Author : Sushant Sareen

Published on Nov 03, 2020 Updated 0 Hours ago

ये मौक़ा अच्छा है. लापरवाह हुकूमत और आर्थिक कुप्रबंधन की वजह से लोगों में असंतोष है. विपक्षी पार्टियों के पास सरकार को गिराने और मौजूदा सिस्टम को चुनौती देने की वजह है. विपक्ष के लिए मार्च तक का वक़्त है जब सीनेट के चुनाव होंगे जिससे इमरान ख़ान को पहले से तोड़े-मरोड़े गए पाकिस्तान के संविधान को पूरी तरह बिगाड़ने का मौक़ा मिलेगा.

पाकिस्तान: इमरान ख़ान की मिलिट्री बनाम मियां नवाज़ शरीफ़ और मौलाना फ़ज़लुर्रहमान

पाकिस्तान में सियासी जंग की लकीर खिंच गई है. इसमें एक तरफ़ क़रीब-क़रीब पूरा विपक्ष है जिसमें नवाज़ शरीफ़ अपनी पार्टी मुस्लिम लीग (PMLN) और मौलाना फ़ज़लुर्रहमान अपनी जमीयत उलेमा इस्लाम (JUIF) के साथ सबसे आगे हैं. इस समूह में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) भी शामिल है. दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की सेना है जिसने ‘सेलेक्टेड’ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (PTI) को आगे कर रखा है. इसमें इमरान ख़ान को समर्थन देने वाली पार्टियां भी हैं जिनको एकजुट करने से मौजूदा सरकार को नेशनल असेंबली में मामूली बहुमत हासिल है.

कागज़ों में तो विरोधी पक्ष समान रूप से ताक़तवर दिखता है. लेकिन पाकिस्तान की सियासी हक़ीक़त के हिसाब से सेना और उसकी चापलूस सरकार का पलड़ा भारी है. इसलिए सवाल है कि क्या दोनों पक्ष जंग में कूदेंगे या विपक्षी समूह जंग शुरू होने से पहले ही टूट जाएगा और अपने नेताओं को झटका देगा? और अगर वास्तव में मियां, मौलाना और अलग-अलग पार्टियों का विपक्षी गठबंधन मिलिट्री और उसके चापलूसों से मुक़ाबला करता है तो किसकी जीत होगी? इस बात की क्या संभावना है कि मियां, मौलाना और अलग-अलग पार्टियों का गठबंधन दूसरे पक्ष को अमन के लिए मजबूर करेगा? क्या ये गतिरोध बनेगा (जिससे विपक्ष को फ़ायदा हो सकता है)? या विपक्ष पस्त हो जाएगा और पाकिस्तान में एक पार्टी की हुकूमत रह जाएगी जिसमें मिलिट्री का ज़ोर चलेगा, दिखाने के लिए PTI की लोकतांत्रिक सरकार रहेगी जो हर काम मिलिट्री के कहने पर करेगी?

पाकिस्तान में छिड़ने वाले इस राजनीतिक युद्ध के स्वोट विश्लेषण से पता चल सकता है कि हालात कैसे बन सकते हैं.

विपक्ष को मज़बूती मिलती है लोगों के समर्थन से. नवाज़ शरीफ़ अभी भी पंजाब के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. पंजाब वो प्रांत है जो पूरे पाकिस्तान पर काबू रखता है. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के हज़ारा इलाक़े में भी उन्हें समर्थन हासिल है. सबसे ख़राब वक़्त में भी नवाज़ शरीफ़ का समर्थन बरकरार रहा है. उनकी करिश्माई बेटी मरियम को भी काफ़ी समर्थन हासिल है और वो इतनी भीड़ इकट्ठा कर रही हैं जितना पाकिस्तान के कम ही नेता कर पाएंगे. लेकिन PMLN सड़कों पर आंदोलन नहीं कर पाती. PMLN रैलियों और मतदान केंद्रों पर भीड़ जुटा सकती है लेकिन उसके समर्थक सड़कों पर प्रदर्शन नहीं कर पाते. इस मामले में मौलाना फ़ज़लुर रहमान मज़बूत हैं.

नवाज़ शरीफ़ अभी भी पंजाब के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. पंजाब वो प्रांत है जो पूरे पाकिस्तान पर काबू रखता है. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के हज़ारा इलाक़े में भी उन्हें समर्थन हासिल है. सबसे ख़राब वक़्त में भी नवाज़ शरीफ़ का समर्थन बरकरार रहा है.

