Author : S. Paul Kapur

Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

अमेरिका और भारत की सामरिक साझेदारी की जड़ें एशिया में मज़बूती से जमी हुई हैं. इस भागीदारी का मक़सद चीन की बढ़ती ताक़त को संतुलित करना और हिंद-प्रशांत को मुक्त और खुला क्षेत्र बनाए रखना है.

यूक्रेन संकट और यूरोप को लेकर अमेरिका और भारत के रुख़ों में अंतर: क्या हो आगे की राह?
यूक्रेन संकट और यूरोप को लेकर अमेरिका और भारत के रुख़ों में अंतर: क्या हो आगे की राह?

ये लेख रायसीना फ़ाइल्स 2022 सीरीज़ का हिस्सा है.


अमेरिका और भारत की सामरिक साझेदारी की जड़ें एशिया में मज़बूती से जमी हुई हैं.[i]  इस भागीदारी का मक़सद ​चीन की बढ़ती ताक़त को संतुलित करना और हिंद-प्रशांत को मुक्त और खुला क्षेत्र बनाए रखना है. बेशक़ एक वैश्विक शक्ति के तौर पर दुनिया के दूसरे इलाक़ों में भी अमेरिका के हित बरक़रार हैं. ये बात ख़ासतौर से यूरोप पर लागू होती है. शीत युद्ध के ज़माने में यूरोप पर ही अमेरिका का मुख्य ज़ोर था. आज भी ये इलाक़ा अमेरिका की सामरिक चिंताओं के केंद्र में बना हुआ है. बहरहाल दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय ताक़त के रूप में भारत लाज़िमी तौर पर अपने आस-पड़ोस को लेकर ज़्यादा चिंतित है. हिंद-प्रशांत का इलाक़ा चीनी ख़तरों की धुरी है. इसे दोनों ही देश अपनी सबसे ज्वलंत सामरिक चुनौती के तौर पर देखते हैं.[ii] भारत के लिए ये मसला ख़ासतौर से अहम है. दरअसल संशोधनवादी चीन सक्रिय रूप से चीन-भारत सरहद की लकीरों को बदलने की जद्दोजहद में लगा है.[iii] लिहाज़ा अमेरिका और भारत की भागीदारी पहली नज़र में क्षेत्रीय फ़ितरत वाली है.

शीत युद्ध के ज़माने में यूरोप पर ही अमेरिका का मुख्य ज़ोर था. आज भी ये इलाक़ा अमेरिका की सामरिक चिंताओं के केंद्र में बना हुआ है. बहरहाल दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय ताक़त के रूप में भारत लाज़िमी तौर पर अपने आस-पड़ोस को लेकर ज़्यादा चिंतित है. हिंद-प्रशांत का इलाक़ा चीनी ख़तरों की धुरी है. इसे दोनों ही देश अपनी सबसे ज्वलंत सामरिक चुनौती के तौर पर देखते हैं

इससे ऐसा लगता है कि अमेरिका के लिए यूरोप की अहमियत के बावजूद भारत के साथ उसके रिश्ते वहां की हलचलों से अछूते रहेंगे. इन हलचलों में यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई जैसा धमाकेदार घटनाक्रम भी शामिल है. यूक्रेन में जारी जंग ना तो भारत और ना ही अमेरिका की करनी का नतीजा है. दोनों में से कोई भी देश इस जंग में प्रत्यक्ष तौर पर शामिल भी नहीं है. अमेरिका और भारत की साझा चिंताओं का केंद्र हिंद-प्रशांत है और यूक्रेन-रूस की जंग का मैदान यहां से हज़ारों मील दूर है.

हालांकि, हक़ीक़त कहीं ज़्यादा पेचीदा है. यूक्रेन में जारी संघर्ष के हिंद-प्रशांत और अमेरिका-भारत रिश्तों पर संभावित तौर पर बड़े गहरे प्रभाव हो सकते हैं. यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई से ज़मीनी तौर पर संप्रभुता के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है. इस सिद्धांत के तहत राष्ट्र की राज्यसत्ता वाली व्यवस्था साफ़ तौर से रेखांकित की गई है. इसमें क्षेत्रीय अखंडता सुनिश्चित करना और कमज़ोर राज्यसत्ताओं को आक्रमकता से सुरक्षित करने की क़वायद शामिल है. मौजूदा युद्ध का यूरोप से बाहर भी असर पड़ना तय है. अगर रूस इस जंग में यूक्रेन को शिकस्त देने में कामयाब हो जाता है तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के ख़िलाफ़ चीन को अपने संशोधनवादी दावों को आगे बढ़ाने का हौसला मिल सकता है. इससे अमेरिका और भारत के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं. ग़ौरतलब है कि दोनों ही देश इस क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं.[iv]

