Author : Samir Saran

Published on Jul 01, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत की अर्थव्यवस्था इस सदी के मध्य तक अमेरिका से बड़ी हो जाएगी यानी एक सदी से अधिक समय में पहली बार अमेरिका किसी पार्टनरशिप में छोटी आर्थिक ताकत होगा.

भारत पर नियंत्रण की कोशिश के बजाय ‘भरोसा’ करने में ही है अमेरिका की भलाई

अमेरिका के विदेश सचिव माइक पॉम्पियो दुनिया के सबसे बड़े और सबसे पुराने लोकतंत्र के आपसी रिश्तों में आर्थिक और रणनीतिक मुद्दों पर ग़ैर-बराबरी की गलतफ़हमी दूर करने के मिशन पर भारत आए थे. अमेरिका ख़ासतौर पर भारत के अपने नागरिकों से जुड़े डेटा देश में रखने की शर्त, रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम सौदा और ईरान से कच्चे तेल के व्यापार को लेकर नाराज़ है. दूसरे देशों से मोलभाव से पहले अमेरिका की आर्थिक दबाव बनाने और पाबंदी लगाने की आदत रही है. पॉम्पियो की भारत यात्रा से पहले भी यही तमाशा हुआ.

अगर इन बातों को छोड़ दें तो वॉशिंगटन डीसी में ‘अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व’ को बहाल करने पर आम सहमति है. अमेरिका की स्ट्रैटेजिक कम्युनिटी में ट्रंप सरकार के ऊटपटांग तरीकों पर भले ही मतभेद हो, लेकिन इसके मकसद से किसी को गुरेज़ नहीं है. यह सोच चीन के उभार, इंडस्ट्री और वैश्विक अर्थव्यवस्था में डिजिटल टेक्नोलॉजी की बढ़ती भूमिका, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नेतृत्व को लेकर अमेरिका के खुद पर कम होते भरोसे और बर्लिन वॉल से ग्रेट वॉल ऑफ चाइना के बीच उसने जिस वैश्विक व्यवस्था के निर्माण में मदद की है, उसकी मज़बूती से की वजह से बनी है. लगता है कि अमेरिका के इस खेल में भारत फंस गया है. अफ़सोस की बात है कि वैचारिक, आर्थिक, तकनीकी और सैन्य वर्चस्व के लिए वह भारत के साथ अपने रिश्तों की अनदेखी कर रहा है.

अमेरिका की इस रणनीति की बुनियाद भी ग़लत है. पहली गलती उसकी आर्थिक सोच से जुड़ी है. उसे लगता है कि सिलिकॉन वैली (अमेरिका में जहां गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के हेडक्वॉर्टर हैं) के पास भारत के डिजिटल इंडस्ट्रियलाइजेशन को तय करने की क्षमता और अधिकार है. इस सोच के साथ दिक्कत यह है कि इसमें वर्षों के औद्योगिक विकास और अमेरिका की दूसरे देशों के साथ पार्टनरशिप के इतिहास की अनदेखी की जा रही है. यूरोप और पूर्वी एशिया में अमेरिका के सहयोगी देशों के पास मज़बूत घरेलू उद्योग और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मुकाबला करने वाली कंपनियां थीं, जिनसे उन्हें इंडस्ट्रियलाइजेशन में मदद मिली. अमेरिका ने इसमें निवेशक और कंज़्यूमर मार्केट की भूमिका निभाई थी. भारत के मामले में भी अमेरिका को वही रोल निभाना चाहिए क्योंकि डेटा गवर्नेंस और सिक्योरिटी पर हालिया नीति से चौथे औद्योगिक क्रांति के दौरान भारत की ग्रोथ तय होगी.

पहले जिस तरह से यूरोप या जापान ने इलेक्ट्रॉनिक, ऑटो और एरोनॉटिकल इंडस्ट्री में तरक्की की, उसी तरह से भारत ऐसी औद्योगिक नीति बना रहा है, जिससे डिजिटल युग में दिग्गज भारतीय कंपनियां खड़ी हो सकें. इन नीतियों से भारत सायबर-स्पेस में अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी भी दे सकेगा, जिसमें अमेरिकी कंपनियों का रिकॉर्ड ख़राब रहा है. इन नीतियों का विरोध करने के बजाय अमेरिका को भारत के साथ मिलकर प्रतिस्पर्धी और सुरक्षित ग्लोबल सायरबस्पेस की दिशा में बढ़ना चाहिए, जहां सबके साथ बराबरी का सलूक होता हो.

यूरेशिया में भारत को रूस और ईरान जैसे देशों के साथ मिलकर नई व्यवस्था बनाने के लिए मौके तलाशने चाहिए. यह उसका लंबी अवधि का लक्ष्य है. अमेरिका के बेतुके फरमानों के कारण इससे समझौता नहीं किया जा सकता. इस क्षेत्र के गवर्नेंस को लेकर अमेरिका अगर भारत का साथ दे तो इससे उसका ही भला होगा.

