Published on Jun 11, 2020 Updated 0 Hours ago

कोई भी जन नीति असरदार हो इसके लिए स्वस्थ सार्वजनिक परिचर्चा आवश्यक है. अगर भारत ये चाहता है कि चीन से संबंधित उसकी नीति में गंभीरता हो, तो ये इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत किस तरह अपने लक्ष्य को साधने के लिए इस्तेमाल होने वाले तरीक़ों और रास्तों को एक ही दिशा में ले जाने में सफल होता है.

भारत का हर नागरिक बन बैठा है चीनी मामलों का जानकार!

अब जबकि ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कई दिनों से तनातनी को दूर करने के लिए भारत और चीन की सैन्य टुकड़ियां कई जगहों पर अपने अपने मोर्चों से पीछे हटी हैं. पिछले क़रीब एक महीने से चीन और भारत की सेनाएं नियंत्रण रेखा पर कई जगह आमने सामने थीं. दोनों देशों के बीच इस तनातनी के दौरान, भारत में लेकर चीन को लेकर होने वाली परिचर्चाओं ने अजीब-ओ-ग़रीब रुख़ अख़्तियार किया है. भारत के नागरिकों का आम तौर पर मानना है कि हम ‘तर्कवादी लोकतांत्रिक’ देश हैं. भारत के मित्र राष्ट्र भी इस बात से भलीभांति परिचित हैं. और भारत के ये मित्र राष्ट्र इसकी ज़ोरदार बौद्धिक और राजनीतिक परिचर्चा वाली संस्कृति को बहुत पसंद भी करते हैं. उन्हें लगता है कि परिचर्चा की ये स्वस्थ परंपरा भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की मूलभूत पहचान है. उन्हें लगता है कि तमाम विषयों पर ये राजनीतिक और बौद्धिक परिचर्चा ही भारत को बाक़ी देशों की तुलना में पारदर्शी और भरोसेमंद साथी बनाते हैं. वहीं, भारत के विरोधी राष्ट्रों को लगता है कि भारत की हर मुद्दे पर बहस करने की इस ख़ूबी के चलते उससे निपटना बहुत आसान है. चीन जैसे भारत के प्रतिद्वंदी राष्ट्र की नज़र में यहां की लोकतांत्रिक परंपराएं अवहेलना का विषय हैं. क्योंकि चीन जैसे अलोकतांत्रिक देश को लगता है कि हर मुद्दे पर बहस का भारतीय लोकतांत्रिक मॉडल कई बार प्रशासन की राह में बाधक बन जाता है. चीन, भारत के इस लोकतांत्रिक मॉडल को हेय दृष्टि से देखता है. क्योंकि, उसे लगता है कि सरकार और इसके विरोधियों के बीच इस तर्क वितर्क के चलते प्रशासन में जड़ता आ जाती है. और ये ऐसी बाधा है जिससे निपटने में कोई मज़बूत और निर्णायक नेतृत्व भी ख़ुद को लाचार पाता है.

लेकिन, ज़्यादातर भारतीय नागरिकों को इस बात से तसल्ली हासिल होती है कि वो अपनी तमाम समस्याओं का हल जोश भरी सार्वजनिक परिचर्चाओं के माध्यम से निकाल लेते हैं. और ये ऐसी ख़ूबी है जिसे क़तई हल्के में नहीं लिया जा सकता है. आज बहुत से लोगों के जीवन में सोशल मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है. ऐसे में तमाम विषयों पर होने वाली सार्वजनिक परिचर्चाओं ने एक नया ही रुख़ ले लिया है. अब बहुत से विषयों पर होने वाली सार्वजनिक बहसों में नए नए लोग शामिल हो रहे हैं. इस परिचर्चा के लिए नए मुहावरे गढ़े जा रहे हैं. कुल मिलाकर कहें तो, आज भारत में सार्वजनिक परिचर्चा ने एकदम नया ही रंग रूप धर लिया है. आज जननीतियां भी इस नई मगर आम हो चुकी परिचर्चा के माध्यम से तय हो रही हैं. दिक़्क़त ये है कि आज किसी भी विषय पर विशेषज्ञता की कोई अहमियत नहीं रह गई है. और आज सोशल मीडिया के दौर में कोई भी किसी भी विषय का विशेषज्ञ बन कर अपनी राय इस तरह रखता है, मानो वही अंतिम एवं ध्रुव सत्य हो. रणनीति हो, व्यूह रचना हो या फिर क्रियान्वयन, हर बात का छिद्रान्वेषण ट्विटर पर हो सकता है. हर मसले का हल बस 280 अक्षरों में निकाला जा सकता है.

परिपक्व देश वो होते हैं जो युद्ध और शांति से जुड़े फ़ैसले, न तो वक़्ती जज़्बात के आधार पर करते हैं और न ही मीडिया और सोशल मीडिया पर चल रही नक़ली परिचर्चा के आधार पर. ऐसे देश अपने सामरिक विकल्पों का निर्णय अपने मक़सद और माध्यमों को एक दिशा में रख कर करते हैं.

