Author : Gopalika Arora

Published on May 01, 2023 Updated 0 Hours ago

राष्ट्र की व्यय आवश्यकताओं में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को राजकोषीय रूप से जोड़े जाने की क़वायद में मौजूद अहम फ़ासलों का निपटारा करना ज़रूरी है

जलवायु बजट: जलवायु परिवर्तन से निपटने में भारत की राजकोषीय नीतियों का भरपूर इस्तेमाल ज़रूरी

समाज और अर्थव्यवस्था पर अनेक प्रकार की जैव-भौतिक जोख़िमों का प्रभाव पड़ रहा है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन के चलते भौतिक और परिवर्तनकारी ख़तरों के बारे में समझ बढ़ती जा रही है. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (NDCs) को पूरा करने के लिए भारत को 2030 तक तक़रीबन 2.5 खरब अमेरिकी डॉलर की दरकार है. इसके अलावा 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्यों को साकार करने के लिए 10.1 खरब अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत है. फ़िलहाल जलवायु वित्त की सकल धनराशि मौजूदा जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिहाज़ से अपर्याप्त समझी जा रही हैं. सार्वजनिक, निजी और अंतरराष्ट्रीय वित्त के प्रयोग से इनका स्तर ऊंचा उठाने की ज़रूरत है. 

फ़िलहाल जलवायु वित्त की सकल धनराशि मौजूदा जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिहाज़ से अपर्याप्त समझी जा रही हैं. सार्वजनिक, निजी और अंतरराष्ट्रीय वित्त के प्रयोग से इनका स्तर ऊंचा उठाने की ज़रूरत है.

वित्त वर्ष 2022-23 के लिए जारी संघीय बजट को ‘जलवायु बजट’ के तौर पर प्रचारित किया गया था. जलवायु के प्रति लोचदार विकास को बढ़ावा देने को लक्षित कर इसकी संरचना तैयार की गई थी. इसमें वैश्विक और राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए रास्ता सुझाने की क़वायद की गई थी. बजट में ऊर्जा परिवर्तनों और सतत विकास की अहमियत को भी रेखांकित किया गया था. हालांकि इन प्रोत्साहनकारी तत्वों के बावजूद राष्ट्रीय व्यय के साथ जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को राजकोषीय तौर पर जोड़े जाने की क़वायद में एक बड़ी ख़ाई मौजूद है. सार्वजनिक व्यय, आर्थिक गतिविधि का एक अहम हिस्सा होती हैं, लिहाज़ा सरकार द्वारा ख़र्च को लेकर लिए गए निर्णयों का देश के सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक क्षेत्रों पर भारी प्रभाव होता है.

भारत घरेलू सार्वजनिक वित्त के नियोजन और प्रशासन में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को जोड़े जाने की अहमियत को निरंतर स्वीकारता आ रहा है. ख़ासतौर से राजकोषीय प्रबंधन के दायरे में ऐसी क़वायद काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाती है. भले ही भारत में जलवायु वित्त को सार्वजनिक और निजी स्रोतों, दोनों के ज़रिए वितरित किया जाता है, फिर भी ज़्यादातर व्यय सार्वजनिक स्रोतों के खाते से ही होते हैं. अनुकूलन वित्त का प्रमुख स्रोत घरेलू तौर पर ही (94 प्रतिशत) हासिल होता है. इसका वित्त-पोषण पूरी तरह से केंद्र और राज्यों के बजट से किया जाता है. जलवायु कार्रवाई के लिए निजी वित्त जुटाने में सार्वजनिक व्यय उत्प्रेरक का काम भी करते हैं. चूंकि संघीय बजट एक प्रमुख नीतिगत दस्तावेज़ है, जो सरकार की जवाबदेहियों, वचनबद्धताओं और वरीयताओं को दर्शाता है, लिहाज़ा बजट को जलवायु-प्रतिक्रियाशील बनाना आज वक़्त की मांग बन गई है.