यूक्रेन में जारी जंग से अमेरिका-भारत सामरिक तालमेल में रुकावटें खड़ी हो सकती हैं. मुमकिन है कि इस संकट से निपटने के लिए अमेरिका हिंद-प्रशांत की बजाए यूरोप पर अपना तवज्जो और संसाधन लगाने लग जाए. टीकाकारों का विचार है कि ऐसे बदलाव से एशिया में अमेरिका की स्थिति कमज़ोर हो सकती है. ख़ासतौर से ताइवान के लिए इसके हानिकारक नतीजे सामने आ सकते हैं.[v] इससे अमेरिका-भारत सामरिक क़वायदों को भी नुक़सान पहुंच सकता है. दरअसल चीन की उभरती ताक़त से भारत अकेले पार नहीं पा सकता. लिहाज़ा अमेरिका-भारत भागीदारी के तहत हिंद-प्रशांत में अमेरिका की सक्रियता ज़रूरी है. यूरोप में जारी संघर्ष के चलते हिंद-प्रशांत से अमेरिका का ध्यान भटकने की आशंका रहेगी. इससे चीन की उभरती ताक़त की काट के तौर पर भारत की सामरिक क्षमता विकसित करने में दोनों देशों द्वारा एकजुट होकर काम करने की संभावना घट जाएगी. साथ ही हिंद-प्रशांत को आज़ाद और खुला बनाए रखने की क़वायदों पर भी बुरा असर पड़ेगा.

यूक्रेन संकट पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं 

यूक्रेन में जारी संकट पर अमेरिका और भारत की प्रतिक्रियाएं एकदम जुदा रही हैं. इससे दोनों देशों के रिश्तों में तनाव आ गया है. अमरिका ने ज़ोरदार ढंग से रूस की कार्रवाइयों की निंदा की है.[vi] समान सोच वाली राज्यसत्ताओं के साथ मिलकर अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ तमाम तरह के प्रतिबंध आयद किए हैं. रूस को वैश्विक आर्थिक व्यवस्था से अलग-थलग कर दिया गया है.[vii] भले ही अमेरिका सीधे तौर पर जंग में शामिल नहीं हुआ हो लेकिन उसने यूक्रेन को हथियार मुहैया कराए हैं. रूसी हमलों का जवाब देने के लिए यूक्रेन इन हथियारों का इस्तेमाल भी कर रहा है. इससे रूसी फ़ौज को काफ़ी नुक़सान झेलना पड़ा है.[viii]

यूक्रेन में जारी संकट पर अमेरिका और भारत की प्रतिक्रियाएं एकदम जुदा रही हैं. इससे दोनों देशों के रिश्तों में तनाव आ गया है. अमरिका ने ज़ोरदार ढंग से रूस की कार्रवाइयों की निंदा की है. समान सोच वाली राज्यसत्ताओं के साथ मिलकर अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ तमाम तरह के प्रतिबंध आयद किए हैं. रूस को वैश्विक आर्थिक व्यवस्था से अलग-थलग कर दिया गया है. 

इसके उलट रूसी आक्रमण को लेकर भारत की प्रतिक्रिया बेहद सतर्कतापूर्ण रही है. भारत ने रूस के ख़िलाफ़ ठोस रूप से किसी तरह की कार्रवाई से परहेज़ किया है. शिगूफ़ों के स्तर पर प्रतिक्रिया जताने में भी भारत ने मोटे तौर पर ख़ामोशी बरती है. भारतीय नेताओं ने इस संकट के शांतिपूर्ण समाधान की वक़ालत करते हुए यूक्रेन को मानवतावादी मदद भेजी है. भारत ने रूसी हमलों की सीधे-सीधे आलोचना नहीं की है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूसी कार्रवाइयों की निंदा से जुड़े प्रस्तावों से भी भारत ग़ैर-हाज़िर रहा है. [ix]

