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Published on May 17, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत की लगभग दो तिहाई आबादी की सोच चीन को लेकर नकारात्मक ही है. इससे पता चलता है कि अन्य देशों और संस्थाओं के बारे में लोगों की राय क़ायम करने के मामले में पहले से चली आ रही सोच काफ़ी अहम भूमिका निभाती है.

चीन की फंडिंग से भारत में उसकी छवि पर क्या असर पड़ता है?

भारत और चीन के बीच व्यापार इतनी ऊंची पर पहले कभी नहीं पहुंचा था. पिछले साल दोनों देशों के बीच व्यापार रिकॉर्ड 136 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. भारत और चीन एक ऐसे सीमा विवाद में भी उलझे हुए हैं, जिसकी वजह से 2020 में दोनों तरफ़ 20 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई थी और दोनों देशों ने उसके बाद के दौर में 21 दौर की सैन्य वार्ताएं भी की हैं. स्पष्ट है कि भारत के विदेश मंत्रालय में काम कर रहे राजनयिकों के लिए चुनौती काफ़ी बड़ी है: उन्हें आर्थिक सहयोग औऱ सुरक्षा संबंधी चिंताओं के बीच तालमेल बिठाना है, जो दोनों ही देशों के लिए एक जटिल चुनौती पेश करती है. क्योंकि, दोनों देशों के आर्थिक संबंधों में गहराव आने से स्थिरता को बढ़ावा मिल सकता है. लेकिन, सुरक्षा संबंधी चिंताएं दोनों देशों के बीच दूरगामी सौहार्द पर असर डाल सकती हैं, जो हमने गलवान में होते हुए देखा भी है.

 चीन को लेकर भारत के लोगों के बीच आम राय के मामले में इस सर्वेक्षण से कुछ अहम नतीजे निकले हैं. 

जर्मनी के एक्सीलेंस क्लस्टर, ‘कंटेस्टेशंस ऑफ दि लिबरल स्क्रिप्ट’ के तहत सीपीसी एनालिटिक्स ने पूरे भारत में मतदाताओं के बीच एक सर्वेक्षण कराया था. चीन को लेकर भारत के लोगों के बीच आम राय के मामले में इस सर्वेक्षण से कुछ अहम नतीजे निकले हैं. सर्वेक्षण में भाग लेने वालों के विकास की ऐसी परियोजनाओं को मंज़ूरी देने की संभावनाएं कम दिखीं, जिसमें पैसा या विशेषज्ञता चीन से आई हो. इसकी तुलना में जब किसी परियोजना में अमेरिका साझीदार था या फिर भारत की अपनी सरकार किसी परियोजना को अकेले पूरा कर रही हो, तो जनता का समर्थन ज़्यादा मिलता दिखा. सर्वेक्षण में शामिल भारतीय नागरिकों को इन हालात में बन रही परियोजनाओं पर भरोसा भी कम था.

 

CPC एनालिटिक्स की टीम ने मध्य प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे अलग अलग राज्यों में लगभग 2500 लोगों से इस बारे में सीधे बात की. इन राज्यों का चुनाव इसलिए किया गया था, क्योंकि इन सब में विकास की ऐसी परियोजनाएं चल रही थीं, जिन्हें चीन में स्थित एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) और अमेरिका में स्थित विश्व बैंक, दोनों से पूंजी मिल रही थी. अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के अलावा, इन सभी राज्यों की सरकारें भी अलग अलग राजनीतिक दलों की हैं: मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्ता में है, तो बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है. वहीं तमिलनाडु में डीएमके सत्ता में है.

 

अगर चीन का नाम जुड़ा है, तो लोगों की पसंद कम है

 

ये अध्ययन सितंबर 2023 में इस इरादे के साथ शुरू किया गया था कि मूलभूत ढांचे की किसी काल्पनिक परियोजना में पूंजी लगाने के लिए भारत के मतदाता किसको तरज़ीह देते हैं: क्या वो चाहते हैं कि उनकी अपनी सरकार अकेले परियोजना संचालित करे. या फिर वो AIIB या फिर विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंकों के साथ संयुक्त रूप से ये ज़िम्मेदारी उठाए.

