Published on Jan 20, 2021 Updated 0 Hours ago

अमेरिकी नज़रिए से देखें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी बहसों में इन शक्तिशाली ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों की भूमिका अग्रणी है

‘अमेरिकी संसद कैपिटल हिल पर हमला, इंटरनेट की दुनिया के लिए एक नया मोड़’

कैपिटल हिल पर 6 जनवरी 2021 के हमले के बाद बड़ी इंटरनेट कंपनियां ऑनलाइन माध्यमों पर सक्रिय अतिवादी और हाशिए पर रहने वाले समूहों पर नकेल कस रही हैं. 12 जनवरी तक ट्विटर ने क्यूएनएन (QAnon) से जुड़े 70 हज़ार से भी ज़्यादा अकाउंट को अस्थायी तौर पर बंद कर दिया. क्यूएनएन (QAnon) एक षड्यंत्रकारी विचार है जो ट्रंप के बारे में इस धारणा पर आधारित है कि वो बच्चों का यौन शोषण करने वाले आपराधिक समूहों और नरभक्षी शैतानी ताक़तों के खिलाफ एक मज़बूत प्रतिरोधक शक्ति हैं. फेसबुक अपने प्लेटफॉर्म से उन पोस्टों को हटाने में जुटा हुआ है जिनमें ये दावा किया गया है कि अमेरिका में 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में फ़र्ज़ीवाड़ा हुआ है और नतीजों के ज़रिए जनादेश की चोरी की गई है. एपल और गूगल ने अपने ऐप स्टोर से पार्लर को हटा दिया है और अमेज़न ने इसे वेब-होस्टिंग सेवाएं देना बंद कर दी हैं. इन सभी कंपनियों का ये कहना है कि, हाल के दिनों में ऑनलाइन माध्यमों पर हिंसा भड़काने वाली ख़तरनाक सामग्रियों की मानो बाढ़ सी आ गई है.

फेसबुक अपने प्लेटफॉर्म से उन पोस्टों को हटाने में जुटा हुआ है जिनमें ये दावा किया गया है कि अमेरिका में 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में फ़र्ज़ीवाड़ा हुआ है और नतीजों के ज़रिए जनादेश की चोरी की गई है.

हालांकि, ट्रंप के अमेरिकी सत्ता से बेदख़ल होने के चंद दिनों पहले इन इंटरनेट कंपनियों द्वारा उठाए गए ऐसे कदमों से ऑनलाइन माध्यमों पर पसरते उग्रवाद का बुनियादी ढांचा पूरी तरह से नष्ट नहीं हो पाएगा. अमेरिकी नज़रिए से देखें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ी बहसों में इन शक्तिशाली ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों की भूमिका अग्रणी है. इन सब परिस्थितियों के संदर्भ में हमने हॉर्वर्ड केनेडी स्कूल के डिजिटल प्लेटफॉर्म्स एंड डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट के सह निदेशक दीपायन घोष के सामने तीन महत्वपूर्ण सवाल रखे. घोष इससे पहले ओबामा प्रशासन के दौरान व्हाइट हाउस के तकनीकी नीति सलाहकार रह चुके हैं. इसके अलावा वो फेसबुक के पब्लिक पॉलिसी एडवाइज़र भी रहे हैं. आईए जानते हैं उनका क्या कहना है-

निखिला नटराजन: हाल ही में हमने इंटरनेट प्लेटफॉर्मों द्वारा अपनी ताक़त को नए तरीके से पेश करते हुए देखा. इसके साथ-साथ हमने दंगाइयों और उत्पाती भीड़ के बारे में बाइडेन और दूसरे नेताओं को ये कहते हुए भी देखा कि “हम तो ऐसे नहीं हैं”. लेकिन इन सबकी शुरुआत तो ऑनलाइन माध्यमों से ही हुई थी. ऑनलाइन माध्यम एक जीवंत स्थान हैं. 6 जनवरी की घटनाओं को “हम कौन हैं”  पर जारी मौजूदा बहस के नज़रिए से किस तरह से देख सकते हैं?