भारत की इस ख़ामोशी के पीछे दीर्घकालिक महत्व वाले सामरिक तर्क हैं. शीत युद्ध के ज़माने में पूर्ववर्ती सोवियत संघ के साथ भारत के बेहद क़रीबी रिश्ते थे. भारत अपने ज़्यादातर सैन्य साज़ोसामानों के लिए उसी पर निर्भर था. वो निर्भरता आज भी जारी है. भारत के सैन्य भंडार में रूसी उपकरणों की मौजूदा तादाद तक़रीबन 70 प्रतिशत है. इसमें S-400 हवाई सुरक्षा प्रणाली भी शामिल है. भारत को 2023 की शुरुआत में इसकी आपूर्ति मिलने लगेगी. अगर भारत द्वारा रूस की आलोचना की जाती है तो वो अपनी सैन्य आपूर्तियों को रोक सकता है. इससे भारत को काफ़ी नुक़सान पहुंच सकता है. विवादित भारत-चीन सीमा पर मौजूदा टकरावों को देखते हुए ऐसे हालात भारत के लिए ख़ासतौर से जोख़िम भरे हो सकते हैं.[x]

जैसा कि ऊपर बताया गया है भारत एक क्षेत्रीय ताक़त है, जो अपने बिल्कुल आसपड़ोस के सामरिक घटनाक्रमों की सबसे ज़्यादा फ़िक्र करता है. वो दूरदराज़ के इलाक़ों में जारी विवादों (जिसका वो पक्षकार नहीं है) में अपनी नाक डालने से परहेज़ करता है. घरेलू मोर्चे पर तात्कालिक सुरक्षा चुनौतियों से जूझने वाले हालातों (जैसे चीन के साथ सीमा विवाद) में ये बात ख़ासतौर से लागू होती है.

यूरोप में जारी टकराव पर दोनों देशों के रुख़ों में इस अंतर से अमेरिका-भारत रिश्तों में तनाव पैदा हो गया है. अमेरिका द्वारा निरंतर समझाने-बुझाने के बावजूद भारत ने रूस के आक्रामक बर्तावों की आलोचना करने से इनकार कर दिया है. इससे अमेरिका को कुंठा होने लगी है. नतीजतन राष्ट्रपति बाइडेन और वहां के सांसदों की ओर से भारत को आलोचना भी झेलनी पड़ी है.[xi] अमेरिका का मानना है कि रूसी आक्रमण के ख़िलाफ़ बोलने से भारत के इनकार करने का वास्तविक मतलब रूस का समर्थन करना ही निकलता है. इससे रूस को राजनयिक तौर पर अलग-थलग करने की क़वायद कमज़ोर पड़ती है और उसके बुरे बर्तावों को बढ़ावा मिलता है. साथ ही हिंद-प्रशांत के प्रति साझा उदारवादी दृष्टिकोण रखने वाले साथी के तौर पर भारत का रसूख़ भी कम होता है. और तो और व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में भी भारत का दर्जा कमज़ोर होता है.[xii] बहरहाल इनमें से कोई भी बात अमेरिका-भारत सहयोग के पीछे की दलील को ख़ारिज नहीं करती. ये बात ख़ासतौर से कार्यपालिका से जुड़ी शाखा पर लागू होती है जो भारत के रुख़ पर अमेरिकी संसद के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा हमदर्दी भरा नज़रिया रखती है. इसके बावजूद इन घटनाक्रमों से अमेरिकी प्रणाली में भारत के ख़िलाफ़ विपरीत हालात पैदा हो सकते हैं. इससे एक ऐसे वक़्त में अमेरिका-भारत सहयोग की रफ़्तार धीमी पड़ सकती है जब इस मोर्चे पर आगे तरक़्क़ी हासिल करना निहायत ज़रूरी है.[xiii]

यूरोप में जारी टकराव पर दोनों देशों के रुख़ों में इस अंतर से अमेरिका-भारत रिश्तों में तनाव पैदा हो गया है. अमेरिका द्वारा निरंतर समझाने-बुझाने के बावजूद भारत ने रूस के आक्रामक बर्तावों की आलोचना करने से इनकार कर दिया है. इससे अमेरिका को कुंठा होने लगी है. नतीजतन राष्ट्रपति बाइडेन और वहां के सांसदों की ओर से भारत को आलोचना भी झेलनी पड़ी है. 

