चाइना डेली में 24 मई की रिपोर्ट जिसका शीर्षक था ‘ज़ाम्बिया में चीन के तीन नागरिकों की हत्या’ ने एक बार फिर अफ्रीका के कई अहम देशों में चीन की बढ़ती मौजूदगी के ख़िलाफ़ लोगों के ग़ुस्से की तरफ़ ध्यान आकर्षित किया है. ज़ाम्बिया की राजधानी लुसाका के एक गोदाम में हुई इस हत्या को लेकर छानबीन जारी है लेकिन देश में बढ़ते चीनी समुदाय और स्थानीय लोगों के बीच हिंसा की ये कोई पहली घटना नहीं है. लेकिन पहले ऐसा नहीं था. ज़ाम्बिया की पुरानी पीढ़ी के लोग बड़े प्यार से उस वक़्त को याद करते हैं जब 1970 के दशक में चीन ने तंज़ानिया-ज़ाम्बिया रेल लाइन (TAZARA) का निर्माण कर देश के विकास में योगदान दिया था. दार एस सलाम को मध्य ज़ाम्बिया के कापिरी मोशी से जोड़ने वाली 1,865 किमी लंबी रेल लाइन इंजीनियरिंग के कमाल से बढ़कर है. बिना बंदरगाह वाला देश ज़ाम्बिया इस रेल लाइन की वजह से अपने तांबे को हिंद महासागर तक पहुंचाने लगा. इस तरह ज़ाम्बिया ने श्वेत शासन वाले रोडेशिया (अब ज़िम्बाब्वे) और रंगभेद युग वाले दक्षिण अफ्रीका के वर्चस्व को तोड़ा.
ज़ाम्बिया की राजधानी लुसाका के एक गोदाम में हुई इस हत्या को लेकर छानबीन जारी है लेकिन देश में बढ़ते चीनी समुदाय और स्थानीय लोगों के बीच हिंसा की ये कोई पहली घटना नहीं है
लेकिन वो एक अलग युग का अलग चीन था. 1990 के दशक में उस समय बदलाव होने लगा जब ज़ाम्बिया ने तांबे से प्रचुर अपने खदानों का निजीकरण शुरू कर दिया. सरकारी स्वामित्व वाली चीन की कंपनियां बेहद कम दाम पर ये खदानें ख़रीदने लगीं. इसकी शुरुआत 1998 में चामबिशी कॉपर माइन से हुई. इसके बाद कई और सौदे हुए और इसके साथ ही मज़दूरों के शोषण और खदानों में सुरक्षा की कमी के आरोप लगने लगे. अप्रैल 2005 में चामबिशी में हुए एक धमाके में 51 खनिकों की मौत हो गई जिसके बाद जमकर विरोध प्रदर्शन हुए. 2010 में एक ऐसी घटना हुई जिसने बीते हुए औपनिवेशिक युग की याद दिला दी. कोल्लम कोयला खदान में कम मज़दूरी, फेस मास्क और सेफ्टी जूते की कमी और स्थानीय लोगों को पीने के पानी की सप्लाई करने वाली नदी में प्रदूषण को लेकर प्रदर्शन कर रहे कामगारों पर चीन के दो सुपरवाइज़र ने फायरिंग कर दी. 11 खनिकों को गोली लगी जिसकी वजह से एक बार फिर चीन की कंपनियों को लेकर लोगों का ग़ुस्सा बढ़ा.
इस बीच ज़ाम्बिया में चीन की दिलचस्पी खदान से आगे बढ़ गई. अफ्रीका के कई दूसरे देशों की तरह ज़ाम्बिया भी चीन के उत्पादकों और ठेकेदारों को अच्छा बाज़ार लगा. पिछले दो दशक के दौरान चीन की सरकारी कंपनियों ने हवाई अड्डे, हाईवे, पनबिजली परियोजना, खेल के स्टेडियम और बुनियादी ढांचे की दूसरी परियोजनाओं का फ़ायदेमंद ठेका हासिल किया. इन परियोजनाओं को अक्सर अफ्रीका के विकास में चीन के योगदान की मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है. आम तौर पर इन परियोजनाओं का निर्माण चीन से कर्ज़ लेकर किया गया. पूर्व मंत्री चिशिम्बा कंबविली जैसे आलोचकों ने इन सौदों में पारदर्शिता की कमी का आरोप लगाया है. ज़ाम्बिया पर कुल कर्ज़ 8.7 अरब डॉलर है और इसमें चीन का हिस्सा 6.4 अरब डॉलर है और रिपोर्ट इस बात की तरफ़ इशारा करती हैं कि बकाया नहीं चुकाने पर चीन हम्बनटोटा की तरह लुसाका के केनेथ कौंडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट को अपने कब्ज़े में ले सकता है. कुछ आलोचकों ने लुसाका-चिरुंडु रोड जैसी परियोजनाओं में घटिया क्वालिटी का आरोप लगाया है. लुसाका-चिरुंडु रोड बनने के फ़ौरन बाद भारी बारिश में बह गया. आलोचकों ने लुसाका और नडोला में बने दो नये स्टेडियम को भी सफ़ेद हाथी करार दिया है- महंगे और किसी काम के नहीं. इस घटनाक्रम ने जेम्स लुकुकु को रिपब्लिकन प्रोग्रेसिव पार्टी शुरू करने के लिए तैयार किया. लुकुकु ने ‘चीन को ना कहो’ जैसे आक्रामक अभियान की शुरुआत की. स्तंभकार कलीमा नकोंडा इसे एक क़दम और आगे ले गए. उन्होंने 2018 में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘कैसे चीन धीरे-धीरे ज़ाम्बिया को उपनिवेश बना रहा है’.
