Author : Vikas Kathuria

Published on May 07, 2021 Updated 0 Hours ago

उल्लेखनीय है कि अगर बौद्धिक संपदा से जुड़ी बाधाएं दूर हो जाती हैं तो बाकी रुकावटों से निपटने की पूरी ज़िम्मेदारी विकासशील देशों के ऊपर ही होगी.

कोविड-19 के टीकों पर बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट: ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का रास्ता ही भारत के लिए सही

बाइडेन प्रशासन ने कोविड-19 वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट देने के भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का समर्थन करने पर सहमति जताई है. छूट का ये प्रस्ताव विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं (ट्रिप्स) के संबंधित प्रावधानों के तहत दिया गया है. यहां ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि अमेरिका का ये समर्थन केवल कोविड-19 से जुड़े वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा अधिकारों के मामले से जुड़ा है. उल्लेखनीय है कि भारत और दक्षिण अफ्रीका ने कोविड-19 से जुड़ी समस्त तकनीकों पर ऐसी छूट दिए जाने का प्रस्ताव दिया था. अमेरिका ने ये मांग पूरी तरह से तो नहीं मानी, फिर भी बौद्धिक संपदा से छूट को लेकर अमेरिकी प्रशासन की ये पहल सही दिशा में उठाया गया कदम है. यहां उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2020 में भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा इसी दिशा में किए गए प्रयासों का अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कड़ा विरोध किया था. बहरहाल अमेरिका के इस समर्थन के बाद इस दिशा में अब अगला पड़ाव विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) होगा जहां सदस्य देश इस प्रस्ताव पर मंथन करेंगे. वैसे तो यूरोपीय संघ भी अब बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट के मामले पर परिचर्चा का समर्थन कर रहा है लेकिन इसके कुछ सदस्य देश ख़ासतौर से जर्मनी का रुख़ अब भी ऐसी छूट दिए जाने के ख़िलाफ़ है.

वैसे तो यूरोपीय संघ भी अब बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट के मामले पर परिचर्चा का समर्थन कर रहा है लेकिन इसके कुछ सदस्य देश ख़ासतौर से जर्मनी का रुख़ अब भी ऐसी छूट दिए जाने के ख़िलाफ़ है.

बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट की मांग क्यों उठी?

टीके पर बौद्धिक संपदा अधिकार रखने वालों और वैक्सीन निर्माताओं के बीच के करारों की प्रवृति विशिष्ट प्रकार की है. इसके चलते कोरोना के ख़तरे की ज़द में आने वाली दुनिया की एक बडी आबादी के टीकाकरण के लिए ज़रूरी डोज़ का उत्पादन नहीं हो सका है. टीकाकरण अभियान की कामयाबी के लिए इसकी व्यापकता के साथ-साथ वैक्सीनेशन की तेज़ गति भी समान रूप से महत्वपूर्ण है. वायरस ने तेज़ी से अपना रूप बदलने की प्रवृति दिखाई है, ऐसे में आगे चलकर मौजूदा वैक्सीन के निरुपयोगी हो जाने की आशंकाएं भी पैदा हुई हैं. विशिष्ट प्रकार के करारों के चलते वैक्सीन के वितरण में भी भारी असमानता आ गई है. समृद्ध देशों को वैक्सीन की आवश्यकता से अधिक आपूर्ति हुई है. ऐसे में बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट की मांग ने ज़ोर पकड़ा है. पहले से ही जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के रास्ते में बौद्धिक संपदा अधिकारों से जुड़े नियम-कायदे सबसे बड़ी रुकावट बनते रहे हैं. ट्रिप्स के तहत ‘असाधारण’ परिस्थितियों में अनिवार्य लाइसेंसिंग को मान्यता दी गई है. बौद्धिक संपदा अधिकारों पर छूट से वैक्सीन से जुड़े सभी पेटेंटों (और बौद्धिक संपदा अधिकारों से जुड़े दूसरे मामलों) से जुड़े पेच सुलझाने में सहूलियत होगी. 

