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पड़ोस में भारतीय कम्पनियां नहीं, बल्कि वन बेल्ट वन रोड — ओबीओआर — से जुड़ने की इच्छा और तत्परता दिखाने का लाभ उठाते हुए चीन की कम्पनियां ज्यादा उन्नति करेंगी।
भारत द्वारा चीन के बेल्ट एंड रोड फोरम फॉर इंटरनेशनल कोआपरेशन की ओर से बीजिंग में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण ठुकराया जाना संभवत: एक बड़ी भूल थी। यह परियोजना बहुत ही विशाल होगी, क्योंकि यह दुनिया की 65 प्रतिशत आबादी को शामिल करने वाली और 60 या ज्यादा देशों से होकर गुजरने वाली है, इसमें 29 राष्ट्राध्यक्षों के सम्मिलित होने और 100 देशों के भाग लेने के कारण यह परियोजना एक उद्यम है, जिसकी प्रगति की राह रोक पाना मुमकिन नहीं होगा और यह कारोबार के लिए विशेषकर निर्माण, बिजली, लौह, इस्पात और सीमेंट के कारोबार के लिए बहुत से अवसर उपलब्ध कराएगी, जिनमें भारत की बहुत सी कम्पनियों को भाग लेने से लाभ पहुंचा होता।
यह सच है कि भारत के पास इस सम्मेलन का बहिष्कार करने के वास्तविक कारण थे, क्योंकि वह इस परियोजना और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) क्षेत्र से होकर गुजरने वाले सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा) के निर्माण को कश्मीर पर भारत की सम्प्रभुता का उल्लंघन मानता है। लेकिन अगर उसने इस सम्मेलन में भाग ले लिया होगा, तो भारतीय शिष्टमंडल के पास उसके भीतर रहकर ‘सार्थक बातचीत’ शुरू करने की बेहतर संभावनाएं होतीं।
ओबीओआर, वर्तमान में आर्थिक मंदी और लगभग 21 क्षेत्रों में अतिक्षमता का अनुभव कर रहे चीन की एक विशाल आर्थिक योजना है। इस परियोजना से चीन को मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और अफ्रीका में ढांचागत सुविधाओं की स्थापना करने का अवसर मिलेगा, जिससे चीन के इस्पात उद्योग में नयी जान डाली जा सकेगी। यूरोपीय यूनियन चैम्बर आॅफ कॉमर्स के अनुसार, चीन वर्तमान में जारी परियोजनाओं के लिए साल में लगभग 30 मिलियन टन इस्पात की सप्लाई कर सकेगा। बहुत सी अमेरिकी कम्पनियां भी ठेके पाने के लिए इकट्ठा हो रही हैं।
2014 में, चीन की इंजीनियरिंग और निर्माण कम्पनियों ने विदेश में ओबीओआर संबंधी प्रतिष्ठानों की स्थापना के लिए जी ई से 400 मिलियन डॉलर मूल्य के उपकरण मंगवाने का ऑर्डर दिया था। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार 2016 में, जीई के लिए कुल ऑर्डर 2.3 बिलियन डॉलर का था और उसने अगले 18 महीनों में प्राकृतिक गैस टर्बाइन और अन्य बिजली उपकरणों के लिए अतिरिक्त 7 बिलियन डॉलर के लिए बोली लगाने की योजना बनाई। जनरल इलैक्ट्रिक और निर्माण क्षेत्र की महत्वपूर्ण कम्पनी कैटरपिलर को भी शामिल किया गया है। चीन ने पुलों, बंदरगाहों, सड़कों और रेलवे के निर्माण पर लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने का वादा किया है, इसलिए और भी अनेक कांट्रैक्ट किए जाएंगे। चीन द्वारा किए गए बड़े निवेश के वादे के साथ वैश्विक निर्माण मुहिम छेड़ी जाएगी। इसके विस्तार का अगले कुछ वर्षों में पता चलेगा,और इसके लैंडस्केप जिसके माध्यम से ओबीओआर, संभवत: महत्वपूर्ण बदलाव लाएगा और शुझाउ कंस्ट्रक्शन मशीनरी ग्रुप जैसी चीनी कम्पनियां सबसे ज्यादा लाभांवित होंगी।
यह कहना बेमानी होगा कि बेहतर कनैक्टिविटी के कारण कारोबार में होने वाली वृद्धि से ओबीओआर के आसपास के लोग लाभान्वित होंगे और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा, जिससे व्यापार और निवेश को बढ़ावा मिलेगा। चीन यही चाहता है। इसकी बदौलत बहुत से देशों में उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी । अतीत में, इसकी शक्ति कारोबार और निवेश से प्राप्त होती थी और ओबीओआर का आशय कारोबार की संभावनाओं में वृद्धि होना है। शायद, इससे आतंकवाद में भी कमी आए। चीन के लोग शांति में यकीन रखते हैं, क्योंकि इससे व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे वे विश्व में आर्थिक श्रेष्ठता प्राप्त करने में सक्षम होते हैं।
दक्षिण एशियाई क्षेत्र में, चीन पहले से ही बहुत महत्वपूर्ण निवेशक है। भूटान के अलावा बाकी सभी ने इस बैठक में भाग लिया। वे बुनियादी ढांचे के निर्माण के दौरान चीनी कम्पनियों के ऋणी होंगे, जैसे श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह के निर्माण के दौरान हुआ था, लेकिन यह उनका आपसी मामला है, हमारा नहीं। गौर करने लायक सबसे अहम बात यह है कि भारतीय कम्पनियां नहीं, बल्कि ओबीओआर से जुड़ने की इच्छा और तत्परता दिखाने का लाभ उठाते हुए चीन की कम्पनियां पड़ोस में ज्यादा उन्नति करेंगी। अगर चीनी बुनियादी ढांचे का तेजी से विकास करके, जिससे रोजगार के अवसरों का सृजन होता है, लोगों की सद्भावना जीतने में सक्षम हो सके, तो भारत पूरी तरह अलग—थलग पड़ जाएगा। भारत किनारे पर खड़ा रहेगा और अलोकप्रिय रहेगा।
