Published on Jan 24, 2022 Updated 0 Hours ago

दोनों देशों के बीच यूक्रेन और पूरे क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर जो मतभेद हैं, उन्हें देखते हुए दोनों ताक़तों के लिए कूटनीति के रास्ते पर आगे बढ़ना ही सबसे अच्छा तरीक़ा है. 

अमेरिका और रूस की बातचीत में कूटनीति बनाम जंग: पूरा होता मक़सद

अमेरिका और रूस के बीच बातचीत को लेकर, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जैसा विरोधाभासी कवरेज देखने को मिल रहा है, वो इस बात का संकेत है कि अभी कूटनीति को कचरे के डब्बे में फ़ेंकने का वक़्त नहीं आया है. पश्चिमी देशों के मीडिया में, ‘आने वाले दौर में तबाही’ होने का विश्लेषण पेश किया जा रहा है. जिससे ये संकेत मिलता है कि संघर्ष बस छिड़ने ही वाला है. वहीं दूसरी तरफ़, रूस के मीडिया में अभी जंग की तुरही नहीं बजायी जा रही है. इसके बजाय रूस का मीडिया, दोनों पक्षों के बीच आने वाले समय के दौरान एक संभावित समझौते की रूप-रेखा पर चर्चा कर रहा है. एक ही घटना को लेकर जिस तरह पश्चिमी मीडिया और रूस में अलग अलग तस्वीरें पेश की जा रही हैं, उससे साफ़ है कि इस बातचीत को लेकर दोनों पक्षों का नज़रिया कितना अलग अलग है.

पश्चिमी देश, रूस के पड़ोस में आक्रामक मिसाइलों की तैनाती को सीमित करने को भी राज़ी नहीं हैं, और न ही वो पूर्वी यूरोप में अमेरिका और नैटो के सैन्य ढांचे को 1997 के पहले के स्तर पर वापस ले जाने को राज़ी हैं. 

पश्चिमी देश इस वार्ता को मुख्य रूप से यूक्रेन के इर्द-गिर्द तनाव कम करने के ज़रिए के तौर पर देख रहे हैं. पश्चिमी देश नेटो के विस्तार के हवाले से रूस द्वारा मांगी जा रही सुरक्षा की गारंटी को सिरे से ख़ारिज करते हैं. पश्चिमी देश, रूस के पड़ोस में आक्रामक मिसाइलों की तैनाती को सीमित करने को भी राज़ी नहीं हैं, और न ही वो पूर्वी यूरोप में अमेरिका और नैटो के सैन्य ढांचे को 1997 के पहले के स्तर पर वापस ले जाने को राज़ी हैं.  वहीं दूसरी तरफ़, रूस इस वार्तालाप को सुरक्षा संबंधी इन वादों को हासिल करने के माध्यम के रूप में देखता है. उसकी नज़र में यूक्रेन का मुद्दा गौण है. अपने लिए अहम इन मुद्दों पर अमेरिका को बातचीत की टेबल पर बनाए रखने के लिए रूस निश्चित रूप से अपनी सैन्य  ताक़त की नुमाइश को बढ़ाता रहेगा. 

रूस अपनी मांगों को लिखित गारंटी या बेहतर हो कि समझौतों की शक्ल में चाहता है. अगर हम पहली नज़र में देखें, तो रूस की ये मांग ऐसी बाधा लगती है, जिससे पार पाना असंभव होगा. लेकिन, अगर हम रूस की इन मांगों की बारीक़ी से पड़ताल करें, तो पता ये चलता है कि दोनों पक्ष मिलकर एक बीच का रास्ता निकाल सकते हैं. अगर यूरोप के हालात का वास्तविक विश्लेषण किया जाए, तो पता चलेगा कि आने वाले समय में यूक्रेन या जॉर्जिया को नेटो का सदस्य नहीं बनाया जाने वाला है. चूंकि यूक्रेन या जॉर्जिया के मसले को रूस अपने अस्तित्व से जुड़ा हुआ देखता है और वो इन मुद्दों पर पश्चिमी देशों से भिड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति और सैन्य ताक़त भी रखता है, ऐसे में न तो अमेरिका और न ही यूरोप में इतनी इच्छाशक्ति है कि वो इस मसले पर रूस से जंग लड़ना चाहेंगे. ख़ास तौर से तब और जब अमेरिका और उसके सहयोगियों के न तो इन देशों से सुरक्षा संबंधी हित जुड़े हैं और न ही जंग लड़ने की इच्छाशक्ति है.