जलवायु बजट-निर्माण क्या है?      

जलवायु बजट-निर्माण जलवायु परिवर्तन के मुनासिब व्ययों की पहचान, वर्गीकरण और श्रेणीबद्धता की सुविधा उपलब्ध कराता है. सरकारी के बजटीय ढांचे के दायरे में इस क़वायद को अंजाम दिया जाता है. इसके लिए ऐसे ख़र्चों के बारीक़ आकलन, निष्ठापूर्वक निगरानी और प्रक्रियानुसार पड़ताल किए जाने की ज़रूरत पड़ती है.

जलवायु बजट-निर्माण की बढ़ती अहमियत को ‘हरित बजट-निर्माण पर पेरिस गठजोड़ व्यवस्था’ के गठन के साथ जोड़कर देखा जा सकता है. 2017 में पेरिस में एक ग्रह शिखर सम्मेलन में इस राष्ट्र-व्यापी कार्यक्रम का एलान किया गया था. इसका मक़सद हरित प्रगति को बजटीय ढांचों की मुख्यधारा के साथ जोड़ना है. आगे चलकर 2019 में ‘जलवायु कार्रवाई के लिए वित्त मंत्रियों का गठबंधन’ तैयार किया गया. इसके ज़रिए दुनिया के तमाम राष्ट्रों के वित्त मंत्रियों द्वारा सामूहिक कार्रवाई की अहमियत पर ज़ोर दिया गया, ताकि जलवायु परिवर्तन द्वारा पेश की गई चुनौतियों से निपटा जा सके. इसके साथ ही दुनिया भर के तक़रीबन 70 देशों के वित्त मंत्रियों ने ‘हेलसिंकी सिद्धांतों’ पर दस्तख़त किए. राजकोषीय नीतियों और सार्वजनिक वित्त के ज़रिए जलवायु कार्रवाई को अंजाम दिए जाने को लेकर इन सिद्धांतों की संरचना तैयार की गई थी.

हमें जलवायु बजट की ज़रूरत क्यों है?    

जलवायु वित्त-पोषण में जवाबदेही और पारदर्शिता अब वैश्विक स्तर पर ज़रूरी हो गई है और ये क़वायद राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शुमार हो चुकी है. सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणालियों का जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं के साथ एकीकरण सुनिश्चित करना अब एक अनिवार्य कारक बन गया है. इस तरह जलवायु वित्त-पोषण को लेकर सरकारी उत्तरदायित्व तय किया जाता है. जलवायु कार्रवाई के मौजूदा दशक में अब हम संवर्धित पारदर्शिता ढांचे (ETF) की ओर मुख़ातिब हो रहे हैं. ये प्रक्रिया भारत जैसे विकासशील देशों को अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों और ध्येय के मद में वित्तीय योगदान से जुड़ी सूचनाएं मुहैया कराने को प्रोत्साहित करती है. UNFCCC को द्विवार्षिक पारदर्शिता रिपोर्ट्स (BTR) उपलब्ध कराकर इस क़वायद को अंजाम दिया जाता है. घरेलू जलवायु वित्त की पारदर्शिता और जवाबदेही सुधारने की व्यापक कोशिशें जारी हैं. ऐसे में जलवायु बजट-निर्माण सही दिशा में उठाया गया क़दम होगा. रिपोर्टिंग से जुड़ी ज़रूरतों को और प्रभावी और दक्ष तरीक़े से पूरा करने में ये क़वायद आगे और मददगार साबित होगी. इतना ही नहीं बजट को जलवायु के साथ जोड़े जाने से जलवायु निवेशों से जुड़े आंकड़े भी हासिल हो सकेंगे. बजटीय वर्गीकरण की सामान्य प्रक्रियाओं से ऐसे आंकड़े कतई हासिल नहीं किए जा सकते. ये प्रांसगिक आंकड़ा आगे चलकर जलवायु वित्त उपकरणों (जैसे हरित बॉन्ड्स) के ढांचों में मज़बती लाने की दिशा में योगदान दे सकता है. योग्य परियोजनाओं की पहचान करके और वित्त पर नज़र रखते हुए रिपोर्टिंग के ज़रिए ये कार्य पूरा किया जाता है. 

मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं की पुनरावृति बढ़ती जा रही है. इससे हाशिए पर मौजूद तबक़े और जनसंख्या के कमज़ोर वर्गों पर बेतहाशा बोझ पड़ता है. ऐसे में सरकारों को इन झटकों को बर्दाश्त करने के लिए राजकोषीय रूप से और स्थिर बने रहने की दरकार होगी.

जलवायु वित्त में अंतर का आकलन करने में भी जलवायु बजट मददगार साबित हो सकती है. मौजूदा जलवायु व्ययों के प्रमाण मुहैया कराकर ऐसा किया जाता है. मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया की सरकार जलवायु बजट को एक ज़रूरी औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करती आ रही है. इसके ज़रिए जलवायु परिवर्तन की रोकथाम करने वाले उपायों की अनुमानित लागत और उस दिशा में मौजूदा सार्वजनिक व्यय के बीच की खाई का विश्लेषण किया जाता है. इस प्रक्रिया ने जलवायु वित्त इकट्ठा करने को लेकर नवाचार भरे वित्तीय मॉडल्स की ज़रूरत तैयार करने में सहायता की है.

मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं की पुनरावृति बढ़ती जा रही है. इससे हाशिए पर मौजूद तबक़े और जनसंख्या के कमज़ोर वर्गों पर बेतहाशा बोझ पड़ता है. ऐसे में सरकारों को इन झटकों को बर्दाश्त करने के लिए राजकोषीय रूप से और स्थिर बने रहने की दरकार होगी. उप-राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रवार उत्सर्जनों पर लगाम लगाने के लिए ज़रूरी निवेश, जलवायु कार्रवाइयों को प्राथमिकता पर रखने में मददगार साबित हो सकते हैं. इस तरह ठोस नीति-निर्माण का रास्ता साफ़ हो सकता है. मिसाल के तौर पर जलवायु बजट-निर्माण से जुटाई गई सूचना जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाओं (SAPCC) के काम आ सकती हैं. इस तरह जलवायु से संबंधित वित्तीय प्रवाहों को प्रबंधित करने को लेकर दक्ष और पारदर्शी तरीक़े से प्रक्रियाएं तैयार करने में आसानी होगी.

नीतिगत मोर्चे पर फ़ासले क्या हैं?

जलवायु परिवर्तन हस्तक्षेपों के लिए बजट आवंटन को लेकर फ़िलहाल भारत में कोई विशिष्ट दिशानिर्देश, नियमन या ढांचा मौजूद नहीं हैं. इस प्रकार साझा ढांचे का अभाव जलवायु कार्रवाई की रिपोर्टिंग को बाधित करता है, जिससे जलवायु परिवर्तन हस्तक्षेपों से जुड़े सार्वजनिक व्यय की निगरानी रखना और उनकी पड़ताल करना मुश्किल हो जाता है. जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना और जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना में रणनीतियों और हस्तक्षेपों की पूरी सूची उपलब्ध कराई गई है. इसमें क्रमश: राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तरों पर जलवायु अनुकूलन और रोकथाम के उपाय दिए गए हैं. बहरहाल, राज्य के विस्तृत अनुदान मांग (DDFGs) दस्तावेज़ों में जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाओं से जुड़े हस्तक्षेपों के वित्त-पोषण के लिए अलग से बजट आवंटन मुहैया नहीं करवाया गया है. इसके अलावा महत्वपूर्ण जलवायु अनुकूलन और रोकथाम के सह-लाभ मुहैया कराने वाली कुछ निश्चित विकास परियोजनाओं की आधी-अधूरी जानकारियां उपलब्ध कराई जाती हैं. जलवायु परिवर्तन चिंताओं की दिशा में स्पष्ट व्ययों के तौर पर इनकी पूरी जानकारी नहीं मिल पाती. मिसाल के तौर पर विकास से जुड़े ऐसे अनेक कार्यक्रम हैं जिनका लक्ष्य जल संरक्षण है और जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से अहम भी हैं, लेकिन उन्हें जलवायु अनुकूलन और रोकथाम की दिशा में ख़र्च के तौर पर वर्गीकृत नहीं किया जाता है. इसमें प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) शामिल है. लिहाज़ा विकास कार्यक्रमों पर ख़र्च किए जाने वाले कोष की जलवायु प्रासंगिकता का आकलन करने के लिए राज्य सरकारों को सशक्त बनाने की तात्कालिक ज़रूरत है.