रूस की निंदा करने को लेकर अमेरिका की ओर से पड़ रहे भारी दबाव पर भारत ने कोई शिकायत नहीं की है. ऐसा लगता है कि भारत ये सोच रहा है कि आपसी रिश्तों की अहमियत के चलते अमेरिका के साथ मौजूदा तनाव वक़्त के साथ काफ़ूर हो जाएगा.[xiv] हालांकि, भारत के जाने-माने टीकाकारों ने अमेरिकी दबाव की बात को रेखांकित करते हुए अपनी दलील रखी है. उन्होंने रूस के साथ नज़दीकी रिश्ते बरक़रार रखने में भारत के ठोस हितों पर ज़ोर देते हुए उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) के विस्तार पर रूस की चिंताओं का ज़िक्र किया है. उनका मानना है कि इन्हीं चिंताओं की वजह से यूक्रेन पर आक्रमण की घटना सामने आई है.[xv] अमेरिका और उसके साथियों द्वारा रूस को दंडित करने के लिए वैश्विक आर्थिक प्रणाली के इस्तेमाल के श्रृंखलाबद्ध परिणाम सामने आएंगे. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं. भारतीयों को डर है कि अमेरिका और यूरोप के साथ भविष्य में किसी तरह की असहमति होने पर उनके ख़िलाफ़ भी इसी तरह के हथकंडे इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं.[xvi] दरअसल, भारत अपनी सामरिक स्वायत्तता को काफ़ी अहमियत देता है. ऐसे में अगर रूसी आक्रामकता के ख़िलाफ़ अमेरिका की प्रतिक्रिया ज़्यादा ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली या ख़र्चीली क़वायद बन जाती है तो भारत के अलग-थलग होने की आशंका रहेगी. इससे वो भरोसा कमज़ोर पड़ सकता है जो इन रिश्तों के लिहाज़ से बेहद अहम है.[xvii]

अमेरिका और भारत के रुख़ों में मेलमिलाप

लिहाज़ा भारत और अमेरिका को यूरोप के मौजूदा सामरिक घटनाक्रमों पर अपने रुख़ों में मेलमिलाप क़ायम करने की कोशिश करनी चाहिए. अगर वो दोनों इसमें नाकाम रहते हैं तो एक अहम दौर में दोनों की भागीदारी में अवांछित रुकावटें आ सकती हैं. सवाल उठता है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए दोनों देश क्या क़दम उठा सकते हैं?

भारत को यूक्रेन में रूसी बर्ताव को लेकर सार्वजनिक तौर पर अपनी नापसंदगी का इशारा करना चाहिए. इसके लिए खुले तौर पर निंदा करने की ज़रूरत नहीं है. यूक्रेन पर रूसी हमले का बेबाक़ होकर आक्रमणकारी गतिविधि के तौर पर ज़िक्र करना भी सही दिशा में उठाया गया क़दम होगा.[xviii] ज़ाहिर तौर पर भारत की ये क़वायद रूस को पसंद नहीं आएगी लेकिन उसके द्वारा भारत-रूस रिश्तों को तोड़ने के भी कोई आसार नहीं होंगे. दरअसल भारत उन चंद देशों में शुमार है जिनके अब भी रूस के साथ अच्छे संबंध हैं. ऐसे में रूसी पक्ष भारत के साथ अपने रिश्तों को तोड़कर भारत से मिल रहे कूटनीतिक समर्थन और रक्षा उपकरणों की बिक्री से जुड़े आकर्षक सौदों को गंवाना नहीं चाहेगा.[xix]

