ऐसा हर साल नहीं होता है कि फ्रांस-यूरोपीय संघ में भारत का प्राथमिक सहयोगी-यूरोपीय संघ की परिषद की अध्यक्षता करता है. वास्तव में इससे पहले फ्रांस ने साल 2008 में परिषद का पदभार संभाला था, तब सभी यूरोपीय संघ के सदस्य राज्यों के प्रासंगिक क्षेत्र-वार मंत्रियों को एक मंच पर देखा गया था. इस वर्ष करीब 6 महीने की रोटेटिंग व्यवस्था के तहत फ्रांस ने 1 जनवरी को यूरोपीय संघ के परिषद की अध्यक्षता संभाली जिसमें डिज़िटल दिग्गजों के नियमन, यूरोप में न्यूनतम मज़दूरी, शेंगेन सुधार और नाटो के पूरक यूरोपीय सुरक्षा को बढ़ाने वाला महत्वाकांक्षी एजेंडा शामिल है.
भारत-फ्रांस के बीच अभी संबंध लगातार बेहतर हो रहे हैं, जिसे फ्रांस के रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ले के काव्यात्मक लहज़े में कहा जाए तो “ यह गंगा और सीन नदियों के बीच की दूरी कम होने जैसा है”.
यूरोपीय नागरिकों के लिए फ्रांसीसी अध्यक्षता ऐसे वक्त पर आई है जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति महत्वपूर्ण मोड़ पर है- जिसमें कोरोना महामारी की तीसरी लहर के साथ अमेरिका-चीन के बीच बढ़ती रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा, यूक्रेन की सीमा पर रूसी सैनिकों की तैनाती और व्यापक होते ऊर्जा संकट के साथ जर्मनी में मर्केल युग के अंत होने और यूरोपीय संघ के महत्वाकांक्षी “भू-राजनीतिक आयोग” जैसे मुद्दे सामने हैं. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यूरोपीय संघ के एजेंडे को निर्धारित करने के लिए फ्रांस की अध्यक्षता एक बड़ी भूमिका निभा सकती है, जिसके तहत फ्रांस के पास इसके निर्णयों को प्रभावित करने, बाकी 26 सदस्य देशों के साथ समझौता करने और परिषद और अन्य यूरोपीय संघ के संस्थानों के बीच साझेदारी स्थापित करने के लिए बेहतर मौक़ा हो सकता है.
फ्रांस पसंदीदा साझेदार
भारत के लिए फ्रांस की अध्यक्षता का समय इससे बेहतर वक़्त पर नहीं आ सकता था. भारत-फ्रांस के बीच अभी संबंध लगातार बेहतर हो रहे हैं, जिसे फ्रांस के रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ले के काव्यात्मक लहज़े में कहा जाए तो “ यह गंगा और सीन नदियों के बीच की दूरी कम होने जैसा है”. इसके अलावा कई मोर्चों पर पहले से ही भारत के लिए फ्रांस पसंदीदा साझेदार रहा है जिसमें स्वदेशी रक्षा उपकरणों का उत्पादन, सुरक्षा मामले और पर्यावरण बदलाव जैसे मुद्दे शामिल हैं; अंतरर्राष्ट्रीय सौर ऊर्जा को लेकर साझेदारी, जिसे भारत और फ्रांस ने बढ़ावा दिया है, जो लगातार कई मुल्कों को इस ओर आकर्षित कर रहा है, यहां तक कि कोरोना महामारी के बावजूद साल 2021 में दोनों देशों के बीच कारोबार 8.85 बिलियन अमेरिकी डॉलर पहुंच चुका है. किसी को सिर्फ यह देखने की ज़रूरत है कि भारत के गणतंत्र दिवस परेड के मौक़े पर फ्रांस के राष्ट्रपति कितनी बार मुख्य अतिथि रहे हैं – किसी भी देश के नेता के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा पांच बार- जो यह बताने के लिए काफी है कि साल दर साल भारत के लिए फ्रांस का महत्व बढ़ता ही जा रहा है.
हाल के वर्षों में, भारत-फ्रांस साझेदारी के साथ, पहले के यूरोपीय संघ और भारत के बीच की मुश्किल भरी साझेदारी भी अब सबसे अच्छे दौर में है. मई 2021 में यूरोपीय संघ-भारत शिखर सम्मेलन एक अनोखे स्वरूप में आयोजित हुआ जो पहले सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका तक विस्तारित था, उसमें सभी 27 यूरोपीय देशों के राष्ट्र अध्यक्ष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिरकत की थी.
