Author : Dharmil Doshi

Published on Apr 03, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत द्विपक्षीय निवेश संधियों पर नए सिरे से बातचीत करना चाहता है लेकिन ऐसा करने से पहले भारत को ये स्पष्ट करना होगा कि इन संधियों में सनसेट क्लॉज को लेकर उसका रुख क्या होगा?

भारत की नई द्विपक्षीय निवेश संधि व्यवस्था में सनसेट क्लॉज की क्या भूमिका?

भारत ने अर्जेंटीना और रशिया के साथ रद्द हो चुके द्विपक्षीय निवेश संधि (BITs) पर नए सिरे से बातचीत करने की इच्छा जताई है. इतना ही नहीं भारत अब कुछ प्रमुख यूरोपीय देशों, ब्रिटेन और अमेरिका के साथ अंतर्राष्ट्रीय निवेश समझौते (IIAs) करना चाहता है. लेकिन भारत को इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले निवेश को लेकर हुए विवाद के समाधान (ISDS) के उन 37 मामलों से सबक सीखना होगा, जिन्हें भारत ने चुनौती दी थी. भारत को ये सभी 37 नोटिस निवेशकों की तरफ से दिए गए थे. इसे लेकर भारत को स्पष्ट नीति बनानी होगी. ये ध्यान रखना होगा कि भविष्य में जो भी द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेश समझौते होते हैं, उनमें इन ‘सनसेट’ शर्तों का क्या असर होगा. भारत को इस बात लेकर भी सतर्क रहना होगा कि वो खत्म हो चुकी निवेश संधियों और समझौतों को लेकर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता व्यवस्था के प्रतिकूल प्रावधानों में ना फंस जाए. तभी ये तय हो पाएगा कि भविष्य में इन संधियों को लेकर भारत का दृष्टिकोण क्या होगा. 

भारत को इस बात लेकर भी सतर्क रहना होगा कि वो खत्म हो चुकी निवेश संधियों और समझौतों को लेकर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता व्यवस्था के प्रतिकूल प्रावधानों में ना फंस जाए. तभी ये तय हो पाएगा कि भविष्य में इन संधियों को लेकर भारत का दृष्टिकोण क्या होगा. 

भारत की निवेश संधि व्यवस्था का विकास और मौजूदा गतिरोध

1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारत ने 74 द्विपक्षीय निवेश संधियां की हैं. हालांकि भारत को कई बार निवेश संबंधी दावों का सामना भी करना पड़ा. इसमें सबसे अहम केस व्हाइट इंडस्ट्री का था. इस केस में आईएसडीएस मध्यस्थता व्यवस्था के तहत भारत को 1.07 मिलियन डॉलर का भुगतान करना पड़ा. 2011 से 2015 के बीच भारत ने सिर्फ सऊदी अरब अमीरत से द्विपक्षीय निवेश संधि की, जबकि आसियान के साथ अंतर्राष्ट्रीय निवेश समझौता हुआ. ये बदलाव तब हुआ जब 2015 में भारतीय बीआईटी मॉडल की शुरुआत हुई. इस मॉडल में मेज़बान देश की नियामक शक्तियों का पक्ष लिया गया है जबकि 2003 के बीआईटी मॉडल में निवेशकों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित था. 

2016 के बाद से सिर्फ 8 अंतर्राष्ट्रीय निवेश समझौतों ने ही भारत को चुनौती दी है जबकि इस दौरान भारत ने 77 संधियों को एकतरफा तौर पर खत्म किया. 68 देशों ने नए भारतीय बीआईटी मॉडल के तहत भारत से बातचीत की अधिसूचना जारी की है. हालांकि इस दौरान सिर्फ बेलारूस, ताइवान, किर्गिस्तान, ब्राज़ील और सऊदी अरब अमीरात के साथ ही निवेश संधि हुई है लेकिन भारत ने एक साझा बयान जारी कर कहा है कि वो बांग्लादेश और कोलंबिया के साथ भी ऐसी संधि करेगा जिससे इनके बीच जो अंतर है, उसे कम किया जा सके.

