Author : Samir Saran

Published on Dec 17, 2020 Updated 0 Hours ago

दुनिया के भविष्य के लिए यूरोप किस हद तक अहम है ? यूरोपवासी महसूस करते हैं कि विश्व परिदृश्य में उनकी अहमियत कम हो रही है.

'अगर यूरोपियन संघ असफल होता है तो हम उदारवादी विश्व व्यवस्था हमेशा के लिए कायम रह सकते हैं'

Eastern Focus: दुनिया के भविष्य के लिए यूरोप किस हद तक अहम है? यूरोपवासी महसूस करते हैं कि विश्व परिदृश्य में उनकी अहमियत कम हो रही है.

Samir Saran: विरोधाभासी तरीक़े से यूरोप इकलौता सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक इलाक़ा है जो विश्व व्यवस्था के भविष्य को तय करेगा. अगर यूरोप अपने मौलिक सिद्धांतों- लोकतांत्रिक, खुला, उदारवादी, मिला-जुला, एक पारदर्शी और खुले बाज़ार की अर्थव्यवस्था का समर्थन करने वाला, क़ानून आधारित शासन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, बोलने की आज़ादी का बचाव करने वाले सिद्धांतों- पर कायम रहता है तो दुनिया के उदारवादी बने रहने की उम्मीद होगी. अगर यूरोपियन यूनियन (EU) उत्तर और दक्षिण, पूरब और पश्चिम में बंट जाता है और हम देखते हैं कि इसका एक बड़ा हिस्सा अटलांटिक परियोजना को छोड़ कर ज़्यादा सत्तावादी शासनों के साथ खड़ा होता है- जो कि इस पसंद के फ़ायदों को देखते हुए बेहद लुभावना है- तब अटलांटिक परियोजना का अंत हो जाएगा. जो EU अपनी रीति-नीति में एकजुट नहीं है वो आख़िरकार अपना अंत ख़ुद लिखेगा. यूरोप कैसे बदलाव करेगा? ये अपना किरदार ख़ुद लिखेगा या कोई और ये काम करेगा?

अगर यूरोपियन यूनियन (EU) उत्तर और दक्षिण, पूरब और पश्चिम में बंट जाता है और हम देखते हैं कि इसका एक बड़ा हिस्सा अटलांटिक परियोजना को छोड़ कर ज़्यादा सत्तावादी शासनों के साथ खड़ा होता है- जो कि इस पसंद के फ़ायदों को देखते हुए बेहद लुभावना है- तब अटलांटिक परियोजना का अंत हो जाएगा. 

मुझे यकीन है कि महामारी के बाद का EU, राजनीतिक किरदार के तौर पर, एक नई ज़िंदगी देखेगा. महामारी के ख़त्म होने के बाद एक नये राजनीतिक EU का जन्म होगा. जब तक ये नहीं होता है, मुझे लगता है कि ये यूरोपियन संघ का अपने आप ही अंत है. ये करो या गंवाओ का पल है. जब तक यूरोप सामरिक तौर पर काफ़ी ज़्यादा आक्रामक, काफ़ी ज़्यादा विस्तारवादी नहीं बनता, अपनी भूमिका, ज़िम्मेदारी और नियति को लेकर जागरुक नहीं बनता, आप देखेंगे कि EU की चमक फीकी पड़ जाएगी. मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण ज्ञात-अज्ञात चीज़ है यूरोप का भविष्य. क्या EU कायम रहेगा? क्या चीन के साथ सहयोग करने वाले यूरोपियन यूनियन के 17 देश यूरोपियन यूनियन के सभी 27 देशों के मुक़ाबले ज़्यादा शक्तिशाली बन जाएंगे? इस महादेश में हवा किस दिशा में बहेगी? क्या ये वाकई उदारवादी व्यवस्था का गढ़ बना रहेगा या उदारवादी व्यवस्था यूरोप में दफ़न हो जाएगी?

यूरोपियन सुरक्षा के लिए इंडो-पैसिफिक की महत्वपूर्ण जगह है

Eastern Focus: हम सिर्फ़ अटलांटिक पार साझेदारी के हिस्से के तौर पर वजूद के अभ्यस्त हो चुके हैं. पिछले कुछ दशकों में यूरोप ने ख़ुद को अलग किरदार के तौर पर नहीं देखा है, बल्कि अमेरिका के साथ तालमेल के तौर पर नज़र आया है. ये ऐसी चीज़ है जिसके डगमगाने की शुरुआत अब हो गई है. क्या आपको लगता है कि अगर सभी सदस्य देश एकजुट होकर काम करते हैं तो वैश्विक किरदार के तौर पर यूरोप अब अपनी शर्तों पर भूमिका निभाएगा? या फिर हम अमेरिका के साथ मिलकर अपनी भूमिका निभाते रहेंगे? या फिर हम कोई और साझेदार तलाशेंगे ?