पिछले कुछ हफ़्तों में भारत ने एकदम अलग ही तरह का तमाशा झेला है. इस तमाशे के दौरान हमने देखा है कि देश में चीन से जुड़े मामलों के विशेषज्ञों, सैटेलाइट की तस्वीरों के विश्लेषकों और रक्षा विशेषज्ञों की संख्या में कई गुना का इज़ाफ़ा हो गया है. और मज़े की बात ये है कि हर इंसान ख़ुद को इन सभी मामलों का एक्सपर्ट बताता है. ऐसा लगता है कि हम सबको ये पता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन ने क्या किया है और जो भी किया है, वो क्यों किया है. ऐसा लगता है कि देश का हर व्यक्ति विशेषज्ञ है और उसे पता है कि सीमा पर चीन ने भारत की कितनी ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा किया है. वहां पर किस हद तक मोर्चेबंदी की है. और सोशल मीडिया पर जिसे देखो वही ये बताने में लगा हुआ है कि चीन की इन चालों से निपटने के लिए भारत को क्या करना चाहिए. जिन लोगों को अब तक मोदी सरकार का कोई भी काम पसंद नहीं आया है, वो इस बात पर सोग जता रहे हैं कि मौजूदा सरकार ने चीन के सामने कायरता भरा रवैया अख़्तियार किया है. और दिलचस्प बात ये है कि जो लोग मोदी सरकार को पसंद करते हैं, वो विरोधियों द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के आधार पर ही ये दावा कर रहे हैं कि भारत ने चीन को कड़ा जवाब दिया है.

परिपक्व देश वो होते हैं जो युद्ध और शांति से जुड़े फ़ैसले, न तो वक़्ती जज़्बात के आधार पर करते हैं और न ही मीडिया और सोशल मीडिया पर चल रही नक़ली परिचर्चा के आधार पर. ऐसे देश अपने सामरिक विकल्पों का निर्णय अपने मक़सद और माध्यमों को एक दिशा में रख कर करते हैं. चीन अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा के इस पार इसलिए नहीं धकेल रहा है कि उसके नागरिक सोशल मीडिया ऐप वीबो पर अपने देश की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर इस बात का दबाव बना रहे हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और इसके नेतृत्व का अपना गुणा गणित है. जो उसकी अपनी अंदरूनी कमज़ोरियों और साम दाम दंड भेद की विदेश नीति पर आधारित होते हैं. ऐसा बहुत कम ही देखने को मिला है कि किसी संकट के समय चीन ने अपने भू राजनीतिक मक़सद साधने का मौक़ा हाथ से जाने दिया हो. विश्व व्यवस्था इस वक़्त जिस संकट के दौर से गुज़र रही है, उसने चीन को इस बात के तमाम अवसर दिए हैं जिनका वो लाभ उठा सके. हो सकता है कि हमें इस बात में अपमान महसूस हो, मगर हक़ीक़त यही है कि चीन के नेताओं को ये बात भलीभांति पता है कि उन्हें तभी वार करना है जब लोहा गर्म हो. उसके वार से किसे कैसे निपटना है, ये सोचना चीन का नहीं, उसके शिकार होने वालों को समझना है.

चीन के इस विस्तारवाद से कैसे निपटना है, इस बात का फ़ैसला भारत भी अपनी क्षमताओं और अपनी कमज़ोरियों के आधार पर ही करेगा. ये काफ़ी असाधारण सी बात है कि आज चीन के प्रति भारत के रुख़ की आलोचना करने वाले वही लोग हैं, जो भारत के अमेरिका से मज़बूत रिश्ते क़ायम करने की नीति के विरोधी रहे हैं. ये बात एकदम स्पष्ट है कि भारत और चीन के इस द्वंद में चीन एक मज़बूत पक्ष है. चीन ने अपनी आर्थिक शक्ति की मदद से अपनी सामरिक ताक़त का विस्तार इस हद तक कर लिया है कि वो अब इसकी मदद से दूसरे देशों की ताक़त का इम्तिहान ले रहा है. ये भारत और चीन के बीच मौजूदा संकट से पहले भी हो रहा था. और ये तय है कि चीन आगे भी ऐसा करना जारी रखेगा. चीन तब तक भारत की ताक़त का इम्तिहान लेता रहेगा, जब तक दोनों देशों के बीच शक्ति का असंतुलन ऐसे ही बना रहेगा. यूं तो भारत अपनी अंदरूनी ताक़त को बढ़ा रहा है. लेकिन, जब तक वो चीन के साथ बराबर का शक्ति संतुलन नहीं बना लेता, तब तक भारत को अपने जैसे विचार रखने वाले देशों के साथ मज़बूत संबंध बनाने की ज़रूरत होगी. मगर, भारत के कई सामरिक विशेषज्ञों को ये विचार भी कुछ ज़्यादा ही क्रांतिकारी लगता है. आज भी भारत के प्रबुद्ध वर्ग के दिल में गुट निरपेक्षता का नाम सुन कर ही गुदगुदी होने लगती है.

