Author : Hari Bansh Jha

Published on Oct 07, 2017 Updated 0 Hours ago

सन् 2008 में, नेपाल में 239 बरस पुरानी राजशाही व्यवस्था समाप्त होने तक चीन की तिब्बत के मसले को छोड़कर नेपाल के किसी भी मामले में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन उसके बाद, चीन ने इस देश में अपना प्रभाव इस हद तक बढ़ाना शुरू कर दिया कि अब वह भारत के लिए कठिनाई उत्पन्न कर रहा है।

डोकलाम संकट के संदर्भ में नेपाल-चीन संबंध

भारत और चीन के सैनिकों के बीच भूटान के डोकलाम क्षेत्र में 72 दिनों के गतिरोध के बाद, दोनों पक्ष अंतत: अपने सैनिक, तोपों और अन्य हथियारों को पीछे हटाते हुए पुरानी वाली स्थिति में लाने के लिए राजी हो गए। डोकलाम क्षेत्र में समस्या 16 जून को उस समय शुरू हुई थी, भूटान सरकार ने अपने क्षेत्र में चीनी घसपैठ का औपचारिक विरोध दर्ज कराया। भूटान के साथ 1949 की शांति एवं मैत्री संधि के कारण भारत उसकी सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है इसलिए भूटान के भूभाग में सड़क निर्माण में जुटे चीनी सैनिकों को रोकने के लिए तत्काल भारतीय सैनिक डोकलाम भेजे गए । इसके बाद भारतीय सैनिकों के सामने आ डटने की वजह से चीन के सैनिक आगे नहीं बढ़ सके।

हालांकि ऐसा नहीं लगता कि डोकलाम संकट पूरी तरह सुलझ चुका है। भारत और चीन दोनों के सैनिक डोकलाम क्षेत्र में हो रही घटनाओं पर सावधानी से नजर बनाए हुए हैं और आवश्यकता पड़ने पर मुकाबले के लिए तैयार हैं। भारतीय सैनिक उपयुक्त स्थान पर मौजूद हैं, ताकि चीनी सैनिक भविष्य में जम्फेरी रिज की तरफ सड़क बिछाकर यथास्थिति में एकपक्षीय रूप से बदलाव लाने का यदि फिर से कोई प्रयास करें, तो भारतीय सैनिकों आगे को भेजा जा सके, क्योंकि चीन के इस कदम का आशय भारत के सबसे असुरक्षित सिलीगुड़ी गलियारे को जोखिम में डालना होगा। [1]

भारत और चीन के सैनिकों के बीच गतिरोध से दोनों देशों के बीच ही तनाव की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई, बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों में भी इसके कारण तनाव हुआ। डोकलाम क्षेत्र मे हो रही घटनाओं से नेपाल सबसे ज्यादा चिंतित था, क्योंकि भूटान उसके पूर्वी क्षेत्र के बेहद करीब है। इसलिए डोकलाम क्षेत्र में भारत और चीन के सैनिकों के बीच युद्ध होने की स्थिति में नेपाल सीधे तौर पर प्रभावित होता।

नेपाल की सबसे बड़ी चिंता उस स्थिति को लेकर थी, जब उसे दोनों पड़ोसियों में से किसी एक पड़ोसी का पक्ष लेने के लिए बाध्य होना पड़ता। भारत और नेपाल के बीच 1950 की शांति और मैत्री संधि के अनुसार, दोनों सुरक्षा समझौते से बंधे हैं और इसलिए नेपाल, को भारत का साथ देने के लिए विवश होना पड़ता।