इसके साथ ही भारत को अपने रक्षा ख़रीद के स्रोतों में विविधता लानी चाहिए. इस सिलसिले में रूस पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता से भारत की विदेश नीति पर रूस का ज़रूरत से ज़्यादा दबदबा बन जाता है. भारत ने पिछले कुछ अर्से से इस ज़रूरत को समझा है. यही वजह है कि 2011-15 के कालखंड के मुक़ाबले 2016-20 के कालखंड में रूस से रक्षा आयातों में 53 फ़ीसदी की गिरावट आई है.[xx] इसके बावजूद रूसी हथियारों पर भारत की काफ़ी हद तक निर्भरता बरक़रार है. आने वाले समय में भी ऐसे ही हालात बने रहने के आसार है. दरअसल इस मोर्चे पर रूस को कई तरह की बढ़त हासिल है. इनमें कम क़ीमतों वाले उपकरण, टेक्नोलॉजी साझा करने की तत्परता और भारतीय सशस्त्र सेवाओं का रूसी प्रणालियों से एक लंबे समय से चला आ रहा मेल-जोल शामिल है.[xxi] सैन्य साज़ोसामानों के स्रोत में विविधता लाने के लिए भारत को रूस के साथ अपने संबंधों का कुशल प्रबंधन करना होगा, अपनी फ़ौज को रूसी प्रणाली से दूर ले जाना होगा और नए आपूर्तिकर्ताओं की तलाश करनी होगी. हालांकि इन तमाम क़वायदों में वक़्त लगेगा.

भारत को यूक्रेन में रूसी बर्ताव को लेकर सार्वजनिक तौर पर अपनी नापसंदगी का इशारा करना चाहिए. इसके लिए खुले तौर पर निंदा करने की ज़रूरत नहीं है. यूक्रेन पर रूसी हमले का बेबाक़ होकर आक्रमणकारी गतिविधि के तौर पर ज़िक्र करना भी सही दिशा में उठाया गया क़दम होगा.

यूरोप, इज़राइल और अमेरिका इस अंतर को पाट सकते हैं. इन तीनों साझीदारों के साथ भारत के रक्षा संबंध तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. भारत ने फ़्रांस से नए राफ़ेल लड़ाकू विमान हासिल किए हैं और फ़िलहाल इनमें भारत के हिसाब से ख़ास तरीक़े के बदलावों को अंजाम देने के काम में जुटा है.[xxii] इज़राइल 2016 से 2020 के बीच भारत का तीसरा सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता था. हाल ही में दोनों ही देश आने वाले दशक में रक्षा सहयोग के नए क्षेत्रों की तलाश को लेकर कार्य दल के गठन को लेकर रज़ामंद हुए हैं. इससे आने वाले वर्षों में रक्षा संबंधों को आगे बढ़ाने की क़वायद सुनिश्चित की जा सकेगी.[xxiii] अमेरिका और भारत के बीच का रक्षा व्यापार भी हाल के वर्षों में काफ़ी तेज़ी से आगे बढ़ा है. 2005 के शून्य के स्तर के मुक़ाबले आज ये 20 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. भारत ने अमेरिका से अनेक अत्याधुनिक लड़ाकू विमान (जैसे पी-8) ख़रीदे हैं. हवा से लॉन्च होने वाले ड्रोन्स का मिलकर विकास करने की क़वायद भी इन जुड़ावों में शामिल है. इससे दोनों देशों के रिश्ते महज़ विक्रेता और ख़रीदार से कहीं आगे निकल गए हैं. इसके साथ ही तथाकथित बुनियादी समझौतों पर दस्तख़त से भू-स्थैतिक सूचनाएं साझा करने और रसद के क्षेत्र में तालमेल को बढ़ावा मिला है.[xxiv] अमेरिका-भारत रक्षा व्यापार में आगे विस्तार के लिए भारत को अमेरिका पर भरोसा करना होगा. दरअसल, भारत की नज़र में अमेरिका एक अस्थिर साथी है जो भारत की ओर से किए गए अत्याधुनिक हथियार प्रणाली के अनुरोध से कई बार आंखें मूंद लेता है. बहरहाल अमेरिका की ओर से टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण से जुड़े नियम-क़ायदों में निरंतर उदारीकरण से इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है. मैंने नीचे इसका ब्योरा भी दिया है.

अपनी ओर से अमेरिका को भी ये सुनिश्चित करना होगा कि भारत से उसकी उम्मीदें यथार्थ की धरातल पर बनी रहें. भारत सुलझे तरीक़े से यूक्रेन पर रूसी आक्रामकता के प्रति अपनी नापसंदगी का इज़हार कर सकता है, लेकिन उसके द्वारा खुले तौर पर रूस की आलोचना किए जाने के आसार नहीं हैं. साथ ही वो रूस के साथ अपने रिश्तों को ख़त्म भी नहीं करेगा और ना ही छोटी मियाद में इन रिश्तों में भारी कमी लाने से जुड़ी किसी क़वायद को अंजाम देगा. इस मोर्चे पर कोई भी बदलाव वक़्त के साथ-साथ धीरे-धीरे ही आएगा.

