Author : Vinitha Revi

Published on Sep 15, 2021 Updated 0 Hours ago

इस नई जियोपॉलिटिकल हक़ीक़त को लेकर भारत के द्वीपीय पड़ोसी देश कैसा रुख़ अपनाते हैं और क्या इससे नए शीत युद्ध की शुरुआत होगी, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.

अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र के बदलते समीकरण का श्रीलंका और मालदीव पर असर!

श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने 18 अगस्त को एक ट्वीट किया और बताया कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई से बात की है, जिससे वो ‘अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हुए हालात के बारे में जानकारी ले सकें और अफ़ग़ान जनता के प्रति श्रीलंका के लगातार समर्थन की बात दोहरा सकें.’ श्रीलंका के मीडिया मंत्री और कैबिनेट के प्रवक्ता दुल्लास अलाहप्पेरुमा ने उसके बाद कहा था कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने विदेश मंत्रालय को निर्देश दिया है कि वो अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर चर्चा करे और इसे लेकर श्रीलंका के रुख़ का एलान करे. अलाहप्पेरुमा ने अपने बयान में ये भी जोड़ा था कि अफ़ग़ानिस्तान की जनता के कष्टों को देखकर श्रीलंका को दुख पहुंचा है और ख़ास तौर से इस बात से और तकलीफ़ हुई है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग अपना देश छोड़कर जाने की कोशिश कर रहे हैं.

श्रीलंका के विदेश मंत्रालय ने 21 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान पर एक बयान जारी करके कहा था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर श्रीलंका काफ़ी चिंतित है और वहां के हालात पर बारीक़ी से नज़र बनाए हुए है.’ इस बयान में कहा गया था कि श्रीलंका की सबसे बड़ी चिंता अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद श्रीलंकाई नागरिकों की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित स्वदेश लाने की है. इस बयान में श्रीलंका के विदेश मंत्रालय ने ये भी कहा कि विदेश मंत्री जी. एल. पेईरिस इस मामले में संबंधित देशों के राजदूतों से मिलकर उनसे गुज़ारिश कर रहे हैं कि वो अफ़ग़ानिस्तान में फंसे श्रीलंकाई नागरिकों को वापस लाने में मदद करें. इसके अलावा प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने श्रीलंका में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत एम. अशरफ़ हैदरी से मुलाक़ात करके कोलंबो के दूतावास को ‘पूरे समर्थन’ का भरोसा दिया है. ईरान के लिए श्रीलंका के मनोनीत राजदूत विश्वनाथ अपोंसू ने 1 सितंबर को तेहरान में ईरान के विदेश मंत्री से मुलाक़ात की थी. हालांकि ये बस एक औपचारिक मुलाक़ात थी. लेकिन मौजूदा जियोपॉलिटिकल माहौल में जब पूरी दुनिया अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर नज़र बनाए हुए है, और इंतज़ार के साथ-साथ उसकी समीक्षा कर रही है, तो इस क्षेत्र के देशों के बीच किसी भी तरह का संवाद प्रासंगिक हो जाता है.

श्रीलंका की सबसे बड़ी चिंता अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद श्रीलंकाई नागरिकों की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित स्वदेश लाने की है.

हाल ही में जारी एक बयान में श्रीलंका ने अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर दो ख़ास बातों पर टिप्पणी की थी. श्रीलंका ने कहा था कि: (i) श्रीलंका की सरकार को इस बात से बहुत ख़ुशी हुई है कि तालिबान ने सबको माफ़ी देने का एलान किया है और ये वादा किया है कि वो किसी विदेशी नागरिक को नुक़सान नहीं पहुंचाएंगे. श्रीलंका ने अपील की थी कि तालिबान अपने वादों पर अमल करना आगे भी जारी रखे. (ii) श्रीलंका की सरकार को तालिबान के इस वादे से ख़ुशी हुई है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं को काम करना जारी रखने देंगे और लड़कियों को इस्लामिक परंपरा के तहत स्कूल पढ़ने जाने की इजाज़त देंगे.