Samir Saran: मुझे शक है कि ब्रेग्ज़िट के बाद आप ज़्यादा एकजुट EU देख पाएंगे जो फ्रेंच मिलिट्री डॉक्ट्रिन और फ्रेंच मिलिट्री रुख़ के इर्द-गिर्द संगठित रहेगा. UK की ग़ैर-मौजूदगी के साथ मुझे ऐसा महसूस होता है कि EU की राजनीतिक एकजुटता बढ़ेगी और भूरणनीतिक और भूराजनीतिक सवालों पर EU का दृष्टिकोण काफ़ी ज़्यादा समन्वित रहेगा. फ्रांस को पता है कि EU के बड़े आकार के बिना वो महत्वपूर्ण किरदार नहीं रहेगा. फ्रांस की सैन्य मौजूदगी तभी दमदार होगी जब वो EU की तरफ़ से भूमिका निभाए.

दूसरे साझेदारों के मामले में यूरोप ने सिर्फ़ ग़लतियां की हैं. यूरोप को ऐसा लगा कि चीन के साथ भागीदारी करके वो चीन को बदल देगा लेकिन मुझे शक है कि EU के चीन को बदलने से पहले चीन ही EU को बदल देगा. EU की गल़ती है कि वो कल्पना करता है कि आर्थिक और व्यापारिक साझेदारी चीन में काफ़ी हद तक एक राजनीतिक सर्वसम्मति बनाएगी. लेकिन चीन राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखता बल्कि यूरोप के बाज़ारों पर नियंत्रण में उसकी दिलचस्पी है.

यूरोप को ये करना चाहिए कि वो भारत की अहमियत पर विचार करे. अगर यूरोप महादेश को अपनी मिली-जुली विशेषता बनाए रखनी है तो दक्षिण एशिया महत्वपूर्ण जगह है. आज भारत और चीन के बीच जो हो रहा है वो वास्तव में विश्व व्यवस्था के भविष्य पर महत्वपूर्ण चर्चा है. अगर चीन को जवाब नहीं दिया गया तो हिमालय में जारी गतिरोध सिर्फ़ पहला ऐसा मामला है जो होने की आशंका है. अगर चीन एशिया का आकार बदलने में कामयाब रहता है और चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस वाली व्यवस्था बना पाता है तो हैरान होने की ज़रूरत नहीं है कि यूरोप के साथ भी ऐसा ही होगा. अगर यूरोप को अपने वजूद को लेकर सुरक्षित महसूस करने की ज़रूरत है तो उसे मज़बूत स्थानीय साझेदारी बनानी होगी- भारत, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, जापान के साथ. EU को ख़ुद को इंडो-पैसिफिक शक्ति के तौर पर देखने की ज़रूरत है. इंडो-पैसिफिक यूरोप की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण जगह है. अगर इंडो-पैसिफिक किसी और तरफ़ जाता है तो यूरोप सुरक्षित नहीं होने वाला है.

Eastern Focus: नई उभरती व्यवस्था में आप CEE (सेंट्रल और ईस्टर्न यूरोप) की भूमिका के बारे में क्या सोचते हैं? हम यहां के दिल और दिमाग़ के लिए ज़्यादा मुक़ाबला देखते हैं. यहां चीन के ज़्यादा मुक़ाबले और सक्रिय भागीदारी के माहौल को देखते हुए भारत किस तरह मदद कर सकता है?

Samir Saran: सेंट्रल यूरोप कई किरदारों के लिए आकर्षण का केंद्र बनने वाला है. चीन उनके प्यार का सौदा करेगा, अमेरिका सैन्य भरोसा देगा और इसी तरह की चीज़ें होती रहेंगी. निकट भविष्य में कई किरदार CEE की अहमियत को समझेंगे. इसका सरल कारण है कि ये वो देश हैं जो तय करेंगे कि आख़िर में यूरोप किस तरफ़ जाएगा. कुछ मामलों में ये निर्णायक देश हैं जो ये तय करने वाले हैं कि यूरोप अपने अतीत के आदर्शों के प्रति निष्ठावान बने रहता है या नया रास्ता चुनता है. कई मायनों में CEE देश निर्णायक हैं.

CEE के पास दो महत्वपूर्ण विकल्प और दो महत्वपूर्ण दबाव हैं. विकल्प: क्या वो (चीन, रूस, पुराने यूरोप और भारत जैसे नये देश के बीच) एक सर्वसम्मति बनाने में कामयाब हो पाएंगे या वो संघर्ष का एक नया अखाड़ा बना जाएंगे? क्या हम ‘बुखारेस्ट सर्वसम्मति’ बना पाएंगे जहां पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण अगले सात दशकों के लिए नई विश्व व्यवस्था और नये नियम बनाएंगे? अगर आप ग़लत खेलेंगे तो आप ऐसी जगह बन सकते हैं जहां शक्तिशाली देश मुक़ाबला करेंगे, होड़ करेंगे और अव्यवस्था पैदा करेंगे.

CEE पर दो दबाव भी हैं. पहला दबाव ये है कि यूरोप में एक आर्थिक बंटवारा है. अगर आपकी प्रति व्यक्ति आमदनी कम है तो आपको इंफ्रास्ट्रक्चर, रोज़गार, आजीविका और विकास के लिए निवेश तलाशने की ज़रूरत होगी. इसका नतीजा आर्थिक दबाव के रूप में सामने आता है जिसके निपटारे की ज़रूरत होती है. इसलिए यूरोप को तय करना होगा कि पैसा मायने रखता है कि नहीं. क्या ये मायने रखता है कि पैसा लाल है या हरा? क्या ये मायने रखता है कि पैसा पश्चिम से आता है या पूर्व से? ये एक दबाव है जिस पर विचार करने की ज़रूरत है. आप राजनीतिक होते हुए किस तरह अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना चाहेंगे?

