Author : Kabir Taneja

Published on Mar 16, 2019 Updated 0 Hours ago

उम्मीद है कि अब एक तस्वीर बदलेगी।

क्राइस्टचर्च में गोलीबारी: विचार-विमर्श का एक बड़ा मसला

न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों में हुई गोलीबारी की घटना ‘अति दक्षिणपंथी विचारधारा’ के दुनिया भर में पांव पसारने का सुबूत है। खासतौर से विश्व में ‘श्वेत श्रेष्ठता ग्रंथि’ को लेकर एक अलग तरह का माहौल बन गया है, जो अश्वेतों के पुरजोर खिलाफ है। यह ग्रंथि गैर-श्वेतों से इतनी नफरत करती है कि उसे उनकी जान लेने से भी कोई गुरेज नहीं है। क्राइस्टचर्च से जो शुरुआती खबरें आई हैं, वे यही बता रही हैं कि हमलावर कहीं न कहीं इसी तरह की मानसिकता का शिकार था। वह नॉर्वे के हत्यारे एंडर्स ब्रेविक के संपर्क में भी रह चुका है, जिसने इसी मानसिकता के तहत जुलाई 2011 में अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए 75 से अधिक लोगों की जान ले ली थी। हालांकि यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि यह संपर्क अब भी था या नहीं?

असल में, इस तरह की मानसिकता का प्रचार-प्रसार ज्यादातर ऑनलाइन माध्यमों से होता है। इंटरनेट की दुनिया में ऐसे कई ग्रुप देखे जा सकते हैं, जहां आप्रवासियों, इस्लाम, नस्ल, वर्ण आदि के खिलाफ गर्व के साथ प्रचार-प्रसार किया जाता है। ऐसे तबकों का मानना है कि श्वेत आबादी श्रेष्ठ है और उसे सबसे आगे रहना ही चाहिए। ये बेशक संगठित नहीं होते, मगर असंगठित रहकर भी अपना एजेंडा खूब चलाते रहते हैं। न्यूजीलैंड में ही शुक्रवार को जिन लोगों ने इंसानियत को तार-तार किया, वे इंटरनेट के माध्यम से एक-दूसरे के संपर्क में आए थे।

असल में, इस तरह की मानसिकता का प्रचार-प्रसार ज्यादातर ऑनलाइन माध्यमों से होता है।

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने उचित ही इसे ‘आतंकी घटना’ माना है। यह काफी महत्वपूर्ण बात है। दरअसल, अब तक ऐसे हमलावरों को ‘पागल’ और ‘मानसिक रूप से कमजोर’ कहा जाता है और घटनाओं को महज ‘गन अटैक।’ मगर विद्रूप मानसिकता वाले ये लोग चूंकि एक खास किस्म की विचारधारा से प्रेरित होते हैं और अतिवादी राजनीति का शगल पालते हैं, इसलिए इन्हें आतंकी मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। इनकी क्रूरता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि न्यूजीलैंड के हमलावर ने गोलीबारी का वीडियो शूट किया और फेसबुक पर उसकी ‘लाइव स्ट्रीम’ चलाई। ऑनलाइन ये कितने मुखर हैं, इसकी तस्दीक 8चेन जैसी वेबसाइट भी करती हैं, जहां श्रेष्ठता ग्रंथी को प्रसारित करने वाले संदेशों की भरमार दिखती है। यहां ये अपने मतलब के तमाम मसलों पर विचार-विमर्श करते हैं। ये 1990 की सदी में बोस्निया में हुए युद्ध को भी खूब महिमा मंडित करते हैं और इसे कोई ‘भू-राजनीतिक’ नहीं, बल्कि ‘नस्लीय जंग’ बताते हैं। उल्लेखनीय है कि इस जंग में ज्यादातर मुसलमान मारे गए थे।