बेहतर कनैक्टिविटी के कारण कारोबार में होने वाली वृद्धि से ओबीओआर के आसपास के लोग समृद्ध होंगे और इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होगा, जिससे व्यापार और निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
चीन ने भारत के बुनियादी ढांचे के निर्माण में भी सहायता की होती, क्योंकि हमें भी इसकी जरूरत है और ऐसा तेजी से नहीं हो रहा है। भारत और चीन अतीत में ब्रिक्स बैठकों में एक—दूसरे के समानांतर रहे हैं और एआईआईबी और न्यू डेवेलपमेंट बैंक की स्थापना का माध्यम रहे हैं, जो विकासशील देशों के लिए बुनियादी वित्तीय सहायता सुगम बनाएंगे। भारत—चीन संबंधों में अचानक आया यह यू—टर्न बहुत हैरतंगेज है।
अफ्रीका में बुनियादी ढांचा तैयार करने और व्यापार बढ़ाने के भारत के प्रयास और विजन में भी तब्दीली आई है, क्योंकि चीन की मौजूदगी वहां बड़े पैमाने पर है। अफ्रीका में चीन के नव उपनिवेशवाद और वह किस तरह दूरदराज के इलाकों में यूरेनियम के लिए अपनी मैनपॉवर के माध्यम से कोशिश कर रहा है और उन इलाकों में चीनी शहरों की स्थापना कर रहा है, के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अफ्रीका में उनका निवेश बेजोड़ रहा है और वहां तक उनकी पहुंच किसी भी अन्य देश से ज्यादा व्यापक है।
विशुद्ध कारोबारी नजरिए से यदि इस बारे में गौर किया जाए, तो बेहतर होता अगर सरकार के सलाहकारों ने ओबीओआर बैठक में भारत के शामिल होने का पक्ष लिया होता, क्योंकि जिस मसले के आधार पर भारत ने इसमें शामिल होने से इंकार किया, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है, अन्य देशों के लिए यह भारत और पाकिस्तान के बीच लम्बे अर्से से जारी संघर्ष की महज एक शाखा भर है।
अफ्रीका में बुनियादी ढांचा तैयार करने और व्यापार बढ़ाने के भारत के प्रयास और विजन में भी तब्दीली आई है, क्योंकि चीन की मौजूदगी वहां बड़े पैमाने पर है।
चीन, भारत को इससे जोड़ने का बेहद इच्छुक है, क्योंकि दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से में चीन के सामान और निवेश के लिए इतना बड़ा बाजार नहीं है। इसलिए जब बेहतर बुनियादी ढांचे के कारण विश्व व्यापार में इजाफा होगा, तो नेपाल के रास्ते ज्यादा से ज्यादा वस्तुएं भारत आएंगी। यही एक कारण है, जो वह चीन—नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेल लिंक का निर्माण करने का बहुत ज्यादा इच्छुक है, जिसकी लागत 8 बिलियन डॉलर तक आ सकती है और जिस पर हाल के एक कॉन्क्लेव के दौरान मुहर लगाई गई है। नेपाल के साथ ओपन बॉर्डर से भारत में चीनी वस्तुओं के कारोबार में सहायता मिलेगी।
जैसा कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोहराते आए हैं, दोनो विशाल जनसंख्या वाली प्राचीन सभ्यताओं में बहुत सी समानताएं हैं और उन्हें आपस में जुड़े रहने की जरूरत है, क्योंकि वे आज दुनिया की दो मुख्य उभरती ताकते हैं। रूस इस परियोजना से जुड़ चुका है और उसे भारत के इससे जुड़ने से खुशी होगी, क्योंकि पश्चिमी देशों के नेतृत्व को चुनौती देने के लिए इन तीनों का एकजुट होना महत्वपूर्ण है।
चीन को भारतीय इंजीनियरों, मजदूरों, सॉफ़्टवेयर के जानकारों की जरूरत है, क्योंकि उसके यहां मजदूरों की कमी बात उजागर हो चुकी है और वहां मजदूरी बढ़ रही है। दोनों देशों के बीच बहुत अच्छी समझ रही है, क्योंकि चीन के पास उन्नत प्रौद्योगिकी और धन है और भारत के पास कुशल और तकनीकी मेनपॉवर है। परियोजना में हमारे तकनीकी जानकारों के लिए बहुत सी नौकरियां मिल सकती हैं और बहुत सी भारतीय निर्माण कम्पनियों को ज्यादा कारोबार मिल सकता है। ओबीओआर जैसी विशाल परियोजना में, हर तरफ लाभ ही लाभ है, क्योंकि इसमें वैश्विक बदलाव लाने में समर्थ ऐसे पहलु हैं, जैसे इससे पहले कि किसी अन्य परियोजना में नहीं देखे गए।
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Jayshree Sengupta was a Senior Fellow (Associate) with ORF's Economy and Growth Programme. Her work focuses on the Indian economy and development, regional cooperation related ...
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