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चीन और कोरोना वायरस ने जिस पुरजोर तरीक़े से जो दिखाया है उससे पता चलता है कि ख़तरा सभी मौजूदा रूपों और प्रकारों से अलग हो सकता है.
आकस्मिक घटनाओं की प्रवृत्ति होती है पहले से सोची हुई सभी बातों को ख़त्म कर देना. इस मामले में भारत में रक्षा योजना बनाने वालों के लिए 2020 अभी तक बेहद डरावना रहा है. वैश्विक महामारी ने आर्थिक गतिविधियों को निचोड़ दिया है जिसकी वजह से पहली तिमाही में रक्षा ख़र्च में 20 प्रतिशत की कटौती के लिए मजबूर होना पड़ा. आशंका है कि ख़र्च में ये कटौती पूरे वित्तीय वर्ष के दौरान जारी रहेगी. मानो इतना ही काफ़ी नहीं था कि इसी दौरान चीन ने युद्ध की जल्दबाज़ी में हमारी उत्तरी सरहद ख़ासतौर पर पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर मई से चुनौती बढ़ा दी है. 15/16 जून को गलवान घाटी में संघर्ष ने 45 साल से हमारी सोच में इस मासूमियत का पर्दाफ़ाश कर दिया है कि चीन के साथ “शांति और स्थिरता” तो तय है. जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों के लगातार जारी रहने और नियंत्रण रेखा पर फायरिंग के बीच रक्षा मंत्रालय को कम होते बजट और उत्तर में सैन्य ख़तरे की दोहरी चुनौती का कुशलता से सामना करना है. चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (CDS) और सैन्य मामलों के विभाग को जिस सवाल से उलझना है वो ये है कि सीमित बजट के युग में आप किस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा की मौजूदा चुनौतियों के सामने आधुनिकीकरण और संरचना में बदलाव करेंगे.
सैन्य रणनीतिकारों के लिए इस चुनौती को लेकर नज़रिया अपेक्षाकृत सीधा है: (a) आप अपनी मौजूदा और भविष्य की राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियों या ख़तरों (जिसका सही-सही आंशिक अनुमान लगाना भी सबसे कठिन है) को परिभाषित करें; (b) अपनी रक्षा रणनीति/रणनीतियों को तैयार कीजिए; (c) आख़िर में उन योजनाओं को लागू करने के लिए मौजूदा और नियोजित बल संरचना को पुनर्गठित और विकसित कीजिए जिसके लिए सरकार दीर्घकालीन रक्षा योजना और वार्षिक बजट में प्रावधान करे.
चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (CDS) और सैन्य मामलों के विभाग को जिस सवाल से उलझना है वो ये है कि सीमित बजट के युग में आप किस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा की मौजूदा चुनौतियों के सामने आधुनिकीकरण और संरचना में बदलाव करेंगे.
लेकिन राजनयिकों, नौकरशाहों और यहां तक कि राजनेताओं के लिए ये दृष्टिकोण अपेक्षाकृत ज़्यादा घुमावदार है. वो आर्थिक मज़बूती और विदेश नीति के चश्मे से राष्ट्रीय हितों पर रणनीति बनाते हैं, उसे व्यक्त करते हैं. बाहरी ख़तरों को कुशल कूटनीति और गठबंधन से कम या शांत करते हैं. जब दूसरी कोशिशें बेअसर रहती हैं तो उम्मीद करते हैं कि सेना इन ख़तरों का सामना करने में सक्षम रहेगी. दोनों पक्षों के अलग-अलग नज़रिए की वजह से मेल-जोल की उम्मीद नहीं रहती है. लेकिन भारत जैसी बढ़ती अर्थव्यवस्था में और जहां सेना नागरिक प्रशासन के तहत काम करती है, वहां सेना का नेतृत्व भी इस दृष्टिकोण को स्वीकार करता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को सामर्थ्य के मुताबिक़ बजटीय आवंटन में सुनिश्चित करना है. ये पूरी तरह ग़लत नहीं है. लेकिन चिकनी-चुपड़ी बातें करके नीति बनाने वाले जो धारणाएं आगे बढ़ाते हैं उनमें से कुछ में खोट है. पहली धारणा ये कि उन्हें संभावित चुनौतियों की अच्छी जानकारी है और इसलिए सैन्य अधिकारियों को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि उनके पास पर्याप्त टैंक, विमान या जहाज़ हैं कि नहीं. दूसरी धारणा ये कि जब ख़तरा सामने आएगा तो हम देखेंगे कि क्या करना है.
