Published on Aug 22, 2017 Updated 0 Hours ago

डोकलाम में भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध कम होने के ज्यादा आसार नजर नहीं  आ रहे हैं। चीन अपने शब्दों में नरमी लाने के मूड में बिल्कुल नहीं है।

डोकलाम के बारे में खतरनाक आशावाद

डोकलाम में भारत और चीन के बीच जारी सैन्य गतिरोध को अब दो महीने हो चुके हैं। चीन की ओर से उसके शब्दों या उसके व्यवहार में नरमी के संकेत बहुत कम दिखाई दे रहे हैं और वह भारत को तकरीबन हर रोज धमकियां देने का सिलसिला जारी रखे हुए है। मिसाल के तौर पर, कुछ ही दिन पहले चीन के विदेश मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी ने चीन की यात्रा पर गए भारतीय पत्रकारों के शिष्टमंडल को हैरान करते हुए कहा था — चीन-भारत सीमा के अन्य हिस्सों में चीन घुसपैठ कर सकता है।

उधर भारतीय पक्ष में, विश्लेषक और संभवत: यहां तक कि सरकार के भीतर, दोनों ही जगहों पर यह भ्रामक आशावाद है कि चीन बल प्रयोग नहीं करेगा। ऐसा आशावाद बेबुनियाद है और काफी हद तक संदिग्ध है। भले ही चीन हमला न करे, लेकिन समझदारी इसी में है कि भारत का असैन्य और सैन्य नेतृत्व युद्ध की संभावनाओं पर वर्तमान में जितनी गंभीरता से विचार कर रहा है, उससे कहीं ज्यादा गंभीरता से विचार करे।

चीन की धमकियों को गंभीरता से लेने की जरूरत है। बेशक, धमकाने वाली भाषा का एक हिस्सा चीन के मीडिया की ओर से आ रहा है, विशेषकर ग्लोबल टाइम्स जैसे राष्ट्रवादी अखबारों द्वारा ऐसी भाषा इस्तेमाल की जा रही है। वैसे तो आम धारणा यही है कि ग्लोबल टाइम्स सरकार की राय का प्रतिनिधित्व नहीं करता, लेकिन इस प्रकाशन को सरकारी समर्थन प्राप्त होने के भी कुछ संकेत मौजूद हैं। लेकिन अगर ग्लोबल टाइम्स को नजरंदाज कर भी दें, तो भी उसमें दोहराई जा रही बयानबाजियों और पीपुल्स डेली जैसे ज्यादा संतुलित, मुख्यधारा वाले ”सरकारी” प्रकाशनों के बयानों में अंतर बहुत कम है। हाल ही में पीपुल्स डेली के सम्पादकीय में कहा गया था कि भारत अगर यह सोचता है कि उसके द्वारा अपने सैनिकों को पहले पीछे हटाए बगैर चीन वार्ता करेगा, तो उसकी यह सोच ‘महत्वाकांक्षी’ और ‘भ्रामक’ है।

पीपुल्स डेली के सम्पादकीय में चेतावनी देते हुए कहा गया कि वैसे तो चीन ने अब तक संयम बरता है, लेकिन “उसके संयम की हद है और एक गुजरते दिन के साथ संयम समाप्त होता जा रहा है।”

यह बयानबाजी चीन के मीडिया में व्यक्त किए गए महज उत्तेजक विचार भर नहीं हैं। वे चीन के आधिकारिक रुख को ही प्रतिबिम्बित कर रहे हैं, जो लगातार इसी मांग पर अड़ा हुआ है कि जब तक भारत पहले अपने सैनिकों को डोकलाम से वापस नहीं बुलाता, तब तक किसी तरह की कोई बातचीत नहीं हो सकती। दरअसल, संकट शुरू होते ही चीन ने अपने सबसे पहले वक्तव्य में भारतीय सैनिकों की वापसी की बात कही थी और तब से वह इस बात से इंच भर भी पीछे नहीं हटा। हाल ही में जारी किए गए 15 पृष्ठों के बयान में भी यही रुख दोहराया गया है। चीन के रक्षा अधिकारियों ने चीनी मीडिया में किए जा रहे इन दावों का समर्थन देने से इंकार कर दिया है कि चीन जल्द ही भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू कर सकता है, लेकिन उन्होंने यह भी दावा किया है कि भारत की कार्रवाई घुसपैठ के ही समान है और भारतीय सैनिकों के पीछे हटने पर ही यह गतिरोध समाप्त हो सकता है।एक अन्य अधिकारी का हवाला देते हुए संभावित सैन्य कार्रवाई का संकेत दिया गया है। इसके अलावा, चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी पिछले सप्ताह कहा था कि चीन के संयम की “हद है”। चीन के मीडिया के अति उत्साही वर्गों का नजरंदाज करना एक बात है, लेकिन चीन के अधिकारियों को नजरंदाज करना बिल्कुल अलग है।