दीपायन घोष: हाल की घटनाएं इंटरनेट की दुनिया के लिए एक नया मोड़ हैं. हिंसा भड़काने वाले बयानों के चलते ट्रंप को ट्विटर से बेदख़ल कर दिया गया. ऐसा लगता है कि एक नेक मकसद से जैसे पूरी दुनिया ही सोशल मीडिया पर उतर आई है. मैं पूछता हूं कि क्या ये सही है कि लोकतांत्रिक विमर्श पर अत्याधुनिक तकनीक से लैस कुछ मुट्ठीभर लोगों का इस कदर दबदबा हो?  मेरा मानना है कि नहीं ये ठीक नहीं है. ऐसे में ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में बाइडेन प्रशासन और दूसरे प्रशासनिक महकमे ऑनलाइन विमर्श को सुरक्षित बनाने के लिए नए नियामक कानून लेकर सामने आएंगे.

ट्रंप चुनाव हार चुके हैं और अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में हैं और यहां तक कि उनके अपनी पार्टी के एक हिस्से ने भी उनका साथ छोड़ दिया है. ऐसे में अब उनका प्रभाव पहले से काफी कम हो गया है तो वहीं राजनीतिक तौर पर वामपंथ के पास अब ज़बरदस्त ताक़त आ गई है. 

निखिला नटराजन: सोशल मीडिया से ट्रंप को बेदखल करने का फैसला तब लिया गया जब इस तरह की विद्रोही घटना सामने आई. ये फैसला न चार्लोट्सविले के बाद हुआ और न तब हुआ जब उन्होंने ये कहा था कि मास्क पहनाना या न पहनना वैकल्पिक है. ये बात सुनने में अजीब लग सकती है लेकिन क्या ऐसा फैसला लेने के लिए हिंसा के खुलेआम ‘प्रदर्शन’  की प्रतीक्षा की जा रही थी? कोविड-19 से अबतक 3 लाख 70 हज़ार से ज़्यादा अमेरिकियों की मौत हो चुकी है लेकिन ये मौतें भीड़भाड़ से दूर एकांत में अस्पतालों के कमरों में हुईं. क्या जो फैसला हुआ उसपर इसका भी प्रभाव रहा?

दीपायन घोष: इसमें कोई शक नहीं है कि ट्रंप के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर रोक का फैसला इंटरनेट कंपनियों के लिए बेहद सुविधाजनक समय पर आया. ट्रंप चुनाव हार चुके हैं और अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में हैं और यहां तक कि उनके अपनी पार्टी के एक हिस्से ने भी उनका साथ छोड़ दिया है. ऐसे में अब उनका प्रभाव पहले से काफी कम हो गया है तो वहीं राजनीतिक तौर पर वामपंथ के पास अब ज़बरदस्त ताक़त आ गई है. इंटरनेट कंपनियों द्वारा ट्रंप पर नकेल कसने के लिए किए गए हालिया फैसले को हमें इसी चश्मे से देखना चाहिए. ट्रंप पर पाबंदी का फैसला शायद इन कंपनियों के व्यापारिक हितों को ध्यान में रखकर लिया गया है.

निखिला नटराजन:  सोशल मीडिया अकाउंट पर लगी रोक का इंटरनेट माध्यमों पर भविष्य में कंटेंट के प्रसार पर क्या असर होगा?

दीपायन घोष: ऐसा हो सकता है कि ट्रंप के सोशल मीडिया खातों पर रोक लगने और पार्लर पर कार्रवाई होने के बाद ग़ुस्से से तमतमाया दक्षिणपंथी तबका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों और सुरक्षित संचार सुविधा वाले दूसरे प्लेटफॉर्मों पर पूरी शिद्दत से इकट्ठा हो जाएं. ऐसा हुआ तो समाज के कुछ तबकों में और भी ज़्यादा उग्र विचार पैदा होंगे. हालांकि, यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि ऐसे कंटेंट का मुख्य़ धारा के सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों पर अधिक प्रभाव नहीं होगा. लिहाज़ा समाज पर व्यापक तौर पर इनका कोई ख़ास असर नहीं होगा. हालांकि, भविष्य में और भी ज़्यादा उग्र विचारधाराएं पनपने की संभावनाओं के मद्देनज़र हमें सतर्क रहने की ज़रूरत है. साथ ही हमें इसके नतीजे के तौर पर फैलने वाली हिंसा से खुद को सुरक्षित रखने के उपायों के प्रति और अधिक सावधान रहना होगा.

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