तथ्यों की अनदेखी से जुड़ी व्यावहारिक राजनीति

आमतौर पर बौद्धिक संपदा से जुड़े तंत्र से उत्पन्न वैधानिक एकाधिकार को नवाचार और जोखिम उठाने को प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने वाला माना जाता है. ये बात ठीक भी है. हालांकि इसके कुछ अपवाद भी हैं, ख़ासतौर से उन परिस्थितियों में, जब अल्पकालिक नुकसान दीर्घकाल के मुनाफ़े से कहीं ज़्यादा हों. बौद्धिक संपदा से छूट का मामला इसी की एक मिसाल है. अभी जो हालात हैं इसमें इस बात पर बहस छिड़ सकती है कि इस तरह की छूट को लेकर कौन से पक्ष का पलड़ा भारी है: अपना रंग रूप बदलने वाले इस वायरस का पीछा कर उससे लड़ने के लिए उचित प्रोत्साहनों का या फिर मानव जीवन के नुकसान से जुड़े मामलों का. जर्मन सरकार की प्रवक्ता ने कोविड-19 वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा से छूट दिए जाने पर अपना नज़रिया साफ़ किया है. उनका कहना है कि “बौद्धिक संपदाओं की सुरक्षा नवाचार का स्रोत और आधार हैं. भविष्य में भी ऐसी स्थिति बरकरार रहनी चाहिए.” बहरहाल, कम से कम कोविड-19 के वैक्सीन के मामले में नवाचार को प्रोत्साहन से जुड़ा तर्क बेदम नज़र आता है. इसकी वजह ये है कि वैक्सीन से जुड़े शोध और विकास के काम में ज़्यादातर सार्वजनिक वित्त का इस्तेमाल हुआ है

कुछ लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि वास्तविक रूप में इस छूट का कोई ख़ास मतलब नहीं है. बौद्धिक संपदा अधिकारों को हटा दिए जाने के बावजूद वैक्सीन से जुड़ा व्यावहारिक तकनीकी ज्ञान और व्यापार गोपनीयता से जुड़ी जानकारियां विकासशील देशों को उपलब्ध नहीं होंगी. जर्मन सरकार की प्रवक्ता ने भी ऐसा ही अंदेशा जताया है. उनके मुताबिक “वैक्सीन के उत्पादन में रुकावट की मुख्य वजह उत्पादन क्षमता और उच्च गुणवत्ता से जुड़े मानक हैं. कुछ लोग भले ही अपने तर्क दे रहे हैं पर सच्चाई ये है कि पेटेंट इस रास्ते में कहीं से भी बाधक नहीं है.” सूक्ष्म अणुओं वाली दवाइयों के विपरीत वैक्सीन के मामले में उत्पादन के नए तरीके ढूंढना और ज़रूरी जानकारियां जुटाना कहीं ज़्यादा कठिन है. 

निश्चित तौर पर बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट एक सही दिशा में उठाया गया कदम है लेकिन ये अपने आप में कोई जादू की छड़ी नहीं है.

आलोचकों के मुताबिक अगर विकासशील देश व्यवहार ज्ञान और तकनीक से जुड़ी सारी बाधाओं से पार पा लें तो भी क्लिनिकल ट्रायल की प्रक्रिया के बेहद लंबे होने के चलते उनके सामने एक बड़ी रुकावट खड़ी होगी.

निश्चित तौर पर बौद्धिक संपदा अधिकारों से छूट एक सही दिशा में उठाया गया कदम है लेकिन ये अपने आप में कोई जादू की छड़ी नहीं है. तकनीकी और परिमाण की मौजूदा सीमाओं और कच्चे माल के अभाव से जुड़े तर्क पूरी तरह से व्यावहारिक हैं. विकासशील देशों के ऐसे हालात विषम परिस्थितियों और उस दौरान आने वाली बाधाओं से पार पाने की इंसानी काबिलियत पर भरोसा नहीं जगने देते. इसी के मद्देनज़र इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकीय में सरकार को बिल्कुल सही सुझाव दिया गया है. संपादकीय के मुताबिक भारत सरकार को भारतीय जैवप्रौद्योगिकी विशेषज्ञों, टीके के उत्पादन से जुड़े उपकरणों के निर्माताओं और डिज़ाइनरों  के साथ सहयोग कर उनकी कार्यक्षमता को बढ़ावा देने के उपाय करने चाहिए. भारत में टीका उत्पादन की सुविधाएं स्थापित करने और उनके संचालन की दिशा में भी इसी तरह की मदद की जानी चाहिए. सरकार को पक्के तौर पर इनके लिए वित्त भी सुनिश्चित करना चाहिए. उल्लेखनीय है कि अगर बौद्धिक संपदा से जुड़ी बाधाएं दूर हो जाती हैं तो बाकी रुकावटों से निपटने की पूरी ज़िम्मेदारी विकासशील देशों के ऊपर ही होगी. कई ‘यथार्थवादियों’ का तर्क है कि विकासशील देश इसमें नाकाम रहेंगे. अगर ऐसा होता है तो वैक्सीन के मौजूदा निर्माताओं के लिए प्रोत्साहन के ढांचे में आगे कोई बाधा नहीं रहेगी. दूसरी ओर अगर विकासशील देश अपने प्रयासों में कामयाब रहते हैं तो ये मौत पर ज़िंदगी की जीत हासिल करने जैसी होगी!