वैश्विक, राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर बेहतरीन तौर-तरीक़े   

जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और रोकथाम उपायों की बढ़ती मांग को देखते हुए अब दुनिया के ज़्यादा से ज़्यादा देश जलवायु बजट-निर्माण की प्रक्रिया अपनाने लगे हैं. ये देश अपनी मौजूदा बजटीय प्रणालियों के भीतर जलवायु से संबंधित व्ययों को प्रक्रियागत तरीक़े से एकीकृत करने के लिए उपयोगी तकनीक के तौर पर इस क़वायद को अंजाम दे रहे हैं. बांग्लादेश, घाना, इंडोनेशिया, केन्या, नेपाल, पाकिस्तान और फिलीपींस जैसे देशों ने अपनी सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन प्रणालियों में जलवायु परिवर्तन को मुख्य धारा के तौर पर जोड़ने को लेकर मिसाल क़ायम कर दी हैं. बांग्लादेश की सरकार ने 2018 में अपना सर्वप्रथम जलवायु नागरिक बजट जारी किया. इस सिलसिले में सरकार ने संसद में अपनी सालाना जलवायु रिपोर्ट भी पेश की. अनुकूलन और रोकथाम को लेकर पाकिस्तान के आर्थिक सर्वेक्षण में भी जलवायु बजट और व्यय का ब्यौरा पेश किया गया. वहां के सालाना बजट दस्तावेज़ों में प्रासंगिक आंकड़ों का सारांश भी एक हिस्से के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है.

राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक वित्त की समग्र संस्थागत समीक्षा के अभाव के बावजूद भारत के अनेक राज्यों ने अपनी सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणालियों में जलवायु बजट-निर्माण को शामिल किए जाने की पहल शुरू की है. महाराष्ट्र, असम, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा और केरल ने अपनी विकास परियोजनाओं की जलवायु प्रासंगिकता की पड़ताल करने के लिए बजट कोडिंग से जुड़ी क़वायद को अंजाम दिया है. हर क्षेत्र की बजटीय आवश्यकताओं का सार्वजनिक तौर पर ख़ुलासा करने वाला ओडिशा पहला राज्य बन गया है. वहां की सरकार ने राज्य के बजट में जलवायु संवेदनशीलता को रेखांकित किए जाने की ज़रूरत को मान्यता दे दी है. ओडिशा ने अपने विकास कार्यक्रमों और योजनाओं की जलवायु प्रासंगिकता का आकलन करने के लिए राज्य कार्य योजना वित्तीय ढांचा (SAPFIN) स्वीकार किया है. इसके साथ ही कुछ राज्य सरकारें जलवायु से संबंधित अपने ख़र्चों के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के जलवायु सार्वजनिक वित्त और संस्थागत समीक्षा (CPEIR) की गणनाओं का भी इस्तेमाल कर रही हैं.

