Published on May 22, 2020 Updated 0 Hours ago

ये बात आपको हैरान कर सकती है कि जिस वक़्त भारत कोबाल्ट-60 से सेसियम-137 की तरफ़ बढ़ रहा है, उसी वक़्त दुनिया के दूसरे देश सेसियम-137 से दूसरी सुरक्षित सामग्री की तरफ़ बढ़ रहे हैं.

परमाणु सुरक्षा: भारत को सेसियम-137 पर भरोसा क्यों

ज़्यादातर अंतर्राष्ट्रीय परमाणु प्रतिष्ठान सेसियम-137 को छोड़ चुके हैं क्योंकि इस रेडियोलॉजिकल स्रोत से कई ख़तरे जुड़े हैं. ख़ास तौर पर इसकी चोरी का डर और आतंकियों के हाथों इसका इस्तेमाल. लेकिन भारत के परमाणु प्रतिष्ठानों ने इस रुझान के ख़िलाफ़ जाकर सेसियम-137 पर निर्भरता बढ़ाई है. लेकिन भारत की पसंद हैरान करने वाली नहीं है जैसा कि पहली नज़र में लगता है- इसके पीछे बहुत अच्छी वजहें हैं.

सबसे पहले कुछ संदर्भ जान लीजिए. वैश्विक स्तर पर कोशिश हो रही है कि अत्यधिक रेडियोलॉजिकल स्रोत की एक वैकल्पिक तकनीक तलाशी जाए ताकि रेडियोलॉजिकल सामग्री की सुरक्षा मज़बूत की जा सके. परमाणु और रेडियोलॉजिकल सामग्री आतंकियों या आपराधिक गैंग के हाथों में पड़ना एक गंभीर चिंता बन रही है ख़ास तौर पर अमेरिका में 9/11 आतंकी हमले के बाद. 2005 के अमेरिकी ऊर्जा नीति अधिनियम के तहत एक इंटरएजेंसी टास्क फ़ोर्स ऑन रेडिएशन सोर्स प्रोटेक्शन एंड सिक्योरिटी को इस काम के लिए लगाया गया. टास्क फ़ोर्स ने 4 रिपोर्ट पेश की है जिसमें आतंकियों से होने वाले ख़तरे के स्तर और प्रकार को लेकर राष्ट्रपति और कांग्रेस को मूल्यांकन और सिफ़ारिश की गई है. टास्क फ़ोर्स ने कई तरह के ख़तरों पर गौर किया है जिनमें चोरी, तोड़-फोड़ और RDD या RED में रेडियोएक्टिव स्रोत का इस्तेमाल शामिल है. टास्क फ़ोर्स की आख़िरी रिपोर्ट अक्टूबर 2018 में आई. टास्क फ़ोर्स की 2014 और 2018 की रिपोर्ट में बताया गया है कि “कुछ एप्लिकेशन के लिए वैकल्पिक तकनीक की व्यावहारिकता में काफ़ी हद तक सुधार हुआ है लेकिन अब भी ज़्यादातर एप्लिकेशन को व्यापक स्तर पर लागू करने में रुकावट है.“ अमेरिका के होमलैंड सिक्युरिटी विभाग ने सितंबर 2019 की एक रिपोर्ट में कहा कि “सीलबंद स्रोत की सुरक्षा और रेडियोएक्टिव सामग्री को एक बड़े इलाक़े में बिखेरने वाले रेडियोलॉजिकल डिस्पर्सन डिवाइस (RDD) में उसका इस्तेमाल या रेडिएशन एक्सपोज़र डिवाइस (RED) जिसे सार्वजनिक जगह पर छुपाकर रखने से लोगों को रेडिएशन का ख़तरा बढ़ जाता है, को लेकर चिंता बढ़ गई है.“ चिंता का ये मतलब है कि अमेरिका और दुनिया के भीतर रेडिएशन स्रोत के विकल्प का तलाश करने की सिलसिलेवार कोशिश की गई है. इस चुनौती का सामना भारत समेत दुनिया के कई देश कर रहे हैं. भारत के मामले में बंधन ये भी है कि आर्थिक तौर पर व्यवहारिक और वैकल्पिक तकनीक की उपलब्धता भी होनी चाहिए.