ज़ाम्बिया पर कुल कर्ज़ 8.7 अरब डॉलर है और इसमें चीन का हिस्सा 6.4 अरब डॉलर है और रिपोर्ट इस बात की तरफ़ इशारा करती हैं कि बकाया नहीं चुकाने पर चीन हम्बनटोटा की तरह लुसाका के केनेथ कौंडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट को अपने कब्ज़े में ले सकता है
चीन के कारोबारी तौर-तरीक़ों के ऊपर लोगों का ग़ुस्सा ज़ाम्बिया में धीरे-धीरे चीन के नागरिकों की बढ़ती आबादी की वजह से और बढ़ गया है. अलग-अलग परियोजनाओं में काम के लिए लाए गए कई चीनी नागरिक यहीं रह गए. दूसरी तरफ़ व्यापारिक कंपनियां स्थापित करने, गोदाम बनाने और रिटेल कारोबार करने के लिए भी चीन के लोग यहां आए. उन्होंने उपजाऊ ज़मीन ख़रीदकर खेती की भी शुरुआत कर दी. लेकिन शायद चीन को लेकर ज़ाम्बिया के लोगों के ग़ुस्से की सबसे बड़ी वजह है छोटे-मोटे काम में चीन के नागरिकों की भागीदारी जैसे- सेकेंड हैंड कपड़े बेचना, मुर्गा पालन और सड़क किनारे स्टॉल लगाकर भुट्टे बेचना. ऐसे काम करके वो सीधे ज़ाम्बिया के ग़रीबों से मुक़ाबला कर रहे हैं। ज़ाम्बिया में अनुमानित 1 लाख चीन के नागरिक अब टकराव की वजह बन गए हैं. इसकी वजह से नकोंडा को कहना पड़ा, ‘इस तथ्य को लेकर कोई दिखावा नहीं होना चाहिए कि पहले से अलग पिछले कुछ वर्षों के दौरान ज़ाम्बिया के एक साधारण नागरिक और चीन के नागरिक के बीच संबंध संदेह और अविश्वास से भरा हुआ है. ज़ाम्बिया के लोगों को लगता है कि चीन उनके देश पर कब्ज़ा करने आ रहा है. चीन की कंपनियों में काम करने वाले ज़ाम्बिया के लोग कम मज़दूरी, काम-काज के ख़राब हालात, आमतौर पर ख़राब सलूक और नस्लवाद की शिकायत करते हैं.’
चीन के कारोबारी तौर-तरीक़ों के ऊपर लोगों का ग़ुस्सा ज़ाम्बिया में धीरे-धीरे चीन के नागरिकों की बढ़ती आबादी की वजह से और बढ़ गया है. अलग-अलग परियोजनाओं में काम के लिए लाए गए कई चीनी नागरिक यहीं रह गए
पैट्रियोटिक फ्रंट के नेता माइकल साता ने जल्दी इस पहलू को समझ लिया और 2006 में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने अपने अभियान को साफ़ तौर पर चीन के विरोध से जोड़ दिया. उन्होंने तो यहां तक इशारा किया कि अगर चुनाव में उनकी जीत हुई तो वो चीन के साथ संबंधों को तोड़ लेंगे और ताइवान के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करेंगे. साता सम्मानजनक 29% वोट के साथ चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे. विपक्ष के नेता के तौर पर अपनी पहुंच का इस्तेमाल उन्होंने चीनी मौजूदगी के ख़िलाफ़ लोकप्रिय भावनाओं को भड़काने में किया. 2011 में भी माइकल साता चुनाव में खड़े हुए लेकिन इस बार वो थोड़े नरम थे. उन्होंने चीन के निवेशकों को भरोसा दिया लेकिन ये साफ़ किया कि वो देश के श्रम क़ानून का सम्मान करें. इस बार 42% वोट शेयर के साथ वो चुनाव जीत गए और उनके जीतने के कुछ दिनों के भीतर ही चामबिशी कॉपर माइन ने अपने कामगारों के वेतन में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी की. लेकिन तीन साल बाद साता की मौत हो गई और रिपोर्ट के मुताबिक उनके उत्तराधिकारी एडवर्ड लुंगु के शासन में एक बार फिर पहले जैसा हाल हो गया है.
लुसाका में चीन के नागरिकों की ख़ौफ़नाक हत्या एक अधूरी कहानी का हिस्सा बना हुआ है.
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