द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेश संधियों को लेकर भारत की इस सोच ने 37 देशों के साथ इसे लेकर हो रही बातचीत को लेकर कुछ चिंताएं पैदा की हैं.

द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेश संधियों को लेकर भारत की इस सोच ने 37 देशों के साथ इसे लेकर हो रही बातचीत को लेकर कुछ चिंताएं पैदा की हैं. उदाहरण के लिए यूरोपियन यूनियन के देश भारत के साथ बीआईटी/आईआईए पर बातचीत करने को लेकर खास उत्सुक नहीं दिख रहे हैं. यानी भारत और यूरोपियन यूनियन के बीच भले ही मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत शुरू हो गई है लेकिन जिस तरह भारत खत्म की गई द्विपक्षीय संधियों की जगह भारतीय बीआईटी मॉडल के तहत नई संधियां करना चाहता है, उसे लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है. बीआईटी के इस नए मॉडल ने बातचीत की प्रक्रिया को जटिल बना दिया है. इससे भारत की राह में अवरोध खड़े हो रहे हैं. विदेश मंत्रालय की संसदीय समिति ने भी इस बात को स्वीकार किया है.

 

सनसेट क्लॉज की किन बातों पर विवाद?

सनसेट शर्तों पर बात करने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि सनसेट क्लॉज किसे कहते हैं. दरअसल सनसेट क्लॉज ये गारंटी देते हैं कि किसी निवेश संधि के खत्म होने से पहले किए सभी निवेश एक निश्चित समय सीमा के दौरान सुरक्षित रहेंगे. सनसेट शर्तों की समय सीमा आम तौर पर 5 से 20 साल तक होती है, 2008 की जर्मन मॉडल बीआईटी में ये अवधि 20 साल है, जबकि 2021 के कनाडा मॉडल के बीआईटी में 15 साल. लेकिन हाल के दिनों में ये रुझान देखा गया है कि इस समय अवधि को कम किया जा रहा है. भारतीय मॉडल की बीआईटी में ये अवधि 5 साल है. भारत ने सनसेट क्लॉज को इस तरह परिभाषित किया है कि "संधि के प्रावधान इसके खत्म होने की तारीख से पहले किए गए निवेश के पांच साल बाद तक ही लागू रहेंगे”.

सवाल इस बात पर भी बना हुआ है कि अगर आपसी सहमति से निवेश संधि खत्म की जाती है तो फिर उस स्थिति में सनसेट क्लॉज की कितनी प्रासंगिकता रहती है.

सनसेट क्लॉज का ये "सर्वाइवल इफेक्ट" उस में स्थिति में निवेश को पर्याप्त सुरक्षा देता है जब मेज़बान देश एकतरफा तौर पर निवेश संधि को खत्म करने का एलान करता है. हालांकि निवेश संधियों पर कानून को लेकर हुए विएना सम्मेलन (VCLT) में भी इसे लेकर कुछ दिशा निर्देश हैं. वीसीएलटी के आर्टिकल 54 के मुताबिक आपसी सहमति से निवेश संधि को खत्म किया जा सकता है. आर्टिकल 59 के मुताबिक पुरानी संधि की जगह नई और बेहतर संधि लाई जा सकती है. आर्टिकल 70 (1) के मुताबिक संधि को खत्म करने से पहले से तय दायित्वों और अधिकारों पर कोई असर नहीं पड़ता, जब तक कि सारे पक्ष इस पर सहमत न हों या फिर वो आपसी सहमति से इस संधि की शर्तों को खारिज़ करने की मंजूरी नहीं दे देते. ये प्रावधान आईएसडीएस प्राधिकरणों को संधि से पहले के निवेश और संधि खत्म किए जाने के बाद के दोबारा निवेश की प्रासंगिकता की मनमानी व्याख्या करने के लिए गुंजाइश छोड़ता है. सवाल इस बात पर भी बना हुआ है कि अगर आपसी सहमति से निवेश संधि खत्म की जाती है तो फिर उस स्थिति में सनसेट क्लॉज की कितनी प्रासंगिकता रहती है. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सनसेट क्लॉस बनाने के पीछे की नीयत सही थी. इसकी वजह से नीतियों में अचानक बदलाव होने के बावजूद निवेशकों के हित सुरक्षित रहते हैं लेकिन इसे लेकर नीतियां स्पष्ट नहीं हैं. इसकी वजह से भारत के सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे यानी नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वालों का इस पर भरोसा नहीं बनेगा.