मौजूदा वक़्त बहुपक्षीय समझौतों के ढांचे को संरक्षित करने का नहीं है. वैसे भी इनसे जड़ी विषयवस्तु को लेकर निष्पक्षता के जो वादे किए गए थे वो धीरे-धीरे मंद पड़ते जा रहे हैं.

ये व्यावहारिकताएं इस वक़्त पूरी तरह से अस्पष्ट दिखाई देती हैं. ऐसे में बौद्धिक संपदा संरक्षण पर छूट से जुड़े तर्क को बल मिलता है. इस वक़्त इनको परे रखते हुए हम पाते हैं कि कुछ लोग ऐसे कदमों से ‘बौद्धिक संपदा तंत्र के छिन्न भिन्न होने’ और निश्चित तौर पर ‘ट्रिप्स के तहस-नहस’ होने की दलील दे रहे हैं. ये तमाम बातें हमें याद दिलाती हैं कि ऐसे बहुपक्षीय करार अपवाद स्वरूप अस्तित्व में आते हैं. जब विकासशील देशों को उनका प्रस्ताव किया गया था तो उनके लिए कई तरह की गारंटियों पर रज़ामंदी हुई थी. इंसानी इतिहास में मौजूदा कोरोना महामारी जैसी मानवीय त्रासदी के अनुरूप कोई उदाहरण नहीं मिलता. मौजूदा वक़्त बहुपक्षीय समझौतों के ढांचे को संरक्षित करने का नहीं है. वैसे भी इनसे जड़ी विषयवस्तु को लेकर निष्पक्षता के जो वादे किए गए थे वो धीरे-धीरे मंद पड़ते जा रहे हैं.

भावनाएं और तर्कशून्यता: समान या एक जैसे नहीं

हो सकता है कि आगे चलकर ये बात सही साबित हो जाए कि बौद्धिक संपदा से छूट का मामला सिर्फ़ भावनात्मक था. हालांकि ये भावनाएं तर्कहीन या स्वार्थ से प्रेरित नहीं हैं. सच्चाई तो ये है कि टीके का असमान वितरण और समृद्ध देशों द्वारा वैक्सीन की जमाखोरी स्वार्थ से भरे और अतार्किक कृत्य हैं. अमीर देशों में टीके के लाखों डोज़ शीतपेटियों में बंद हैं जबकि वायरस अपना रंग-रूप बदलते हुए तेज़ी से कई गुणा बढ़ते हुए फैल रहा है. मौजूदा परिस्थितियों में किसी भी तरह की भावनात्मकता से ये बात साफ़ होती है कि वायरस हमारे मानवीय भावों को ख़त्म नहीं कर सका है. लिहाजा इस वक्त व्यक्त की गई भावनाएं हमारी नैतिकता को दर्शाती हैं. फ़ौजी दांवपेच से लड़ाइयां जीती गई हैं लेकिन मानवीय अस्तित्व को आकार देने वाले बड़े-बड़े युद्धों में नैतिक विजयों से ही कामयाबी पाई गई है.

भारत: मोर्चे पर डटकर नेतृत्व करते हुए

‘वसुधैव कुटुबंकम’‘  का मतलब है ‘पूरी दुनिया एक ही परिवार है’. ये मंत्र भारत की प्राचीन पुस्तकों से लिया गया है. मोदी सरकार अक्सर इसका उद्धरण देते हुए इसे ही अपनी विदेश नीति का दिशानिर्देशक तत्व बताती है. भारत विश्व व्यापार संगठन में बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट से जुड़े प्रस्ताव पर चल रही मौजूदा रस्साकशी का नेतृत्व कर रहा है. ये पूरी तरह से न्यायोचित भी है. वहीं दूसरी ओर भारत के पास भी कोवैक्सीन पर बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट प्रदान कर एक उदाहरण पेश करने का शानदार मौका है.

भारत की स्वदेशी वैक्सीन कोवैक्सीन को भारत बायोटेक ने विकसित किया है. इस प्रयास में भारत सरकार ने आंशिक वित्तीय सहायता दी है. भारत को अब इस वैक्सीन पर बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट देनी चाहिए. अगर भारत ऐसा करता है तो उसकी छवि एक ऐसे देश की बनेगी जो ‘समूचे संसार को एक परिवार’ मानता है. इसी भावना के अनुरूप भारत को एक कदम और आगे बढ़कर कोवैक्सीन के स्थानीय उत्पादन में मदद पहुंचाने के लिए ज़रूरी व्यवहार ज्ञान और इससे जुड़ी पारिस्थितिकी तंत्र को भी साझा करना चाहिए. समूची मानवता के सामने खड़ी इस साझा चुनौती की पहचान करने, उसपर ध्यान देने और सहानुभूति के साथ निपटने की दिशा में भारत का ये एक सर्वथा उचित कदम होगा. 

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