दूसरा दबाव है कि आप कौन सा रास्ता अपनाना चाहते हैं. आप कैसे भविष्य की कल्पना कर रहे हैं? क्या ये भविष्य सस्ती मैन्युफैक्चरिंग पर बनेगी? आधुनिक तकनीक वाला समाज होते हुए क्या आप चौथी औद्योगिक क्रांति के नियम निर्माता बनना चाहते हैं या इसके नियम को मानने वाले? दूसरा, आप जिस तरह के आर्थिक विकास में निवेश कर रहे हैं, उसका स्वरूप भी एक और दबाव बन जाता है. ये दूसरा विकल्प है जो CEE को तय करना होगा. इस मायने में मुझे यकीन है कि भारत एक किरदार बनेगा. चूंकि इसे हमने पिछले 20 वर्षों में अनुभव किया है, हम उन निर्णायक देशों में हैं जो विश्व व्यवस्था का स्वरूप तय कर सकते हैं, इस तरह हम इस अनुभव को आपके साथ साझा कर सकते हैं. हमने ये भी तय किया है कि हम चीन की तरह कम लागत वाली मैन्युफैक्चरिंग अर्थव्यवस्था नहीं बनना चाहते हैं बल्कि मूल्यवान और उपयोगी, नए प्लेटफॉर्म बनाने वाली अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं. हमारी अर्थव्यवस्था का आकार छोटा होते हुए भी यहां पर एक अरब लोगों का डिजिटल प्लेटफॉर्म, डिजिटल कैश सिस्टम, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस लेबोरेटरी और सॉल्यूशन मौजूद हैं.

हम चीन की तरह कम लागत वाली मैन्युफैक्चरिंग अर्थव्यवस्था नहीं बनना चाहते हैं बल्कि मूल्यवान और उपयोगी, नए प्लेटफॉर्म बनाने वाली अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं. हमारी अर्थव्यवस्था का आकार छोटा होते हुए भी यहां पर एक अरब लोगों का डिजिटल प्लेटफॉर्म, डिजिटल कैश सिस्टम, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस लेबोरेटरी और सॉल्यूशन मौजूद हैं.

जैसे-जैसे हम चौथी औद्योगिक क्रांति की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे यूरोप और भारत के बीच दूरी ख़त्म हो जाएगी. हमें व्यापार संबंधों, ज़मीनी रास्तों और जहाज़ से संपर्कों के बारे में चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है. बिट्स और बाइट्स की धारा तेज़ी से बढ़ सकती है. जैसे-जैसे हम 3डी प्रिंटिंग, क्वॉन्टम कंप्यूटिंग, बिग डाटा और ऑटोनॉमस सिस्टम के युग में जा रहे हैं, वैसे-वैसे सहयोग के क्षेत्र विशाल हो जाएंगे. भारत यूरोप को कुछ हासिल करने, अपनी पसंद का मौक़ा देता है. जब बात पसंद की आती है तो परंपरागत अमेरिकी और चीनी प्रस्तावों के अलावा एक तीसरा प्रस्ताव भारत भी है जो एक अरब लोगों का बाज़ार है.

Eastern Focus: क्या आपको उम्मीद है कि कारोबार को एक जगह से दूसरी जगह बदलने और इस बात को सुनिश्चित करने में EU के रुख़ में परिवर्तन होने वाला है कि मैन्युफैक्चरिंग चीन के हितों या चीन की युद्ध स्थिति का बंदी न बने?

Samir Saran: मुझे लगता है कि हर जगह एक हद तक कारोबार एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट होगा. ये सिर्फ़ यूरोप में नहीं हो रहा है. राजनीतिक भरोसा महत्वपूर्ण बनने वाला है. राजनीतिक भरोसा और वैल्यू चेन एक-दूसरे को प्रभावित करने जा रहे हैं. समान सोच वाले साझेदारों के साथ हर देश ज़्यादा आरामदेह महसूस करेगा. उन्हें हर चीज़ के लिए सहमत होने की ज़रूरत नहीं होती लेकिन उन्हें समान वैचारिक और राजनीतिक पहुंच पर होना चाहिए.