अगर हम ये मान लें कि अमेरिका यूक्रेन के एक बड़े शहर खारकिएव में अपनी मिसाइलें तैनात कर देता है. तो ये ठीक उसी तरह होगा कि रूस की परमाणु शक्ति से चलने वाली और हाइपरसोनिक मिसाइलों से तैनात पनडुब्बियां, अमेरिकी समुद्र तट के इर्द गिर्द मंडराने लगें.

मिसाइलों की तैनाती के इर्द-गिर्द घूमती रणनीति

रूस भी शायद ये बात समझता है कि अमेरिका या उसके सहयोगियों के लिए ऐसे किसी दस्तावेज़ पर दस्तख़त करना असंभव होगा, जिसमें वो यूक्रेन या जॉर्जिया को नेटो का सदस्य बनाने की संभावना को ख़ारिज कर दें, या नेटो में किसी नए सदस्य को शामिल करने के फ़ैसले को वीटो करने का अधिकार रूस को दे दें. रूस को ये भी पता है कि अमेरिका में जिस क़दर राजनीतिक मतभेद हैं, ऐसे में ऐसे किसी समझौते पर अमेरिकी संसद की मुहर लगवा पाना भी क़रीब क़रीब असंभव होगा.

जहां तक मिसाइलों की तैनाती का सवाल है, तो उत्साह बढ़ाने वाला क़दम उठाते हुए अमेरिका ने ऐलान किया है कि वो इस मुद्दे पर रूस से बातचीत के लिए तैयार है. किसी भी सूरत में सवाल यूक्रेन या जॉर्जिया में अमेरिकी मिसाइलों की तैनाती का नहीं है. क्योंकि ये अमेरिका का मक़सद भी नहीं है. जैसा कि रूस के जाने माने विश्लेषक दिमित्री ट्रेनिन संकेत देते हैं, अगर हम ये मान लें कि अमेरिका यूक्रेन के एक बड़े शहर खारकिएव में अपनी मिसाइलें तैनात कर देता है. तो ये ठीक उसी तरह होगा कि रूस की परमाणु शक्ति से चलने वाली और हाइपरसोनिक मिसाइलों से तैनात पनडुब्बियां, अमेरिकी समुद्र तट के इर्द गिर्द मंडराने लगें. दूसरे लफ़्ज़ों में कहें, तो ये ऐसा मसला नहीं है जिसका समाधान नहीं निकाला जा सकता.

पश्चिमी देशों ने यूक्रेन की सेना को आधुनिक बनाने और नए हथियारों से लैस करने के लिए अरबों डॉलर ख़र्च कर दिए. लेकिन, रूस में इतनी ताक़त है कि वो अपना एक भी सैनिक यूक्रेन की ज़मीन पर तैनात किए बग़ैर उसे पूरी तरह तबाह करके बंज़र बनाने की ताक़त रखता है.

जो बात अमेरिका और रूस की वार्ता में बाधक बन सकती है, वो रोमानिया और पोलैंड में अमेरिकी मिसाइलों की तैनाती है. लेकिन, इस विवाद को शस्त्र नियंत्रण की नियमित बातचीत दोबारा शुरू करके हल किया जा सकता है. इस वार्ता के ज़रिये सीमावर्ती इलाक़ों में बड़ी सैन्य तैनाती या युद्ध अभ्यासों जैसे मुद्दों को भी हल किया जा सकता है. बाल्टिक देशों समेत पूर्वी यूरोप के देशों में कुछ हज़ार अमेरिकी या नैटो सैनिकों की तैनाती से रूस की सुरक्षा के लिए अस्तित्व का ख़तरा नहीं होना चाहिए. जैसा कि ट्रेनिन कहते हैं, इसका मतलब ये है कि नेटो सैनिकों की तैनाती को 1997 के स्तर तक ले जाने का मुद्दा बातचीत से हल किया जा सकता है. ये ऐसी मांग है, जिसे पूरा होने पर रूस भी लचीलापन दिखाते हुए अपने सैनिक वापस बुला सकता है.