चालाक और होशियार मौलाना का असर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के पश्तून इलाक़ों और बलूचिस्तान में है. इसके अलावा पाकिस्तान में मदरसों के सबसे बड़े नेटवर्क पर उनका नियंत्रण है. वो नवाज़ शरीफ़ की तरह वोट इकट्ठा नहीं कर सकते लेकिन वोट जुटाने के मामले में उनकी जो कमज़ोरी है उसकी भरपाई वो अपने समर्पित कैडर और समर्थकों के ज़रिए सड़कों पर आंदोलन करके कर लेते हैं. एक साथ मियां और मौलाना न सिर्फ़ पंजाबी और पश्तून सियासत के मेल की नुमाइंदगी करते हैं बल्कि मज़बूत बाज़ार और धर्मगुरु की जोड़ी की भी. इसमें अगर छोटी सियासी पार्टियों और आंदोलनों जैसे पश्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट (PTM), बलोच राष्ट्रवादियों, पश्तून राष्ट्रवादियों जैसे अवामी नेशनल पार्टी, पश्तूनख़्वा मिल्ली अवामी पार्टी और अब काफ़ी हद तक सिंध के ग्रामीण इलाक़ों में सिमट चुकी PPP को जोड़ दिया जाए तो विपक्षी गठबंधन को पूरे पाकिस्तान में समर्थन हासिल है.

समर्थन के अलावा उनके पास मिलिट्री और उसके चापलूसों के ख़िलाफ़ एक वजह, यहां तक कि शिकायत भी है. इससे विपक्ष को मज़बूती मिलती है. आसान भाषा में कहें तो मिलिट्री और उसके चापलूसों ने विपक्षी पार्टियों को एकजुट कर दिया है और उनके लिए करो या मरो के हालात बना दिए हैं. मौलाना फ़ज़लुर रहमान पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के व्यावहारिक राजनेताओं में से एक हैं. पिछले 25 वर्षों में मौलाना कभी भी मिलिट्री के आमने-सामने नहीं हुए हैं. यहां तक कि 9/11 के बाद अमेरिका के ख़िलाफ़ और तालिबान के समर्थन में उनके जोशीले भाषण भी परवेज़ मुशर्रफ़ के तत्कालीन सैन्य शासन के साथ सहमति का हिस्सा थे. मुशर्रफ़ का साथ देने से उनको फ़ायदा हुआ लेकिन लोगों के सामने दिखाते रहे कि वो उनके ख़िलाफ़ हैं. पाकिस्तान में जितनी अच्छी सत्ता की समझ उनको है, उतनी कम ही लोगों को है और यही वजह है कि वो हमेशा मिलिट्री के साथ मेल-मिलाप के पक्ष में रहे. लेकिन ये अब तक था.

अपने धुर विरोधी इमरान ख़ान को मिलिट्री का समर्थन मौलाना को मंज़ूर नहीं है. वो इमरान ख़ान को देखना तक पसंद नहीं करते हैं और इमरान भी मौलाना को देखना पसंद नहीं करते. नवाज़ शरीफ़ भी अक्सर मिलिट्री के साथ झगड़े के बावजूद हमेशा सत्ता समर्थक नेता रहे हैं. लेकिन अब लगता है कि मियां और मौलाना- दोनों ने मौजूदा मिलिट्री लीडरशिप के साथ रिश्ते तोड़ लिए हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि मिलिट्री के चापलूसों से छुटकारा पाने के लिए मिलिट्री पर हमले के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं है. पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से सेना के ज़्यादातर जवान और अफ़सर आते हैं और इन दोनों प्रांतों में मियां और मौलाना का मज़बूत आधार है. ये तथ्य सेना को परेशान करने वाला है.

मौलाना फ़ज़लुर रहमान पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के व्यावहारिक राजनेताओं में से एक हैं. पिछले 25 वर्षों में मौलाना कभी भी मिलिट्री के आमने-सामने नहीं हुए हैं. यहां तक कि 9/11 के बाद अमेरिका के ख़िलाफ़ और तालिबान के समर्थन में उनके जोशीले भाषण भी परवेज़ मुशर्रफ़ के तत्कालीन सैन्य शासन के साथ सहमति का हिस्सा थे. 