लेकिन चीन और कोरोना वायरस ने जिस पुरजोर तरीक़े से जो दिखाया है उससे पता चलता है कि ख़तरा सभी मौजूदा रूपों और प्रकारों से अलग हो सकता है. यही वजह है कि सेना को हथियारों और पर्याप्त जवानों के साथ देश की सीमा की रक्षा में हर हालात के लिए तैयार रहना चाहिए (इसलिए दरियादिल बजट की मांग की जाती है). इसमें कठिनता आती है हर काम को करने के लिए लोगों को मांगने की आदत से (हां, हम धीरे-धीरे तकनीक की तरफ़ बढ़ रहे हैं). अप्रैल 2020 में जब भारतीय सेना दुनिया में सबसे ज़्यादा जवानों वाली सेना बन गई थी, उस वक़्त भी ये आरोप लगा था.
भारत जैसी बढ़ती अर्थव्यवस्था में और जहां सेना नागरिक प्रशासन के तहत काम करती है, वहां सेना का नेतृत्व भी इस दृष्टिकोण को स्वीकार करता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को सामर्थ्य के मुताबिक़ बजटीय आवंटन में सुनिश्चित करना है.
ऐसे में भारतीय सशस्त्र सेनाओं के नेतृत्व को रक्षा मंत्री के मुख्य़ सलाहकार के साथ मिलकर नए विचारों को अमल में लाना है. इस काम में पहले से सोची हुई धारणा या अतीत के बोझ की बाधा नहीं आनी चाहिए. उन्हें एक मज़बूत, लचकदार और भविष्य के हिसाब से सेना की संरचना करनी चाहिए जो इस चर्चा के दोनों पक्षों की चिंताओं को शामिल करे. इस काम में सेना के सामने मौजूदा और भविष्य की सुरक्षा चुनौतियों के विश्वसनीय चित्रण की ज़रूरत है. उन्हें सेना को बेहतर तकनीक से लैस करना चाहिए, जवानों की संख्य़ा कम करनी चाहिए और रक्षा बजट का सही इस्तेमाल सुनिश्चित करना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वो मौजूदा आवंटन से बेहतर बजट का भरोसा दे और दूसरी तरफ़ सैन्य नेतृत्व ख़र्च को कम करने की पूरी कोशिश करे.
आने वाले दशक के लिए ख़तरों और चुनौतियों को लेकर तैयारियों के बारे में रक्षा मंत्रालय सशस्त्र सेनाओं को क्या कहने वाली है, वो इस वक़्त साफ़ पता चलता है. लेकिन अच्छा होगा कि भविष्य के लिए भारत के सुरक्षा पहलुओं को एक श्वेत पत्र या राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के रूप में तैयार किया जाए. ऐसा लगता है कि इस तरह की चीज़ पर काम जारी है या उन्हें मालूम है जिन्हें पता होना चाहिए. हमारे योजना बनाने वालों के लिए अगला क़दम है सेना के लिए आकार, हथियारों की ज़रूरत और भरण-पोषण की नीति बनाना ताकि संभावित ख़तरों का सामना किया जा सके जो चेतावनी के साथ या बिना चेतावनी के भी आ सकते हैं. अंत में, उन्हें ये देखने की ज़रूरत है कि मौजूदा बलों की संरचना कैसी रखनी चाहिए, किसमें बदलाव की ज़रूरत है और किन बलों और संगठनों को बनाने की ज़रूरत है ताकि एक राष्ट्र की बाह्य और असली सीमा को सुरक्षित रखने के दायित्व को पूरा किया जा सके.
भविष्य के युद्ध की रूप-रेखा का विचार किए बिना परंपरागत सैन्य ताक़त की ज़रूरत आने वाले समय में ख़त्म होने वाली नहीं है. भारतीय सेना का नेतृत्व करने वाले ये व्यावहारिक दृष्टिकोण रखते हैं. हालांकि, वो ये मानते हैं कि युद्ध के तौर-तरीक़े बदल रहे हैं और भविष्य में युद्ध के मैदानों में उनका असर दिखेगा. भारत के मामले में देखें तो ऐसा लगता है कि हम इस बात की इच्छा तो रखते हैं कि ऐसा भविष्य अपनाएं जहां बीते दिनों के व्यवहार को हटाने की ज़रूरत है लेकिन हम सदियों पुराने अतीत के गौरव को भूलने के लिए तैयार नहीं हैं. भविष्य के लिए ज़रूरी है कि कि सच्चा बदलाव हो न कि सतही फेरबदल. ऐसे में जोड़ना नया मंत्र है जिसमें CDS और DMA भविष्य के लिए फ़ौज की साझा ज़रूरत को आगे बढ़ाएं. कुछ उदाहरणों पर ध्यान दीजिए. अलग-अलग हल्की और भारी पैदल सेना (हमारी बातचीत में परंपरागत और मशीनी पैदल सेना) अव्यावहारिक हैं. हमारी सेना अकेली है जो युद्ध के मैदान में एक जैसा काम करने वाले सैनिकों के बीच फर्क़ करती है. सभी को गतिशीलता, सुरक्षा और आधुनिक हथियारों की ज़रूरत है. ये ऐसा काम है जो पिछली सदी में पूरा हो जाना चाहिए था. दूसरा ये कि हमारे पास एकीकृत संसाधन मुहैया कराने वाली कोर क्यों नहीं है ? या रिमोटली पाइलटेड व्हीकल आर्मी एविएशन के तहत क्यों है ? किसी बाहरी के लिए ये हक्का-बक्का करने वाले सवाल हैं लेकिन तब भी भारतीय सेना ऐसे बेढंगे आकार से ख़ुश है.
