Author : Kabir Taneja

Published on Aug 14, 2023 Updated 0 Hours ago

त़ालिबान से राजनीतिक समावेशन की मांग की ओर तेजी से बढ़ रही थी, लेकिन अब यह सिर्फ एक बातचीत का मुद्दा बन गया है जबकि वास्तविक राजनीतिकता सत्ता में है. 

त़ालिबान के राज वाले अफ़ग़ानिस्तान में एक ‘समावेशी सरकार’ की तलाश

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का वार्षिक सम्मेलन इस साल वर्चुअल स्वरूप में हुआ. ये सम्मेलन उस समय हुआ जब दोनों ही तरफ के जियो-पॉलिटिकल संगठनों के सदस्यों के बीच बढ़ती हुई ‘पश्चिम बनाम पूर्व’ के विवाद के बीच में, नई दिल्ली को भी अपनी कूटनीतिक और भारतीय स्थिति का जायज़ा लेना था. यह खासकर महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत जी-20 की अध्यक्षता को अपनी प्राथमिकता देता है, जिसका सम्मेलन सितंबर में होने वाला है. 

सम्मेलन के अंत में, ‘नई दिल्ली उद्घोषणा’ शीर्षक से जारी किए गए अपने संयुक्त बयान में इस भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण मंच को आने वाले समय में जिन उभरती हुई चुनौतियों और अवसरों का सामना करना पड़ेगा उसकी एक झलक देखने को मिली. इसमें रूस-यूक्रेन विवाद द्वारा लाए गए नए चुनौतियों के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा और स्थिरता जैसे पुराने, अनसुलझे मुद्दे भी शामिल हैं, जहां त़ालिबान के शासन के अधीन सुरक्षा और स्थिरता, भविष्य में सहयोग और विरोध दोनों का ही एक महत्वपूर्ण बिंदु है. 

Sभारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) की यात्रा के दौरान, उनके और राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच हुई वार्ता के उपरांत जारी किए गए अपने संयुक्त बयान में भी उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में “समावेशी राजनीतिक संरचना” के गठन के महत्व पर बल दिया है. 

अफ़ग़ानिस्तान में समावेशी आकार 

अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में न्यू दिल्ली घोषणा कहती है, “सदस्य देश, अफ़ग़ानिस्तान में सभी जातीय, धार्मिक और राजनीतिक समूहों के प्रतिनिधियों की सहभागिता के साथ एक समावेशी सरकार स्थापित करने की ज़रूरत को काफी महत्व देते हैं.” इस समावेशी माहौल की अपेक्षा कोई नई बात नहीं है और यह रूस, चीन या अन्य पड़ोसी या क्षेत्रीय राज्यों के हितों से अलग भी नहीं है. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) की यात्रा के दौरान, उनके और राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच हुई वार्ता के उपरांत जारी किए गए अपने संयुक्त बयान में भी उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में “समावेशी राजनीतिक संरचना” के गठन के महत्व पर बल दिया है. 

हालांकि, त़ालिबान के शासन के अंतर्गत अफ़ग़ानिस्तान में “समावेशी सरकार” क्या है? क्या पश्चिम को बीजिंग (जिसने काबुल में एक मॉडरेट या यूं कहे कि नर्म तबियत की सरकार की मांग करते आ रहे हैं), और मॉस्को भी? ये दोनों ही देश कुछ-कुछ इसी तरह का

आह्वान कर रहे हैं. क्या उनके समान विचार हैं? कागज़ी तौर पर तो प्रतीत होता है कि डिजाइन या बाहरी रूप के आधार पर इसका कोई जवाब नहीं है. मुख्य विचार यह है कि त़ालिबान के नेतृत्व वाली राजनीतिक व्यवस्था पश्तून जाति द्वारा नियंत्रित न हो. बुद्धिजीवी वांडा फेलबाब ब्राउन ने इसपर प्रकाश डालते हुए कहा कि नए काबुल की पश्तून-केंद्रित नेतृत्व, “सभी प्रकार के विरोध के लिए उच्च स्तर पर दमनकारी नीति अपनाने वाली हो गई है”.