भारतीय विश्लेषकों द्वारा चीन की धमकियों की उपेक्षा किए जाने के पीछे कम से कम तीन कारण हैं।

पहला, चीन से सटी सीमा पर भारतीय सेना काफी मजबूत स्थिति में है। दरअसल, अज्ञात भारतीय सुरक्षा अधिकारियों ने एक से ज्यादा भारतीय पत्रकारों से यह बात कही है। इस भरोसे की एक वजह यह है कि भारतीय सेना के पास अब लगभग 10 इन्फेन्ट्री डिविजन्स हैं, जिन्हें स्थायी रूप से चीन के सामने तैनात किया गया है। उनकी सहायता के लिए भारतीय वायु सेना (आईएएफ)है,जो पीएलए वायु सेना (पीएलएएएफ)से बेहतर स्थिति में है, क्योंकि पीएलएएएफ को तिब्बत के पठार की बेहद ऊँची जगह पर तैनात होने के कारण बहुत कम मात्रा में हथियार और ईंधन के साथ उड़ान भरनी होगी। हालांकि चीन के पास काफी बेहतर बुनियादी ढांचा है और वह तिब्बत के पठार से सुगमता से, समय पर सीमा तक पहुंच सकता है, लेकिन लम्बे समय से चले आ रहे संकट ने भारत को अपने कुछ सुरक्षा बलों को यहां पहुंचाने का अवसर मिल गया है, इस तरह इस संबंध में चीन पहले जैसी फायदेमंद स्थिति में नहीं है।

दूसरा, ऐसा अनुमान है कि अगले दो महीनों में होने वाले अनेक घरेलू और विदेश नीति संबंधी आयोजनों के कारण चीन कोई कार्रवाई नहीं करेगा। इनमें सबसे महत्वपूर्ण संभवत: पार्टी की 19वी कांग्रेस का आयोजन है, जो चीनी वरीयताक्रम के भीतर अपनी सत्ता को संगठित करने के लिहाज से राष्ट्रपति शी के लिए बहुत खास है। ऐसा अनुमान है कि चीन के लिए इस युद्ध के ज्यादा फायदेमंद न होने की स्थिति में राष्ट्रपति शी इससे पहले युद्ध छेड़ने का जोखिम नहीं लेना चाहेंगे। एक अन्य कारण सितम्बर में होने वाला ब्रिक्स शिखर सम्मेलन है, जब ब्रिक्स की एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति शी के एक मंच पर मौजूद होने की संभावना है, युद्ध छिड़ने पर यह स्थिति काफी अटपटी हो जाएगी।

तीसरा, ऐसी धारणा है कि चीन खुद को “विस्तारवादी” के रूप में देखे जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर वह पड़ोस में भूटान जैसे छोटे से देश, और तो और भारत पर भी हमला करेगा, तो उसे इसी रूप में देखा जाएगा। इन सबके अलावा, कई अन्य कारण भी हैं जो चीन को बल प्रयोग करने से रोकेंगे: भारत, चीन के महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों को अवरूद्ध कर सकता है या भारतीय विरोध, अन्य छोटे देशों की भी हिम्मत बढ़ा सकता है, जिनके चीन के साथ विवाद हैं।

समस्या यह है कि इस तरह के अनुमान लोकतांत्रिक गणना का बेहतर प्रतिबिम्ब हो सकते हैं, खतरा चीन या राष्ट्रपति शी से ज्यादा भारत को है।