इसके पीछे दो कारण हैं. पहला कारण है महामारी जिसका हम फिलहाल सामना कर रहे हैं और जिसने एक तरह से वैश्वीकरण की कमज़ोरी या नाज़ुकता का पर्दाफ़ाश किया है. वैश्वीकरण का हिप्पी और जिप्सी अंदाज़ ख़त्म हो गया है. मुझे लगता है कि लोग काफ़ी ज़्यादा राजनीतिक फ़ैसले लेने जा रहे हैं. दूसरा कारण है कि जैसे-जैसे हम ज़्यादा डिजिटलाइज़्ड समाज बनना शुरू करते हैं, व्यक्तिगत डेटा और व्यक्तिगत जगह ज़रूरी बन जाती है. इस तरह आप नहीं चाहते हैं कि ये डेटा उन देशों के साथ साझा किया जाए जिनके सिस्टम पर आप भरोसा नहीं करते. विस्तृत औद्योगिक विकास के ज़रिए वैल्यू में तेज़ी से बढ़ोतरी होगी, प्रतिष्ठा के मामले में काफ़ी ज़्यादा अभिन्न- ये आपके शरीर के भीतरी अंगों के बारे में होगा, ये आपके व्यक्तिगत अनुभव के बारे में होगा, किस तरह हम रहते हैं, लेन-देन करते हैं, मिलते हैं या चुनते हैं, उसके बारे में भी होगा. ये सभी अभिन्न वैल्यू चेन हैं. इन मानव शरीर से जुड़े अभिन्न वैल्यू चेन के लिए, 20वीं सदी में भारी उत्पादन करने वाले कल-कारख़ानों के द्वारा बनने वाले वैल्यू यानी प्रोडक्शन के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा चिंतन-मनन की ज़रूरत होगी.

EU संघर्ष वाले वैश्वीकरण के निपटारे के लिए रूप-रेखा बना सकता है

Eastern Focus: आप भरोसे की बढ़ती वैल्यू को करेंसी की तरह भी बता रहे हैं. यूरोप में हम अक्सर ध्यान दिलाते हैं कि हम वैल्यू पर आधारित एक गठबंधन हैं. लेकिन चीन और दूसरे देशों को तो छोड़ दीजिए, हमारा सबसे नज़दीकी साझेदार अमेरिका भी काफ़ी ज़्यादा लेन-देन वाली दिशा में बढ़ता लग रहा है. आप ऐसे विश्व दृष्टिकोण का वर्णन कर रहे हैं जो तेज़ी से साझा वैल्यू पर निर्भर कर रहा है, कम-से-कम कुछ साझा बुनियाद पर बातचीत करने की कुछ क्षमता, जबकि कई मायनों में ऐसा लगता है कि चीज़ें विपरीत दिशा में आगे बढ़ रही हैं, काफ़ी ज़्यादा व्यावहारिक राजनीति की तरफ़. क्या आपको ऐसा लगता है कि ये हालात ज़्यादा दिन तक बने रहेंगे ?

Samir Saran: महामारी इस रुझान को आगे लेकर आई है. लोग भरोसे और वैल्यू सिस्टम का महत्व पहले से कहीं ज़्यादा समझेंगे. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि ये अनिवार्य हैं. अगर आप याद करें तो EU को लेकर भारत का रुख़ काफ़ी उपेक्षापूर्ण था, उसे “बौनों का एक साम्राज्य” कहता था, जिसके पास कोई सामरिक ताक़त नहीं थी. लेकिन अगर आप पिछले दो वर्षों को देखें तो भारत ने EU को अपनाना शुरू कर दिया है और एक मायने में उन समाधानों को प्रस्तावित कर रहा है जिनको EU ने अतीत में ख़ुद लागू किया है. भारत इंडो-पैसिफिक में एक निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर का ढांचा लेकर आया जो कर्ज़ के जाल वाली कूटनीति नहीं बनाएगा, रोज़गार का निर्माण करेगा, पर्यावरण का सम्मान करेगा और लोगों के अधिकारों और संप्रभुता को मान्यता देगा. भारत ये उस वक़्त लेकर आया जब उसने देखा कि चीन औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र पर कब्ज़े के लिए सभी नियमों और सभी नैतिकता को तोड़ रहा है. डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई में अमेरिका भी इंडो-पैसिफिक के लिए ब्लू डॉट अमेरिकन प्रोजेक्ट लेकर आया- ये मूल्यों पर आधारित ढांचा है. जब भी आपको एक शक्तिशाली राजनीतिक विरोधी से निपटना होता है तो आप नियमों को ताक पर रख देते हैं. अगर आप उनके साथ युद्ध नहीं करना चाहते हैं तो आपको क़ानूनों, नियमों और रेगुलेशन के ढांचे के ज़रिए उनके साथ निपटना होगा. वैल्यू सिस्टम एक बेहद राजनीतिक पसंद है. वो हमारे संविधान और बुनियादी दस्तावेज़ों में शामिल परंपरा और पसंद है. इसलिए मूल्यों और नियमों को कम राजनीतिक बताकर या कम ताक़तवर बताकर खारिज करना ग़लत है. EU जिसे “बौनों का साम्राज्य” भी कहा गया और शुरुआती दो दशक तक कमज़ोर और ज़्यादा भू-राजनीतिक नहीं होने की वजह से जिसकी काफ़ी आलोचना की गई, वो दूसरे देशों के लिए मिसाल बन सकता है. अगर ये सम्पन्न, चमकीला यूनियन बना रहता है और अगले दशक में चीन के द्वारा धीरे-धीरे टुकड़ों में नहीं बांटा जाता है तो EU हमारे संघर्ष वाले वैश्वीकरण के निपटारे के लिए रूप-रेखा बना रहा है

भारत इंडो-पैसिफिक में एक निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर का ढांचा लेकर आया जो कर्ज़ के जाल वाली कूटनीति नहीं बनाएगा, रोज़गार का निर्माण करेगा, पर्यावरण का सम्मान करेगा और लोगों के अधिकारों और संप्रभुता को मान्यता देगा. भारत ये उस वक़्त लेकर आया जब उसने देखा कि चीन औद्योगिक इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र पर कब्ज़े के लिए सभी नियमों और सभी नैतिकता को तोड़ रहा है.