भारत के मामले में देखें तो ऐसा लगता है कि हम इस बात की इच्छा तो रखते हैं कि ऐसा भविष्य अपनाएं जहां बीते दिनों के व्यवहार को हटाने की ज़रूरत है लेकिन हम सदियों पुराने अतीत के गौरव को भूलने के लिए तैयार नहीं हैं.
सभी मौजूदा संगठनों पर गंभीरता से गौर करने और उसके मुताबिक़ दीर्घकालीन आधुनिकीकरण योजना तैयार की ज़रूरत है. ये काम दो दशक की सीमा में पूरा होना चाहिए जिसके बाद सिद्धांत, संगठन, हथियार, क्षमता, आकार और बजट के मामले में सेना पूरी तरह से बदल जाए. आख़िरकार हमारे रक्षा बलों को जवानों पर निर्भरता कम करनी होगी और सीमा प्रबंधन, निगरानी और नियमित सूचना इकट्ठा करने के काम के लिए तकनीक पर भरोसा करना होगा. ऐसी तकनीक मौजूद है या आने वाली है जो भरोसे के साथ इन कामों को पूरा कर सकती है.
लंबे वक़्त में हमें निश्चित रूप से अपने सैनिकों की संख्या को 10 लाख से कम करने (एक निश्चित आंकड़ा देना असंभव है) की ज़रूरत है. बड़ी “अनिश्चित” सीमा को संभालने की ज़रूरत को तकनीक, बुनियादी ढांचे में विकास और सिर्फ़ प्रमुख रणनीतिक जगहों पर सेना की तैनाती से पूरा किया जा सकता है. बाक़ी जगहों पर दुश्मन की किसी साज़िश का जवाब देने के लिए मज़बूत तैयारी रखने की ज़रूरत है. भारतीय नौसेना को निश्चित रूप से तीसरे एयरक्राफ्ट कैरियर की ज़रूरत है. साथ ही नौसेना के पास समुद्र और ज़मीन पर साझा निगरानी अभियान की क्षमता होनी चाहिए. वायुसेना को उन प्लेटफॉर्म पर ध्यान देना चाहिए जहां लोगों की ज़रूरत नहीं होती. ये भविष्य की ज़रूरत है. साथ ही ड्रोन और उनके झुंड के ख़िलाफ़ वायु सुरक्षा की भी आवश्यकता है. ये एक वैचारिक सोच की प्रक्रिया है जिस पर और भी जानकारी जुटाने की ज़रूरत है.
जहां तक थल सेना की बात है तो उसे हर जगह जवानों की संख्या घटाने की ज़रूरत है. पैदल सेना की बटालियन के आकार और संख्या से लेकर, आर्टिलरी और मैकेनाइज़्ड फोर्स की रेजीमेंट तक कम होनी चाहिए जबकि उड्डयन, इलेक्ट्रॉनिक और साइबर वॉरफेयर यूनिट में बढ़ोतरी होनी चाहिए. साथ ही मिसाइल और लंबी दूरी का हमला करने वाली यूनिट की भी ज़रूरत पूरी होनी चाहिए. एक साझा एजेंसी के तहत व्यापक और संभव सूचना और संचार का रोड मैप इस वक़्त की ज़रूरत है. इसी तरह CDS के नीचे एक रक्षा लॉजिस्टिक एजेंसी की स्थापना की तुरंत ज़रूरत है. सभी ख़ामियों को ठीक करने के लिए विस्तृत जानकारी पर काम करने की ज़रूरत होगी. मौजूदा रणनीतिक और राष्ट्रीय लॉजिस्टिक क्षमता को सैन्य ज़रूरत से जोड़ना चाहिए.
ये सूची अंतहीन है. ऊपरी स्तर पर दूरदर्शिता और केंद्रित होकर काम करने से फ़ायदा होगा. एक बार जब ये सही दिशा में बढ़ने लगेगा तभी सशस्त्र बल सही मायनों में सुरक्षा ज़रूरतों से जुड़ सकेंगे और वो भी भारत में बजट की मजबूरियों के भीतर. ऊपर बताये गए कुछ क़दमों को उठाने के लिए शुरुआत में रक्षा ख़र्च में बढ़ोतरी तो होगी लेकिन लंबे वक़्त में इससे बचत होगी.
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Major General BS Dhanoa (Retired) was commissioned into the Armoured Corps in Dec 1983. He last served in the Armys premier institution the Army War ...
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