अमेरिका की दूसरी गलत सोच रणनीतिक मामलों को लेकर है. उसे लग रहा है कि लंबी अवधि में सहयोगी देशों के साथ भारत के रिश्तों को नियंत्रित कर सकता है. ख़ासतौर पर ईरान और रूस को लेकर. अमेरिका दूसरे देशों के साथ भारत के रिश्ते तय करने की कोशिश के लिए जैसी दलील दे रहा है, जिसमें उसका खुद का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है. पश्चिम एशिया और वृहद मध्य पूर्व में पाकिस्तान समेत कई देशों के साथ रक्षा क्षेत्र में उसके संदिग्ध रिश्ते रहे हैं. फिर वह भारत से अलग व्यवहार की उम्मीद कैसे कर सकता है?

सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया में जो बदलाव हो रहे हैं, अमेरिका उनकी अनदेखी कर रहा है. 21वीं सदी की दिशा एक हद तक एशिया और यूरोप मिलकर तय करेंगे. यूरेशिया (यूरोप और एशिया) और इंडो-पैसिफिक मैरिटाइम सिस्टम में भारत की अहम भूमिका होगी. यूरेशिया में भारत को रूस और ईरान जैसे देशों के साथ मिलकर नई व्यवस्था बनाने के लिए मौके तलाशने चाहिए. यह उसका लंबी अवधि का लक्ष्य है. अमेरिका के बेतुके फरमानों के कारण इससे समझौता नहीं किया जा सकता. इस क्षेत्र के गवर्नेंस को लेकर अमेरिका अगर भारत का साथ दे तो इससे उसका ही भला होगा क्योंकि वह यूरेशिया के देशों और संस्थानों से करीबी तौर पर जुड़ा हुआ है.

द्विपक्षीय रिश्तों की ‘बड़ी तस्वीर’ पर ग़लत सोच की वजह से आर्थिक और रक्षा क्षेत्र को लेकर भारत-अमेरिका में तकरार बढ़ी है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की आर्थिक ताकत और सैन्य क्षमता के आगे उसके सहयोगी देश बौने साबित हुए थे. उसे यह बात अच्छी तरह से पता है. अपनी समृद्धि और सुरक्षा के लिए वह आज अपने नेतृत्व में एक उदार वैश्विक व्यवस्था चाहता है. इस पर लोवी इंस्टीट्यूट के मेरे दोस्त माइकल फलिलव ने विंस्टन चर्चिल के हवाले से कहा था, ‘अमेरिका के नेतृत्व वाला वर्ल्ड ऑर्डर सबसे बुरा है, लेकिन अफ़सोस कि दूसरे इससे भी बुरे हैं.’ ज़रूरी नहीं कि यह बात भारत के लिए भी सही हो. भारत जैसा बड़ा देश ऐसी दुनिया की ‘बड़ी ताकत’ नहीं बन सकता, जिसका मक़सद सिर्फ एक देश के हितों को बढ़ावा देना हो. सिर्फ़ साइज़ या आकार के लिहाज़ से सोचिए. क्या भारत को ऐसे देश का पिछलग्गू बनना चाहिए, जिसके पास भारत से तीन गुना अधिक ज़मीन हो, लेकिन आबादी एक तिहाई हो?

और तो और, भारत की अर्थव्यवस्था इस सदी के मध्य तक अमेरिका से बड़ी हो जाएगी यानी एक सदी से अधिक समय में पहली बार अमेरिका किसी पार्टनरशिप में छोटी आर्थिक ताकत होगा. जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया या यूरोपियन यूनियन की सुरक्षा की अमेरिका ने गारंटी दी हुई है, लेकिन वह भारत के सुरक्षा की गारंटी नहीं देगा. फिर अमेरिका को क्यों लगता है कि भारत के साथ मौजूदा पार्टनरशिप का ढर्रा लंबे समय तक बरकरार रहेगा?

वैसे, इस मामले में भारत के लिए कई सबक भी छिपे हैं. लंबे समय तक भारत का रणनीतिक मक़सद साफ़ नहीं था. इसलिए उसकी विदेश नीति भी भ्रमित थी. आज जिस तेज़ी से दुनिया बदल रही है, उसमें इसका नतीजा बर्बादी के सिवा कुछ और नहीं होगा. भारत को यह साफ़ करना होगा कि वह दुनिया में अपने लिए क्या भूमिका देखता है और उसे हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए.

केंद्र की मौजूदा सरकार भारी जनादेश के साथ सत्ता में आई है, उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भारतीयों को उनकी सही जगह दिलाने की पहल करनी चाहिए. भारत मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के उदारवादी नियमों, कायदों से बंधी व्यापार और सुरक्षा नीतियों का समर्थन करेगा, लेकिन वह अमेरिकी का बंधक बनकर नहीं रह सकता. वह वैश्विक फैसलों में भागीदार बनने के लिए दबाव डालता रहेगा. भारत की लंबी अवधि के लक्ष्यों में बाधा डालने के बजाय अमेरिका को उसे ऐसे साथी देश के रूप में देखना चाहिए, जो उसकी बनाई उदारवादी व्यवस्था को बचाने में मददगार साबित हो सकता है. इसके लिए दोनों ही देशों को कुछ कुर्बानियां और समझौते करने होंगे. जिस पार्टनरशिप से 21वीं सदी की दिशा तय होने की उम्मीद है, उसके लिए इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है.

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