आईएसडीएस के साथ भारत के विवाद

निवेशकों के विवाद सुलझाने के लिए बने संगठन (ISDS) के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि बड़ी कंपनियां अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल करके इससे ऐसे फैसले करवा लेती हैं, जो मेज़बान देश पर बहुत ज्यादा बोझ डाल देता है. उदाहरण के लिए टेथियान कॉपर बनाम पाकिस्तान के मामले में ISDS ने पाकिस्तान से 5.9 अरब डॉलर का भुगतान करने को कहा, जो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के 2019 के बेलआउट पैकेज की रकम से भी ज्यादा था. ऐसे बड़े आर्थिक ज़ोखिमों के अलावा इस बात की भी आशंका बनी रहती है कि कहीं ये निवेशक विदेश में स्थिति भारतीय संपत्ति को ज़ब्त ना कर लें. वोडाफोन और केयर्न एनर्जी के मामले में ऐसा हो चुका है. 2021 में भारत सरकार को टैक्स कानूनों में बदलाव करना पड़ा था. इसके बाद ये स्पष्ट हुआ कि 28 मई 2012 के बाद की ही भारत में मौजूद परिसंपत्तियों पर टैक्स लगाया जा सकता है. यानी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स को खत्म करना पड़ा.

भारत का ये मानना है कि ISDS में मेज़बान देश की तुलना में निवेशकों के हक़ में ज्यादा फैसले होते हैं. 2017 के बाद से भारत सरकार को निवेश दावों को लेकर 24 नोटिस भेजे गए. इनमें से 8 मामले ISDS में गए. पांच पर फैसला होना है. एक केस बंद हो गया है जबकि 2 मामलों में निपटारा हो चुका है. निवेश निपटारा प्राधिकरणों पर भारत को कितना कम भरोसा है इसका एक सबूत तब भी मिला जब भारत ने इंटरनेशनल सेंटर फॉर सेटलमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट डिस्प्यूट्स (ICSID) के नियम-कानूनों पर मुहर लगाने से इनकार कर दिया. ICSID का मकसद ISDS के काम की प्रक्रिया को आसान बनाना था. भारत चाहता है कि दावों के विवाद का निपटारा उस तरह हो जैसा जापानी कंपनी निसान बनाम भारत के मामले में हुआ. निसान ने तमिलनाडु सरकार के साथ मिलकर ये विवाद निपटा लिया और अपनी याचिका वापस ले ली.

सनसेट क्लॉज में होता ये है कि निवेश संधि खत्म होने की स्थिति में दावों के निपटारे को लेकर किसी भी विवाद में ISDS की भूमिका अनिवार्य हो जाती है. यही वजह है कि भारत अब ISDS से दूर हो रहा है. 2022 में भारत और मॉरीशस के बीच जो समझौता हुआ उसमें सनसेट क्लॉज का प्रावधान नहीं है. 2020 में भारत और ब्राज़ील के बीच हुई निवेश संधि में भी ISDS की बजाए दोनों देशों में मध्यस्थता की बात कही गई है. इन सबसे ज़ाहिर है कि भारत अब ISDS से दूर जा रहा है. भारतीय मॉडल के बीआईटी में निवेश को लेकर किसी भी विवाद की स्थिति में समाधान के लिए पहले भारतीय कोर्ट और प्राधिकरणों में जाने की बात कही गई है. यहां समाधान नहीं होने पर ही अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में जाया जाएगा. 

