Author : Kamal Davar

Published on Jun 28, 2021 Updated 0 Hours ago

वास्तव में विदेश नीति और सामरिक मामलों के ज़्यादातर विशेषज्ञों का विचार है कि अमेरिका को सामरिक मोर्चों पर बड़ी-बड़ी ग़लतियां करने की आदत है.

अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी: बहुत बड़ी रणनीतिक भूल

इसमें कोई शक़ नहीं कि दूसरे विश्वयुद्ध के ख़ात्मे के बाद से अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश बना हुआ है. इसके बावजूद अमेरिकी शासन-कला को बहुत ज़्यादा सम्मानित नज़रों से नहीं देखा जा सकता. वास्तव में विदेश नीति और सामरिक मामलों के ज़्यादातर विशेषज्ञों का विचार है कि अमेरिका को सामरिक मोर्चों पर बड़ी-बड़ी ग़लतियां करने की आदत है. 2003 से 2011 के बीच इराक़ में अमेरिका का व्यर्थ का हस्तक्षेप ऐसी ही गंभीर भूल थी. इन्हीं गंभीर त्रुटियों की कड़ी में अब हिंदू कुश की सरज़मीं से 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी फ़ौज की वापसी का फ़ैसला भी जुड़ गया है. वास्तव में अमेरिका का ये फ़ैसला शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद भूराजनीतिक मोर्चे पर उसकी सबसे बड़ी भूल है. पिछले दशक या उससे भी पहले की अमेरिकी सरकारें ‘निरंतर चलने वाले युद्धों’ को विराम देना चाहती थीं. तत्कालीन अमेरिकी प्रशासनों की इस वजह से प्रशंसा भी होती रही है. बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश को पूरी तरह से बेतरतीब हालत में छोड़कर बाहर निकलने के अमेरिकी फ़ैसले को शायद ही कोई सराहना मिल सके. आज का अफ़ग़ानिस्तान रक्तरंजित, भाई-भाई के बीच मची मारकाट का शिकार, हिंसा-ग्रस्त और ग़रीबी की मार झेल रहा है. इन हालातों में अमेरिका का ऐसा फ़ैसला वैश्विक समस्याओं को युक्तिसंगत तरीके से हल करने के उसके रुतबे और इज़्ज़त को कम करता है. 

अमेरिका का ये फ़ैसला शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद भूराजनीतिक मोर्चे पर उसकी सबसे बड़ी भूल है. पिछले दशक या उससे भी पहले की अमेरिकी सरकारें ‘निरंतर चलने वाले युद्धों’ को विराम देना चाहती थीं.

लाज़िमी तौर पर अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी समेत विदेश नीति के मोर्चे पर अपनी प्राथमिकताएं तय करने में कुछ समय लगाया. ये बात भी हमेशा से तय थी कि उनकी ज़्यादातर नीतियां अस्थिर स्वभाव वाले उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भिन्न होंगी. डोनाल्ड ट्रंप ने अगस्त 2007 में ज़ोरशोर से दावा किया था कि “अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी कैलेंडर पर नहीं बल्कि वहां के हालात पर निर्भर करेगी.” हालांकि ट्रंप प्रशासन ने बाद में युद्धरत तालिबान के साथ अमेरिकी वार्ताओं की गति को राज़ी-ख़ुशी तेज़ कर दिया. इसी का नतीजा था कि फ़रवरी 2020 में तालिबान के साथ शांति समझौता हो गया. तालिबान से वार्ताओं के दौरान ये बात वाकई दुर्भाग्यपूर्ण रही कि अमेरिका ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहां के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के विचारों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया. ज़्यादातर विश्लेषकों का दृढ़ मत था कि ये वार्ताएं पूरी तरह से तालिबान के पक्ष में एकतरफ़ा थीं.  इन वार्ताओं के दौरान तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के भीतर हिंसक गतिविधियां बंद करने और अल-क़ायदा के साथ किसी भी तरह का ताल्लुक़ जारी नहीं रखने का आश्वासन दिया था. हालांकि इन भरोसों के बावजूद ठीक उल्टे हालात देखने को मिले हैं. इससे अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहां की आम जनता को घोर निराशा हुई है. 