विपक्षी गठबंधन में कई कमज़ोरियां भी हैं. पहली कमज़ोरी ये कि विपक्षी गठबंधन ‘सेलेक्टेड’ हुकूमत को बेदखल करने के मक़सद में एकजुट है और एक हद तक वो राजनीति में सेना की घुसपैठ को ख़त्म करना चाहता है. लेकिन एक समान मक़सद को छोड़ दें तो बाक़ी इन पार्टियों में गंभीर राजनीतिक और वैचारिक मतभेद हैं. इनके बीच भरोसे की कमी का संकट भी है. मिलिट्री पहले ही विपक्षी गठबंधन को खोखला करने की कोशिश कर चुकी है. इसके लिए उसने उन बातों को लीक किया कि विपक्ष के नेताओं ने राहत पाने के लिए उसके साथ चोरी-छिपे मुलाक़ात की. लेकिन मिलिट्री की ये चाल बेकार रही. नवाज़ शरीफ़ ने मिलिट्री के साथ किसी भी स्तर पर संपर्क से इनकार कर दिया और बाक़ी विपक्ष गिलगित-बाल्टिस्तान को मिलाने के मिलिट्री के तरीक़े का विरोध कर रहा है. ये भी सवाल है कि PPP मियां और मौलाना का किस हद तक समर्थन करती है. सभी विपक्षी पार्टियों में सबसे ज़्यादा खोने के लिए PPP के पास है क्योंकि सिंध में उसकी सरकार है. लेकिन ‘सेलेक्टेड’ हुकूमत ने PPP लीडरशिप को किसी तरह की ढील नहीं दी है, ऐसे में विपक्षी पार्टियों के साथ गठबंधन करने में उसकी भलाई है. आसिफ़ ज़रदारी ने इतने वर्षों में एक चीज़ साबित की है. वो ऐसा कुछ कर सकते हैं जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा. मिसाल के तौर पर PMLQ के साथ उनका गठबंधन जिसे उन्होंने एक वक़्त क़ातिल लीग कहा था और बेनज़ीर की हत्या का कसूरवार ठहराया था. निष्कर्ष ये है कि इस बात की पूरी संभावना है कि विपक्ष की कुछ पार्टियां मिलिट्री के साथ समझौता कर लें और अंदर से इस आंदोलन को नुक़सान पहुंचाएं.

निर्वासन के तहत लंदन में मौजूद नवाज़ शरीफ़ तो आग उगल सकते हैं लेकिन ‘सत्ता’ की कठोर कार्रवाई के आगे वो ज़मीन पर अपने समर्थकों को मुक़ाबले के लिए कह पाएंगे, ये देखना अभी बाक़ी है. अगर वो ऐसा नहीं कर पाते हैं और मौलाना के समर्थक दब जाते हैं तो आंदोलन शुरू होने से पहले ही नाकाम हो जाएगा.

दूसरी कमज़ोरी है कि विपक्षी गठबंधन में लीडरशिप की दूसरी या तीसरी लाइन नहीं है जो टॉप लीडरशिप के क़ैद होने की हालत में प्रदर्शन की रफ़्तार को बरकरार रख सके और रैलियों के दौरान और सड़कों पर भीड़ जुटा सके. आरोपों में घिरी ‘सत्ता’ के ख़िलाफ़ किसी भी आंदोलन के कामयाब होने के लिए ज़रूरी है कि लीडरशिप का दूसरा या तीसरा स्तर ज़मीन पर रणनीति बना सके और आंदोलन को संभाल सके. ऐसा इस प्रदर्शन में हो सकता है कि नहीं ये बड़ा सवाल है. इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि विपक्ष की पार्टियों में दूसरे या तीसरे स्तर के कुछ नेता सेना के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं. वो मिलिट्री का सामना करने के बदले कुछ पैसे ले लेंगे. निर्वासन के तहत लंदन में मौजूद नवाज़ शरीफ़ तो आग उगल सकते हैं लेकिन ‘सत्ता’ की कठोर कार्रवाई के आगे वो ज़मीन पर अपने समर्थकों को मुक़ाबले के लिए कह पाएंगे, ये देखना अभी बाक़ी है. अगर वो ऐसा नहीं कर पाते हैं और मौलाना के समर्थक दब जाते हैं तो आंदोलन शुरू होने से पहले ही नाकाम हो जाएगा. PMLN में पहले से ही दलबलदल के संकेत हैं. मिलिट्री और हुकूमत विपक्ष की पार्टियों में तोड़-फोड़ के लिए हर कोशिश करेगी. क्या इससे आंदोलन ठप होगा, ये देखना होगा लेकिन ये निश्चित तौर पर विपक्षी पार्टियों का पर्दाफ़ाश कर देगा.