 

हमने पाया कि जनता उन परियोजनाओं पर ज़्यादा भरोसा करती है, या उसे ऐसी योजनाएं मंज़ूर हैं, जब उसमें उनकी स्थानीय सरकार की पूंजी लगी हो. मतलब ये कि परियोजना AIIB या विश्व बैंक की सहायता के बग़ैर चलाई जा रही हो. वहीं, जब उन्हें ये पता चलता था कि किसी परियोजना में चीन स्थित AIIB से पूंजी लगी है, तो फिर वो उस परियोजना को सबसे कम रेटिंग देते थे. लोगों ने अपनी पसंद के मामले में दूसरे नंबर पर विश्व बैंक की सहायता से चलाई जा रही परियोजनाओं को रखा. वहीं, जब हमने उन्हें ये बताया कि विश्व बैंक वॉशिंगटन डीसी में स्थित है, तो लोगों ने उसे तीसरे स्थान पर रखा. इस अध्ययन में शामिल लोगों ने AIIB से सहायता पर उस वक़्त ही अपनी सहमति जताई, जब उन्हें ये नहीं बताया गया कि इस बैंक का मुख्यालय कहां स्थित है. लेकिन, जैसे ही हमने उन्हें ये ‘जानकारी दी कि AIIB का हेडक्वार्टर बीजिंग में है’, तो उनकी रेटिंग में तत्काल बदलाव आते देखा गया.

 जहां तक भारत की भूमिका का सवाल है, तो ध्यान देने वाली बात ये है कि वो 2016 में AIIB के संस्थापक सदस्यों में से एक रहा था.

उल्लेखनीय है कि एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट बैंक एक बहुपक्षीय विकास बैंक है, जिसके 109 सदस्य हैं. इसका मतलब है कि इसमें सिर्फ़ चीन ही नहीं, बहुत से अन्य देश भी भागीदार हैं. लेकिन, जहां तक लोगों की सोच का सवाल है, तो इस बात के आरोप लगते रहे हैं कि चीन और उसकी सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी औक़ात से कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं. आरोप ये भी हैं कि AIIB का संबंध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) से है. हालांकि, इन आरोपों को बैंक और कम्युनिस्ट पार्टी, दोनों ही ग़लत ठहराते रहे हैं. पिछले साल जून में ही जब बैंक के एक पूर्व अधिकारी और कनाडा के नागरिक ने ये दावा किया था कि AIIB पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का ‘दबदबा’ है, तो कनाडा ने बैंक के साथ अपने रिश्तों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था.

 

जहां तक भारत की भूमिका का सवाल है, तो ध्यान देने वाली बात ये है कि वो 2016 में AIIB के संस्थापक सदस्यों में से एक रहा था. 2018 में भारत ने इस बैंक के वार्षिक सम्मेलन की मेज़बानी की थी. सीमा को लेकर कड़वाहट के बावजूद, भारत ने AIIB का समर्पित सदस्य बने रहने का विकल्प चुना है और वो इसकी फंडिंग की प्रक्रिया में भाग लेता रहा है. इस वक़्त भारत, AIIB से सबसे ज़्यादा उधार लेने वाला देश और दूसरा सबसे बड़ा हिस्सेदार है और उसके पास बैंक में 7.5 प्रतिशत वोटिंग अधिकार हैं. हालांकि, चीन इस बैंक में 26.5 प्रतिशत के साथ सबसे बड़ा हिस्सेदार है और उसके पास वीटो की ताक़त भी है. 2016 से 2022 के बीच AIIB ने जिन 202 परियोजनाओं को मंज़ूरी दी है, उनमें से सबसे ज़्यादा (39) भारत की ही हैं. अगर इसकी तुलना दूसरे देशों से करें, तो तुर्की और बांग्लादेश दूसरे स्थान पर (दोनों देशों की 17-17 परियोजनाएं) है. इस बैंक के रिकॉर्ड के मुताबिक़, इसका मतलब ये है कि भारत को उससे 9 अरब डॉलर की सहायता मिलनी तय है, जो AIIB के आठ साल के दौर की कुल पूंजी 38.8 अरब डॉलर का 23 प्रतिशत है.