आतंक के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध में नाकामी?

ये बात पूरी तरह से ज़ाहिर हो चुकी है कि अफ़ग़ानिस्तान में 20 वर्षों से चले आ रहे युद्ध में अमेरिका को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा है. इतने लंबे समय से चली आ रही जंग से अमेरिकी ख़ज़ाने पर भारी बोझ पड़ा है और वहां की फ़ौज में भी थकान आ गई है. अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी ने 20 वर्षों के अपने बेहतरीन शोध कार्य में बताया है कि अफ़ग़ानिस्तान में जारी ख़ूनख़राबे में करीब 1,75,000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. मारे गए इन लोगों में 51,000 आतंकवादी और विपक्षी लड़ाकों समेत करीब 2300 अमेरिकी फ़ौजी शामिल हैं. इसके साथ ही यहां की लड़ाई में अमेरिका को करीब 2 खरब डॉलर का खर्च उठाना पड़ा है. ऐसे में ये कतई आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने वर्षों में एक के बाद एक तमाम अमेरिकी प्रशासन अफ़ग़ानिस्तान से बाइज़्ज़त बाहर निकलने का रास्ता तलाशते रहे हैं, फिर चाहे बेचारी अफ़ग़ान जनता मध्ययुगीन, दकियानूस, असहिष्णु और कट्टर तालिबानियों के रहमोकरम पर ही क्यों न रह जाएं.

यहां ये बात समझ से परे है कि अमेरिका को अगले तीन महीनों में ही अफ़ग़ानिस्तान से वापस निकलने की इतनी जल्दबाज़ी क्यों है. अफ़ग़ानिस्तान में फ़ौजी कार्रवाई के संचालन का दायित्व अमेरिकी सेंट्रल कमांड पर है. इसने 9 जून 2021 को एक बयान जारी कर बताया है कि अब तक करीब 50 प्रतिशत अमेरिकी फ़ौज अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौट चुकी है. अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षा हालातों में सुधार के बिना वहां से वापसी करने के राष्ट्रपति जो बाइडेन के फैसले पर अफ़ग़ानी मामले से जुड़े कई नामी-गिरामी अमेरिकियों ने पहले ही अफ़सोस जताया है. काबुल में काम कर चुके अमेरिका के पूर्व राजदूत रेयान क्रॉकर का विचार है कि “हम जंग ख़त्म नहीं कर रहे, हम मैदान-ए-जंग को अपने दुश्मनों के लिए खाली कर रहे हैं.” अमेरिकी सेंट्रल कमांड (यूएससीईएनटीसीओएम) के पूर्व कमांडर-इन-चीफ़ और सीआईए प्रमुख जनरल डेविट पेट्रॉस ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज की वापसी के अचानक किए गए लान पर अपनी पीड़ा का इज़हार किया है. 

अफ़ग़ानिस्तान में जारी ख़ूनख़राबे में करीब 1,75,000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. मारे गए इन लोगों में 51,000 आतंकवादी और विपक्षी लड़ाकों समेत करीब 2300 अमेरिकी फ़ौजी शामिल हैं. इसके साथ ही यहां की लड़ाई में अमेरिका को करीब 2 खरब डॉलर का खर्च उठाना पड़ा है