क्राइस्टचर्च में खूनी खेल खेलने से पहले हत्यारे ने ऑनलाइन घोषणा-पत्र भी जारी किया है। उसमें ‘व्हाइट सुपरमेसी’ यानी श्वेत श्रेष्ठता को बचाने की बात कही गई है। लिखा गया है कि हमारे राजनेता आप्रवासियों के हिमायती हैं, जिस कारण हमारी भूमि हमसे छीनी जा रही है। घोषणा-पत्र में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का जिक्र होने की भी खबर है। कहा गया है कि ट्रंप जैसे नेता सियासी रूप से अब शीर्ष पर हैं और वे श्वेत नस्ल को आगे बढ़ाने में काफी मददगार साबित होंगे। यह बताता है कि अपनी नस्ल को लेकर ये लोग किस कदर भावुक रहते हैं।

अब तक ऐसे हमलावरों को ‘पागल’ और ‘मानसिक रूप से कमजोर’ कहा जाता है और घटनाओं को महज ‘गन अटैक।’ मगर विद्रूप मानसिकता वाले ये लोग चूंकि एक खास किस्म की विचारधारा से प्रेरित होते हैं और अतिवादी राजनीति का शगल पालते हैं, इसलिए इन्हें आतंकी मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

मगर दुख की बात यह है कि इस सोच से पार पाने के लिए हमारे सियासतदां गंभीर नहीं हैं। खासतौर से ताकतवर देशों के मुखिया अब भी इस तरह की घटनाओं को ‘साधारण’ मानकर खारिज कर देते हैं। न्यूजीलैंड की मुखिया जेसिंडा अर्डर्न भले ही इसे आतंकी घटना मान रही हैं, लेकिन उनके ऑस्ट्रलियाई समकक्ष स्कॉट मॉरिसन की नजरों में हमलावर सिर्फ ‘शूटर’ हैं। क्वींसलैंड के सीनेट फ्रेजर अनिंग तो निंदा जारी करते हुए महज इतना कहकर चुप हो जाते हैं कि ‘दुनिया भर में मुस्लिमों के खिलाफ दुर्भावना तेजी से बढ़ रही है, जो दुखद है।’ अमेरिकी राष्ट्रपति भी श्वेत श्रेष्ठता ग्रंथि के रथ पर सवार होकर ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं। जाहिर है, कोई राजनेता ऐसी मानसिकता के खिलाफ मुंह नहीं खोलना चाहता, क्योंकि आप्रवासियों के खिलाफ नफरत का यही माहौल उनके लिए वोट बैंक का काम करता है। नॉर्वे के हत्यारा को भी पहले दिमागी रूप से कमजोर बताया गया था, लेकिन अदालत ने उसे ‘सीजोफ्रीनिया’ का मरीज नहीं माना। वह तो अदालत में खुलेआम नाजी शैली में सैल्यूट भी मारता है, जिसके लिए जज ने उसे कई बार टोका है। हालांकि इन सबके बाद भी उसे सामान्य अपराध के लिए ही सजा मिल पाई, क्योंकि सरकारी पक्ष यह साबित करने में सफल रहा कि उसने किसी ‘आतंकी घटना’ को अंजाम नहीं दिया था।

उम्मीद है कि अब यह तस्वीर बदलेगी। जब किसी देश का प्रधानमंत्री ऐसी घटना को आतंकी वारदात बताएगा, तो दबाव दूसरे देशों पर भी पड़ेगा। आतंकवाद की परिभाषा में इन वारदातों को समेटने से न सिर्फ अपराधियों को सख्त से सख्त सजा मिल सकेगी, बल्कि ऐसी श्रेष्ठता ग्रंथी से भी हम पार पा सकेंगे। फिर, संयुक्त राष्ट्र में भी ‘आतंकवाद’ विचार-विमर्श का एक बड़ा मसला है, जिस पर सभी देशों में एक राय नहीं बन सकी है। जरूरत इस पर भी गौर करने की है। कुल मिलाकर, यह तो तय है कि दुनिया भर में आप्रवासियों के खिलाफ माहौल और भावना बढ़ रही है, लेकिन पश्चिम के नेतागण यूं ही इस मुद्दे से खेलते रहेंगे, तो यह भी निश्चित है कि आने वाले दिनों में मुश्किलें और बढेेंगी। हम सबको इसके निपटने का उपाय कर लेना चाहिए।


यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है।

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