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत पर मालदीव की प्रतिक्रिया

भारत के दूसरे द्वीपीय पड़ोसी मालदीव ने अब तक अफ़ग़ानिस्तान को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है. मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने काबुल हवाई अड्डे पर आतंकवादी हमले के बाद ट्वीट किया था कि, ‘मालदीव इस आतंकी हमले की कड़े शब्दों में निंदा करता है.’ इसके साथ साथ उन्होंने कहा था कि दुनिया को आतंकवाद के ख़िलाफ़ एकजुट होना चाहिए और अफ़ग़ानिस्तान की जनता के हक़ में भी खड़े होना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष के रूप में मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने पहले कहा था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उसमें संयुक्त राष्ट्र की भूमिका बिल्कुल स्पष्ट है.’ मगर, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान की जनता बेहद लचीली है और उनकी सरकार लोकतांत्रिक है. अफ़ग़ान जनता जो भी चाहती है, उसमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उनकी मदद करनी चाहिए.’ हालांकि, ‘अफ़ग़ान जनता क्या चाहती है?’ इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं दिया जा सकता है.

दुनिया भर के बहुत से अन्य नेताओं की तरह, श्रीलंका और मालदीव के नेता भी अफ़ग़ानिस्तान की तेज़ी से बदलती स्थिति को लेकर चिंतित और उधेड़-बुन में हैं. वो भी अफ़ग़ानिस्तान पर क़रीब से नज़र बनाए हुए हैं. उन्हें न तो तालिबान कि हुकूमत को जल्द मान्यता देने की जल्दी है और न ही उसे ख़ारिज करने की हड़बड़ी. 

दुनिया भर के बहुत से अन्य नेताओं की तरह, श्रीलंका और मालदीव के नेता भी अफ़ग़ानिस्तान की तेज़ी से बदलती स्थिति को लेकर चिंतित और उधेड़-बुन में हैं. वो भी अफ़ग़ानिस्तान पर क़रीब से नज़र बनाए हुए हैं. उन्हें न तो तालिबान कि हुकूमत को जल्द मान्यता देने की जल्दी है और न ही उसे ख़ारिज करने की हड़बड़ी. ये देश तो बस अपनी चिंताएं ज़ाहिर कर रहे हैं. भले ही ये बात इन देशों के आधिकारिक बयानों के ज़रिए न कही गई हो, लेकिन इन देशों की ज़्यादा चिंता क्या है, ये समझना बहुत आसान है. अमेरिका की हड़बड़ी में हुई विदाई के बाद से अफ़ग़ानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र से बहुत ख़तरे पैदा हो रहे हैं. ये ऐसे ख़तरे हैं जो श्रीलंका और मालदीव पर भी असर डाल सकते हैं. इन्हें समझने की ज़रूरत है.

आतंकवाद का ख़तरा और क्षेत्रीय सुरक्षा

श्रीलंका की सरकार ने ‘उग्रवादी धार्मिक तत्वों के सुरक्षित ठिकाना पाने और अवैध ड्रग्स कारोबार’ को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा था कि इससे पूरे दक्षिण एशिया के अस्थिर होने का ख़तरा पैदा हो गया है.’ मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने भी पहले तर्क दिया था कि अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा का मसला दक्षिण एशिया में इसके सभी पड़ोसी देशों के लिए चिंता का विषय है. हालांकि, श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंगे और मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने ख़ास तौर से खुलकर अपनी चिंताएं ज़ाहिर की थीं. रनिल विक्रमसिंघे ने श्रीलंका को तालिबान की हुकूमत को मान्यता देने को लेकर आगाह किया था. उन्होंने कहा था कि, ‘सबको इस बात का डर है कि तालिबान के राज में अफ़ग़ानिस्तान जिहादी आतंकवादी संगठनों का अड्डा बन जाएगा.’ नैटो के पूर्व प्रमुख जॉर्ज रॉबर्टसन ने भी इसी तरह चेतावनी दी थी कि, तालिबान की वापसी से अन्य देशों के ‘तमाम जिहादी संगठनों’ को एक ठिकाना मिलेगा और आगे चलकर ये आतंकवादी संगठन, दूसरे देशों को निशाना बनाकर हमले कर सकते हैं.

नैटो के पूर्व प्रमुख जॉर्ज रॉबर्टसन ने भी इसी तरह चेतावनी दी थी कि, तालिबान की वापसी से अन्य देशों के ‘तमाम जिहादी संगठनों’ को एक ठिकाना मिलेगा और आगे चलकर ये आतंकवादी संगठन, दूसरे देशों को निशाना बनाकर हमले कर सकते हैं.