अफ़ग़ानिस्तान में नस्ली समावेशिता के लिए दबाव एक दोधारी तलवार है. 2020 में यूएस ने त़ालिबान के साथ एक समझौता किया जिसके तहत इस चरमपंथी वैचारिक विद्रोही संगठन ने 20 वर्ष तक चले युद्ध को समाप्त करने कि घोषणा की. त़ालिबान के लिए कही जाने वाली वो पुरानी कहावत, ‘तुम्हारे पास घड़ियाँ हैं, हमारे पास समय है’, आख़िरकार सच सिद्ध हो गया. और विजेता के रूप में, त़ालिबान आंदोलन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ किस स्तर तक मिलने वाले सहयोग की तलाश में है, इस स्तर पर विभाजित है. कंधार स्थित त़ालिबान के सुप्रीम नेता हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा अक्सर अपने संगठन और सरकार में सहयोगियों के साथ इस मुद्दे पर उलझे नज़र आते हैं, जब उनपर ये आरोप लगता है कि वे राजनीतिक वैधता के बदले में उन अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को वैचारिक रियायत दे देते हैं, जिनके साथ उन्होंने दशकों से अपनी वैचारिकी को संरक्षित करने के लिए लंबी लड़ाईयां लड़ी थीं. इसके बाबत अक्सर उनके लोग उनसे असहमत होते हैं. 

वर्तमान समय में, समावेशिता की ज़रूरत, उनके लिए नैतिक और यथार्थवादी भेद होते है. शुरुआत के लिए, कोई भी राज्य या संगठन, जैसे कि एससीओ, ने कहीं भी ये परिभाषित नहीं किया है कि किस प्रकार की ‘समावेशिता’ की मांग की जा रही है.

वर्तमान समय में, समावेशिता की ज़रूरत, उनके लिए नैतिक और यथार्थवादी भेद होते है. शुरुआत के लिए, कोई भी राज्य या संगठन, जैसे कि एससीओ, ने कहीं भी ये परिभाषित नहीं किया है कि किस प्रकार की ‘समावेशिता’ की मांग की जा रही है. क्षेत्र में विभिन्न जातियों, विचारों की पृष्ठभूमि होने की वजह से, जिनमें से ज्य़ादातर किसी न किसी रूप अथवा आकार में, अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रतिनिधित्व दिखाया है, वैसी स्थिति में व्याप्त वास्तविकता के विपरीत, इस समावेशिता से काफी कम उम्मीद है. इस बात की काफी संभावना है कि कई राज्य अथवा राजनीतिक नेताओं द्वारा, ऐसे किसी प्रकार के राजनीतिक ढांचों को अपना समर्थन नहीं देंगे. उदाहरण के लिए, नवंबर 2021 में, पारंपरिक हज़ारा जनजाति के शिया कमांडर मौलवी महदी, जो कि केन्द्रीय अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारा के प्रभुत्व वाली बामयां राज्य के इंटेलिजेंस प्रमुख भी रहे है, उनको त़ालिबान द्वारा शैडो जनपद कलेक्टर के तौर पर नियुक्त किया गया. इसे काफी विश्वसनीयता पूर्वक बाजार में इस तरह से प्रचारित किया गया मानो कि त़ालिबान, ‘अन्य लोगों’ के लिए पहले की तुलना में अब काफी खुले विचारों वाला बन चुका है और उनको इस नई अंतरिम सरकार में सत्ता के विभिन्न पदों पर आसीन होने देने की स्वतंत्रता प्रदान करता है. इस वजह से अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देश और शिया इस्लाम के शक्ति के केंद्र ईरान और अन्तराष्ट्रीय समुदाय को उनके बाबत एक सकारात्मक संदेश प्रसारित हो सका है. हालांकि, ये व्यवस्था लंबे वक्त तक नहीं कायम रह सकी, क्योंकि मौलवी महदी ने त़ालिबान सदस्यों के साथ वित्तीय संपदाओं के नियंत्रण पर असहमति का सामना किया और उसके पश्चात वह ईरान भागने का प्रयास करते हुए अगस्त 2022 में मारा गया. शिया इस्लाम की सत्ता में अनुमानित 10-15 प्रतिशत भागीदारी के मामले में, तेह़रान, त़ालिबान की सरकार के सामने काफी मुखरतापूर्वक अपना विरोध प्रकट करता आ रहा है.