तीसरी कमज़ोरी मीडिया है क्योंकि इस राजनीतिक जंग में मीडिया भी एक मज़बूत पहलू है. लेकिन जनरल बाजवा के पाकिस्तान में मीडिया का मुंह पूरी तरह बंद कर दिया गया है. पहले से ही निर्देश दे दिए गए हैं कि ‘भगोड़े’ (नवाज़ शरीफ़) के भाषण को नहीं दिखाया जाए. मौलाना के भाषण और इंटरव्यू को अक्सर सेंसर किया गया है. सोशल मीडिया इस अंतर को भर सकता है लेकिन मुख्यधारा के मीडिया की जगह लेना आसान नहीं है. आख़िर में, ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान में किसी मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ कोई आंदोलन सत्ता के एक हिस्से के समर्थन के बिना कामयाब नहीं रहा है. सत्ता का एक हिस्सा अगर साथ आता है तो वो मीडिया और कारोबारियों का समर्थन जुटाता है. इस बार ऐसे समर्थन का कोई सबूत नहीं है. अगर इसके बावजूद मियां, मौलाना और विपक्षी पार्टियों का गठबंधन इमरान ख़ान को सत्ता से हटाने में कामयाब रहता है तो नया इतिहास बनेगा.

ये मौक़ा अच्छा है. लापरवाह हुकूमत और आर्थिक कुप्रबंधन की वजह से लोगों में असंतोष है. विपक्षी पार्टियों के पास सरकार को गिराने और मौजूदा सिस्टम को चुनौती देने की वजह है. विपक्ष के लिए मार्च तक का वक़्त है जब सीनेट के चुनाव होंगे जिससे इमरान ख़ान को पहले से तोड़े-मरोड़े गए पाकिस्तान के संविधान को पूरी तरह बिगाड़ने का मौक़ा मिलेगा. इस बात की भी अपुष्ट रिपोर्ट है कि मिलिट्री में चर्चा है कि मौजूदा हुकूमत फ़ायदे के बदले नुक़सान कर रही है. ऐसे में हुकूमत को बदलने के लिए हालात ठीक हैं बशर्ते विपक्ष ख़ुद को तैयार कर ले जो कि आसान नहीं है.

ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान में किसी मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ कोई आंदोलन सत्ता के एक हिस्से के समर्थन के बिना कामयाब नहीं रहा है. सत्ता का एक हिस्सा अगर साथ आता है तो वो मीडिया और कारोबारियों का समर्थन जुटाता है. इस बार ऐसे समर्थन का कोई सबूत नहीं है. 

विपक्ष को प्रमुख ख़तरा कुछ हद तक अंदरुनी (जो ऊपर बताया गया है) और कुछ बाहरी है. पहला ये कि मिलिट्री के लिए इमरान ख़ान से छुटकारे की कोई वजह नहीं है. इसकी बड़ी वजह ये है कि कोई साफ़ या भरोसेमंद विकल्प मौजूद नहीं है. साथ ही, जब तक विपक्ष मिलिट्री को इस बात के लिए मजबूर नहीं करे कि वो इमरान ख़ान से समर्थन खींचे, तब तक मिलिट्री ऐसा क्यों करेगी? दूसरा, अगर हालात बिगड़ते हैं तो सेना लोकतंत्र के मुखौटे को हटाकर सत्ता सीधे अपने हाथ में ले लेगी. इसका मतलब होगा मिलिट्री शासन का क़रीब एक दशक और जो इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ बर्बादी वाली जीत होगी. तीसरा, अफ़ग़ानिस्तान में जब खेल ख़त्म होने वाला है तो क्या विपक्ष इस बात के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटा पाएगा कि उसके प्रदर्शन की आड़ में सेना सत्ता में नहीं आए? और आख़िर में, अगर मिलिट्री भारत के ख़िलाफ़ कोई सीमित कार्रवाई शुरू करती है- लाइन ऑफ कंट्रोल पर हालात तनावपूर्ण हैं और अगर भारत-चीन मोर्चे पर हालात बिगड़ते हैं तो पाकिस्तान के भी उसमें कूदने की संभावना है (पाकिस्तान कुछ ऐसा भी कर सकता है जो भारत के पश्चिमी और पूर्वी मोर्चे पर हालात बिगाड़े)- तो मजबूर होकर विपक्ष को सेना के साथ खड़ा होना पड़ेगा और अपना आंदोलन ख़त्म करना होगा. अगले कुछ हफ़्ते ये तय करने में महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं कि विपक्ष का आंदोलन मिलिट्री और उसके ‘सेलेक्टेड’ प्रधानमंत्री को गंभीर चुनौती देगा या फिर सारी बातें बस शेखी बघारने जैसी हैं.

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