अब लगभग ये तय है कि सितंबर 2021 तक अमेरिका और अन्य देशों की फ़ौजी टुकड़ियां अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह से वापस लौट जाएंगी. ऐसे में तालिबान ने खोरासन के इस्लामिक स्टेट (आईएसके), अल-क़ायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क के दूसरे तत्वों के साथ साठगांठ कर अफ़ग़ानिस्तान के भीतर हिंसक गतिविधियों को अंजाम देना शुरू कर दिया है. उन्हें महिलाओं और बच्चों, जनाज़ों, विद्यालयों और बेग़ुनाह लोगों तक को निशाना बनाने का कोई मलाल नहीं है. इसी साल मार्च में तालिबान ने तीन महिला पत्रकारों की हत्या कर दी थी. इसके कुछ दिनों पहले उत्तर-पूर्व बग़लान प्रांत में बारूदी सुरंगों को हटाने के काम में लगे कई कामकारों का क़त्ल कर दिया गया था. आईएसके ने इस क़त्लेआम की ज़िम्मेदारी लेते हुए कहा था कि उसके निशाने पर शिया समुदाय के हज़ारा लोग थे. मोटे तौर पर जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान के ज़्यादातर ग्रामीण इलाक़ों पर तालिबान का दबदबा और नियंत्रण है. इन इलाक़ों में तालिबान का शिकंजा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. दूसरी ओर आईएसके की मौजूदगी अफ़ग़ानिस्तान के कुछ पूर्वी प्रांतों में बढ़ रही है. पाकिस्तानी नियंत्रण वाला तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मी पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है. इन हमलों का अशरफ़ ग़नी की अफ़ग़ान राष्ट्रीय सुरक्षा बल के जवान सामना कर पाएंगे या नहीं, ये आसानी से समझा जा सकता है.

अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की महत्वाकांक्षाएं

आज की तारीख़ में अफ़ग़ानिस्तान में हालात पूरी तरह से बेतरतीब हैं. वहां राजनीतिक और सुरक्षा के मोर्चे पर अस्थिरता के इस माहौल से सबसे ज़्यादा जिस देश को फ़ायदा हो रहा है- वो है पड़ोसी पाकिस्तान. वर्षों तक वहां की इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने अफ़ग़ान तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान के भीतर संचालित आतंकवादी गुटों को प्रशिक्षित किया है. उन्हें हथियारों से लैस कर ज़रूरी वित्तीय मदद मुहैया कराई है. पाकिस्तान को लगता है कि अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकल जाने और काबुल में एक कठपुतली सरकार के रहते उसे वहां के आंतरिक मामलों में दखल देने का मौका मिल जाएगा. इसके साथ ही पाकिस्तान को ये भी लगता है कि अफ़ग़ानी मामलों से भारत को बाहर रखने की उसकी पारंपरिक रणनीति भी इस दौरान उसके काम आएगी और उसे उसका फ़ायदा मिलेगा. पहले से ही आईएसआई ने अफ़ग़ानिस्तान में धंधे से बाहर हो चुके आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर के भीतर भेजने की साज़िश रचनी शुरू कर दी होगी. 

अफ़ग़ानिस्तान के पश्तूनी तालिबान बेहद आज़ाद ख्याल वाले लोग हैं. भविष्य में जब भी वो काबुल की सत्ता हथियाने में कामयाब होंगे, उनके पाकिस्तान के लिए ही सिरदर्दी का सबब बनने के पूरे आसार बन जाएंगे.

बहरहाल, इस मामले में पाकिस्तान की सोच में दूरदर्शिता का अभाव साफ़ झलकता है. लगता है कि वो एक आम समझदारी वाली बात भूल रहा है. अफ़ग़ानिस्तान के पश्तूनी तालिबान बेहद आज़ाद ख्याल वाले लोग हैं. भविष्य में जब भी वो काबुल की सत्ता हथियाने में कामयाब होंगे, उनके पाकिस्तान के लिए ही सिरदर्दी का सबब बनने के पूरे आसार बन जाएंगे. उन हालातों में वो अपने पाकिस्तानी आकाओं पर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और बलूचिस्तान के पठान-बहुल इलाकों को अपने दबदबे वाले क्षेत्र के साथ समाहित करने का दबाव बनाने लगेंगे. ग़ौरतलब है कि अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व की कोई भी सरकार या वहां के किसी नेता या कबीले ने कभी भी डूरंड रेखा को मान्यता नहीं दी है. पूर्व की उपनिवेशवादी ब्रिटिश सत्ता ने 1893 में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की सरहद के तौर पर ये काल्पनिक रेखा खींची थी. बहरहाल ये बात पूरी तरह से तय है कि पाकिस्तान हमेशा की तरह अफ़ग़ानिस्तान के भीतर के मुश्किल हालातों में अपना उल्लू सीधा करता रहेगा. ख़बरें हैं कि अमेरिका एक बार फिर पाकिस्तान के भीतर रसद से जुड़ी मदद- ख़ासतौर से हवाई पट्टियों से जुड़ी सहायता हासिल करने की कोशिशें कर रहा है. अमेरिका की ये कवायद पिछली भूल को दोहराने जैसी होगी.

अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में भारतीय विदेश नीति में बदलाव

अफ़ग़ानी लोग मुद्दतों से कुछ मुल्कों की बेहद इज़्ज़त करते रहे हैं. इसमें कोई शक़ नहीं कि उन देशों में से एक भारत भी है. अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू मामलों में भारत ने हमेशा ही किसी तरह की दखलंदाज़ी नहीं करने की नीति का अनुसरण किया है. इतना ही नहीं भारत ने काबुल को समय-समय पर मानवीय सहायता के साथ-साथ कई क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों के विकास, शैक्षणिक, चिकित्सा और बिजली निर्माण के क्षेत्र में काफ़ी मदद पहुंचाई है. अफ़ग़ानिस्तान को पहुंचाई गई इन असैनिक सहायताओं के चलते भारत को बाक़ी दुनिया से (पाकिस्तान को छोड़कर) व्यापक सराहना मिली है. अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर होने वाली किसी भी कवायद में भारत को हाशिए में रखने में पाकिस्तान ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर हिंदुस्तान की नीति क्या हो इसपर देश के भीतर गरमागरम बहस जारी है. अभी तक भारत की नीति साफ़ तौर पर सामने नहीं आ सकी है. पिछले करीब एक दशक से भारत ने ये साफ़ कर दिया है कि अफ़ग़ान मसले का कोई भी समाधान “अफ़ग़ानी नेतृत्व में, अफ़ग़ानी सत्ता द्वारा और अफ़ग़ानी नियंत्रण में” होना चाहिए. भारत की ये नीति मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल से शुरू होकर मौजूदा मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान भी जारी है. 

भारत दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी ताक़त है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान के प्रति भारत की नीति न सिर्फ़ राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने वाली बल्कि नैतिकता के तकाज़े पर खरी उतरने वाली और मानवतावादी होनी चाहिए.

बहरहाल, अब ऐसा लग रहा है कि काबुल में सत्ता के समीकरण बदल रहे हैं. ऐसे में कुछ भारतीय राजनयिकों का ये दृढ़ मत है कि भारत को तालिबान के उदारवादी तत्वों के साथ किसी न किसी तरह के संपर्क सूत्र की शुरुआत करनी चाहिए. हालांकि लाख टके का सवाल ये है कि तालिबान में कोई उदारवादी या नेक तत्व मौजूद हैं भी या नहीं. भारत दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी ताक़त है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान के प्रति भारत की नीति न सिर्फ़ राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने वाली बल्कि नैतिकता के तकाज़े पर खरी उतरने वाली और मानवतावादी होनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो हिंदुस्तान और चीन या पाकिस्तान में क्या फ़र्क़ रह जाएगा. इलाक़े में शांति स्थापना के लिए भारत को ज़ोरशोर से अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र शांतिसेना तैनात किए जाने पर बल देना चाहिए. शांति सेना अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध छिड़ने से रोकना का काम करेगी. इस सैन्य बल में उदारवादी इस्लामिक देशों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए. इसके साथ ही भारत को रूस, ईरान और अमेरिका को एक मंच पर लाकर हिंसा-ग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान के लिए यथोचित क्षेत्रीय नीतियों का निर्माण कर उनके अमल पर ज़ोर देना चाहिए. इस पूरी कवायद के बीच काबुल की सरकार को भारत की ओर से पहुंचाई जाने वाली सर्वसमावेशी मानवतावादी मदद को भी जारी रखना बेहद ज़रूरी है. अशरफ़ ग़नी की सरकार को तालिबान और पाकिस्तान के साझा वार से निपटने में मदद पहुंचाने के लिए भारत को कुछ साहसिक निर्णय करने होंगे. वाकई ये बड़े अफ़सोस की बात है कि सबसे पहले जिस इलाक़े में “आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध” का आग़ाज़ हुआ था, वहां इसके सबसे बड़े खिलाड़ी अमेरिका ने अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़कर मैदान छोड़ने का फ़ैसला किया है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.