ये महामारी पहला वैश्विक संकट है जहां कैप्टन अमेरिका लापता है

Eastern Focus: भारत क्वॉड के भविष्य को कैसे देखता है? आम तौर पर क्वॉड इंडो-पैसिफिक के एक निश्चित दृष्टिकोण से जुड़ा है, जो ज़बरदस्ती से मुक्त और बिना किसी बाधा के नैविगेशन और हवाई जहाज़ों की उड़ान के लिए खुला है. क्या हम एक ज़्यादा औपचारिक भू-राजनीतिक गठबंधन या फिर एशिया को लेकर एक ख़ास दृष्टिकोण को समर्थन देने वाले गठबंधन का उदय देखने जा रहे हैं?

Samir Saran: आने वाले वर्षों में क्वॉड की अहमियत बढ़ने वाली है. मूल रूप से 4 देशों के इस संगठन का विस्तार होने जा रहा है. हमने देखा है कि हाल में दक्षिण कोरिया और फिलीपींस चर्चा में शामिल हुए हैं. हमने सभी सदस्यों द्वारा साथ मिलकर युद्ध अभ्यास, परियोजनाएं और पहल पर ज़ोर डालते हुए देखा है. अगला पांच साल क्वॉड का ज़माना होगा. महामारी ने इस प्रक्रिया को शुरू कर दिया है. मैं तीन ऐसे क्षेत्र देखता हूं जहां क्वॉड पूरी तरह से ज़रूरी होगा.

पहला क्षेत्र है वैश्विक सामानों की सुपुर्दगी, समुद्री रास्ते को खुला और संघर्ष से मुक्त रखना ताकि सुरक्षा और स्थायित्व के साथ व्यापार, ऊर्जा और लोगों का आवागमन हो सके. मैं देखता हूं कि क्वॉड एक मायने में पैक्स अमेरिकाना की जगह लेगा जो दुनिया के एक निश्चित हिस्से में स्थायित्व का जोख़िम आंकता था.

दूसरा क्षेत्र दुनिया के एक ख़ास हिस्से में इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश के इर्द-गिर्द होने जा रहा है. मैं क्वॉड की कई पहल को देख रहा हूं जो उन देशों में बड़े निवेश को मंज़ूरी देगा जहां फिलहाल सिर्फ़ एक विकल्प चीन का है. क्वॉड एशिया, दक्षिण एशिया, पूर्वी अफ्रीका, पैसिफिक द्वीपों समेत पश्चिमी एशिया के लोगों की ज़रूरत के क़रीब वित्तीय, इंफ्रास्ट्रक्चर और तकनीकी उपकरणों के नये क्षेत्र को पैदा करने में सक्षम होगा. क्वॉड आने वाले वर्षों में इस तरह के संबंधों की बुनियाद बनेगा.

हम में से कोई ‘बिना चीन’ वाली दुनिया नहीं चाहता क्योंकि हम में से हर कोई चीन के विकास और आर्थिक गतिविधियों का फ़ायदा उठाता है. हम में से ज़्यादातर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि चीन के साथ आर्थिक या राजनीतिक भागीदारी में उसको ईमानदार रखने का एकमात्र रास्ता है कि उसके सामने एक सामूहिक मोर्चा खड़ा किया जाए, उसके साथ अकेले में कोई समझौता न करें.

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है कि क्वॉड की भूमिका ये सुनिश्चित करने में होगी कि हम उस हालात में नहीं पहुंचेंगे जहां हमें चीन को ख़ारिज करना पड़े. हम में से कोई ‘बिना चीन’ वाली दुनिया नहीं चाहता क्योंकि हम में से हर कोई चीन के विकास और आर्थिक गतिविधियों का फ़ायदा उठाता है. हम में से ज़्यादातर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि चीन के साथ आर्थिक या राजनीतिक भागीदारी में उसको ईमानदार रखने का एकमात्र रास्ता है कि उसके सामने एक सामूहिक मोर्चा खड़ा किया जाए, उसके साथ अकेले में कोई समझौता न करें. EU ने ये दूसरों से पहले किया है और यही वजह है कि चीन EU को पसंद नहीं करता और ज़्यादा फ़ायदेमंद समझौते के लिए वो ‘बांटो और जीत हासिल करो’ की पद्धति अपनाता है. क्वॉड कई मायनों में इस वास्तविकता की अभिव्यक्ति है. साथ ही एशिया और पैसिफिक की बीच वाली ताक़तों (इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और जापान) को कई बार बिना अमेरिका के व्यापार की नई शर्तों और नई ऊर्जा या तकनीकी व्यवस्था पर बातचीत के लिए साथ मिलकर काम करना होगा. क्वॉड कई मायनों में ‘चीन को ज़िम्मेदार बनाने’ वाली व्यवस्था भी है यानी जवाबदेही वाली रूप-रेखा जो वैश्विक प्रणाली में चीन को ईमानदार और ज़िम्मेदार किरदार बनाए रखेगी.