श्रीलंका का हाल ही में आतंकवाद से सामना हुआ था जब 2019 में ईस्टर के दिन बम हमले हुए थे. वहीं 2001 में तालिबान ने जिस तरह से बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को तोप से उड़ाया था, उसकी भयावाह यादें श्रीलंका के ज़हन में आज भी ताज़ा हैं. ऐसे में तालिबान की जीत से आतंकवाद का ख़तरा बढ़ने की श्रीलंका की आशंका एक वाजिब और परेशानी बढ़ाने वाला डर है. इसी तरह, मालदीव की इब्राहिम सोलिह की सरकार 2018 में सत्ता में आने के बाद से ही तेज़ी से बढ़ रहे कट्टरपंथ से जूझ रही है. इससे निपटने के लिए सोलिह सरकार ने संस्थागत और क़ानूनी सुधार भी किए हैं और संयुक्त राष्ट्र के आतंकवाद निरोधक परियोजनाओं से मिल रही मदद के ज़रिए लोगों को नए सिरे से पढ़ाने और जागरूकता फैलाने का काम भी किया है. हालांकि हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पर हुए हमले और सरकार के मालिकाना हक़ वाली नावों को आग लगाने की घटनाओं के साथ-साथ, आबादी के अनुपात में सबसे ज़्यादा जिहादी लड़ाकों के सीरिया और इराक़ लड़ने जाने के चिंताजनक आंकड़े के चलते, मालदीव में कट्टरपंथ और उग्रवाद के बढ़ते ख़तरे को ही उजागर किया है. अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात और आने वाले समय में वहां अराजकता की आशंका को देखते हुए, दक्षिण एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों में आतंकवाद के बढ़ते ख़तरे को इन द्वीपीय देशों की नज़र से देखा जाना चाहिए, जो अफ़ग़ानिस्तान के हालात से बेहद घबराए हुए हैं.

क्षेत्रीय एकीकरण और कनेक्टिविटी:दक्षिण एशिया में स्थायी तौर पर अटका हुआ मामला

क़ुदरती तौर पर बाक़ी दुनिया से कटे हुए छोटे द्वीपीय देशों के आर्थिक विकास के लिए उनका बाक़ी दुनिया से एकीकरण और कनेक्टिविटी बढ़ाने का लक्ष्य बहुत अहम हो जाता है. इस वक़्त आर्थिक संकट से जूझ रही श्रीलंका की अर्थव्यवस्था, 1950 के दशक की तुलना में आज ख़ुद को बाक़ी दुनिया से ज़्यादा कटा हुआ महसूस कर रही है. भारत के छोटे पड़ोसी द्वीपीय देशों की ये ख़्वाहिश होगी कि वो दक्षिण एशिया के देशों को क़रीब लाने के मरणासन्न प्रोजेक्ट यानी सार्क में नई जान डाल सकें. हालांकि, ये देश भारत और पाकिस्तान की दुश्मनी से बचने के लिए सार्क को परे करके SASEC और BIMSTEC के ज़रिए कनेक्टिविटी बढ़ाने को राज़ी हैं. लेकिन, ये देश अक्सर ये जताते रहे हैं कि अगर विकल्प दिया गया तो वो सार्क को ही मज़बूत बनाने को तरज़ीह देना चाहेंगे. प्रधानमंत्री बनने के बाद फरवरी 2020 में पहली बार भारत आए महिंदा राजपक्षे ने एक इंटरव्यू में कहा था कि, ‘मैं ये मानता हूं कि हम सार्क के निर्माण की दिशा में काफ़ी लंबा सफ़र तय कर चुके हैं और वो सिलसिला आगे भी जारी रहना चाहिए.’ अफ़ग़ानिस्तान के बारे में श्रीलंका द्वारा जारी किए गए बयान में भी सार्क का एक अस्पष्ट मगर दिलचस्प तरीक़े से ज़िक्र हुआ था. अपने बयान में श्रीलंका ने कहा था कि, ‘सार्क के एक सदस्य के तौर पर श्रीलंका इस मामले में अपनी भूमिका अदा करने या सहयोग करने के लिए पूरी तरह तैयार है.’ अगर पहले भारत और पाकिस्तान की दुश्मनी के चलते सार्क में नई जान फूंके जाने की संभावना बेहद कम थी, तो मौजूदा हालात में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी और अन्य बदलावों के चलते दक्षिण एशिया के क्षेत्रवाद के आयाम निश्चित रूप से बदल जाएंगे. श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान से अपने रिश्ते को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. हाल ही में उसने अफ़ग़ानिस्तान के साथ कई सहमति पत्रों पर दस्तख़त किए थे और द्विपक्षीय व्यापार, ख़ास तौर से चाय, रत्नों और जूलरी, सूखे मेवों और अनाज के साथ साथ पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग के लिए हवाई संपर्क बढ़ाने की संभावनाएं तलाशने के लिए परिचर्चाएं की थीं. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि श्रीलंका और उसके जैसे दूसरे छोटे देश किन विकल्पों को अपनाने पर विचार करते हैं. सबसे अहम बात तो ये होगी कि क्या वो अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बदल रहे हालात और जियोपॉलिटिक्स को देखते हुए वहां पांव जमाने के लिए चीन से मदद हासिल करने की कोशिश करेंगे.