पर भले ही रूस और पश्चिमी देशों के बीच किसी समझौते की गुंजाइश दिख रही हो. मगर, हमें ये समझना होगा कि रूस, नेटो या यूरोपीय संघ से नहीं, मुख्य रूप से अमेरिका से समझौता करना चाहता है. रूस की नज़र में, अमेरिका की तुलना में नेटो और यूरोपीय संघ इस खेल में दोयम दर्जे के किरदार हैं. दूसरी बात ये कि रूस की मांगें सामरिक और दूरगामी अवधि की हैं और इन्हें तुरंत ही ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए. संभावना इस बात की है कि इस संकट को बढ़ाने के लिए रूस के पास एक प्लान-बी भी है, जिसे रूस की सरकार सैन्य-तकनीकी विकल्प बताती है. ऐसा लगता है कि इसके तहत रूस पूरी दुनिया में मिसाइलों और अन्य हथियारों की तैनाती कर सकता है, जिससे अमेरिका समेत पूरे पश्चिमी जगत में असुरक्षा का भाव और बढ़ जाएगा; अगर रूस ऐसा कोई क़दम उठाता है, तो फिर पश्चिमी देश इसकी अनदेखी नहीं कर पाएंगे. फिर उन्हें भी कुछ जवाबी क़दम उठाने होंगे.

युद्ध का विकल्प

अगर तनाव इस दिशा में बढ़ता है, तो हालात बेक़ाबू भी हो सकते हैं. मॉस्को स्थित काउंसिल फॉर फॉरेन ऐंड डिफिंस पॉलिसीज़ के प्रमुख फियोडोर लुकियानोव कहते हैं कि, ‘दोनों पक्षों की सोच के बीच का फ़ासला इतना ज़्यादा है कि शायद एक नए और ख़तरनाक तरीक़े से तनाव को बढ़ाने वाले क़दम के बाद ही दोनों पक्ष समझौते के लिए नई दिशा में सोचना शुरू करेंगे.’ यहां हमें ये समझना होगा कि अमेरिका और रूस के बीच जंग छिड़ती है, तो कोई भी देश दूसरे पर जीत हासिल नहीं कर पाएगा.

लेकिन, दुनिया के परमाणु तबाही के मुहाने पर खड़े होने से पहले जंग के ख़तरे के चलते अभूतपूर्व आर्थिक संकट ज़रूर पैदा हो सकता है. अगर हालात जंग के मुहाने पर पहुंचे, तो इनसे बाज़ार अछूते नहीं रहेंगे. बाज़ार में भारी गिरावट आएगी. सच तो ये है कि हाल ही में रूस के उप मंत्री रियाबकोव ने एक सवाल के जवाब में ऐसा हालात बनने का ज़िक्र भी किया था. इस बीच, रूस की सेना के एक रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल और अक्सर रूसी टीवी चैनलों पर बैठने वाले विशेषज्ञ येवगेनी बुझिंस्की ने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा था कि ‘यूक्रेन में रूस कोई भी छोटा मोटा युद्ध महज़ तेज़ी से किए गए कुछ हवाई हमलों की मदद से जीत लेगा.’ जनरल बुझिंस्की ने इस इंटरव्यू में कहा था कि ‘यूक्रेन में टैंकों की टुकड़ी नहीं घुसेगी. वो सिर्फ़ हवाई हमलों से यूक्रेन के इन्फ्रास्ट्रक्चर को तबाह कर देंगे. उसी तरह जैसे पश्चिमी देश करते हैं.’ इसके अलावा, विश्लेषक गिलबर्ट डॉक्टोरो ने रूस की क्षमता के बारे में अपने ब्लॉग में लिखा था कि पश्चिमी देशों ने यूक्रेन की सेना को आधुनिक बनाने और नए हथियारों से लैस करने के लिए अरबों डॉलर ख़र्च कर दिए. लेकिन, रूस में इतनी ताक़त है कि वो अपना एक भी सैनिक यूक्रेन की ज़मीन पर तैनात किए बग़ैर उसे पूरी तरह तबाह करके बंज़र बनाने की ताक़त रखता है.

कुल मिलाकर देखें तो बेहतर विकल्प यही है कि जंग न हो और उसके बिना ही यूरोप के सुरक्षा ढांचे में बदलाव को लेकर पश्चिमी देशों और रूस के बीच कोई सहमति बन जाए. ऐसे में जंग के शोर के बीच संकेत इस बात के हैं कि ये मसला हल करने में कूटनीति की भूमिका बढ़ रही है. हालांकि, उसकी राह लंबी और मुश्किल दिखती है.

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