Eastern Focus: क्या आपको लगता है कि ये रुझान आगे बढ़कर राजनीतिक क्षेत्र में भी दाखिल हो जाएगा, एक तरह से एशिया (क्वॉड के ज़रिए) और पश्चिम (शायद यूरोप से शुरू होकर) की सामूहिक कोशिश में ताकि एक नये प्रकार की विश्व व्यवस्था बनाई जा सके? क्या आपको लगता है कि ये बीच की शक्ति का सामंजस्य आगे बढ़ने का एक संभावित रास्ता है? या फिर आपको यकीन है कि हमें निराशा होने वाली है, जैसे BRICS के साथ हुई थी जब कुछ सदस्य अपनी घरेलू समस्याओं में उलझ गए थे?

Samir Saran: हम ऐसी दुनिया के हिस्से हैं जहां कोई सुपरपावर नहीं है. आख़िरी सुपरपावर अमेरिका था जिसका अंत 10 साल पहले वित्तीय संकट के साथ हुआ था. तब से हम लोग पूरी तरह से ऐसी दुनिया में हैं जहां आधा सुपरपावर जैसे अमेरिका, कुछ हद तक रूस और चीन हैं लेकिन कोई वास्तविक बड़ी ताक़त नहीं है जो ग़लत व्यवहार के लिए लोगों को सज़ा दे सके या अच्छे बर्ताव के लिए लोगों को इनाम दे सके.

पिछले दो से तीन वर्षों में इंडो-पैसिफिक में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी रखने वाले किरदार UK और फ्रांस हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने महसूस किया कि अगर वो भविष्य की विश्व व्यवस्था में प्रासंगिक बने रहना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें दुनिया के इस हिस्से में होने वाली बहस में मौजूद रहने की ज़रूरत होगी. दोनों ने भारत के साथ साझेदारी की- सैन्य अभ्यास करने के लिए, समुद्री अधिकार क्षेत्र जागरुकता स्टेशन बनाने के लिए, इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने के लिए और नई विश्व व्यवस्था की शुरुआत साफ़ तौर पर करने के लिए जिसका उदय यहां से हो सकता है. हमें इन गठबंधनों को बनाना होगा ताकि काम हो सकें.

ये महामारी पहला वैश्विक संकट है जहां कैप्टन अमेरिका लापता है. इस संकट को ये तथ्य और जटिल बनाता है कि कैप्टन अमेरिका के उत्तराधिकारी ने ये संकट पैदा किया है. इस तरह एक तरफ़ पुरानी ताक़त है जो लापता है और अपनी घरेलू वास्तविकताओं में तल्लीन है और दूसरी तरफ़ नई ताक़त है जो ग़ैर-ज़िम्मेदार है और जिसने हमें इस हालत में डाल दिया. 

महामारी हमें कुछ ऐसी चीज़ बताती है जो बेहद दुख़द भी है. जब से मैं पैदा हुआ मैंने विश्व का कोई ऐसा संकट नहीं देखा जिसका जवाब अमेरिका की अगुवाई में नहीं दिया गया हो. ये महामारी पहला वैश्विक संकट है जहां कैप्टन अमेरिका लापता है. इस संकट को ये तथ्य और जटिल बनाता है कि कैप्टन अमेरिका के उत्तराधिकारी ने ये संकट पैदा किया है. इस तरह एक तरफ़ पुरानी ताक़त है जो लापता है और अपनी घरेलू वास्तविकताओं में तल्लीन है और दूसरी तरफ़ नई ताक़त है जो ग़ैर-ज़िम्मेदार है और जिसने हमें इस हालत में डाल दिया. पुरानी ताक़त और नये प्रतिस्पर्धी – दोनों के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वो इस दुनिया में अपने दम पर कार्रवाई कर सकें. इससे पता चलता है कि बीच वाली ताक़तों के गठबंधन को बनाना बिल्कुल ज़रूरी है. ये कोई आराम की बात नहीं है, ये पसंद की भी बात नहीं है. ये कुछ ऐसी चीज़ है जो हमारे अपने वजूद के लिए ज़रूरी है जिसमें हमें निवेश अवश्य करना चाहिए.

Eastern Focus: क्या आप बीच वाली ताक़तों के इस गठबंधन को किसी लोकतांत्रिक लीग की तरह देखते हैं? ये ऐसा विचार है जिसको पहले जॉन मैक्केन ने आगे बढ़ाया और अब जो बाइडेन अपनी विदेश नीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण रूप-रेखा के तौर पर अपना रहे हैं. क्या आप इस लोकतांत्रिक लीग को बनाने में इस बात की संभावना देखते हैं कि ये उदारवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का रक्षक और संचालक साबित होगा?