ये देश भारत और पाकिस्तान की दुश्मनी से बचने के लिए सार्क को परे करके SASEC और BIMSTEC के ज़रिए कनेक्टिविटी बढ़ाने को राज़ी हैं. लेकिन, ये देश अक्सर ये जताते रहे हैं कि अगर विकल्प दिया गया तो वो सार्क को ही मज़बूत बनाने को तरज़ीह देना चाहेंगे.

क्या एक नया शीत युद्ध उभर रहा है?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी बदलाव को इस नज़रिए से देखने की आदत सी है कि इससे दुनिया दो ध्रुवों में बंटने की दिशा में आगे बढ़ रही है. अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक संकट के मामले में भी यही हो रहा है. हालांकि अभी ये कहना जल्दबाज़ी ही है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि रूस और चीन, पाकिस्तान और ईरान के साथ मिलकर, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका द्वारा ख़ाली की गई जगह को भरने के लिए तैयार हैं. ये देश मिलकर, पूरे क्षेत्र में एक प्रभावशाली गुट के रूप में उभर सकते है. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान में हर गुज़रते दिन के साथ हालात बदल रहे हैं. अब जबकि तालिबान, लड़ाके से प्रशासक की भूमिका में आ रहे हैं, तो इसे लेकर निश्चित रूप से एक तरह की आशंका है, और रूस और चीन समेत वो सभी देश जो अफ़ग़ानिस्तान से संवाद बढ़ाना चाह रहे हैं, वो सावधानी से क़दम उठाने पर ज़ोर दे रहे हैं. काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद, शुरुआत में रूस के राजदूत ने बयान दिया था कि तालिबान के आने के बाद से काबुल के हालात अशरफ़ ग़नी सरकार की तुलना में बेहतर हुए हैं. हालांकि, उस शुरुआती उत्साह की जगह अब सावधानी और सधे हुए क़दम ने ले ली है. व्लादिवोस्टोक में हुए ईस्टर्न इकॉनमिक फोरम की बैठक के उद्घाटन समारोह में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का बयान काफ़ी सधा हुआ था. उन्होंने कहा था कि रूस को उम्मीद है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान एक ‘सभ्य’ समूह की तरह बर्ताव करेंगे.

अब जबकि भारत इन हालात की समीक्षा कर रहा है, तो उसका ध्यान अपने द्वीपीय पड़ोसी देशों पर, उनकी चिंताओं, संभावित विकल्पों और नई उभरती हुई संभावनाओं में उनके लिए अवसर पेश करने पर भी होना चाहिए.

आज पूरी दुनिया आशंकित है और ख़ामोशी भरे तनाव में अफ़ग़ानिस्तान पर नज़रें टिकाए हुए है. वहीं, अफ़ग़ानिस्तान में तबाही लाने वाले मानवीय संकट और उससे भविष्य में व्यापक दुष्प्रभाव पड़ने की आशंका भी जताई जा रही है. अब जबकि भारत इन हालात की समीक्षा कर रहा है, तो उसका ध्यान अपने द्वीपीय पड़ोसी देशों पर, उनकी चिंताओं, संभावित विकल्पों और नई उभरती हुई संभावनाओं में उनके लिए अवसर पेश करने पर भी होना चाहिए. अगर एक नया शीत युद्ध वाक़ई उभर रहा है, तो भारत को इस परिस्थिति में अपने पड़ोसी देशों के बारे में भी सोचना होगा कि वो किधर का रुख़ करेंगे: मालदीव ने अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग का समझौता किया है. वहीं, श्रीलंका में चीन ने भारी मात्रा में मूलभूत ढांचे के विकास में निवेश किया हुआ है. दोनों ही देश महामारी, आर्थिक कमज़ोर और सीमित अंतरराष्ट्रीय यातायात की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. ऐसे में सवाल ये उठता है कि, वो किस तरफ़ जाएंगे? भले ही ये सवाल काल्पनिक लगे, फिर भी भारत के विचार करने के लिए ये एक अहम सवाल है.

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