 

इसके बावजूद, ख़ुद भारत में भी इस बैंक से इस बैंक से उधार लेना विवादों से घिरा रहा है. आरोप लगाया गया कि अपनी उत्तरी सीमा पर विवाद के बावजूद भारत का AIIB के साथ संबंध बनाए रखना तार्किक दृष्टि से उचित नहीं है. हालांकि, उसके बाद से भारत के विदेश मंत्री को एक मुश्किल संतुलन बनाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, और फरवरी महीने में उन्होंने अपनी इस ज़िम्मेदारी की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए कहा था कि जब सीमा पर आपका किसी के साथ विवाद चल रहा हो, तो ‘दूसरे कमरे में जाकर’ किसी और मसले पर चर्चा करना मुमकिन नहीं है.

 

इससे हमें चीन की फंडिंग के बारे में क्या पता चलता है और राजनीति के लिए इसके क्या मायने हैं?

 

इस सर्वेक्षण में जो जज़्बात सामने आए हैं, उसकी मिसालें दुनिया में और भी कई देशों में मिलती हैं. चीन की सहायता के एक व्यापक विश्लेषण से पता चलता है कि चीन से अन्य विकासशील देशों में आ रहे धन के मिले जुले आर्थिक नतीजे निकले हैं और हक़ीक़त तो ये है कि इससे कुछ मेज़बान देशों में चीन की छवि ख़राब हुई है, तो कुछ देशों में चीन की हैसियत बेहतर भी हुई है. हमें याद रखना होगा कि पश्चिमी देशों से मिलने वाली सहायता को लेकर भी कम-ओ-बेश यही नज़रिया दिखता रहा है.

 चीन की सहायता के एक व्यापक विश्लेषण से पता चलता है कि चीन से अन्य विकासशील देशों में आ रहे धन के मिले जुले आर्थिक नतीजे निकले हैं और हक़ीक़त तो ये है कि इससे कुछ मेज़बान देशों में चीन की छवि ख़राब हुई है, तो कुछ देशों में चीन की हैसियत बेहतर भी हुई है.

इस सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि लोगों की भावनाएं बड़ी बारीक़ी से परियोजनाओं को लागू करने वाली संस्थाओं, उनके ठिकानों और उस संस्थान से जुड़े देशों को लेकर मौजूदा सोच से जुड़ी होती हैं. इस प्रभाव को हम भारतीयों के बीच चीन को लेकर बेहद कड़े नज़रिए के नतीजे के रूप में देख सकते हैं. क्योंकि, भारत की लगभग दो तिहाई आबादी की सोच चीन को लेकर नकारात्मक ही है. इससे पता चलता है कि अन्य देशों और संस्थाओं के बारे में लोगों की राय क़ायम करने के मामले में पहले से चली आ रही सोच काफ़ी अहम भूमिका निभाती है.

 

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Mark Hallerberg

Mark Hallerberg

Mark Hallerberg is Professor of Public Management and Political Economy, Hertie School, Berlin. ...

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Sahil Deo

Sahil Deo

Non-resident fellow at ORF. Sahil Deo is also the co-founder of CPC Analytics, a policy consultancy firm in Pune and Berlin. His key areas of interest ...

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Om Marathe

Om Marathe

Om Marathe is a Research and Data Analyst at CPC Analytics. ...

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Jayati Sharma

Jayati Sharma

Jayati Sharma is a Research Analyst at CPC Analytics.

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