Samir Saran: मुझे लगता है कि ये ज़रूरी है. तकनीक इतनी अभिन्न है कि हम अपने डेटा के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति पर भरोसा नहीं कर सकते जिस पर हमें शक है. इस तरह से ये ऐसी वास्तविकता है जो लोकतंत्रों और समान विचार वाले देशों के गठबंधन को अनिवार्य बनाता है. भले ही हम इसके बारे में कभी इस तरह कह नहीं सकें लेकिन ये इसी तरह बनने जा रहा है. हम ये देखने जा रहे हैं कि इन अभिन्न उद्योगों में अलग-अलग देश, उन्हीं देशों के साथ भागीदारी कायम करेंगे जो समान हैं, जिनके विचार मिलते-जुलते हैं, जिनका विश्व दृष्टिकोण एक जैसा है. इसके बावजूद इस प्रक्रिया में उम्मीद से ज़्यादा समय लग सकता है. लेकिन हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है क्योंकि इस बीच हम बर्बाद, विभाजित, तबाह और टुकड़ों में बंटने जा रहे हैं.

कुछ देशों को नेतृत्व संभालना होगा- या तो फ्रांस, UK, EU ख़ुद या भारत या सभी मिलकर नेतृत्व संभालें. जब तक नई विश्व व्यवस्था के लिए व्यापक दृष्टिकोण पर समझौता नहीं होता तब तक हमें एक अंतरिम समझौते पर ज़रूर सहमत होना चाहिए. साथ ही हमें एक जोड़ने वाला तौर-तरीक़ा बनाना चाहिए जो हमें इस सदी के पहले दो दशकों की उथल-पुथल से सदी के दूसरे हिस्से में स्थिरता तक ले जा सके. इस एकजुटता को हासिल करने के लिए हम दो विश्व युद्ध नहीं करना चाहते जैसा कि हमने पिछली सदी में किया था. हमें कोई और तौर-तरीक़ा अपनाने की ज़रूरत है जो संघर्ष से बचाए लेकिन नैतिकता को बनाए रखे.

इस संदर्भ में EU-भारत और CEE-भारत परियोजनाएं ज़रूरी हैं. ये हम हैं जिनका सबसे ज़्यादा दांव पर है क्योंकि इससे हमारा भविष्य तय होगा. दुनिया जितना ज़्यादा उथल-पुथल में होगी हम उतना कम आगे बढ़ पाएंगे. ये हमारे हित में है कि हम संस्थानों और अनौपचारिक संस्थाओं को बनाएं और उनमें निवेश करें जो हमारे मूल्यों को बरकरार रखें और स्थायित्य की मंज़ूरी दें.

ऐसा गठबंधन जो मध्य यूरोप, पश्चिमी यूरोप और एशिया के देशों (जैसे भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान) को एकजुट करे वो अमेरिका और चीन- दोनों के व्यवहार को सामान्य कर देगा. मुझे नहीं लगता कि इन दोनों देशों ने पिछले कुछ वर्षों से ज़िम्मेदार की तरह व्यवहार किया है- एक देश ने अपने लोकतांत्रिक उन्माद की वजह से और दूसरे देश ने अपनी निरंकुश मध्यकालीन सोच की वजह से. इन बातों के आधार पर एक तरफ़ आपके सामने लोकतांत्रिक नाकामी है और दूसरी तरफ़ तानाशाही उदय. हमें ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र जिंदा बचेगा और बीच की ताक़तें इस पल को सामान्य बनाने में सक्षम होंगी.

Eastern Focus: इन सब में रूस की क्या भूमिका है? क्या रूस हमारी तरफ़ आने वाला है ? या वो चीन की तरफ़ जाने वाला है- ये देखते हुए कि दोनों कई बार साथ दिखते हैं, हालांकि उनका एजेंडा शायद तभी मिलता है जब दोनों के लिए मौक़े होते हैं?

