Author : Kanchan Gupta

Published on Jul 08, 2020 Updated 0 Hours ago

“आप दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं.” ये विचार आज भी सही है. लेकिन भारत की चीन नीति के जुड़वा खंभे, सहयोग और प्रतिस्पर्धा में पहले प्रतिस्पर्धा और फिर सहयोग को जगह देनी चाहिए.

भारत की ‘चीन’ पहेली:  धौंस दिखानेवाले देश को रास्ते पर कैसे लाएं?

द बुक ऑफ चेंजेज़ या आई चिंग में चीन के प्राचीन ज्ञान का ज़िक्र है. इसके मार्गदर्शन के सहारे मध्यकाल में चीन के शासकों ने सांसारिक ज़िम्मेदारियां निभाई और मौज-मस्ती की. उसमें ये सावधान करने वाली सलाह लिखी है: “अपनी भावनाओं को काबू में रखें. अगर ऐसा नहीं करोगे तो आगे तबाही का सामना करना होगा. इसके बिना कुछ भी फ़ायदा नहीं है.” बीजिंग से चीन पर शासन करने वाले या पड़ोस के फोरबिडेन सिटी से राज करने वाले सम्राट इस समझदारी भरे सलाह के शब्दों को साफ़ तौर पर मानते रहे. उनकी अभेद्यता इस बात की गवाह हैं कि आई चिंग आज भी किस तरह ज़बरदस्त असर रखती है.

लेकिन जो अभेद्यता CPC नेतृत्व की पहचान बन चुकी है, उससे चीन कई बार डिगा भी है. इसकी वजह है चीन को ये एहसास होना कि जिस तरह उसने ‘वुहान वायरस’ को संभाला है, जो बाद में कोविड-19 महामारी बन गया, वो चीन के ख़िलाफ़ अस्थायी ग़ुस्से से बढ़कर है. अलग-अलग महादेशों में हज़ारों लोगों की मौत, उससे भी ज़्यादा प्रभावित और उससे कई गुना ज़्यादा लोगों की आजीविका ख़त्म होने से चीन के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा वास्तविक है और ये बना रहेगा.

CPC नेतृत्व जो चीन की एकदलीय सरकार भी है, समझता है कि इस ग़ुस्से का व्यापक नतीजा हो सकता है. वैश्विक क्रोध निस्सन्देह चीन की अर्थव्यवस्था पर ख़राब असर डाल सकता है. इसकी वजह से देश में और बाहर CPC की योजना और राजनीति ख़त्म हो सकती है. राजनीतिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग चीन, एक अछूत देश, अकेला वैश्विक ताक़त बनने की महत्वाकांक्षा नहीं रख सकता है. वैश्विक ताक़त बनना डेंग जियाओपिंग के समय से चीनी सत्ता का लक्ष्य रहा है.

मौज-मस्ती का समय ख़त्म हो गया है. आंकड़े कुछ ऐसी ही गवाही दे रहे हैं. कोविड-19 महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को थाम दिया है और दुनिया भर के देश अपनी रुकी हुई अर्थव्यवस्था को शुरू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अगर चीन को ऐसा लगता था कि वो बच कर निकल जाएगा तो उसने साफ़ तौर पर अपने लचीलेपन और ताक़त को बढ़ा-चढ़ाकर आंका: पूरी दुनिया के साथ-साथ चीन की अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में घिर गई है.

फिलहाल चीन में बेरोज़गारी की दर का अनुमान 10 प्रतिशत है जो आधिकारिक आंकड़े से 400 बेसिस प्वाइंट ज़्यादा है. बंद कारख़ानों का मतलब है रोज़गार में कमी. न तो CPC के नेता, न ही ज़िंदगी भर के लिए CPC के महासचिव शी जिनपिंग ने कभी सोचा होगा कि ऐसी हालत हो जाएगी. उन्होंने ये भी नहीं सोचा होगा कि ‘वुहान वायरस’ चीन को ऐसी चोट पहुंचाएगा कि 2019 की पहली तिमाही के मुक़ाबले 2020 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था 6.8 प्रतिशत गिर जाएगी.

यही वजह है कि पिछले हफ़्ते सबसे महत्वपूर्ण ‘टू सेशन्स’ बैठक में, जो दो महीने की देरी से हुई (एक साल पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), चाइनीज़ पीपुल्स पॉलिटिकल कंसलटेटिव कॉन्फ्रेंस और नेशनल पीपुल्स कांग्रेस ने अर्थव्यवस्था और आगे के रास्ते पर काफ़ी लंबी चर्चा की. बैठक में वास्तविक चर्चा के बारे में जहां काफ़ी कम पता चलेगा लेकिन जो कुछ भी पता है उससे सरकार के मिज़ाज के बारे में अच्छी तरह जानकारी मिलती है.

