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भारत का परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने का महत्वपूर्ण कारण चीन की बजाए पाकिस्तान था, लेकिन क्या भारत की प्राथमिकताएं अब बदल गई हैं?
मई 1998 में, भारत और पाकिस्तान ने 20वीं सदी के आखिरी परमाणु परीक्षणों को अंजाम दिया था। मई 1998 की इन घटनाओं द्वारा बाद के घटनाक्रम को प्रबल रूप से प्रभावित करने का सिलसिला अब तक जारी है, क्योंकि इनकी बदौलत दक्षिण एशिया में परमाणु हथियार सम्पन्न देशों भारत, चीन और पाकिस्तान का त्रिकोणीय समूह तैयार हुआ, ये देश न सिर्फ विवादित क्षेत्रीय सीमाओं को साझा करते हैं, बल्कि उनके बीच एक दूसरे के प्रति ऐतिहासिक शत्रुता भी है। हालांकि भारत-पाकिस्तान परमाणु युग्म की तुलना में, भारत-चीन परमाणु समीकरण में कहीं ज्यादा स्थायित्व है। भारत और चीन ने कभी भी एक-दूसरे को परोक्ष या प्रकट रूप से किसी तरह की परमाणु धमकी नहीं दी। परमाणु संबंधी ब्लैकमेलिंग एक-दूसरे के बारे में उन दोनों की सैन्य रणनीतियों का अंग कभी नहीं रही। दूसरी ओर, भारत और पाकिस्तान के बीच सभी सैन्य संकटों पर परमाणु मसले की छाया रही है।
यदि परमाणु जोखिम उठाने की पाकिस्तान की इच्छा भयभीत करके रोकने के स्पेक्ट्रम से युक्त परमाणु सिद्धांत से जाहिर होती है, तो भारत भी पाकिस्तान के धोखे की ओर ध्यान दिलाने में समान रूप से मुखर रहा है। इसलिए यह जाहिर है कि भारत-चीन की जगह, भारत-पाकिस्तान के परमाणु युग्म को अक्सर परमाणु चरम बिंदु माना जाता है। इन दोनों परमाणु समीकरणों का अंतर महज उनकी परमाणु और सैन्य रणनीतियों का मामला नहीं है, बल्कि समान रूप से उनके अनूठे परमाणु इतिहास की देन है।
भारत का परमाणु इतिहास, परमाणु हथियारों के प्रसार के उस क्रमिक मॉडल को अस्वीकार करता है, जब किसी विशाल और परमाणु सम्पन्न शत्रु देश के प्रति असुरक्षा की भावना किसी अन्य देश की परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिशों का मुख्य प्रेरक सिद्धांत होती है, जैसा कि सोवियत संघ, चीन और कुछ हद तक यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस के मामले में था। भारत ने बिल्कुल सही ढंग से समझते हुए परमाणु प्रसार के क्रमिक मॉडल को अस्वीकार किया: भारत का परमाणु सम्पन्न बनने का महत्वपूर्ण कारण चीन की बजाए पाकिस्तान था। 1960 के दशक में चीन के परमाणु खतरे तथा 1980 के दशक में पाकिस्तान के परमाणु खतरे के प्रति भारत की प्रतिक्रिया सीधे तौर पर बिल्कुल अलग थी। अक्टूबर, 1964 में चीन द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण के कारण भारत को अपना पहला परमाणु विरोधी मिला। भारत को पूरा एक दशक लगा और उसने मई 1974 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। हालांकि, तब तक भारत के नीति निर्धारकों को समझ में आ चुका था कि चीन “भारत के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल नहीं करेगा।” 1974 के “शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट” के बाद, भारत के नीति निर्धारकों ने परमाणु हथियार बनाने की अपनी नई क्षमता का इस्तेमाल हथियार बनाने में करने से परहेज किया और न ही उन्होंने परमाणु हथियार सम्पन्न देश का दर्जा हासिल करने का प्रयास किया। 1980 के दशक के मध्य तक, भारत ने “परमाणु हथियारों से परहेज” की नीति का पालन किया, जब पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम ने परिपक्व होकर अस्तित्व के लिए खतरे का रूप ले लिया, तो भारत ‘उत्प्रेक (कैटलिटिक)’ प्रतिक्रिया के लिए तैयार हो गया। 1988 में, भारत ने डिलिवरबल न्यूक्लियर आर्सेनल (प्रदान करने के लिए तैयार परमाणु शस्त्रागार) हासिल करने का फैसला किया। दशक भर के भीतर, उसने न केवल लड़ाकू विमानों पर आधारित अपनी न्यूक्लियर डिलिवरी क्षमता के पहले चरण को ऑपरेशनल कर दिया, बल्कि मई 1998 में सिलसिलेवार परमाणु परीक्षण करके खुद को परमाणु हथियार सम्पन्न देश भी घोषित कर दिया।
इस अलग प्रतिक्रिया को केवल चीन और पाकिस्तान के परमाणु खतरों के बारे में भारत की धारणाओं के अंतर के तौर पर ही नहीं, बल्कि भारत के नीति निर्धारकों द्वारा उनसे निपटने के लिए अपनाए गए तरीकों पर गौर करके ही समझा जा सकता है।