निवेश संधि को लेकर भारत की सोच पर दुनिया का क्या रवैया?

द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेश संधियों को लेकर भारत ने पिछले पांच साल में जिस तरह सतर्कता वाली नीति अपनाई है, वो भारत की उस नीति से बहुत अलग है, जो 1994 से 2011 के बीच हुए समझौतों में अपनाई गई थी. विदेश मंत्रालय ने संसदीय समिति के सामने इस नीति को ये कहकर जायज़ ठहराया कि अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में बहुत खर्चा आता है. साख का भी नुकसान होता है. इसमें राष्ट्रीय नीतियों के लिए बहुत जगह नहीं होती और इससे होने वाले फायदे इसके नुकसानों की तुलना में बहुत कम है. विदेश मंत्रालय ने ये भी कहा कि विदेशी निवेश सिर्फ द्विपक्षीय निवेश संधियों पर निर्भर नहीं करता. इसके बहुत से कारण होते हैं. 

विदेश मंत्रालय ने संसदीय समिति के सामने इस नीति को ये कहकर जायज़ ठहराया कि अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता में बहुत खर्चा आता है. साख का भी नुकसान होता है. इसमें राष्ट्रीय नीतियों के लिए बहुत जगह नहीं होती और इससे होने वाले फायदे इसके नुकसानों की तुलना में बहुत कम है.

कई देशों ने भारत की इस नीति का समर्थन किया. इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका ने भी कई द्विपक्षीय निवेश संधियों को एकतरफा तौर पर खत्म करने का ऐलान किया, जबकि इनमें से कई संधियों में सनसेट क्लॉज भी थे. दक्षिण अफ्रीका ने तो विवादों के निपटारे के लिए कई घरेलू नीतियों बनाईं. 2020 में यूरोपीय देशों ने कहा कि उनके यहां भी इस तरह की 130 संधियां खत्म की गई हैं.

इस सबके बावजूद ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए द्विपक्षीय निवेश संधियां आज भी सबसे प्रभावी साधन हैं, खासकर ग्लोबल साउथ के देशों में. इससे विदेशी निवेशकों में ये संदेश जाता है कि मेज़बान देशों में निवेश को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय कानून लागू होंगे. उनका निवेश सुरक्षित रहेगा. विदेशों में भारत की तरफ से जो निवेश होता है, उसे सुरक्षित रखने में भी इससे मदद मिलती है. लेकिन इसके साथ ही ये भी एक तथ्य है कि सनसेट क्लॉज की वजह से दावों के विवाद के मामले बढ़ते जाएंगे. 

आगे बढ़ने का रास्ता क्या?

नीतियों की समीक्षा करते रहना ज़रूरी है. हाल ही में जो मुक्त व्यापार समझौते हुए हैं उनमें सनसेट क्लॉज के प्रावधान या फिर ISDS की भूमिका नहीं है. 2022 में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए व्यापार समझौते में एक ऐसा बीच का रास्ता खोजने की कोशिश हुई है, जहां ISDS की सकारात्मक भूमिका हो और सर्वाइवल अवधि भी कम हो. 

अगर भारत 15 साल के सनसेट पीरियड को खत्म करना चाहता है तो उसे नए द्विपक्षीय निवेश संधियों पर बातचीत करनी चाहिए. इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं. इंडोनेशिया ने सनसेट क्लॉज और सर्वाइवल इफेक्ट के साथ-साथ कई द्विपक्षीय निवेश संधियां खत्म की हैं. भारत में आपसी सहमति बनाकर ऐसा कर सकता है. इससे पांच साल के नए सनसेट पीरियड के बाद नए निवेश दावों का ज़ोखिम कम होगा. अगर भारत अपने यहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाना चाहता है तो उसकी नीतियों में स्पष्टता होनी ज़रूरी है. इससे द्विपक्षीय रिश्ते तो मजबूत होंगे ही साथ ही निवेश के अंतरराष्ट्रीय कानूनों को झंझट से भी मुक्ति मिलेगी. 

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