1990 से पहली बार सालाना GDP लक्ष्य तय नहीं किया गया है. सरकार का ध्यान फिर से उसी पर लौटेगा जहां दशकों पहले था यानी रोज़गार का निर्माण (जिन लाखों लोगों ने नौकरी खोई उन्हें फिर से खपाना और 87 लाख नये ग्रैजुएट के लिए रोज़गार का निर्माण) और खाने-पीने के सामान की महंगाई से निपटना. ऐसा माना जाता है कि 14वीं पंचवर्षीय योजना, जिसका मसौदा तैयार हो रहा है, चीन को दूसरों पर निर्भर वैश्विक अर्थव्यवस्था से हटाकर मुख्य रूप से चीन के बाज़ार पर निर्भर अर्थव्यवस्था बनाएगा. ये कहना सही होगा कि चीन कोविड-19 के बाद के हालात की तैयारी कर रहा है जब वैश्विक सप्लाई चेन और भू-रणनीतिक और भू-राजनीतिक गठबंधन में मंथन होगा. ये मंथन कितना व्यापक होगा इस पर फिलहाल सिर्फ़ विचार किया जा सकता है, यक़ीन के साथ टिप्पणी नहीं की जा सकती.

चीन या कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के लिए ये अच्छा वक़्त नहीं है. देश में आलोचना और विदेश में निंदा से दूर मज़बूत और साहसी नेता के तौर पर शी जिनपिंग का प्रचार उम्मीदों के मुताबिक़ खरा नहीं उतरा. ‘वुहान वायरस’ के प्रकोप से निपटने के शी जिनपिंग के तरीक़े का उल्टा असर पड़ा क्योंकि इसमें चिंता, दया और पश्चाताप की कमी थी.

ऐसा कहा गया है कि चीन की कार्रवाई भारत की तरफ़ से अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने और जम्मू-कश्मीर राज्य को पुनर्गठित करके दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों  में बदलने, जिसके तहत लद्दाख को सीधे केंद्र सरकार के अधीन कर दिया गया है, का नतीजा है

ये कठोर वास्तविकता चीन के नेतृत्व की अभेद्यता के नतीजे के तौर पर आई. चीन के बड़े और छोटे अधिकारियों ने अपना मुखौटा उतारकर अपनी प्राकृतिक भावनाएं लोगों को दिखाई. ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अपशब्दों के प्रयोग और उसे धमकी (हाल में ऑस्ट्रेलिया को ‘अमेरिका का कुत्ता’ कहा गया जैसे चेयरमैन माओ ने जवाहलाल नेहरू को ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता’ कहा था) से लेकर अमेरिका को धौंस दिखाने की कोशिश करना (अमेरिका के राष्ट्रपति ने हाल में चीन के राष्ट्रपति को ‘सनकी’ कहा था), ‘वुहान वायरस’ के फैलने में चीन के कसूर को लेकर यूरोपियन यूनियन के दृष्टिकोण पर दादागीरी दिखाना, दक्षिणी चीन सागर में ताक़त दिखाना (जिसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि दुनिया का ध्यान महामारी पर है), अपने संरक्षण से फ़ायदा उठाने वाले देशों (दूसरे देशों के अलावा नेपाल और पाकिस्तान) से चालाकी करना- ये ऐसे क़दम हैं जिनके ज़रिए चीन अपनी क्षत-विक्षत भावनाओं को प्रकट कर रहा है. ऐसा करके चीन आई चिंग को नज़रअंदाज़ कर रहा है जिसमें कहा गया है कि ऐसा करने से तबाही आएगी और इसमें कोई फ़ायदा नहीं है.

क्वॉड प्लस के एकजुट होने और लोकतांत्रिक गठबंधन के आकार लेने, अलग-अलग देशों की तरफ़ से नई सप्लाई चेन और उनकी अर्थव्यवस्था को नया रूप देने की मांग करने, कोविड-19 से पहले के वैश्विक फंदे से उन्हें अलग करने, चीन को छोड़कर कंपनियों के दूसरे देश जाने, भारतीय अर्थव्यवस्था को मौजूदा झटके के बावजूद बड़े निवेशकों के भारत की तरफ़ देखने, अमेरिका के रुख़ सख़्त करने, जुर्माना लगाने और अमेरिकी कंपनियों के चीन के साथ कारोबार को हतोत्साहित करने, टूटे हुए BRI ‘साझेदारों’ के कर्ज़ अदा करने की अयोग्यता की गुज़ारिश और दुनिया में चीन की टेक्नोलॉजी के ध्वजवाहक के रूप में हुवावे की नाकामी- ये ऐसी चीज़ें हैं जो दुनिया का ग़ुस्सा दिखाती है.