इसके साथ ही अमेरिका अपने यूरोपीय साथियों को अपनी रक्षा के लिए और भी ज़्यादा क़वायद करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है. अगर यूरोप के देश अपनी सैनिक क्षमताओं को आगे बढ़ाते हुए बचाव के तौर-तरीक़े तैयार कर लेते हैं तो भविष्य में रूस या किसी दूसरी ताक़त द्वारा इस इलाक़े में आक्रामक गतिविधियों की आशंकाएं कम हो जाएगी. इससे यूरोप में बड़ा संकट आने के आसार घट जाएंगे और अमेरिका और भारत को हिंद-प्रशांत पर बेहतर तवज्जो देने में मदद मिलेगी. यूक्रेन संघर्ष के जवाब के तौर पर यूरोप ने रक्षा को वरीयता देना शुरू भी कर दिया है. मिसाल के तौर पर जर्मनी ने ऐलान किया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार वो रक्षा ख़र्च को लेकर नेटो के लक्ष्य से आगे निकल जाएगा. ग़ौरतलब है कि नेटो जीडीपी का 2 प्रतिशत हिस्सा रक्षा के मद में लगाने का लक्ष्य रखता रहा है.[xxv] अंत में अमेरिका को रक्षा ख़रीद से जुड़े मसलों में भारत के साथ भरोसा बहाल करने के उपाय करते रहने होंगे. इस सिलसिले में टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण से जुड़ी क़वायद मददगार साबित हो सकती है. अतीत में कई अमेरिकी प्रशासनों ने इस दिशा में अनेक अहम क़दम उठाए हैं. इसमें ओबामा प्रशासन की रक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार पहल और भारत को बड़े रक्षा भागीदार का दर्जा दिए जाने की क़वायद शामिल है. ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ने भारत को स्ट्रैटेजिक ट्रेड ऑथोराइज़ेशन-1 का दर्जा देते हुए उच्च-प्रौद्योगिकी के निर्यात से जुड़े नियंत्रणों में ढिलाई बरती थी.[xxvi]

अगर यूरोप के देश अपनी सैनिक क्षमताओं को आगे बढ़ाते हुए बचाव के तौर-तरीक़े तैयार कर लेते हैं तो भविष्य में रूस या किसी दूसरी ताक़त द्वारा इस इलाक़े में आक्रामक गतिविधियों की आशंकाएं कम हो जाएगी. इससे यूरोप में बड़ा संकट आने के आसार घट जाएंगे और अमेरिका और भारत को हिंद-प्रशांत पर बेहतर तवज्जो देने में मदद मिलेगी.

अमेरिकी विदेश नीति से जुड़ी अफ़सरशाही में प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं (मसलन प्रौद्योगिकी नियंत्रण और दक्षिण एशिया में सामरिक संतुलन को बढ़ावा देना) के चलते कई बार अहम प्रणालियों में भारत के साथ तालमेल में रुकावटें खड़ी हो गई हैं. इनमें विमान और हवाई रक्षा प्रणाली शामिल हैं. इससे अमेरिका पर भारत का अविश्वास बढ़ा है और उसपर निर्भर होने को लेकर हिचकिचाहट खड़ी हुई है. अमेरिका के वरिष्ठ नेतृत्व को ये तय करना होगा कि राष्ट्र के सामरिक लक्ष्य अफ़सरशाही के हितों की जगह ले लें. इसके साथ ही अमेरिका को दोहरे इस्तेमाल वाली प्रौद्योगिकी के भारत के निर्यात से जुड़ी पहल में नियमों के उदारीकरण की प्रक्रिया को जारी रखना होगा. प्रौद्योगिकी के ऐसे हस्तांतरण से भारत की सामरिक क्षमता तैयार होगी. इससे भारत को रूसी अस्त्र-शस्त्रों से दूर करने में मदद मिलेगी. साथ ही अमेरिका के विश्वसनीय सहयोगी होने का प्रमाण भी मिलेगा.[xxvii]

तीसरे-पक्ष के संबंधों से जुड़ी समस्याओं का निपटारा

इन उपायों से अमेरिका और भारत को यूक्रेन संकट और भविष्य के हालातों में यूरोप और हिंद-प्रशांत में अपनी नीतियों में तालमेल बिठाने में मदद मिल सकती है. बहरहाल दोनों पक्षों की ओर से होने वाली ऐसी किसी क़वायद के बीच यूक्रेन संघर्ष ने दोनों की भागीदारियों में दीर्घकाल से खड़े एक सवाल के निपटारे की ज़रूरत को रेखांकित कर दिया है. वो सवाल ये है कि तीसरे-पक्ष से रिश्तों के मद्देनज़र दोनों देशों की एक-दूसरे से क्या उम्मीदें हैं?