भारत ने आम तौर पर रेडियोएक्टिव स्रोत का संचालन सुरक्षित ढंग से सुनिश्चित किया है लेकिन 2010 में एक ज़्यादा जोखिम वाले रेडियोलॉजिकल स्रोत की वजह से हादसा हो गया

सभी रेडियोलॉजिकल स्रोत असर और जोखिम के मामले में एक जैसे नहीं होते हैं. ज़्यादा जोखिम वाले स्रोत में कोबाल्ट-60, सेसियम-137, इरिडियम-192, स्ट्रॉन्टियम-90, अमेरिकियम-241, कैलिफोर्नियम-258, प्लूटोनियम-238 और रेडियम-226 शामिल हैं. इन ज़्यादा जोखिम वाले स्रोतों में भी रेडिएशन का असर एक जैसा नहीं है. इसमें कई फैक्टर शामिल हैं जैसे कि किस तरह कोई रेडिएशन का शिकार बना है, कैसा रेडिएशन फैला, यह अल्फा, बीटा या गामा है. भारत में परमाणु नियामक, एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड (AERB)  देश के भीतर इस्तेमाल होने वाले सभी रेडिएशन स्रोतों के पूरे स्टॉक के हिसाब-किताब का ज़िम्मेदार है. भारत में सेसियम-137, कोबाल्ट-60, ट्रिटियम (एच-3), सोडियम-24, ब्रोमीन-82, एंथेनम-140, आयोडिन-131, मोलीबडेनम-99, स्कैनडियम-46 और क्रीप्टन-79 ज़्यादा इस्तेमाल होने वाले स्रोत हैं.

भारत ने आम तौर पर रेडियोएक्टिव स्रोत का संचालन सुरक्षित ढंग से सुनिश्चित किया है लेकिन 2010 में एक ज़्यादा जोखिम वाले रेडियोलॉजिकल स्रोत की वजह से हादसा हो गया. 2010 की शुरुआत में दिल्ली यूनिवर्सिटी की तरफ़ से कोबाल्ट-60 के इस्तेमाल वाले गामा यूनिट की बिक्री में अनुशंसित प्रक्रिया का पालन नहीं करने की वजह से गामा यूनिट पश्चिमी दिल्ली के एक स्क्रैप डीलर के हाथ में पड़ गया. इस हादसे में एक व्यक्ति की मौत हो गई और 7 लोग रेडिएशन की वजह से जख़्मी हो गए. लेखिका के साथ इंटरव्यू के दौरान AERB ने कहा कि मायापुरी हादसे को देखते हुए उन्होंने नियम-क़ानूनों को और सख़्त बना दिया है. कहा जाता है कि रेडियोलॉजिकल स्रोत के संचालन के दौरान प्रक्रिया को कठोर बनाने के लिए AERB ने उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थान यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (UGC) के साथ मिलकर भी काम किया है. मायापुरी हादसे के बाद AERB ने कई जागरुकता अभियान का संचालन किया है ताकि स्क्रैप डीलर और दूसरे लोगों को रेडियोलॉजिकल सुरक्षा के बारे में मोटी-मोटी बातें बताई जा सके.

2015 में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC) के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि सेसियम-137 को एटॉमिक पावर प्लांट के न्यूक्लियर वेस्ट से हासिल किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल मेडिकल और औद्योगिक सेक्टर में मांग की पूर्ति में हो सकता है