भारत के लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बार-बार चीन की घुसपैठ और नेपाल की ओली सरकार के द्वारा भारत की छवि ज़मीन कब्ज़ा करने वाले देश के रूप में पेश करने के अभियान को इसी पृष्ठभूमि में देखना चाहिए. ऐसा कहा गया है कि चीन की कार्रवाई भारत की तरफ़ से अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने और जम्मू-कश्मीर राज्य को पुनर्गठित करके दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों  में बदलने, जिसके तहत लद्दाख को सीधे केंद्र सरकार के अधीन कर दिया गया है, का नतीजा है.

ये 5 अगस्त 2019 को हुआ था और संसद में गृह मंत्री अमित शाह का ये बयान कि भारत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और चीन अधिकृत अक्साई चिन का नियंत्रण फिर से हासिल करने के लिए वचनबद्ध है, पहले के संसदीय प्रस्ताव को फिर से दोहराना है. ये कहना हास्यास्पद है कि  भारतीय मौसम विभाग की तरफ़ से गिलगित-बाल्टिस्तान समेत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मौसम की रिपोर्ट जारी करने से चीन नाराज़ हुआ है. ये भी समझ से परे है कि LAC पर भारत के रणनीतिक बुनियादी ढांचा बनाने से चीन ग़ुस्से में है. सैन्य टुकड़ियों की आवाजाही में बढ़ोतरी के साथ सड़क और पुल का निर्माण पिछले कुछ वक़्त से जारी है.

LAC पर चीन की कार्रवाई के तीन स्वीकार्य कारण हो सकते हैं. पहला कारण ये हो सकता है कि CPC के नेता देश में बढ़ती दिक़्क़तों की वजह से लोगों की सरकार विरोधी भावनाओं से ध्यान भटकाना चाहते हैं. ये ठीक उसी तरह है जैसे अरब के देशों में जब-जब घरेलू मुद्दों पर लोगों का असंतोष बढ़ता है और वो सड़कों पर उतरते हैं तो वहां की सरकार फिलिस्तीन के लिए समर्थन का एलान कर देती हैं. दुनिया के दूसरे हिस्सों में चीन ने अपने दूतावासों को ‘आक्रामक’ अंदाज़ में रखा है लेकिन इस हिस्से में उसने अपनी सेना को LAC के पार भेजकर भारतीय इलाक़े में कैंप डाल दिया है. दोनों ही कम लागत वाली चाल है.

दूसरा कारण ये हो सकता है कि शी जिनपिंग की हुक़ूमत ये दिखाने की कोशिश कर रही है कि ‘वुहान वायरस’ के लिए उसे जो क़ीमत चुकानी पड़ रही है उससे चीन कमज़ोर भले ही हो गया हो लेकिन विचलित नहीं हुआ है. CPC को सत्ता में बैठे मज़बूत नेता से ताक़त और अधिकार मिलता है. चाहे कुछ हो जाए शी को हर हाल में अपराजेय और मज़बूत नेता के तौर पर पेश करना है जो राजनीतिक, वित्तीय, तकनीकी और सांस्कृतिक रूप से दुनिया में चीन की धाक जमाने के लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं. भूटान के डोकलाम में चीन की घुसपैठ की तरह ये भी कोई नहीं जानता कि लद्दाख में घुसपैठ की योजना किसने बनाकर अंजाम दिया. लेकिन चीन के भीतर और बाहर ये इस बात का संकेत है कि भले ही कोविड-19 की वजह से दूसरे देश परेशान हों लेकिन चीन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है.

तीसरा कारण ये भी हो सकता है कि चीन, भारत को ये संदेश देना चाहता है कि महामारी की वजह से जो जगह खाली हुई है उसको भरने की कोशिश न करे, ख़ुद को संभावित सप्लाई लाइन के केंद्र के तौर पर पेश नहीं करे, चीन में जो उत्पादक हैं उनको लुभाने की कोशिश न करे, चीन के निवेश, सामान और सेवाओं के लिए बाधा खड़ी न करे. ये निश्चित रूप से झांसा देना है. भारत के स्थिर, दृढ़ और शालीन जवाब ने धौंस जमाने वाले चीन की चिढ़ और बढ़ा दी है.