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर निकलने के साथ ही अब संघ में फ्रांस और जर्मनी ज़्यादा अहमियत रखते हैं. हालांकि रणनीतिक सोच के मामले में, फ्रांस लंबे समय से यूरोप में वैचारिक अग्रणी की भूमिका में रहा है. वास्तव में रणनीतिक स्वायतत्ता का विचार, जो मौजूदा वक़्त में नई भू-राजनीतिक यूरोपीय संघ को रेखांकित करता है, सबसे पहले पेरिस में ही इसकी शुरुआत हुई. फ्रांस ही पहला यूरोपीय देश था जिसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा को आगे बढ़ाया, वो भी वर्ष 2018 से पहले जब यह अवधारणा ट्रेंड करने लगी, और तो और फ्रांस अकेला ऐसा यूरोपीय देश है जिसकी दूतावास की भूमिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में है. यूरोपीय संघ के स्तर पर फ्रांस के इस दृष्टिकोण को जिसे जर्मनी और नीदरलैंड्स ने बढ़ावा दिया, अब उस पर चर्चा होती है, जिसका नतीजा है कि सितंबर 2021 में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यूरोपीय संघ सहयोग की बात करने लगा, जिसे आधिकारिक तौर पर फ्रांस की अध्यक्षता के दौरान शामिल कर लिया गया.
फ्रांस ख़ुद को एक “स्थानिक शक्ति” मानता है, इस बात को समझते हुए कि अभी भी इस क्षेत्र में उसकी मौजूदगी है और भारत के साथ इसकी भागीदारी समावेशिता, संप्रभुता, पारदर्शिता और आवाजाही की आज़ादी के सिद्धांतों पर आधारित है और यह भारत के साथ उसकी साझेदारी का “एक प्रमुख स्तंभ” है.
अप्रत्याशित रूप से, हिंद-प्रशांत क्षेत्र -जो नया रणनीतिक केंद्र है – वह फ्रांसीसी अध्यक्षता के दौरान फोकस में है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र यूरोपीय विदेश नीति का अहम हिस्सा बन गया है, ख़ास कर इसे देखते हुए कि कैसे इस क्षेत्र में समुद्री मार्ग से यूरोपीय संघ के अधिकांश निर्यात और ऊर्जा संसाधनों का लेन देन होता है और इस बात का अहसास होना कि इस क्षेत्र में जो घटनाक्रम घटित होगा उसका सीधा प्रभाव यूरोप और उसके हितों पर होगा.
फ्रांस ख़ुद को एक “स्थानिक शक्ति” मानता है, इस बात को समझते हुए कि अभी भी इस क्षेत्र में उसकी मौजूदगी है और भारत के साथ इसकी भागीदारी समावेशिता, संप्रभुता, पारदर्शिता और आवाजाही की आज़ादी के सिद्धांतों पर आधारित है और यह भारत के साथ उसकी साझेदारी का “एक प्रमुख स्तंभ” है. 22 फरवरी को पेरिस में हिंद-प्रशांत में आगामी मंत्रिस्तरीय फोरम की बैठक जो किसी भी यूरोपीय संघ परिषद की अध्यक्षता के दौरान पहली बार आयोजित की जा रही है- फ्रांस ने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर को अन्य सहयोगी देशों के विदेश मंत्रियों के साथ आमंत्रित किया है, जिसका मक़सद हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कानून द्वारा शासित व्यवस्था को बनाना है.
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि यूरोपीय संघ ने सितंबर 2021 में महामारी की शुरुआत के बाद से भारत और यूरोपीय देशों के ख़िलाफ़ चीन की आक्रामकता की पृष्ठभूमि में अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति को सार्वजनिक किया था. चीन के प्रति जिस अवधारणा को लेकर यूरोपीय देश पहले चल रहे थे अब जबकि उसमें पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है, यह रणनीति चीन के लिए एक “बहुआयामी” और “समावेशी” दृष्टिकोण की रूपरेखा तैयार करती है. इसके तहत चीन को इस क्षेत्र में शांतिपूर्ण भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, साथ में “जहां मौलिक असहमति मौजूद है उसे दरकिनार किया जा रहा है”.