मायापुरी हादसे के बाद भारत के भीतर कोबाल्ट-60 के इस्तेमाल को बंद करने और दूसरे विकल्पों को ढूंढ़ने पर मिलकर कोशिश की गई. सेसियम-137 ऐसा स्रोत है जिस पर भारत विचार कर रहा है. सेसियम-137 का इस्तेमाल मेडिकल सेक्टर के साथ-साथ तेल और गैस सेक्टर में भी किया गया है. भारत में सेसियम-137 थर्मल रिएक्टर में इस्तेमाल ईंधन को फिर से प्रोसेस करने के बाद बचे उच्च स्तरीय कूड़े से हासिल किया जाता है. दुनिया के दूसरे देश जहां सेसियम-137 की जगह दूसरे स्रोत और तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं भारत कोबाल्ट-60 की जगह सेसियम-137 को इस्तेमाल में ला रहा है क्योंकि भारत को लगता है कि ये एक अच्छा विकल्प है. 2015 में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (BARC) के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि सेसियम-137 को एटॉमिक पावर प्लांट के न्यूक्लियर वेस्ट से हासिल किया जा सकता है और इसका इस्तेमाल मेडिकल और औद्योगिक सेक्टर में मांग की पूर्ति में हो सकता है. इस निश्चय के बाद एटॉमिक एनर्जी कमीशन के अध्यक्ष डॉ. शेखर बसु ने कहा, “व्यावसायिक कार्य क्षेत्र में पहली बार दुनिया में इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है.“ BARC के इंजीनियर सी. पी. कौशिक ने भी इस विचार का ये कहते हुए समर्थन किया, “सेसियम पर आधारित इरेडियेटर कम ख़र्चीला है और इसके संचालन की कम ज़रूरत होती है. इसलिए ये सुरक्षित है.“

भारतीय परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठानों ने उचित विकल्प के तौर पर सेसियम-137 को इसलिए तरजीह दी है क्योंकि इसकी आधी-ज़िंदगी (30 साल) कोबाल्ट-60 (5.27 साल) के मुक़ाबले ज़्यादा है. कम आधी-ज़िंदगी का आम तौर पर मतलब होता है परिवहन, लोड और अनलोड करना, स्रोत का कई मौक़ों पर संचालन यानी कुल मिलाकर सुरक्षा जोखिम को बढ़ाना. इसके बावजूद सेसियम-137 के ख़तरों को मानते हुए, ख़ास तौर पर इसके परंपरागत पाउडर रूप में, भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान ने सेसियम-137 पेंसिल बनाने के लिए अलग इंतज़ाम किया है. इसका इस्तेमाल खून के इलाज में किया जाता है. भारतीय परमाणु वैज्ञानिक सेसियम-137 के ख़तरे को लेकर अपने वैश्विक समकक्षों से सहमत हैं क्योंकि पाउडर के रूप में ये आसानी से पानी में घुल जाता है और पाउडर आसानी से फैल सकता है. इससे हादसे की हालत में ये बाहर निकल सकता है. लेकिन उनकी दलील है कि उन्होंने पेंसिल के रूप में इसके ख़तरे को काफ़ी हद तक कम कर दिया है.

ये बात आपको हैरान कर सकती है कि जिस वक़्त भारत कोबाल्ट-60 से सेसियम-137 की तरफ़ बढ़ रहा है, उसी वक़्त दुनिया के दूसरे देश सेसियम-137 से दूसरी सुरक्षित सामग्री की तरफ़ बढ़ रहे हैं. (वास्तव में लेखिका से बार-बार कई परमाणु सुरक्षा मंचों पर सेसियम-137 के इस्तेमाल के भारत के फ़ैसले को लेकर सवाल पूछे जा चुके हैं) इसलिए भारत को उम्मीद करनी चाहिए कि वैश्विक परमाणु समुदाय ख़तरों के बावजूद भारत के सेसियम-137 की हैरान करने वाली प्राथमिकता पर ध्यान देगा. भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान से भी अपना रुख़ दोहराने की उम्मीद की जा सकती है: कि पेंसिल रूप में सेसियम-137 के इस्तेमाल से कम जोखिम है. ये भी कि भारत अपना सेसियम-137 परमाणु कूड़े से हासिल कर रहा है तो इससे परमाणु सुरक्षा का ख़तरा कम हो रहा है. और अंत में ये भी कि सेसियम-137 की लंबी आधी-ज़िंदगी वास्तव में इसे सुरक्षित बनाती है.

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