अतीत में भारत ने बिना एक इंच गंवाए मज़बूती से चीन की इसी तरह की कोशिशों को नाकाम किया है. डोकलाम इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है. चीन की घुसपैठ का रणनीतिक जवाब होना चाहिए.

लेकिन ये सभी बातें अटकलबाज़ियों के तहत रहनी चाहिए. ये उम्मीद की गई थी कि ‘टू सेशन्स’ मीटिंग के दौरान इसका कुछ सुराग़ मिलेगा कि क्यों चीन ने परेशान करने का रास्ता अपनाया जिससे कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला है. लेकिन ऐसा कोई सुराग़ नहीं मिला जबकि चीन के विदेश मंत्री रिकॉर्ड 100 मिनट तक बोले. सम्राट क़ियांगलॉन्ग ने अपने ताज के ऊपर लटकी तख्ती पर एक उपदेश लिखा था: “स्वर्ग का रास्ता अथाह और रहस्यमय है. मानवता का रास्ता मुश्किल है.” ऐसा कहना ठीक होगा कि शी की हुक़ूमत मुश्किल है.

फिर भारत को कैसे ज़वाब देना चाहिए? चीन पर नज़र रखने वालों और विश्लेषकों ने कठोर रुख़ अपनाने को कहा है. लेकिन कोविड-19 के समय में किसी भी रूप में संघर्ष ठीक नहीं है. भारत न तो दूसरी तरफ़ ध्यान देने की हालत में है, न ही युद्ध की लागत को सह सकता है. लेकिन इसके साथ ही आत्मसमर्पण करना भी मंज़ूर नही है क्योंकि अतीत में भारत ने बिना एक इंच गंवाए मज़बूती से चीन की इसी तरह की कोशिशों को नाकाम किया है. डोकलाम इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है. चीन की घुसपैठ का रणनीतिक जवाब होना चाहिए. जो देश चीन की आलोचना में मुखर हैं उनके साथ सामरिक गठबंधन करना चाहिए, ताइवान का समर्थन करना चाहिए. LAC पर चीन के सैनिकों के बराबर भारतीय सैनिकों की तैनाती होनी चाहिए और ये दिखाना चाहिए कि भारत अपनी ज़मीन की हिफ़ाज़त करने में सक्षम है. राजनीतिक जवाब भी होना चाहिए जिसके तहत कानून में बदलाव करके चीन के सामानों, सेवाओं और निवेश के लिए रुकावट खड़ी की जाए. राजनयिक जवाब के तहत भारत को चीन से बातचीत करनी चाहिए भले ही चीन कितना भी ज़िद्दी, नासमझ और अपरिपक्व हो.

चीन को इतना चिढ़ने के लिए भारत ज़रूर कुछ अच्छा कर रहा है. भारत को वो क़दम उठाते रहना चाहिए और ग्रेट वॉल ऑफ डेमोक्रेसी का निर्माण करना चाहिए

चीन को इतना चिढ़ने के लिए भारत ज़रूर कुछ अच्छा कर रहा है. भारत को वो क़दम उठाते रहना चाहिए और ग्रेट वॉल ऑफ डेमोक्रेसी का निर्माण करना चाहिए. आने वाले दिनों में हांगकांग वैश्विक राजनीतिक एजेंडे में सुर्खियों में रहेगा, ऐसे में इस गठबंधन की मज़बूती की परीक्षा होगी. आख़िर में भारत चीन और उसके नाकाम सहयोगियों को वैश्विक संगठनों में नेतृत्व की स्थिति से दूर रखे. अतीत के बनावटी ‘पश्चिम विरोधी’ वैचारिक स्थिति में टिके रहने में कोई फ़ायदा नहीं है.

ये सभी चीज़ें कुशलता से करने की ज़रूरत है. लड़ाई-झगड़े से रोमांच पैदा होता है लेकिन ये मूर्खतापूर्ण है: जैसा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “आप दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं.” ये विचार आज भी सही है. लेकिन भारत की चीन नीति के जुड़वा खंभे, सहयोग और प्रतिस्पर्धा में पहले प्रतिस्पर्धा और फिर सहयोग को जगह देनी चाहिए. इस बीच आई चिंग ने जो कहा है उसे याद करना बुद्धिमानी होगी, “कितना भी समतल क्यों न हो, हर जगह ढलान है.” धौंस जमाने वाले नतीजों की परवाह किए बिना ढलान में गिरते हैं. ज़िम्मेदार ताक़त ढलान को छोड़ देते हैं.

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