेदारों की नाकामी साफ देखी गई है. चूंकि विभिन्न देश खोए हुए संबंधों और आर्थिक समर्थन को फिर से प्राप्त करने के लिए रियाद की दौड़ लगाते हैं, ऐसे में यह कहना सुरक्षित होगा कि फिलहाल सऊदी अरब को छोड़कर कोई देश वैकल्पिक इस्लामी शक्ति के केंद्र के तौर पर नहीं उभरेगा. कतर संभवतः सऊदी हितों के बाहर इस्लामी समूहों का समर्थन करना जारी रखेगा और यूएई अपने सूफ़ी-प्रभुत्व वाले शांति मंचों के साथ बढ़ता जाएगा लेकिन कोई भी कम समय में इस्लामिक वर्चस्व के रूप में सऊदी अरब की स्थिति को खुले तौर पर चुनौती देने में सक्षम नहीं होगा.

कतर संभवतः सऊदी हितों के बाहर इस्लामी समूहों का समर्थन करना जारी रखेगा और यूएई अपने सूफ़ी-प्रभुत्व वाले शांति मंचों के साथ बढ़ता जाएगा लेकिन कोई भी कम समय में इस्लामिक वर्चस्व के रूप में सऊदी अरब की स्थिति को खुले तौर पर चुनौती देने में सक्षम नहीं होगा.

अभी के लिए सऊदी अधिकारियों को इस्लामिक देशों की मौज़ूदा स्थिति और दूसरे मुस्लिम राष्ट्रों को आर्थिक मदद देने में उदार रवैया अपनाने की वज़ह से राहत ही मिलने की उम्मीद है. हालांकि ऐसा केवल कुछ वर्षों की बात हो सकती है और दूसरे देशों द्वारा इस्लामिक दुनिया के भीतर एक और ध्रुव बनाने की कोशिश के चलते वैश्विक व्यवस्थाओं में नए बदलाव भी हो सकते हैं. तब तक रियाद आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता के रास्ते पर और आगे बढ़ चुका होगा क्योंकि उसे लेकर ज़्यादा दांव नहीं लगा होगा.

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