अगर भारत, चीन को लेकर कोई गंभीर रणनीति बनाना चाहता है, तो इसके लिए उसे अपने मक़सद और माध्यमों को एक दूसरे से तालमेल बिठाने वाला बनाना होगा. इसके लिए भारत को चीन के मामलों के गंभीर विशेषज्ञों, सैटेलाइट तस्वीरों के अच्छे विश्लेषकों की ज़रूरत है

जहां तक चीन के साथ संबंध को नए सिरे से परिभाषित करने की बात है, तो भारत ने पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में बहुत ख़राब उपलब्धि नहीं हासिल की है. चीन के साथ संबंध सामान्य बनाने के प्रयास के साथ साथ भारत ने अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ भी नज़दीकी बढ़ाने का प्रयास जारी रखा है. पिछले कुछ वर्षों में भारत ने पहले के मुक़ाबले अधिक मज़बूत इरादों के साथ सीमा पर मूलभूत ढांचे का विस्तार किया है. साथ ही साथ भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अधिक आक्रामकता वाली नीति भी अपनायी है. इसके अलावा, भारत ने रक्षा कूटनीति का भी बख़ूबी इस्तेमाल किया है. पिछले वर्ष भारत ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करके अपनी सीमाओं को और मज़बूत करने का प्रयास किया है. लद्दाख में चीन और भारत के बीच मौजूदा तनातनी की एक वजह ये भी हो सकती है. ये उन कुछ गिने चुने दुर्लभ अवसरों में से एक है जब भारत के यथास्थिति में बदलाव करने के बाद, चीन ने प्रतिक्रिया स्वरूप कोई क़दम उठाया है.

लेकिन, सोशल मीडिया के कुछ योद्धाओं के अनुसार ये तो बहुत मामूली बात है. जबकि, कुछ और लोगों के लिए भारत बहुत ख़तरनाक रास्ते पर चल रहा है, क्योंकि इस नीति पर चल कर भारत, चीन को चुनौती दे रहा है. कुछ तथाकथित चीन विशेषज्ञों को ये लगता है कि मोदी लगातार चीन के तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं. वहीं, कुछ अन्य लोगों को ये लगता है कि भारत ने चीन को नाराज़ करने का काम किया है. और इसी वजह से जब बात सीमा पर मौजूदा तनातनी की आती है, तो इनमें से कुछ विशेषज्ञ ये चाहते हैं कि भारत को चीन के ख़िलाफ़ जंग का एलान कर देना चाहिए. वहीं, कुछ लोगों का ये मानना है कि चीन के आगे घुटने टेक देना ही बेहतर विकल्प है.

भारत, सोशल मीडिया पर युद्ध करके दुनिया की प्रमुख ताक़त नहीं बन सकता है. किसी भी वास्तविक और असरदार नीति के लिए, भारत को अपनी बौद्धिक पूंजी का निर्माण करना होगा. ताकि, जब ज़रूरत पड़े तो वो इन विशेषज्ञों की बुद्धिमत्ता और ज्ञान की मदद से असल युद्ध लड़ सक

कोई भी सार्वजनिक नीति प्रभावशाली हो, उसके लिए इस पर खुल कर अच्छी बहस होनी ज़रूरी है. अगर भारत, चीन को लेकर कोई गंभीर रणनीति बनाना चाहता है, तो इसके लिए उसे अपने मक़सद और माध्यमों को एक दूसरे से तालमेल बिठाने वाला बनाना होगा. इसके लिए भारत को चीन के मामलों के गंभीर विशेषज्ञों, सैटेलाइट तस्वीरों के अच्छे विश्लेषकों की ज़रूरत है. साथ ही साथ भारत को रक्षा मामलों के नागरिक विशेषज्ञों का एक मज़बूत आधार भी तैयार करने की ज़रूरत है. ताकि ये लोग अपने गंभीर विश्लेषण के ज़रिए भारत की रीति नीति की दशा दिशा तय करने में सकारात्मक योगदान दे सकें. न कि उसे छापामार विशेषज्ञों की ऐसी टोली की ज़रूरत है, जो सुबह के समय तो कोविड-19 से निपटने की रणनीति बताएं, दोपहर को अर्थव्यवस्था को पटरी पर वापस लाने के नुस्खे सुझाएं और शाम होते होते पर्यावरण क्षरण रोकने के विशेषज्ञ बन जाएं. किसी भी विषय की विशेषज्ञता ज़रूरत है. और सनसनीखेज़ बयानबाज़ी या परिचर्चा से ये ज़रूरत नहीं पूरी की जा सकती है. भारत, सोशल मीडिया पर युद्ध करके दुनिया की प्रमुख ताक़त नहीं बन सकता है. किसी भी वास्तविक और असरदार नीति के लिए, भारत को अपनी बौद्धिक पूंजी का निर्माण करना होगा. ताकि, जब ज़रूरत पड़े तो वो इन विशेषज्ञों की बुद्धिमत्ता और ज्ञान की मदद से असल युद्ध लड़ सके. क्योंकि, किसी भी वास्तविक जंग में ऐसी ही सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है. एक गंभीर सामरिक एक्सपर्ट बनने का कोई शॉर्ट कट नहीं है.

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