निश्चित रूप से भारत और अमेरिका के ऐसे देशों से क़रीबी रिश्ते रहेंगे जो दूसरे पक्ष को नागवार होगा. इस कड़ी में भारत के लिहाज़ से रूस और ईरान हैं जबकि अमेरिका की ओर से पाकिस्तान का नाम आता है. दूसरे साथी को इस हक़ीक़त को स्वीकार करना होगा. साथ ही ये भी समझना होगा कि इन रिश्तों से अमेरिका-भारत सहयोग की सामरिक दलील कतई कमतर नहीं होती. ज़ाहिर है ये रिश्ता क़रीबियों के बावजूद ख़ुसूसी न होकर खुले और आज़ाद ख़्यालों वाला होगा.[xxviii]

भारत और अमेरिका को समय बर्बाद न करते हुए यूरोप और हिंद-प्रशांत में अपनी नीतियों में मेल-जोल बिठाने की कोशिश करनी चाहिए. साथ ही दोनों ही देशों को भविष्य में तीसरे-पक्ष के साथ संबंधों को लेकर अपनी-अपनी उम्मीदों के बारे में खुलकर चर्चा भी करनी चाहिए.

अब सवाल ये है कि ये संबंध कितना खुला और स्वायत्त होना चाहिए? क्या इसमें कुछ लक्ष्मण रेखाएं (ख़ासतौर से खुलेआम ज़ोर-ज़बरदस्ती या आक्रामकता दिखाने और मानव अधिकारों का विकट रूप से उल्लंघन करने ) तय होनी चाहिए, जिनको लांघे जाने पर किसी राज्यसत्ता को ख़ारिज किए जाने को लेकर एकजुटता दिखाए जाने की बात हो? ये मसला फ़िलहाल अमेरिका-भारत भागीदारी की बड़ी समस्या है. यूक्रेन संकट इसे सतह पर ले आया है. दोनों देशों को आपसी रिश्तों में मोड़ लाने वाले इस लम्हे का फ़ायदा उठाते हुए इस मोर्चे पर एक-दूसरे की उम्मीदों पर बेबाक़ी से चर्चा करनी चाहिए. ऐसा करने से भविष्य में ऐसी ग़लतफ़हमियों को टालने में मदद मिलेगी.

आख़िरकार हिंद-प्रशांत में अमेरिका और भारत के साझा सामरिक हित बेहद अहम हैं. यूरोप के घटनाक्रमों की वजह से इन मज़बूत क़वायदों को बेपटरी नहीं होने दिया जा सकता. हालांकि, असहमतियों से आपसी विरोध पैदा हो सकते हैं जो दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग की प्रगति को सुस्त कर सकते हैं. इस बीच चीन से चुनौतियां बढ़ती ही रहेंगी. लिहाज़ा भारत और अमेरिका को समय बर्बाद न करते हुए यूरोप और हिंद-प्रशांत में अपनी नीतियों में मेल-जोल बिठाने की कोशिश करनी चाहिए. साथ ही दोनों ही देशों को भविष्य में तीसरे-पक्ष के साथ संबंधों को लेकर अपनी-अपनी उम्मीदों के बारे में खुलकर चर्चा भी करनी चाहिए.


[i] United States Department of State, A Free and Open Indo-Pacific: Advancing a Shared Vision, Washington, DC, 2019.

[ii] The United States has reiterated the overriding importance of China and the Indo-Pacific even in the face of Russia’s invasion of Ukraine. US Department of Defense, Fact Sheet: 2022 National Defense Strategy, Virginia, 2022.

[iii] Brahma Chellaney, “Xi Jinping’s Himalayan misadventure, The Hill, July 23, 2021.