दूसरी ओर, यह भारत को उसके “समान विचारधारा वाले” भागीदारों के बारे में बताता है, जो इस क्षेत्र में भारत के महत्व को साफ तौर पर दर्शाता है. यह वैक्सीन, जलवायु परिवर्तन और उभरती प्रौद्योगिकियों जैसे सामान्य क्षेत्रों पर क्वाड के साथ संभावित सहयोग की भी बात करता है. दरअसल, यूरोपीय संघ के ‘ग्लोबल गेटवे‘ इन्फ्रास्ट्रक्चर की पहल, जो वास्तव में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का विकल्प है, भारत और जापान ही वो पहले दो देश हैं जिन्होंने यूरोपीय संघ के साथ इस कनेक्टिविटी समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं. ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच “ऑकस विवाद” त्रिस्तरीय समझौता के तहत फ्रांस के साथ ऑस्ट्रेलिया के पनडुब्बियों की डील को रोककर ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बी प्रदान करने की बात है- इसने भी फ्रांस और भारत की साझेदारी को पनपने का मौक़ा दिया है, बावजूद इसके कि हिंद महासागर क्षेत्र में इसके चलते पहले से त्रिस्तरीय फ्रांस-भारत-ऑस्ट्रेलिया समझौते को इससे नुकसान हुआ है. (यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कैसे पीएम मोदी पहले नेता थे जिन्हें राष्ट्रपति मैक्रों ने विवाद होने के बाद आमंत्रित किया था ). साल 2021 में ईयू-भारत सम्मेलन के दौरान अपनाए गए एआई और 5 जी पर समझौता, जो नई डिज़िटल साझेदारी को दर्शाता है, उसमें भारत-प्रशांत क्षेत्र में यूरोपीय संघ की रणनीति और भारत के साथ यूरोपीय संघ के सहयोग के बीच कई अहम क्षेत्रों को दिखाते हैं.
EU रणनीति जर्मन दृष्टिकोण से ज़्यादा प्रभावित
सामान्य यूरोपीय संघ की रणनीति के बावजूद प्राथमिक क्षेत्रों को लेकर यूरोपीय सदस्य देशों के बीच कई तरह के मतभेद पाए जाते हैं. यूरोपीय संघ की रणनीति, जो जर्मन दृष्टिकोण से ज़्यादा प्रभावित है, वह आर्थिक विवेचना को ज़्यादा अहमियत देती है जो यूरोप की आर्थिक शक्ति के तौर पर जर्मनी की भूमिका पर आधारित है और जो सख़्त सुरक्षा मामलों पर इसकी चुप्पी और मर्केल युग के दौरान चीन पर उदारता को बताती है. दूसरी ओर फ्रांस सुरक्षा के मुद्दे को लेकर हिंद महासागर क्षेत्र में ज़्यादातर अनुबंध करना चाहता है. इससे वह भारत के साथ इस क्षेत्र में अपनी प्राथमिकताओं को जोड़ सके. जबकि जर्मनी की रणनीति में अमेरिका का कोई ज़िक्र नहीं है लेकिन भारत और फ्रांस दोनों इस क्षेत्र में अमेरिका की मज़बूत भूमिका के पक्ष में हैं. लेकिन अमेरिका से इतर जिसकी हिंद-प्रशांत नीति इस क्षेत्र में चीन की मौजूदगी के ख़िलाफ़ है. भारत सीधे तौर पर चीन को नाराज़ नहीं करना चाहता है, बल्कि भारत ऐसी नीति को अपनाना चाहता है जो यूरोप की तरह ही गैर-संघर्षवादी हो.
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस क्षेत्र में अपनी सीमाओं के चलते यूरोपीय संघ कभी भी भारत का पसंदीदा सैन्य साझेदार नहीं बन सकता है, हालांकि तकनीक और अर्थव्यवस्था, जहां इसकी काबिलियत साबित है, वहां ब्रूसेल्स पूरी तरह दबाव और अपना प्रभाव जमाने के लिए बेहतर स्थिति में है. भारत और यूरोप एक साथ आर्थिक विविधता के अपने सामान्य मक़सद को आगे बढ़ा सकते हैं और चीन की चुनौतियों का सामना करने के लिए आपस में साझेदारी को मज़बूत कर सकते हैं.
जर्मन मार्शल फंड से ताल्लुक रखने वाली बुद्धिजीवी गरिमा मोहन ने एक बार ज़िक्र किया था कि ब्रसेल्स में बड़ी तादाद में फ्रांसीसी नागरिक रहते हैं और महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं, और वो ही यूरोपीय संघ और भारत के बीच साझेदारी को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएंगे.