शांति और मैत्री संधि का अनुच्छेद II स्पष्ट करता है कि नेपाल और भारत की सरकारें अपने पड़ोसी के साथ किसी भी ऐसे टकराव की जानकारी एक-दूसरे को देंगी, जिसका प्रभाव उनके मैत्रीपूर्ण रिश्तों को पड़ने वाला हो। [2] तथा, संधि के साथ जिस पत्र का आदान-प्रदान किया गया, उसमें कहा गया कि नेपाल सरकार और भारत सरकार एक-दूसरे की सुरक्षा को किसी भी विदेशी आक्रमणकारी द्वारा मिलने वाली चुनौती को बर्दाश्त नहीं करेगी। उन्होंने एक-दूसरे से परामर्श लेने और ऐसी किसी भी परिस्थिति से निपटने का प्रभावी उपाय करने का भी संकल्प लिया। [3]


शांति और मैत्री संधि का अनुच्छेद II स्पष्ट करता है कि नेपाल और भारत की सरकारें अपने पड़ोसी के साथ किसी भी ऐसे टकराव की जानकारी एक-दूसरे को देंगी, जिसका प्रभाव उनके मैत्रीपूर्ण रिश्तों को पड़ने वाला हो।


लेकिन इस पत्र और 1950 की संधि की भावना के विपरीत, नेपाल ने डोकलाम गतिरोध के दौरान भारत का पक्ष लेने से परहेज किया। नेपाल ने यह पूर्णतया स्पष्ट कर दिया कि वह डोकलाम गतिरोध के संदर्भ में दोनों देशों के बीच उसी तरह तटस्थ बना रहेगा, जैसे वह उनके बीच हुए 1962 के युद्ध के दौरान तटस्थ बना रहा था।

इसके बावजूद, नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की 23 अगस्त की भारत यात्रा के दौरान, ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि भारत सरकार 1950 की शांति एवं मैत्री संधि के अनुच्छेद-2 के अनुसार उनके साथ डोकलाम गतिरोध के बारे में चर्चा करेगी। [4] कुछ हलकों में यह दावा भी किया गया कि भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस के लिए जरूरी इंतजाम कर रही थीं।

लेकिन नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नया शक्ति पार्टी के नेता बाबुराम भट्टाराई ने प्रधानमंत्री देउबा से अपनी भारत यात्रा के दौरान डोकलाम मामले पर किसी भी तरह की प्रतिबद्धता नहीं व्यक्त करने का अनुरोध किया। इसकी बजाए उन्होंने सुझाव दिया कि वे नेपाल, भारत और चीन के बीच विवादास्पद त्रि-जंक्शन लिपुलेख पर नेपाल का दावा पेश करे। [5] हाल ही में, चीन, नेपाली लोगों के बीच विवादास्पद कालापानी/लिपुलेख क्षेत्रों में भारतीय हमले का भय उत्पन्न करने की कोशिश करता आ रहा है। [6] इसके अतिरिक्त,नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली तो चाहते थे कि प्रधानमंत्री देउबा सार्क के अध्यक्ष होने के नाते क्षेत्र में भू-राजनीतिक और तनाव कम करने में सहायता करें।

जिस समय डोकलाम गतिरोध की वजह से भारत और चीन के बीच तनाव चरम था, उस समय भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अगस्त में बिम्सटेक की बैठक की पूर्व संध्या पर नेपाल का दौरा किया था। इसके फौरन बाद, चीन के उप प्रधानमंत्री ने भी नेपाल का दौरा किया था। समझा जाता है कि दोनों नेताओं ने नेपाल का समर्थन हासिल करने के लिए डोकलाम मामले पर चर्चा की।

भारत के कुछ मीडिया हलकों में यह खबर व्याप्त थी कि नेपाल और भारत ने देउबा की भारत यात्रा के दौरान डोकलाम मामले पर चर्चा की थी। लेकिन भारत के विदेश सचिव एस. जयशंकर ने दोनों पक्षों के बीच इस मामले पर किसी भी तरह की चर्चा होने से इंकार किया। [7]

1950 में जब से चीन ने तिब्बत के भीतर अतिक्रमण करना शुरू किया, तभी से नेपाल खुद को उत्तर की तरफ से असुरक्षित समझने लगा। भारत और नेपाल के बीच 1950 की शांति एवं मैत्री संधि, उत्तर की ओर से ऐसे किसी भी खतरे का मुकाबला करने के लिए की गई थी। लेकिन प्रधानमंत्री देउबा ने अपनी हाल की भारत यात्रा के दौरान नेपाल की सुरक्षा को उत्तर से किसी भी तरह का कोई खतरा होने से इंकार कर दिया।