भौगोलिक रूप से मांग  

भू-राजनीतिक रूप से, अफ़ग़ानिस्तान की आंतरिक गतिविधियों से आगे जाकर, जिससे समूह अथवा एससीओ या उसके भी उपरांत, और भी अंदर या उससे अलग हटकर क्षेत्रीय सहमति पर, आधारित योजना को और कठिन बनाते हुए, क्षेत्र में अधिकांश देशों के बीच ओवरलैपिंग फायदे नहीं होते हैं. अधिकांश क्षेत्रीय राजधानियां, अफ़ग़ानिस्तान के आगमन के प्रति – अपने स्वदेशीय सुरक्षा दृष्टिकोण को निकटता से देख रही है. उदाहरण के लिए, मध्य एशिया के कई राज्यों ने नये इस्लामिक अमीरात (IEA) के नेतृत्व के साथ क्रियाशील व्यापार और कूटनीति के माध्यम से संपर्क के रास्ते खोल रखे हैं, जिसका तत्काल उद्देश्य सीमा पर शांति बनाए रखना है और अफ़ग़ान सरकार के ऐसे किसी भी भीतरी टूट को रोकना है, जो जातीय और अंतरजातीय गृह-युद्ध को भड़का सकता है. ऐसे संघर्ष को उज़्बेकिस्तान, ताज़िकिस्तान, ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए सीधे समर्थन में आना मुश्किल होगा, और इससे एक मानवता और शरणार्थी संकट के उत्पन्न होने की संभावना भी बढ़ सकती है. 

ये मानते हुए कि ऐसे हालात में, कोई भी व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध नहीं होने की वजह से, समावेशिती की मांग वास्तविक जटिलताओं के बिना रणनीतिक दबाव लागू करने का एक बेहतर तरीका हो सकता है. ईरान IEA से निपटने के लिए, इसे एक रणनीति के तहत काफी इस्तेमाल करता है. जब वो आंतरिक त़ालिबान के साथ एक तरफ राजनीतिक संगठन की मांग करता है लेकिन साथ ही वो त़ालिबान सदस्यों के साथ पूर्ण दूतावास और राजनीतिक संपर्क बनाए रख रहा है. वहीं पाकिस्तान, जिसने अफ़ग़ानिस्तान समेत अन्य इस्लामिक समूहों को अपने राज्यीय रणनीति के तहत एकजुट कर रखा है, उसे अब उल्टा उनकी धमकियों/दबावों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके बारे में उसे पहले ही कई बार आगाह किया जा चुका था. अफ़ग़ानी त़ालिबान के संरक्षक होते हुए, पाकिस्तानी प्रो – पश्तून तहरीक – ए – त़ालिबान ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ को एससीओ सम्मेलन में आतंकवाद को एक ‘हाईड्रा-हेडेड मॉनस्टर (एक से अधिक सर वाला दानव) घोषित करने को विवश कर दिया है. ये स्वाभाविक रूप से किया गया था.  

ईरान IEA से निपटने के लिए, इसे एक रणनीति के तहत काफी इस्तेमाल करता है. जब वो आंतरिक त़ालिबान के साथ एक तरफ राजनीतिक संगठन की मांग करता है लेकिन साथ ही वो त़ालिबान सदस्यों के साथ पूर्ण दूतावास और राजनीतिक संपर्क बनाए रख रहा है.

त़ालिबान के तरफ से, राजनीतिक समावेशता की मांग की दौड़ अब कम हो गई है जबकि वास्तविक राजनीति ने अपना जड़ जमा लिया है, तो त़ालिबान की तरफ से, राजनैतिका समावेशित की मांग की होड़ अब कम हो गई है. सबसे ज़्यादा मात अगर किसी को मिली है तो वो और कोई नहीं बल्कि अफ़ग़ानी जनता ही है, जैसा की उनके देश में त़ालिबानी द्वारा देश के अन्य मुद्दों के अलावा, श्रम शक्ति के क्षेत्र में से महिलों को दरकिनार करने की प्रक्रिया सतत जारी है. वर्तमान में, अगर त़ालिबान एक स्वीकार्य स्तर तक क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदान कर सकता है, जो कि आतंकवादी समूहों के साथ मिलकर हेल्प लेने और विविध जिहादी समूहों जिसमें लश्कर–ए–तैय्यबा और जैश -ए-मोहम्मद जैस समूहों को शामिल करने के इतिहास को ध्यान में रखते हुए एक भारी कार्य है, और वर्तमान में, यदि त़ालिबान क्षेत्रीय सुरक्षा के एक स्वीकार्य स्तर को प्रदान कर सकता है, तो ही त़ालिबान इसे कम से कम अपनी साम्राज्यवाद के लिए किसी भी तत्काल चुनौती से अंतरिम तौर पर बचा सकता है.

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