Samir Saran: रूस की वास्तविकता में अंतर है. ये ऐसा देश है जिसकी GDP बेहद साधारण है (BRICS के भीतर दूसरी सबसे कम GDP) लेकिन ये ऐसा भी देश है जिसके पास दुनिया में दूसरा सबसे ताक़तवर सैन्य बल है. इस तरह रूस बड़ा सैन्य किरदार है जिसकी अर्थव्यवस्था का आकार काफ़ी छोटा है. इसकी वजह से रूस की नीति में विषमता है. वैश्विक आर्थिक स्थिरता या वैश्विक आर्थिक विकास में रूस की हिस्सेदारी काफ़ी कम है लेकिन दुनिया भर के राजनीतिक महत्व वाले घटनाक्रम पर इसका काफ़ी असर है. रूस को किसी भी तरह से हमारे आर्थिक भविष्य की मुख्य़धारा में लाना है. चौथी आर्थिक क्रांति में जब तक रूस की सक्रिय भूमिका नहीं होती है या उसे असली फ़ायदा नहीं होता है, तब तक उसकी अर्थव्यवस्था 20वीं सदी में बनी रहेगी और इसलिए उसकी राजनीति 20वीं सदी की सोच से चलेगी. अगर रूस को भविष्य की आर्थिक नीतियों में शामिल किया जाता है तो उसकी राजनीति भी विकसित होगी. लेकिन ये आसान बदलाव नहीं है. फिर भी मैं तर्क दूंगा कि यूरोप के ऊहापोह में रूस को और जगह देनी चाहिए ताकि वो चीन की तरफ़ जाने के बारे में नही सोचे. अंतिम चीज़ जिस पर हमें विचार करना चाहिए वो ये है कि हमें ये नहीं करना चाहिए कि रूस के पास चीन के साथ साझेदारी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचे. शायद नज़दीकी पड़ोसी (CEE) रूस के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए उसके साथ साझेदारी के पक्ष में नहीं होंगे. लेकिन भारत जैसे देश रूस के साथ युद्ध अभ्यास के लिए तैयार होंगे. इस मायने में रूस के आर्थिक भविष्य में भारत एक बाज़ार, एक उपभोक्ता, एक निवेशक हो सकता है और CEE के साथ भारत की साझेदारी महत्वपूर्ण हो सकती है. क्या हम मिलकर संबंधों को सामान्य बनाने में भूमिका निभा सकते हैं? क्या हम रूस को चीन के अलावा एक विकल्प दे सकते हैं? अगर रूस का आर्थिक भविष्य हमारे साथ जुड़ा है तो उसे चीन की तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं है. रूस चीन की तरह नहीं है. चीन आधिपत्य को पूरी तरह नये स्तर पर ले जाता है; रूस में वो विषमता है जो दुनिया में उसकी जगह को परिभाषित करती है. इस विषमता का समाधान नई आर्थिक संभावनाओं और प्रोत्साहन के साथ करना चाहिए.

रूस को किसी भी तरह से हमारे आर्थिक भविष्य की मुख्य़धारा में लाना है. चौथी आर्थिक क्रांति में जब तक रूस की सक्रिय भूमिका नहीं होती है या उसे असली फ़ायदा नहीं होता है, तब तक उसकी अर्थव्यवस्था 20वीं सदी में बनी रहेगी और इसलिए उसकी राजनीति 20वीं सदी की सोच से चलेगी. अगर रूस को भविष्य की आर्थिक नीतियों में शामिल किया जाता है तो उसकी राजनीति भी विकसित होगी. 

मिडिल किंगडम का उदय

Eastern Focus: हम उस विश्व के बारे में प्रतिक्रिया देने पर चर्चा कर रहे हैं जो तेज़ी से चीन के द्वारा परिभाषित किया जा रहा है. लेकिन चीन की क्या योजना है? चीन क्या चाहता है ?

Samir Saran: मैं उनकी योजना नहीं जानता लेकिन बता सकता हूं कि मैं दिल्ली से चीन के उदय को कैसे देखता हूं. मैं इसको 3M ढांचे से परिभाषित करता हूं.

सबसे पहले मैं चीन को तेज़ी से अतीत के मिडिल किंगडम की तरह बनते देख रहा हूं. चीन के असाधारण रूप को उन संबंधों में परिभाषित किया गया है. उन्हें लगता है कि दुनिया में उनकी ख़ास जगह है- स्वर्गलोक और धरती के बीच. चीन वैश्विक नियमों को चुनौती देना जारी रखेगा और वो वैश्विक दबाव को इस बात की इजाज़त नहीं देगा कि उसके राष्ट्रीय व्यवहार या घरेलू पसंद में बदलाव करे. इस तरह हम पहले M यानी मिडिल किंगडम को आने वाले वर्षों में और मज़बूती से उभरते देखेंगे.

दूसरा, मिडिल किंगडम मॉडर्न टूल (आधुनिक औज़ारों) का इस्तेमाल करेगा. चीन आधुनिकता को अनुभव नहीं बल्कि औज़ार की तरह देखता है. इस मायने में वो औज़ार के इस्तेमाल से मिडिल किंगडम को मज़बूत करेंगे, सुधार और विकास में नहीं करेंगे. ऐसे औज़ारों में डिजिटल प्लेटफॉर्म, मीडिया पर नियंत्रण और आधुनिक हथियारों के साथ आधुनिक सेना शामिल हैं ताकि नियंत्रण और दबदबा कायम हो सके.

तीसरा और आख़िरी M मध्यकालीन सोच से जुड़ा है. चीन मॉडर्न टूल और मध्यकालीन सोच के साथ ऐसा मिडिल किंगडम है जो अलग-अलग रैंक वाली दुनिया में यक़ीन करता है. हम ऐसी दुनिया में हैं जो अतीत के रैंक से आगे बढ़ चुकी है. दुनिया अब ज़्यादा एक जैसी हो चुकी है, लोगों के बीच समानता के आधार पर संबंध है. लेकिन चीन इसे इस तरह नहीं देखता. चीन अलग-अलग रैंक वाली दुनिया देखता है, जहां अलग-अलग देश उसका शुक्रिया करें. वो कभी-कभी शुक्रिया हासिल करने के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का इस्तेमाल करता है या संप्रभुता को ख़रीदने के लिए कर्ज़ के जाल की कूटनीति आज़माता है. इसी तरह चीन दूसरे औज़ारों का इस्तेमाल करके उन देशों को अपने अधीन करता है जिनके साथ उसने समझौता कर रखा है.

ये तीन M आज के चीन को परिभाषित करते हैं.

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