जैसा कि कुछ विश्लेषकों ने संकेत किया है, खतरों की बजाए, चीनी नेतृत्व शायद इन्हें अवसरों के रूप में देख रहा है। मिसाल के तौर पर,सीमा पर सैन्य संतुलन की बात को ही लीजिए। भारतीय सुरक्षा बल भले ही कड़ा मुकाबला करने और चीनी घुसपैठ रोकने में पर्याप्त रूप से सक्षम हों, भारत की रक्षात्मक नीतियां, पहल करने का मौका चीन को देती हैं, जिससे चीन लाभ की स्थिति में पहुंच जाता है। साथ ही इससे भी ज्यादा गंभीर समस्या : यह विश्वास है कि चीन हमला नहीं करेगा, जिससे चीन को रणनीतिक तौर पर एकाएक कार्रवाई करने का महत्वपूर्ण सामर्थ्य मिलने की संभावना है। 1962 का युद्ध चिंताजनक समानता प्रस्तुत करता है। उस समय भारतीय नीति की विफलता के प्रमुख कारणों में से एक कारण उसका यह विश्वास था कि चीन युद्ध नहीं करेगा, बावजूद इसके कि भारत और चीन की सेनाएं एक-दूसरे से मुकाबले की स्थिति में थीं। प्रधानमंत्री नेहरू को इस तर्क के आधार पर भरोसा था कि भारत और चीन के बीच कोई भी लड़ाई युद्ध का रूप ले लेगी और यही बात चीन के बढ़ते कदमों को रोकेगी। आज भारतीय सुरक्षाबल पहले से कहीं ज्यादा सक्षम हैं और अग्रिम मोर्चों पर तैनात हैं, ऐसे में यह अनुमान है कि यदि युद्ध हुआ तो उनके घाटे में रहने की संभावना नहीं है। एक अन्य अविवेकपूर्ण भारतीय अनुमान उसकी सैन्य इंटेलिजेंस को लेकर है। भारतीय अधिकारियों ने बार-बार दोहराया है कि चीन द्वारा अपने सुरक्षा बलों को सरहद के पास संगठित करने के संकेत बहुत कम हैं, लेकिन इंटेलिजेंस को लेकर यह निश्चितता और पूर्व चेतावनी खतरनाक है।

इसी तरह, चीन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों से पहले कोई खतरनाक कोशिश नहीं करेगा जैसी धारणाओं से और साथ ही साथ चीन खुद को विस्तारवादी के तौर पर देखा जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता, जैसे विश्वास से संभवत: चीन की सोच जाहिर नहीं होती और न ही वे चीन के अतीत के व्यवहार का ही प्रतिबिम्ब हैं।

उदाहरण के लिए, भारतीय विश्लेषकों और सुरक्षा का दारोमदार संभालने वालों को याद रखना चाहिए कि चीन ने वियतनाम को दंड देने के लिए उसके खिलाफ ऐसे समय में स्पष्ट तौर पर युद्ध शुरू कर दिया था, जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन की राजकीय यात्रा पर थे और साथ ही 1962 में भारत के लिए चीन के ‘दंड’ से उसकी तुलना कीजिए। अपने ‘शांतिपूर्ण उदय’ संबंधी बयानबाजियों के बावजूद, चीन ने दक्षिण चीन सागर पर कब्जा पाने के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल किया और इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं की कि उसे आक्रामक या विस्तारवादी समझा जाएगा।

लगता है कि चीनी नेता ऐसा सोचते हैं कि अपने पड़ोसियों से कहीं ज्यादा ताकतवर होने की वजह से उनके देश के पास भूल करने की गुंजाइश है और उसके पड़ोसियों के पास इसे चुपचाप स्वीकार करने की जगह और कोई चारा नहीं है। यह शायद बेवकूफी है और हो सकता है कि आखिरकार चीन को इसका खामियाजा उठाना पड़े, इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि यह बात बिल्कुल अलग तरह के रणनीतिक आकलन का मार्ग तैयार करती है, जहां खतरा उल्टे भारत के लिए है।

लगता है कि चीनी नेता ऐसा सोचते हैं कि अपने पड़ोसियों से कहीं ज्यादा ताकतवर होने की वजह से उनके देश के पास भूल करने की गुंजाइश है और उसके पड़ोसियों के पास इसे चुपचाप स्वीकार करने की जगह और कोई चारा नहीं है।

इनमें से एक से भी यह संकेत नहीं मिलता कि चीनी हमला अपरिहार्य है। लेकिन समझदारी इसी में है कि भारत में सुरक्षा का दारोमदार संभालने वाले विविध कारणों से खुद को तसल्ली देने की बजाए, यह सोचे कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता। इसके अलावा, यह मानकर चलना होगा कि यह हमला किसी एक या दूसरे क्षेत्र में या छिटपुट झड़पों तक सीमित रहने की जगह बड़े पैमाने पर परम्परागत हमला होगा। भारत उम्मीद कर सकता है कि कूटनीति और अवरोध के जरिए वह चीन के बढ़ते कदमों को रोका जा सकता है, लेकिन साथ ही इस बात को स्वीकार करना होगा कि यह बिल्कुल निश्चित नहीं है। जब चीन के साथ टकराव का मामला हो, तो भारत किसी चमत्कारिक परिस्थिति के भरोसे नहीं रह सकता।

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