आगे की राह    

विकास से जुड़े एजेंडे में जलवायु परिवर्तन को मुख्य धारा के तौर पर शामिल करने के लिए राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से संचालित सर्व-समावेशी रणनीति की दरकार होती है. इसके लिए एक साझा बजटीय ढांचा तैयार किया जाना ज़रूरी हो जाता है. इस तरह जलवायु वित्त को व्यापक तौर पर सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली के साथ एकीकृत करना मुमकिन हो जाता है. राज्यों की सरकारें अपनी सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणालियों का कायाकल्प करने की ताबड़तोड़ कोशिशें कर रही हैं. इसके बावजूद संघीय बजट के मौजूदा ढांचे का नए सिरे से निर्माण किए जाने की दरकार है. इसके ज़रिए बजट में जलवायु से संबंधित ख़र्चों की ठोस रिपोर्टिंग को जगह दी जा सकेगी. भारत पहले ही दशक के एक अहम हिस्से को राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर लैंगिक बजट से जुड़ी क्षमताएं तैयार करने में व्यतीत कर चुका है. सरकार पहले से ही लैंगिक बजट बयान, आदिवासी उप योजना बयान, बाल बजट बयान और अनुसूचित जाति बजट बयान की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है. हालांकि रिपोर्टिंग के प्रभावी तंत्रों के अभाव में इन क़वायदों का क्रियान्वयन लचर रहा है. इस सिलसिले में एकीकृत और ठोस रिपोर्टिंग, निगरानी और सत्यापन से जुड़े ढांचे की सख़्त आवश्यकता है. इस तरह जलवायु वित्त से जुड़ी ज़रूरतों के आकलन के लिए आवश्यक गणनाएं मिल सकेंगी, जिससे जलवायु वित्त जुटाने के लिए अंतर-क्षेत्रीय क़वायदों की शुरुआत की जा सकेगी.

पहले से ज़्यादा परिष्कृत चश्मे से भारत के बजटीय ख़र्चों के प्रभावों को जानने की स्पष्ट सामरिक अनिवार्यता है. घरेलू जलवायु वित्त में पारदर्शिता को और सशक्त करने और जवाबदेही को बढ़ाने के लिए जलवायु बजट-निर्माण एक यथार्थवादी दृष्टिकोण हो सकता है

इतना ही नहीं, जलवायु बजट-निर्माण को संस्थागत रूप देने के लिए अंतर-विभागीय समन्वय और भूमिकाओं की स्पष्टता की दरकार होती है. इसके साथ-साथ राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर तमाम सरकारों के विभिन्न विभागों में ज़िम्मेदारियां आयद किया जाना भी ज़रूरी होता है. लिहाज़ा सालाना बजट प्रक्रिया में जलवायु बजट को जोड़े जाने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण ज़रूरी हो जाता है. जलवायु बजट की परिभाषा को विस्तार देना भी ज़रूरी है. इस तरह जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं का निपटारा करने वाले विकास कार्यक्रमों के समावेश की सुविधा मिल जाती है, भले ही इन कार्यक्रमों के उद्देश्यों में इस दिशा में खुले तौर पर कोई शासनादेश जारी ना किया गया हो.

जलवायु परिवर्तन से जंग में सरकार के रोडमैप में राजकोषीय नीतियां एक अटूट हिस्सा बन गई हैं. भारत की सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली और दिशानिर्देशों (ख़ासतौर से संघीय बजट में) में जलवायु से जुड़े नज़रियों को एकीकृत करके इन नीतियों को मज़बूत बनाए जाने की दरकार है. पहले से ज़्यादा परिष्कृत चश्मे से भारत के बजटीय ख़र्चों के प्रभावों को जानने की स्पष्ट सामरिक अनिवार्यता है. घरेलू जलवायु वित्त में पारदर्शिता को और सशक्त करने और जवाबदेही को बढ़ाने के लिए जलवायु बजट-निर्माण एक यथार्थवादी दृष्टिकोण हो सकता है. 


गोपालिका अरोड़ा सेंटर फ़ॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में एसोसिएट फ़ेलो हैं

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