बावजूद इसके कि घरेलू और यूरोपीय मामले जिसमें कोरोना वायरस महामारी, फ्रांस में होने वाले आम चुनाव और तत्काल रूप से यूक्रेन संकट शामिल हैं, वो राष्ट्रपति मैक्रों का ध्यान बंटा सकते हैं, लेकिन यूरोपीय संघ की अध्यक्षता के दौरान फ्रांस और भारत के बीच मज़बूत द्विपक्षीय संबंध ब्रूसेल्स-भारत के बीच रिश्तों को नई ऊंचाई तक पहुंचा सकता है. यह मज़बूत द्विपक्षीय सहयोग यूरोपीय संघ के फ्रेमवर्क के अंदर ब्रूसेल्स में साझेदारी के लिए मज़बूत आधार हो सकते हैं और ये हाल में भारत और फ्रांस के विदेश मंत्रियों, एस. जयशंकर और ली द्रियान ने ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक वर्चुअल कार्यक्रम के दौरान दोहराई थी. इसके साथ ही जर्मन मार्शल फंड से ताल्लुक रखने वाली बुद्धिजीवी गरिमा मोहन ने एक बार ज़िक्र किया था कि ब्रसेल्स में बड़ी तादाद में फ्रांसीसी नागरिक रहते हैं और महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं, और वो ही यूरोपीय संघ और भारत के बीच साझेदारी को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएंगे. इस तरह यह साफ है कि यूरोपीय संघ के स्तर पर फ्रांस की अवधारणा का ग्राफ़ ऊंचाई की ओर जा रहा है.
यहां दूसरा फायदा यह है कि रणनीतिक स्वायत्तता पर मौजूदा वक़्त में यूरोप का जोर, जिसकी समझ भारत को बेहतर है, और जिसे भारत अपनी विदेश नीति निर्णय लेने के मामले में आज़ादी के बाद के दिनों से ही अपनाता रहा है. भारत के लिए रणनीतिक स्वायत्तता अमेरिका-रूस रणनीतिक प्रतियोगिता से दूर रहने का एक तरीक़ा है और शीत युद्ध के दौरान अपने विकल्पों को बढ़ाने का मौक़ा है. इसी तरह की एक अवधारणा, जिसे फ्रांस ने शुरू किया है, जिसकी गूंज मौजूदा समय में पूरे यूरोप में सुनाई दे रही है वह यह है कि “दुनिया भर में हमारे हितों और मूल्यों की रक्षा करने के लिए, जिसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र भी शामिल है”. यह मैक्रों की एक यूरोपीय सेना को बनाने के लक्ष्य की ओर बढ़ने वाला एक रणनीतिक आधार है, जो उनके 2017 के चुनाव अभियान के बाद से और हाल में ऑकस को लेकर हुए विवाद के बाद नाटो और अमेरिका पर निर्भरता कम करने के मंसूबों से प्रेरित है. इस प्रकार, अमेरिका-चीन की प्रतिद्वंद्विता बीच की शक्तियों, मतलब भारत और यूरोप जैसी शक्तियों को इस रणनीतिक शून्य को भरने और एक-दूसरे के साथ अधिक साझेदारी तलाशने का अवसर दे रही है.
ऐसे में फ्रांस की यूरोपीय संघ की अध्यक्षता के समय का भारत को पूरा फायदा उठाना चाहिए और यूरोपीय संघ के स्तर पर अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए फ्रांस के साथ साझेदारी को मज़बूत करने की दिशा में काम करना चाहिए. यह तब मुमकिन है जबकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा, स्थिरता और कनेक्टिविटी जैसे आपसी हित के क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा दिया जाए, घरेलू लचीलापन बढ़ाया जाए, लंबे समय से अधर में लटके हुए ईयू-भारत मुक्त व्यापार समझौतों पर बातचीत हो, डिज़िटल रेगुलेशन, अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति, जलवायु परिवर्तन और बहुपक्षवाद को पुनर्जीवित किया जाए. शुरुआती तौर पर, भारत ने पहले ही फ्रांस को उसकी अध्यक्षता के दौरान पाकिस्तान को हथियारों की बिक्री पर यूरोपीय संघ द्वारा पाबंदी लगाने की वकालत के लिए आगे कर दिया है. यह भारत के राष्ट्रीय हित में होगा अगर मर्केल युग के बाद मैक्रों यूरोपीय संघ के स्तर पर अपने बढ़े हुए प्रभाव का इस्तेमाल कर फ्रांसीसी दृष्टिकोण के मुताबिक़ अधिक से अधिक फ्रेंको-जर्मन सुरक्षा व्यवस्था का प्रबंधन कर सकें, जो कि काफी हद तक भारतीय अवधारणा के करीब है.
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