1950 से पहले, नेपाल ने ही तिब्बत को सुरक्षा की गारंटी दी थी। 1856 की थापाथाली संधि के दौरान, नेपाल और तिब्बत ने इस बात पर सहमति प्रकट की थी किसी भी बाहरी ताकत के आक्रमण की स्थिति में नेपाल, तिब्बत की रक्षा करेगा। [8] ऐसी सहायता के बदले में, तिब्बत 1953 तक नेपाल का आभार प्रकट करता रहा। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि उत्तर में नेपाल का पड़ोसी चीन नहीं,  बल्कि तिब्बत था। 1950 में तिब्बत पर चीन के नियंत्रण के बाद ही नेपाल का वास्ता नए पड़ोसी से पड़ा।


1950 से पहले, नेपाल ने ही तिब्बत को सुरक्षा की गारंटी दी थी। 1856 की थापाथाली संधि के दौरान, नेपाल और तिब्बत ने इस बात पर सहमति प्रकट की थी किसी भी बाहरी ताकत के आक्रमण की स्थिति में नेपाल, तिब्बत की रक्षा करेगा।


सन् 2008 में, नेपाल में 239 बरस पुरानी राजशाही व्यवस्था समाप्त होने तक चीन की तिब्बत के मसले को छोड़कर नेपाल के किसी भी मामले में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन उसके बाद, चीन ने इस देश में अपना प्रभाव इस हद तक बढ़ाना शुरू कर दिया कि अब वह भारत के लिए कठिनाई उत्पन्न कर रहा है। आज, चीन, भारत के साथ होड़ कर रहा है और नेपाल में — चाहे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या और तो और सामरिक क्षेत्र ही क्यों न हो, वह सभी मोर्चों पर भारत की जगह लेने की कोशिश कर रहा है।

जब देउबा भारत की यात्रा पर थे और नेपाल का व्यापारिक समुदाय भारत से नेपाल में निवेश करने का अनुरोध कर रहा था,उसी समय चीन का एक उच्च स्तरीय शिष्टमंडल नेपाल के नेताओं के साथ इस बारे में चर्चा कर रहा था कि नेपाल में सिगात्से-केरुंग-काठमांडु रेलवे जैसी विशाल परियोजना और उसके पोखरा और लुम्बिनी तक, भारत-नेपाल सीमा के निकट तक विस्तार के लिए चीनी निवेश में किस तरह वृद्धि की जाए। उस चर्चा के दौरान, नेपाल ने चीन को पूर्वी-पश्चिमी रेलवे के निर्माण पर निवेश करने के लिए राजी कर लिया, जिसका सर्वेक्षण हाल ही पूरा हुआ है और जिसमें भारत निवेश करने इच्छुक है। इसके अलावा, नेपाल ने चीन से काठमांडु को नेपाल-चीन सीमा के समीप तातोपानी से जोड़ने वाले आर्निको राजमार्ग के अलावा पोखरा-बागलुंग राजमार्ग को अद्यतन बनाने के लिए निवेश करने का भी अनुरोध किया।