[iv] S. Paul Kapur, “Why India Must Not Remain Silent on Ukraine, The National Interest, March 4, 2022.

[v] Elbridge Colby and Oriana Skylar Mastro, “Ukraine is a Distraction from Taiwan, The Wall Street Journal, February 13, 2022.

[vi] Joe Biden, “Remarks by President Biden on Russia’s Unprovoked and Unjustified Attack on Ukraine” (speech, Washington, DC, February 24, 2022).

[vii] Courtney McBride, Ian Talley, and Laurence Norman, “What to Know as U.S., Allies, Put Sanctions on Russia, The Wall Street Journal, April 8, 2022.

[viii] The White House, Fact Sheet on U.S. Security Assistance for Ukraine, March 16, 2022. NATO estimates that 7,000-15,000 Russian forces have been killed in Ukraine. Nebi Qena and Cara Anna, “NATO: 7,000 to 15,000 Russian Troops Dead in Ukraine, Associated Press, March 24, 2022.

[ix] Sumit Ganguly, “India Must Take a Stand on Russia’s War in Ukraine, Foreign Policy, March 3, 2022.

[x] Rahul Bedi, “Russia begins S-400 deliveries to India, Janes, November 15, 2021.

[xi] Sabrina Siddiqui, Alex Leary, and Rajesh Roy, “Russian Invasion of Ukraine Strains U.S.’s Strategic Ties With India, The Wall Street Journal, March 4, 2022.

[xii] Kapur, “Why India Must Not Remain Silent on Ukraine”

[xiii] Prashant Jha, “‘Anxiety in U.S. about India’s position but ties will stay strong’: Ashley Tellis, Hindustan Times, March 22, 2022.

[xiv] Shan Li and Rajesh Roy, “India Avoids Condemning Russia’s Invasion of Ukraine, Despite U.S. Pressure, The Wall Street Journal, February 25, 2022.

[xv] Kanwal Sibal, “View: On Ukraine crisis, India and others not in a morality parade in UNSC, The Economic Times, February 25, 2022; Gerry Shih, “India avoids condemning Russian invasion of Ukraine and stays aloof on Western coalition, The Washington Post, February 25, 2022.

[xvi] Walter Russell Mead, “Sanctions on Russia Pit the West Against the Rest of the World, The Wall Street Journal, March 21, 2022.; Nicholas Mulder, “The Toll of Economic War: How Sanctions on Russia Will Upend the Global Order, Foreign Affairs, March 22, 2022.

[xvii] S. Paul Kapur, “Biden Must Build on Trump’s Partnership With India, The National Interest, October 24, 2021.

[xviii] Jha, “‘Anxiety in U.S. about India’s position but ties will stay strong’: Ashley Tellis”

[xix] Rohan Mukherjee, “India can tackle the new world order, Hindustan Times, March 28, 2022.

[xx] Pieter D. Wezeman, Alexandra Kuimova, and Siemon T. Wezeman, “Trends in International Arms Transfers 2020, SIPRI Fact Sheet, (2021) p. 9.

[xxi] Defence Independence: India has to reduce Russian imports, but dependency on the West no solution either,” The Times of India, March 8, 2022.

[xxii] Shishir Gupta, “3 Rafale fighters With Indian enhancements to arrive on Feb 1-2, Hindustan Times, January 11, 2022.

[xxiii] Rahul Singh, “India, Israel to work On 10-year roadmap for defence cooperation, Hindustan Times, October 29, 2021.

[xxiv] The White House, Government of the United States of America; “U.S. Security Cooperation With India,” U.S. Department of State.

[xxv] Elbridge A. Coldby, “More Spending Alone Won’t Fix the Pentagon’s Biggest Problem, Time, March 28, 2022.; Joseph Joffee, “Will Germany’s Foreign Policy Turnabout Last?, The Wall Street Journal, March 2, 2022.; Bojan Pancevski, “Germany to Raise Defense Spending Above 2% of GDP in Response to Ukraine War, The Wall Street Journal, February 27, 2022.

[xxvi] Ashley Tellis, “Beyond Buyer-Seller: The Question Is, Can the DTTI Deliver?, Force, August 2015.;  U.S. Department of Defense, Government of the United States of America.

[xxvii] Kapur, “Biden Must Build on Trump’s Partnership With India”

[xxviii] Kapur, “Biden Must Build on Trump’s Partnership With India”

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