चीन द्वारा परमाणु हथियार बनाने की क्षमता हासिल करना भारत की सुरक्षा के लिए मूलभूत रूप से खतरा नहीं था, जो कि पाकिस्तानी परमाणु हथियारों के मामले में था। पहला, चीन की परमाणु क्षमता को सीधे तौर पर खतरा मानने की जगह, भारत ने चीन की परमाणु हथियार हासिल करने की जद्दोजहद को शीत युद्ध की महान ताकतों की परमाणु प्रतिद्वंद्विता माना। पाकिस्तान के संबंध में खतरे की अवधारणा बिल्कुल अलग थी: पाकिस्तान के परमाणु अभियान को दक्षिण एशिया में सुधार की उसकी ऐतिहासिक इच्छा के मद्देनजर अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर देखा गया। दूसरा, 1962 के युद्ध के बाद, भारत ने जान लिया था कि चीन के खिलाफ मजबूत परम्परागत रक्षा से ही सीमा पर यथास्थिति बहाल रखने में मदद मिलेगी। क्षेत्रीय स्तर पर यथा स्थिति बहाल रखने के लिए परमाणु हथियार अनिवार्य नहीं थे। यहां तक कि आज भी, चीन के संबंध में भारत की सैन्य रणनीति मोटे तौर पर परम्परागत ही है। दूसरी ओर पाकिस्तान, क्षेत्रीय यथा स्थिति को लगातार चुनौती देता आया है, यहां तक कि उस समय भी, जबकि भारत-पाकिस्तान में से पाकिस्तान की सैन्य ताकत भारत की तुलना में कमजोर थी। इसलिए भारत की गणना के अनुसार, पाकिस्तान के कब्जे में परमाणु हथियारों ने सिर्फ क्षेत्रीय संघर्ष का सैन्य तरीके से समाधान ढूंढने की उसकी इच्छा को ही बल दिया है। चीन और पाकिस्तान से खतरे के बारे में भारत की धारणाओं में यह अंतर चीन-भारत और भारत-चीन सीमा पर हुए विभिन्न सैन्य संकटों का प्रमाण है। न तो चीन और न ही भारत ने कभी भी अपने किसी भी सैन्य संकट के दौरान एक-दूसरे को अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से कभी कोई परमाणु धमकी दी है, वे संकट पूरी तरह परम्परागत रहे हैं। हालांकि 1986-87 के ब्रासटैक्स संकट के बाद से पाकिस्तान सीमा पर परम्परागत ऑपरेशनों का पालन करने संबंधी भारतीय निर्णय को प्रभावित करने के लिए हमेशा से अपने परमाणु शस्त्रागार का फायदा उठाता आया है।
इसलिए चीनी और पाकिस्तानी परमाणु क्षमताओं के बारे में भारत के खतरे की अवधारणा महत्वपूर्ण रूप से अलग है, इसलिए उनसे निपटने के लिए भारत द्वारा अपनाए जाने वाले तरीके भी अलग हैं। चीन के खिलाफ, भारत प्रमुख रूप से शीतयुद्ध काल की दो महाशक्तियों: अमेरिका और सोवियत संघ की अप्रत्यक्ष परमाणु सुरक्षा गारंटी पर भरोसा करता आया है। भारत की गणना, साधारण लेकिन गहन थी: चीन द्वारा भारत के खिलाफ किसी भी रूप में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल या इस्तेमाल की धमकी से महा शक्तियों के बीच परमाणु संबंधी बदले की कार्रवाई होने का खतरा था। महाशक्ति की प्रतिक्रिया की विश्वसनीयता की बजाए यह न्यूनतम जोखिम चीन के नीति निर्धारकों को हतोत्साहित करने के लिए काफी था। चीन की ओर से विवेक और संयम दोनों ही धारणाएं अपनाई गईं। पाकिस्तान के बारे में भारत के ऐतिहासिक अनुभव ये रहे हैं कि उसने इन दोनों ही धारणाओं पर भारत को धोखा दिया है। पाकिस्तान की परमाणु क्षमता केवल भारत के खिलाफ रही है। जोखिम लेने की उसकी इच्छा के मद्देनजर यहां भारत के लिए एक मूलभूत खतरा है। इसलिए, पाकिस्तान को रोकने के लिए, भारत की स्वदेशी परमाणु क्षमता होना आवश्यक था।
इसलिए चीन और पाकिस्तान के प्रति भारत की खतरे की अवधारणाएं 1964 में चीन के परमाणु परीक्षणों के बाद के शुरुआती दो दशकों और उसके बाद पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम की उत्प्रेरक प्रतिक्रिया (कैटालिटिक रिस्पासं) के लिए भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम के क्रमिक विकास की व्याख्या करती हैं। आखिरकार सभी परमाणु विरोधी एक समान नहीं हैं। पोखरण-2 के दो दशक बाद भी, कभी-कभार होने वाली ‘दो मोर्चों’ पर जंग की बातों के बावजूद भारत की परमाणु नीति अपनी सरहदों पर दो अलग तरह के विरोधियों के अनुरूप है।
हर्ष वी. पंत और योगेश जोशी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा आगामी पुस्तक, इंडियन न्यूक्लिर पॉलिसी, के सह-लेखक हैं।
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
Read More +Yogesh Joshi is a research fellow at the Institute of South Asian Studies National University of Singapore. ...
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