इसके अतिरिक्त, नेपाल में चीन के राजदूत यू होंग ने दावा किया कि मई में ओबीओआर पहल पर हस्ताक्षर के साथ ही नेपाल-चीन संबंध नई  ऊंचाइयों को छू रहे हैं। हाल ही में,चीन की ओबीओआर पहल के कार्यान्वयन और साथ ही बॉर्डर क्रासिंग से अन्य देशों के नागरिकों की आवाजाही को सुगम बनाने की दृष्टि से नेपाल-चीन सीमा पर रासुगाडई-केरूंग प्वाइंट को अद्यतन बनाकर एक अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर प्वाइंट बनाया गया है। ऐसी उम्मीदे लगाई जा रही हैं कि इससे व्यापार, पर्यटन और दोनों देशों के नागरिकों के बीच आपसी सम्बंधों को बढ़ावा मिलेगा। [9] इनमें से कुछ विकास कार्यों के साथ ही रासुगाडई-केरूंग प्वाइंट यदि दक्षिण एशिया का नहीं, तो चीन और नेपाल को जोड़ने के मुख्य प्रवेश मार्ग के तौर पर तो उभर ही सकता है। शुरूआत में, यह मार्ग 1 दिसम्बर, 2014 को नेपाली और चीनी नागरिकों को एक-दूसरे के देश में दाखिल होने में सहायता देने के लिए द्विपक्षीय बॉर्डर प्वाइंट के तौर पर खोला गया था।

ऐसा लगता है कि नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। 2016 में नेपाल के लगभग  5,160 छात्रों ने चीन की विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं में पढ़ाई की। इस साल उनकी संख्या में और वृद्धि हुई है। [10] इसके अलावा नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ाने की दृष्टि से वहां के 40,000 छात्रों को नेपाल में ही मंडारियन सिखाई जा रही है। [11]

हालांकि नेपाल ने डोकलाम क्षेत्र से हटने के भारत और चीन के प्रयासों का स्वागत किया है। नेपाल के पड़ोस में यह घटनाक्रम इस बात का संकेत देता है कि कोई भी देश, चाहे वह सैन्य दृष्टि से कितना ही ताकतवर क्यों न हो, वह अपने छोटे पड़ोसी देशों को धमका नहीं सकता। आज भूटान इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। इस आधुनिक युग में, किसी भी देश की वास्तविक ताकत उसका सैन्य बल नहीं, बल्कि उसका “कूटनीतिक कौशल” और उसके द्वारा किए जाने वाले “गठबंधन” हैं। [12] यदि ऐसा न होता, तो भूटान जैसा छोटा सा देश,डोकलाम क्षेत्र में चीन का सामना नहीं कर पाता। साथ ही, 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब भारत ने अपनी रक्षा और विदेशी अतिक्रमण से अपने सहयोगियों की हिफाजत करने की अपनी क्षमता साबित की है। दरअसल, डोकलाम संकट भारत के लिए परोक्ष वरदान साबित हुआ है, क्योंकि इससे दक्षिण एशिया, और तो और अंतर्राष्ट्रीय जगत में उसकी छवि बहुत बेहतर हुई है।


संदर्भ

[1] Pandit, Rajat, “Indian soldiers withdraw but hold vantage point, ready to step in again,” The Times of India, 29 August 2017.

[2] Treaty of Peace and Friendship, 31 July 1950, Kathmandu.

[3] Letter Exchanged with the Treaty, 31 July 1950, Kathmandu.

[4] Naya Patrika Dainik, “Modiko Tayari: Chunauma Sahayog Garne, Doklamma Samarthan Mangane,” Online Khabar, Bhadra 7, 2074.

[5] Republica, “PM heading for India today leads 59-member delegation,” My Republica, 23 August 2017.

[6] TNN, “China bid to play ON Nepal fears on Indian aggression,” The Times of India, 8 August 2017.

[7] Annpurn, “Doklambare Chhalfal Bhayen,” (Nepali), Annpurn, 25 August 2017.

[8] http://www.mongabay.com/history/nepal/nepal-relations_with_china.html

[9] Himalayan News Service, “International border point at Rasuwagadi,” The Himalayan Times, 31 August 2017.

[10] Kantipur Sambaddata, “Chin-Nepal Rajanitik Bishwas Badhdo,’ (Nepali), Kantipur, Kathmandu, 27 August 2017.

[11] Baral, Biswas, “Carefully on China,” My Republica, 31 August 2017.

[12] Deshpande, Rajeev, “Doklamresolution: A message to China’s other small neighbours,” The Times of India, 29 August 2017.

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